मारीच: Difference between revisions

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राम के वनवास के दिनों में मारीच ने [[सीता]] को लुभाने के लिए वनवास इन्द्रधनुषी रंग में एक अनुपम सुंदर मृग का रूप धारण कर लिया। उसके शरीर पर रुपहले बिंदु दिखलायी पड़ रहे थे। उसके सींग मणि के थे। उस सुनहरे-रुपहले मृग को देखकर सीता अत्यंत चमत्कृत हुई। उन्होंने राम से अनुरोध किया कि वे मृग पकड़कर ला दें। लक्ष्मण ने कहा—'मुझे लगता है, यह कोई मायावी मृग है या मारीच है क्योंकि मारीच ने इस प्रकार से कई बार लोगों को ठगा है।' पर सीता नहीं मानीं। वे मृग को जीवित पकड़वाना चाहती थीं और वनवास की अवधि के बाद [[अयोध्या]] भी ले जाना चाहती थीं। राम ने लक्ष्मण से सीता का ध्यान रखने के लिए कहा और स्वंय मृग का पीछा किया। वह कभी छुपता, कभी दीखता, अंत में राम ने [[ब्रह्मा]] द्वारा निर्मित बाण छोड़ा, जिसके लगने से वह हिरण मारा गया तथा उसका मायावी रूप नष्ट हो गया। मारीच ने मरने से पुर्व जोर से पुकारा— 'हा लक्ष्मण! हा सीते!' सीता ने आवाज सुनी तो व्याकुल होकर लक्ष्मण को उधर जाने के लिए कहा। लक्ष्मण के यह कहने पर कि यह राम की आवाज नहीं है, सीता ने यहाँ तक भी कहा— 'तू राम का नाश होने पर मुझे अपनी भार्या बनाना चाहता है, इसीलिए [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]] ने तुझे अकेले हमारे साथ भेजा है।' लक्ष्मण को जाना पड़ा। उसके जाते ही [[रावण]] संन्यासी वेश में सीता के पास पहुंचा। सीता ने उसे ब्राह्मण जानकर सत्कार किया। रावण ने सीता से उसका परिचय प्राप्त किया तथा अपना परिचय देकर उसे पटरानी बनाने की इच्छा प्रकट की। सीता बहुत क्रुद्ध हुई। सीता के अमित विरोध करने पर भी रावण ने जबरदस्ती उसे गोद में उठाकर अपने विमान बैठाया और [[लंका]] की ओर उड़ चला। मार्ग में [[जटायु]] ने सीता को बचाने का प्रयास किया। उसने रावण का रथ, सारथी इत्यादि को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। रावण भी घायल हुआ किंतु रावण ने उसके पंख और पैर काट डाले और उसे तड़पता हुआ छोड़कर आगे बढ़ा। सीता के विरोध करने पर रावण ने उसके बाल पकड़कर खींचे और गोद में उठाकर लंका की ओर उड़ चला। बिलखती हुई सीता ने मार्ग पांच वानरों को बैठा देखा। उसने अपनी ओढ़नी में कुछ मांगलिक आभूषण बांधकर उनकी ओर फेंक दिये कि शायद वे ही राम तक उसका समाचार पहुंचा दें। रावण सीता को लेकर लंका पहुंचा। उसने एक वर्ष के लिए सीता को [[अशोक वाटिका]] में राक्षसियों के निरीक्षण में रख दिया, जिससे वह राम को भुलाकर रावण से विवाह करने के लिए तैयार हो जाये। <ref>वाल्मीकि रामायण, बाल अरण्य कांड, सर्ग 42 से 56</ref>
राम के वनवास के दिनों में मारीच ने [[सीता]] को लुभाने के लिए वनवास इन्द्रधनुषी रंग में एक अनुपम सुंदर मृग का रूप धारण कर लिया। उसके शरीर पर रुपहले बिंदु दिखलायी पड़ रहे थे। उसके सींग मणि के थे। उस सुनहरे-रुपहले मृग को देखकर सीता अत्यंत चमत्कृत हुई। उन्होंने राम से अनुरोध किया कि वे मृग पकड़कर ला दें। लक्ष्मण ने कहा—'मुझे लगता है, यह कोई मायावी मृग है या मारीच है क्योंकि मारीच ने इस प्रकार से कई बार लोगों को ठगा है।' पर सीता नहीं मानीं। वे मृग को जीवित पकड़वाना चाहती थीं और वनवास की अवधि के बाद [[अयोध्या]] भी ले जाना चाहती थीं। राम ने लक्ष्मण से सीता का ध्यान रखने के लिए कहा और स्वंय मृग का पीछा किया। वह कभी छुपता, कभी दीखता, अंत में राम ने [[ब्रह्मा]] द्वारा निर्मित बाण छोड़ा, जिसके लगने से वह हिरण मारा गया तथा उसका मायावी रूप नष्ट हो गया। मारीच ने मरने से पुर्व जोर से पुकारा— 'हा लक्ष्मण! हा सीते!' सीता ने आवाज सुनी तो व्याकुल होकर लक्ष्मण को उधर जाने के लिए कहा। लक्ष्मण के यह कहने पर कि यह राम की आवाज नहीं है, सीता ने यहाँ तक भी कहा— 'तू राम का नाश होने पर मुझे अपनी भार्या बनाना चाहता है, इसीलिए [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]] ने तुझे अकेले हमारे साथ भेजा है।' लक्ष्मण को जाना पड़ा। उसके जाते ही [[रावण]] संन्यासी वेश में सीता के पास पहुंचा। सीता ने उसे ब्राह्मण जानकर सत्कार किया। रावण ने सीता से उसका परिचय प्राप्त किया तथा अपना परिचय देकर उसे पटरानी बनाने की इच्छा प्रकट की। सीता बहुत क्रुद्ध हुई। सीता के अमित विरोध करने पर भी रावण ने जबरदस्ती उसे गोद में उठाकर अपने विमान बैठाया और [[लंका]] की ओर उड़ चला। मार्ग में [[जटायु]] ने सीता को बचाने का प्रयास किया। उसने रावण का रथ, सारथी इत्यादि को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। रावण भी घायल हुआ किंतु रावण ने उसके पंख और पैर काट डाले और उसे तड़पता हुआ छोड़कर आगे बढ़ा। सीता के विरोध करने पर रावण ने उसके बाल पकड़कर खींचे और गोद में उठाकर लंका की ओर उड़ चला। बिलखती हुई सीता ने मार्ग पांच वानरों को बैठा देखा। उसने अपनी ओढ़नी में कुछ मांगलिक आभूषण बांधकर उनकी ओर फेंक दिये कि शायद वे ही राम तक उसका समाचार पहुंचा दें। रावण सीता को लेकर लंका पहुंचा। उसने एक वर्ष के लिए सीता को [[अशोक वाटिका]] में राक्षसियों के निरीक्षण में रख दिया, जिससे वह राम को भुलाकर रावण से विवाह करने के लिए तैयार हो जाये। <ref>वाल्मीकि रामायण, बाल अरण्य कांड, सर्ग 42 से 56</ref>


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Revision as of 05:41, 31 July 2010

  • यह लंका के राजा रावण का मामा, सुण्ड एवं ताड़का का पुत्र था।
  • सुबाहु का भाई था।
  • सुबाहु-वध के अवसर पर राम ने उसे अपने बाण से लंका पहुँचा दिया था। सीता-हरण के अवसर पर रावण ने मारीच की मायावी बुद्धि की सहायता ली।
  • मारीच कंचन का मृग बनकर सीता-हरण का कारण बना।
  • इसी अवसर पर राम ने उसे अपने बाण से मारा था।
  • राम-रावण युद्ध का सामान्यत: यह भी एक कारण समझा जाता है।
  • 'तेहि बन निकट दसानन गयऊ। तब मारीच कपट मृग भयऊ' ('रामचरितमानस')

मारीच वाल्मीकि रामायण में

एक बार अयोध्या में गाधि-पुत्र मुनिवर विश्वामित्र पधारे। उमका सुचारू आतिध्य कर दशरथ ने अपेक्षित आज्ञा जानने की उन्होंने एक व्रत की दीक्षा ली है। इससे पूर्व भी वे अनेक व्रतो की दीक्षा लेते रहे किंतु समाप्ति के अवसर पर उनकी यज्ञवेदी पर रुधिर , मांस इत्यादि फेंककर मारीच और सुबाहु नामक दो राक्षस विघ्न उत्पन्न करते है। व्रत के, नियमानुसार वे किसी को शाप नहीं दे सकते, अतः उनका नाश करने के लिए वे दशरथी राम को साथ ले जाना चाहते है। राम की आयु पंद्रह वर्ष थी। दशरथ के शंका करने पर के वह अभी बालक ही है, विश्वामित्र ने उन्हें सुरक्षित रखने का आश्वासन दिया तथा राम और लक्ष्मण को साथ ले गये। मार्ग में उन्होंने राम को ‘बला-अतिचला’ नामक दो विद्याएं सिखायीं, जिमसे भूख, प्यास, थकान, रोग का अनुभव तथा असावधानता में शत्रु का वार इत्यादि नहीं हो पाता। [1]

यज्ञ की निविघ्नता

यज्ञ की निविघ्नता के लिए राम और लक्ष्मण ने छः दिन तक रात-दिन पहरा देने का निश्चय किया। विश्वामित्र का यज्ञ सिद्धाश्रम में चल रहा था। पांच दिन और रात बीतने के उपरांत अचानक उन्होंने देखा कि यज्ञ वेदी पर सब ओर से आग जलने लगी है— पुरोहित भी जलने लगा है और रुधिर की वर्षा हो रही है। आकाश में मारीच और सुबाहु को देख राम-लक्ष्मण ने युद्ध आरंभ किया। मारीच के अतिरिक्त सभी राक्षस तथा उनके साथियों को मार डाला तथा राम ने मारीच को मानवास्त्र के द्वारा उड़ाकर सौ योजन दूर एक समुन्द्र में फेंक दिया, जहां वह छाती पर लगे मानवास्त्र के कारण बेहोश होकर जा गिरा। लक्ष्मण ने आग्नेय शास्त्र से सुबाहु को घायल कर दिया तथा वायव्य अस्त्र से शेष राक्षसों को उड़ा दिया। [2]

राम वनवास में मारीच

राम के वनवास के दिनों में मारीच ने सीता को लुभाने के लिए वनवास इन्द्रधनुषी रंग में एक अनुपम सुंदर मृग का रूप धारण कर लिया। उसके शरीर पर रुपहले बिंदु दिखलायी पड़ रहे थे। उसके सींग मणि के थे। उस सुनहरे-रुपहले मृग को देखकर सीता अत्यंत चमत्कृत हुई। उन्होंने राम से अनुरोध किया कि वे मृग पकड़कर ला दें। लक्ष्मण ने कहा—'मुझे लगता है, यह कोई मायावी मृग है या मारीच है क्योंकि मारीच ने इस प्रकार से कई बार लोगों को ठगा है।' पर सीता नहीं मानीं। वे मृग को जीवित पकड़वाना चाहती थीं और वनवास की अवधि के बाद अयोध्या भी ले जाना चाहती थीं। राम ने लक्ष्मण से सीता का ध्यान रखने के लिए कहा और स्वंय मृग का पीछा किया। वह कभी छुपता, कभी दीखता, अंत में राम ने ब्रह्मा द्वारा निर्मित बाण छोड़ा, जिसके लगने से वह हिरण मारा गया तथा उसका मायावी रूप नष्ट हो गया। मारीच ने मरने से पुर्व जोर से पुकारा— 'हा लक्ष्मण! हा सीते!' सीता ने आवाज सुनी तो व्याकुल होकर लक्ष्मण को उधर जाने के लिए कहा। लक्ष्मण के यह कहने पर कि यह राम की आवाज नहीं है, सीता ने यहाँ तक भी कहा— 'तू राम का नाश होने पर मुझे अपनी भार्या बनाना चाहता है, इसीलिए भरत ने तुझे अकेले हमारे साथ भेजा है।' लक्ष्मण को जाना पड़ा। उसके जाते ही रावण संन्यासी वेश में सीता के पास पहुंचा। सीता ने उसे ब्राह्मण जानकर सत्कार किया। रावण ने सीता से उसका परिचय प्राप्त किया तथा अपना परिचय देकर उसे पटरानी बनाने की इच्छा प्रकट की। सीता बहुत क्रुद्ध हुई। सीता के अमित विरोध करने पर भी रावण ने जबरदस्ती उसे गोद में उठाकर अपने विमान बैठाया और लंका की ओर उड़ चला। मार्ग में जटायु ने सीता को बचाने का प्रयास किया। उसने रावण का रथ, सारथी इत्यादि को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। रावण भी घायल हुआ किंतु रावण ने उसके पंख और पैर काट डाले और उसे तड़पता हुआ छोड़कर आगे बढ़ा। सीता के विरोध करने पर रावण ने उसके बाल पकड़कर खींचे और गोद में उठाकर लंका की ओर उड़ चला। बिलखती हुई सीता ने मार्ग पांच वानरों को बैठा देखा। उसने अपनी ओढ़नी में कुछ मांगलिक आभूषण बांधकर उनकी ओर फेंक दिये कि शायद वे ही राम तक उसका समाचार पहुंचा दें। रावण सीता को लेकर लंका पहुंचा। उसने एक वर्ष के लिए सीता को अशोक वाटिका में राक्षसियों के निरीक्षण में रख दिया, जिससे वह राम को भुलाकर रावण से विवाह करने के लिए तैयार हो जाये। [3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वाल्मीकि रामायण, बाल कांड, सर्ग 18, 36-53, सर्ग, 19 से 22 तक, वाल्मीकि रामायण, बाल कांड, सर्ग 40, श्लोक 1-30,वाल्मीकि रामायण, बाल अरण्य कांड, सर्ग 38, श्लोक 1-22
  2. वाल्मीकि रामायण, बाल कांड, सर्ग 29,30,
  3. वाल्मीकि रामायण, बाल अरण्य कांड, सर्ग 42 से 56