शत्रुघ्न: Difference between revisions

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Revision as of 07:46, 27 May 2010

चरित्र

श्री शत्रुघ्न जी का चरित्र अत्यन्त विलक्षण है। ये मौन सेवाव्रती हैं। बचपन से श्री भरत जी का अनुगमन तथा सेवा ही इनका मुख्य व्रत था। ये मितभाषी, सदाचारी, सत्यवादी, विषय-विरागी तथा भगवान श्री राम के दासानुदास हैं। जिस प्रकार श्री लक्ष्मण जी हाथ में धनुष लेकर श्री राम की रक्षा करते हुए उनके पीछे चलते थे, उसी प्रकार श्री शत्रुघ्न जी भी श्री भरत जी के साथ रहते थे। जब श्री भरत जी के मामा युधाजित श्री भरत जी को अपने साथ ले जा रहे थे, तब श्री शत्रुघ्न जी भी उनके साथ ननिहाल चले गये। इन्होंने माता-पिता, भाई, नवविवाहिता पत्नी सबका मोह छोड़कर श्री भरत जी के साथ रहना और उनकी सेवा करना ही अपना कर्तव्य मान लिया था। भरत जी के साथ ननिहाल से लौटने पर पिता के मरण और लक्ष्मण, सीता सहित श्री राम के वनवास का समाचार सुनकर इनका हृदय दु:ख और शोक से व्याकुल हो गया। उसी समय इन्हें सूचना मिली कि जिस क्रूरा पापिनी के षड्यन्त्र से श्री राम का वनवास हुआ, वह वस्त्राभूषणों से सज-धजकर खड़ी है, तब ये क्रोध से व्याकुल हो गये। ये मन्थरा की चोटी पकड़कर उसे आँगन में घसीटने लगे। इनके लात के प्रहार से उसका कूबर टूट गया और सिर फट गया उसकी दशा देखकर श्री भरत जी को दया आ गयी और उन्होंने उसे छुड़ा दिया। इस घटना से श्री शत्रुघ्न जी की श्री राम के प्रति दृढ़ निष्ठा और भक्ति का परिचय मिलता है।


चित्रकूट से श्री राम को पादुकाएँ लेकर लौटते समय जब श्री शत्रुघ्न जी श्री राम से मिले, तब इनके तेज स्वभाव को जानकर भगवान श्री राम ने कहा- 'शत्रुघ्न! तुम्हें मेरी और सीता की शपथ है, तुम माता कैकेयी की सेवा करना, उन पर कभी भी क्रोध मत करना'।


श्री शत्रुघ्न जी का शौर्य भी अनुपम था। सीता-वनवास के बाद एक दिन ऋषियों ने भगवान श्री राम की सभा में उपस्थित होकर लवणासुर के अत्याचारों का वर्णन किया और उसका वध करके उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। श्री शत्रुघ्न जी ने भगवान श्री राम की आज्ञा से वहाँ जाकर प्रबल पराक्रमी लवणासुर का वध किया और मधुरापुरी बसाकर वहाँ बहुत दिनों तक शासन किया। भगवान श्री राम के परमधाम पधारने के समय मथुरा में अपने पुत्रों का राज्यभिषेक करके श्री शत्रुघ्न जी अयोध्या पहुँचे। श्री राम के पास आकर और उनके चरणों में प्रणाम करके इन्होंने विनीत भाव से कहा- 'भगवन! मैं अपने दोनों पुत्रों को राज्यभिषेक करके आपके साथ चलने का निश्चय करके ही यहाँ आया हूँ। आप अब मुझे कोई दूसरी आज्ञा न देकर अपने साथ चलने की अनुमति प्रदान करें।' भगवान श्री राम ने शत्रुघ्न जी की प्रार्थना स्वीकार की और वे श्री रामचन्द्र के साथ ही साकेत पधारे।