फ़ारूक़ी वंश: Difference between revisions

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[[ख़ानदेश]] में 1388 ई. में सुल्तान [[फ़िरोज़शाह तुग़लक़]] (1351-88) के निजी सेवक 'मलिक अहमद राज़ा फ़ारूक़ी' ने '''फ़ारूक़ी वंश''' की नींव रखी थी। सुल्तान फ़ीरोज़शाह तुग़लक़ ने प्रांत के प्रशासन का भार उसे सौंपा था। मलिक अहमद राज़ा फ़ारूक़ी ने ग्यारह वर्षों (1388-99) तक शासन किया। बाद को उसका पुत्र 'नासिर ख़ान फ़ारूक़ी प्रथम' (1399-1438) उत्तराधिकारी बना। उसने [[हिन्दू]] राजा को परास्त कर [[असीरगढ़]] क़िले पर क़ब्ज़ा किया, लेकिन पड़ोस में स्थित [[गुजरात]] के मुस्लिम बादशाह और [[बहमनी वंश|बहमनी]] सुल्तान अलाउद्दीन अहमद ने नासिर ख़ान फ़ारूक़ी को हराकर उसकी पुत्री से विवाह कर लिया। इस वंश के तीसरे बादशाह 'आदिल ख़ान फ़ारूक़ी प्रथम' ने (1438-41) और चौथे बादशाह मुबारक ख़ान फ़ारूक़ी प्रथम (1441-57) के शासनकाल में कोई भी उल्लेखनीय घटना नहीं घटी। किन्तु पाँचवाँ बादशाह 'आदिल ख़ान फ़ारूक़ी द्वितीय' (1457-1501) एक योग्य और शक्तिशाली शासक था। इसने [[गोंडवाना]] पर अपनी प्रभुसत्ता क़ायम की। आदिल ख़ान फ़ारूक़ी द्वितीय के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए गद्दी उसके भाई 'दाऊद ख़ान' (1501-08) को मिली। दाऊद के पुत्र और उत्तराधिकारी 'ग़ज़नी ख़ान' (1508 ई.) को गद्दी पर बैठने के दस दिनों के अन्दर ही ज़हर देकर मार डाला गया। इसके बाद फ़ारूक़ी वंश गृहयुद्ध का शिकार बन गया, जिसे [[अहमदनगर]] और गुजरात के सुल्तानों ने और भड़काया। इस आंतरिक संघर्ष ने फ़ारूक़ी वंश को अत्यधिक कमज़ोर कर दिया और उसके अन्तिम शासक 'बहादुर ख़ान' (1597-1600 ई.) ने 1600 में [[मुग़ल]] सम्राट [[अकबर]] के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। इस वंश के शासकों ने अपनी राजधानी [[बुरहानपुर]] तथा थालनेर नगर को सुन्दर मस्ज़िदों और मकबरों का निर्माण करके सुसज्जित किया था। बुरहानपुर में [[ताप्ती नदी]] पर निर्मित उनके राजप्रासाद के ध्वंसावशेष स्थापत्य कला के प्रति उनके प्रेम और कलापूर्ण रुचि के प्रतीक हैं।
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*नासिर ख़ान फ़ारूक़ी ने [[हिन्दू]] राजा को परास्त कर [[असीरगढ़]] क़िले पर क़ब्ज़ा किया, लेकिन पड़ोस में स्थित [[गुजरात]] के मुस्लिम बादशाह और [[बहमनी वंश|बहमनी]] सुल्तान अलाउद्दीन अहमद ने नासिर ख़ान फ़ारूक़ी को हराकर उसकी पुत्री से [[विवाह]] कर लिया।
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*फ़ारूक़ी वंश के तीसरे बादशाह आदिल ख़ान फ़ारूक़ी प्रथम (1438-1441 ई.) और चौथे बादशाह मुबारक ख़ान फ़ारूक़ी प्रथम (1441-1457 ई.) के शासन काल में कोई भी उल्लेखनीय घटना नहीं घटी। किन्तु पाँचवाँ बादशाह आदिल ख़ान फ़ारूक़ी द्वितीय (1457-1501 ई.) एक योग्य और शक्तिशाली शासक सिद्ध हुआ।
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*आदिल ख़ान फ़ारूक़ी द्वितीय ने [[गोंडवाना]] पर अपनी प्रभुसत्ता क़ायम की। इसके कोई पुत्र नहीं था, इसीलिए गद्दी उसके भाई दाऊद ख़ान (1501-1508 ई.) को मिली।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==

Latest revision as of 10:14, 11 August 2014

फ़ारूक़ी वंश की नींव ख़ानदेश में 1388 ई. में 'मलिक अहमद रज़ा फ़ारूक़ी' द्वारा रखी गई थी, जो सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक़ का निजी सेवक था। फ़िरोज़शाह तुग़लक़ ने प्रांत के प्रशासन का भार अपने सेवक मलिक अहमद रज़ा फ़ारूक़ी को सौंप दिया था। मलिक अहमद रज़ा फ़ारूक़ी ने ग्यारह वर्षों (1388-1399 ई.) तक शासन किया। बाद को उसका पुत्र नासिर ख़ान फ़ारूक़ी प्रथम (1399-1438 ई.) उत्तराधिकारी बना।[1]

  • नासिर ख़ान फ़ारूक़ी ने हिन्दू राजा को परास्त कर असीरगढ़ क़िले पर क़ब्ज़ा किया, लेकिन पड़ोस में स्थित गुजरात के मुस्लिम बादशाह और बहमनी सुल्तान अलाउद्दीन अहमद ने नासिर ख़ान फ़ारूक़ी को हराकर उसकी पुत्री से विवाह कर लिया।
  • फ़ारूक़ी वंश के तीसरे बादशाह आदिल ख़ान फ़ारूक़ी प्रथम (1438-1441 ई.) और चौथे बादशाह मुबारक ख़ान फ़ारूक़ी प्रथम (1441-1457 ई.) के शासन काल में कोई भी उल्लेखनीय घटना नहीं घटी। किन्तु पाँचवाँ बादशाह आदिल ख़ान फ़ारूक़ी द्वितीय (1457-1501 ई.) एक योग्य और शक्तिशाली शासक सिद्ध हुआ।
  • आदिल ख़ान फ़ारूक़ी द्वितीय ने गोंडवाना पर अपनी प्रभुसत्ता क़ायम की। इसके कोई पुत्र नहीं था, इसीलिए गद्दी उसके भाई दाऊद ख़ान (1501-1508 ई.) को मिली।
  • दाऊद के पुत्र और उत्तराधिकारी ग़ज़नी ख़ान (1508 ई.) को गद्दी पर बैठने के दस दिनों के अन्दर ही ज़हर देकर मार डाला गया। इसके बाद फ़ारूक़ी वंश गृहयुद्ध का शिकार बन गया, जिसे अहमदनगर और गुजरात के सुल्तानों ने और भड़काया।
  • आंतरिक संघर्ष ने फ़ारूक़ी वंश को अत्यधिक कमज़ोर कर दिया और उसके अन्तिम शासक बहादुर ख़ान (1597-1600 ई.) ने 1600 में मुग़ल बादशाह अकबर के आगे आत्म समर्पण कर दिया।
  • फ़ारूक़ी वंश के शासकों ने अपनी राजधानी बुरहानपुर तथा थालनेर नगर को सुन्दर मस्ज़िदों और मक़बरों का निर्माण करके सुसज्जित किया था। बुरहानपुर में ताप्ती नदी पर निर्मित उनके राजप्रासाद के ध्वंसावशेष स्थापत्य कला के प्रति उनके प्रेम और कलापूर्ण रुचि के प्रतीक हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 255।

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