शत्रुघ्न: Difference between revisions

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*कौशल्या से [[राम]] , कैकई से [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]] और सुमित्रा से [[लक्ष्मण]] एवं शत्रुघ्न पुत्र थे।  
*कौशल्या से [[राम]] , कैकई से [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]] और सुमित्रा से [[लक्ष्मण]] एवं शत्रुघ्न पुत्र थे।  
*शत्रुघ्न ने मधुपुरी [[मथुरा]] के शासक [[लवणासुर|लवण]] को मार कर [[मथुरा|मधुपुरी]] को फिर से बसाया। शत्रुघ्न कम से कम बारह वर्ष तक मथुरा नगरी एवं प्रदेश के शासक रहे।
*शत्रुघ्न ने मधुपुरी [[मथुरा]] के शासक [[लवणासुर|लवण]] को मार कर [[मथुरा|मधुपुरी]] को फिर से बसाया। शत्रुघ्न कम से कम बारह वर्ष तक मथुरा नगरी एवं प्रदेश के शासक रहे।
 
[[चित्र:Ramlila-Mathura-13.jpg|250px|thumb|[[राम]], [[लक्ष्मण]], [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]] और शत्रुघ्न के वेश में रामलीला कलाकार, [[मथुरा]]]]
==चरित्र==
==चरित्र==
श्री शत्रुघ्न जी का चरित्र अत्यन्त विलक्षण है। ये मौन सेवाव्रती हैं। बचपन से श्री [[भरत]] जी का अनुगमन तथा सेवा ही इनका मुख्य व्रत था। ये मितभाषी, सदाचारी, सत्यवादी, विषय-विरागी तथा भगवान श्री [[राम]] के दासानुदास हैं। जिस प्रकार श्री [[लक्ष्मण]] जी हाथ में धनुष लेकर श्री राम की रक्षा करते हुए उनके पीछे चलते थे, उसी प्रकार श्री शत्रुघ्न जी भी श्री भरत जी के साथ रहते थे।
श्री शत्रुघ्न जी का चरित्र अत्यन्त विलक्षण है। ये मौन सेवाव्रती हैं। बचपन से श्री [[भरत]] जी का अनुगमन तथा सेवा ही इनका मुख्य व्रत था। ये मितभाषी, सदाचारी, सत्यवादी, विषय-विरागी तथा भगवान श्री [[राम]] के दासानुदास हैं। जिस प्रकार श्री [[लक्ष्मण]] जी हाथ में धनुष लेकर श्री राम की रक्षा करते हुए उनके पीछे चलते थे, उसी प्रकार श्री शत्रुघ्न जी भी श्री भरत जी के साथ रहते थे।
जब श्री भरत जी के मामा युधाजित श्री भरत जी को अपने साथ ले जा रहे थे, तब श्री शत्रुघ्न जी भी उनके साथ ननिहाल चले गये। इन्होंने माता-पिता, भाई, नवविवाहिता पत्नी सबका मोह छोड़कर श्री भरत जी के साथ रहना और उनकी सेवा करना ही अपना कर्तव्य मान लिया था। भरत जी के साथ ननिहाल से लौटने पर पिता के मरण और लक्ष्मण, [[सीता]] सहित श्री राम के वनवास का समाचार सुनकर इनका हृदय दु:ख और शोक से व्याकुल हो गया। उसी समय इन्हें सूचना मिली कि जिस क्रूरा पापिनी के षड्यन्त्र से श्री राम का वनवास हुआ, वह वस्त्राभूषणों से सज-धजकर खड़ी है, तब ये क्रोध से व्याकुल हो गये। ये [[मन्थरा]] की चोटी पकड़कर उसे आँगन में घसीटने लगे। इनके लात के प्रहार से उसका कूबर टूट गया और सिर फट गया उसकी दशा देखकर श्री भरत जी को दया आ गयी और उन्होंने उसे छुड़ा दिया। इस घटना से श्री शत्रुघ्न जी की श्री राम के प्रति दृढ़ निष्ठा और भक्ति का परिचय मिलता है।
जब श्री भरत जी के मामा युधाजित श्री भरत जी को अपने साथ ले जा रहे थे, तब श्री शत्रुघ्न जी भी उनके साथ ननिहाल चले गये। इन्होंने माता-पिता, भाई, नवविवाहिता पत्नी सबका मोह छोड़कर श्री भरत जी के साथ रहना और उनकी सेवा करना ही अपना कर्तव्य मान लिया था। भरत जी के साथ ननिहाल से लौटने पर पिता के मरण और लक्ष्मण, [[सीता]] सहित श्री राम के वनवास का समाचार सुनकर इनका हृदय दु:ख और शोक से व्याकुल हो गया। उसी समय इन्हें सूचना मिली कि जिस क्रूरा पापिनी के षड्यन्त्र से श्री राम का वनवास हुआ, वह वस्त्राभूषणों से सज-धजकर खड़ी है, तब ये क्रोध से व्याकुल हो गये। ये [[मन्थरा]] की चोटी पकड़कर उसे आँगन में घसीटने लगे। इनके लात के प्रहार से उसका कूबर टूट गया और सिर फट गया उसकी दशा देखकर श्री भरत जी को दया आ गयी और उन्होंने उसे छुड़ा दिया। इस घटना से श्री शत्रुघ्न जी की श्री राम के प्रति दृढ़ निष्ठा और भक्ति का परिचय मिलता है।
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[[चित्रकूट]] से श्री राम को पादुकाएँ लेकर लौटते समय जब श्री शत्रुघ्न जी श्री राम से मिले, तब इनके तेज स्वभाव को जानकर भगवान श्री राम ने कहा- 'शत्रुघ्न! तुम्हें मेरी और सीता की शपथ है, तुम माता [[कैकेयी]] की सेवा करना, उन पर कभी भी क्रोध मत करना'।
[[चित्रकूट]] से श्री राम को पादुकाएँ लेकर लौटते समय जब श्री शत्रुघ्न जी श्री राम से मिले, तब इनके तेज स्वभाव को जानकर भगवान श्री राम ने कहा- 'शत्रुघ्न! तुम्हें मेरी और सीता की शपथ है, तुम माता [[कैकेयी]] की सेवा करना, उन पर कभी भी क्रोध मत करना'।
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श्री शत्रुघ्न जी का शौर्य भी अनुपम था। सीता-वनवास के बाद एक दिन ऋषियों ने भगवान श्री राम की सभा में उपस्थित होकर [[लवणासुर]] के अत्याचारों का वर्णन किया और उसका वध करके उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। श्री शत्रुघ्न जी ने भगवान श्री राम की आज्ञा से वहाँ जाकर प्रबल पराक्रमी लवणासुर का वध किया और [[मथुरा|मधुरापुरी]] बसाकर वहाँ बहुत दिनों तक शासन किया।  
श्री शत्रुघ्न जी का शौर्य भी अनुपम था। सीता-वनवास के बाद एक दिन ऋषियों ने भगवान श्री राम की सभा में उपस्थित होकर [[लवणासुर]] के अत्याचारों का वर्णन किया और उसका वध करके उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। श्री शत्रुघ्न जी ने भगवान श्री राम की आज्ञा से वहाँ जाकर प्रबल पराक्रमी लवणासुर का वध किया और [[मथुरा|मधुरापुरी]] बसाकर वहाँ बहुत दिनों तक शासन किया।  
भगवान श्री राम के परमधाम पधारने के समय [[मथुरा]] में अपने पुत्रों का राज्यभिषेक करके श्री शत्रुघ्न जी [[अयोध्या]] पहुँचे। श्री राम के पास आकर और उनके चरणों में प्रणाम करके इन्होंने विनीत भाव से कहा- 'भगवन! मैं अपने दोनों पुत्रों को राज्यभिषेक करके आपके साथ चलने का निश्चय करके ही यहाँ आया हूँ। आप अब मुझे कोई दूसरी आज्ञा न देकर अपने साथ चलने की अनुमति प्रदान करें।' भगवान श्री राम ने शत्रुघ्न जी की प्रार्थना स्वीकार की और वे श्री रामचन्द्र के साथ ही [[साकेत]] पधारे।  
भगवान श्री राम के परमधाम पधारने के समय [[मथुरा]] में अपने पुत्रों का राज्यभिषेक करके श्री शत्रुघ्न जी [[अयोध्या]] पहुँचे। श्री राम के पास आकर और उनके चरणों में प्रणाम करके इन्होंने विनीत भाव से कहा- 'भगवन! मैं अपने दोनों पुत्रों को राज्यभिषेक करके आपके साथ चलने का निश्चय करके ही यहाँ आया हूँ। आप अब मुझे कोई दूसरी आज्ञा न देकर अपने साथ चलने की अनुमति प्रदान करें।' भगवान श्री राम ने शत्रुघ्न जी की प्रार्थना स्वीकार की और वे श्री रामचन्द्र के साथ ही [[साकेत]] पधारे।  

Revision as of 09:48, 3 August 2010

[[चित्र:Ramlila-Mathura-13.jpg|250px|thumb|राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के वेश में रामलीला कलाकार, मथुरा]]

चरित्र

श्री शत्रुघ्न जी का चरित्र अत्यन्त विलक्षण है। ये मौन सेवाव्रती हैं। बचपन से श्री भरत जी का अनुगमन तथा सेवा ही इनका मुख्य व्रत था। ये मितभाषी, सदाचारी, सत्यवादी, विषय-विरागी तथा भगवान श्री राम के दासानुदास हैं। जिस प्रकार श्री लक्ष्मण जी हाथ में धनुष लेकर श्री राम की रक्षा करते हुए उनके पीछे चलते थे, उसी प्रकार श्री शत्रुघ्न जी भी श्री भरत जी के साथ रहते थे। जब श्री भरत जी के मामा युधाजित श्री भरत जी को अपने साथ ले जा रहे थे, तब श्री शत्रुघ्न जी भी उनके साथ ननिहाल चले गये। इन्होंने माता-पिता, भाई, नवविवाहिता पत्नी सबका मोह छोड़कर श्री भरत जी के साथ रहना और उनकी सेवा करना ही अपना कर्तव्य मान लिया था। भरत जी के साथ ननिहाल से लौटने पर पिता के मरण और लक्ष्मण, सीता सहित श्री राम के वनवास का समाचार सुनकर इनका हृदय दु:ख और शोक से व्याकुल हो गया। उसी समय इन्हें सूचना मिली कि जिस क्रूरा पापिनी के षड्यन्त्र से श्री राम का वनवास हुआ, वह वस्त्राभूषणों से सज-धजकर खड़ी है, तब ये क्रोध से व्याकुल हो गये। ये मन्थरा की चोटी पकड़कर उसे आँगन में घसीटने लगे। इनके लात के प्रहार से उसका कूबर टूट गया और सिर फट गया उसकी दशा देखकर श्री भरत जी को दया आ गयी और उन्होंने उसे छुड़ा दिया। इस घटना से श्री शत्रुघ्न जी की श्री राम के प्रति दृढ़ निष्ठा और भक्ति का परिचय मिलता है।

चित्रकूट से श्री राम को पादुकाएँ लेकर लौटते समय जब श्री शत्रुघ्न जी श्री राम से मिले, तब इनके तेज स्वभाव को जानकर भगवान श्री राम ने कहा- 'शत्रुघ्न! तुम्हें मेरी और सीता की शपथ है, तुम माता कैकेयी की सेवा करना, उन पर कभी भी क्रोध मत करना'।

श्री शत्रुघ्न जी का शौर्य भी अनुपम था। सीता-वनवास के बाद एक दिन ऋषियों ने भगवान श्री राम की सभा में उपस्थित होकर लवणासुर के अत्याचारों का वर्णन किया और उसका वध करके उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। श्री शत्रुघ्न जी ने भगवान श्री राम की आज्ञा से वहाँ जाकर प्रबल पराक्रमी लवणासुर का वध किया और मधुरापुरी बसाकर वहाँ बहुत दिनों तक शासन किया। भगवान श्री राम के परमधाम पधारने के समय मथुरा में अपने पुत्रों का राज्यभिषेक करके श्री शत्रुघ्न जी अयोध्या पहुँचे। श्री राम के पास आकर और उनके चरणों में प्रणाम करके इन्होंने विनीत भाव से कहा- 'भगवन! मैं अपने दोनों पुत्रों को राज्यभिषेक करके आपके साथ चलने का निश्चय करके ही यहाँ आया हूँ। आप अब मुझे कोई दूसरी आज्ञा न देकर अपने साथ चलने की अनुमति प्रदान करें।' भगवान श्री राम ने शत्रुघ्न जी की प्रार्थना स्वीकार की और वे श्री रामचन्द्र के साथ ही साकेत पधारे।