आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट: Difference between revisions

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      मरना तो सबका तय है, ये वक़्त कह रहा है
      पुरज़ोर एक कोशिश, जीने की बारहा है
                  कहने को सारी दुनिया है इश्क़ की दीवानी
                  हर एक शख़्स लेकिन, पैसे पे मर रहा है
      सारे सिकंदरों के, जाते हैं हाथ ख़ाली
      कोई मानता नहीं है, बस याद कर रहा है
                  हैवानियत के सारे, होते गुनाह माफ़ी
                  अब बेटियों का पल्लू ही क़फ़्न बन रहा है
      कोई खुदा नहीं है, अब आसमां में शायद
      इन्सां का ख़ौफ़ देखो, भगवान डर रहा है
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| 5 जून, 2014
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Revision as of 13:48, 5 June 2014

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
पोस्ट संबंधित चित्र दिनांक

      मरना तो सबका तय है, ये वक़्त कह रहा है
      पुरज़ोर एक कोशिश, जीने की बारहा है

                  कहने को सारी दुनिया है इश्क़ की दीवानी
                  हर एक शख़्स लेकिन, पैसे पे मर रहा है

      सारे सिकंदरों के, जाते हैं हाथ ख़ाली
      कोई मानता नहीं है, बस याद कर रहा है

                  हैवानियत के सारे, होते गुनाह माफ़ी
                  अब बेटियों का पल्लू ही क़फ़्न बन रहा है

      कोई खुदा नहीं है, अब आसमां में शायद
      इन्सां का ख़ौफ़ देखो, भगवान डर रहा है

250px|center 5 जून, 2014

      हर शाख पे बैठे उल्लू से,
      कोई प्यार से जाके ये पूछे
      है क्या अपराध गुलिस्तां का ?
      जो शाख पे आके तुम बैठे !

            कितने सपने कितने अरमां
            लेकर हम इनसे मिलते हैं
            बेदर्द ये पंजों से अपने
            सबकी किस्मत को खुरचते हैं

      उल्लू तो चुप ही रहते हैं
      वो बोलेंगे, इस कोशिश में
      हम चप्पल जूते घिसते हैं
      दिन-रात दर्द से पिसते हैं

      ना शाख कभी ये सूखेंगी
      ना पेड़ कभी ये कटना है
      जब भी कोई शाख नई होगी
      उल्लू ही उसमें बसना है

            इस जंगल में अब आग लगे
            और सारे उल्लू भस्म करे
            फिर नया एक सावन आए
            और नया सवेरा पहल करे

      तब नई कोंपलें फूटेंगी
      और नई शाख उग आएगी
      फिर नये गीत ही गूँजेंगे
      और नई ज़िन्दगी गाएगी

250px|center 4 जून, 2014

आज, पैसा और प्रतिष्ठा एक-दूसरे के पर्यायवाची हो चुके हैं। यहाँ तक कि वीतरागी संत होने का अर्थ भी बदल चुका है। संतों की प्रतिष्ठा त्याग के लिए हुआ करती थी लेकिन अब अथाह संपत्ति और सुविधा से घिरे तथाकथित संत अपनी दरियाई घोड़े जैसी तोंद पर हाथ फेरकर, मुग्ध होते मिलते हैं।

3 जून, 2014

अक्सर ये सवाल उठता रहता है कि भारत की जनता, नेताओं के भ्रष्ट आचरण को बहुत जल्दी भुला देती है। कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है?
कारण स्पष्ट है- हम हमेशा यह सोचते हैं कि 'अरे भई अगर हम उस नेता की जगह होते तो हम भी तो उतने ही नहीं थोड़े बहुत कम भ्रष्ट होते...' क्योंकि हम जब भी जहाँ होते हैं अपनी क्षमता और स्तर के अनुपात में भ्रष्टाचार करने में नहीं चूकते।
इसीलिए हम अगले चुनाव में ही उस नेता को बहुत सहानुभूति पूर्वक क्षमा कर देते हैं। हाँ अगर अदालत ही उसे जेल में डाल दे तो बात अलग है। वैसे हम कोशिश तो उसे जेल से भी चुनाव जिताने की करते हैं।
नेताओं की ग़लतियों और निकृष्ट कारगुज़ारियों को जल्दी क्षमा करने का और ख़ूँख़्वार क़िस्म के नेताओं को पसंद करने का एक कारण और भी होता है-
पुराने ज़माने के डाकुओं वाला नियम- जैसे पुराने वक़्त के डाकू अपने पक्ष की जनता (जो अक्सर उन्हीं की जाति की होती थी) को प्रसन्न रखते थे और दूसरे इलाक़े में लूट-पाट मचाते थे। इसी तरह हम अपनी जाति या पक्ष के नेता की हर अनियमितता को अनदेखी करते हैं।

250px|center 3 जून, 2014

नेता, सरकारी कर्मचारी और पुलिस के भ्रष्ट और ग़ैर िज़म्मेदार होने पर हम बहुत तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिए कि ये ऐसे क्यों है और आख़िर ये ऐसे हो क्यों जाते हैं ?

असल में ये सब हमारे समाज का ही आइना है, प्रतिबिंब हैं और यह हमें पूरी तरह ईमानदारी के साथ स्वीकार करना चाहिए। हमारे समाज का नियम ही कुछ ऐसा है जिसमें हम सिर्फ़ दूसरों को ईमानदारी का पाठ पढ़ाने से ही सरोकार रखते हैं, ख़ुद अपनी ईमानदारी के लिए कोई जवाबदेही नहीं बरतते।

250px|center 3 जून, 2014

शब्दार्थ

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