कनफटा: Difference between revisions
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कनफटा योगियों का एक वर्ग है, जिसका सम्बंध 'गोरख सम्प्रदाय' से है। क्योंकि इस सम्प्रदाय के लोग कान छिदवाकर उसमें मुद्रा या कुंडल धारण करते हैं, इसीलिए इन्हें 'कनफटा' कहा जाता है। कनफटे योगियों में विधवा स्त्रियाँ तथा योगियों की पत्नियाँ भी कुंडल धारण करती देखी जाती हैं।[1]
अनुयायी
इन योगियों द्वारा धारण की जाने वाली मुद्रा अथवा कुंडल को 'दर्शन' और 'पवित्री' भी कहते हैं। इसी आधार पर कनफटा योगियों को 'दरसनी साधु' भी कहा जाता है। नाथयोगी संप्रदाय में ऐसे योगी, जो कान नहीं छिदवाते और कुंडल नहीं धारण करते, वे 'औघड़' कहलाते हैं। औघड़ 'जालंधरनाथ' के और कनफटे 'मत्स्येंद्रनाथ' तथा 'गोरखनाथ' के अनुयायी माने जाते हैं। क्योंकि प्रसिद्ध है कि जालंधरनाथ औघड़ थे और मत्स्येंद्रनाथ एवं गोरखनाथ कनफटे।
कर्णकुंडल धारण की प्रथा
कनफटे योगियों में विधवा स्त्रियाँ तथा योगियों की पत्नियाँ भी कुंडल धारण करती देखी जाती हैं। यह क्रिया प्राय: किसी शुभ दिन अथवा अधिकतर 'वसंत पंचमी' के दिन संपन्न की जाती है और इसमें मंत्रों का प्रयोग भी होता है। कान चिरवाकर मुद्रा धारण करने की प्रथा के प्रवर्तन के संबंध में दो मत मिलते हैं। एक मत के अनुसार इसका प्रवर्तन मत्स्येंद्रनाथ ने और दूसरे मत के अनुसार गोरक्षनाथ ने किया था। कर्णकुंडल धारण करने की प्रथा के आरंभ की खोज करते हुए विद्वानों ने एलोरा गुफ़ा की मूर्ति, सालीसेटी, एलीफैंटा, अर्काट ज़िले के परशुरामेश्वर के शिवलिंग पर स्थापित मूर्ति आदि अनेक पुरातात्विक सामग्रियों की परीक्षा कर निष्कर्ष निकाला है कि मत्स्येंद्र और गोरक्ष के पूर्व भी कर्णकुंडल धारण करने की प्रथा थी और केवल शिव की ही मूर्तियों में यह बात पाई जाती है।[1]
मठ तथा तीर्थ स्थल
यह माना जाता है कि गोरक्षनाथ ने (शंकराचार्य द्वारा संगठित शैव संन्यासियों से) अवशिष्ट शैवों का 12 पंथों में संगठन किया था, जिनमें गोरखनाथी प्रमुख हैं। इन्हें ही 'कनफटा' कहा जाता है। एक मत यह भी मिलता है कि गोरखनाथी लोग गोरक्षनाथ को संप्रदाय का प्रतिष्ठाता मानते हैं, जबकि कनफटे उन्हें पुनर्गठनकर्ता कहते हैं। इन लोगों के मठ, तीर्थस्थानादि बंगाल, सिक्किम, नेपाल, कश्मीर, पंजाब (पेशावर और लाहौर), सिंध, काठियावाड़, मुम्बई, राजस्थान, उड़ीसा आदि प्रदेशों में पाए जाते हैं।
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