आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट: Difference between revisions

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लायक़ नहीं हैं हम तेरे, तू प्यार क्यूँ करे
कोई गुल भला, ख़िज़ाओं से दीदार क्यूँ करे
किस्मत ही दिल फ़रेब थी, तू बेवफ़ा नहीं
बंदा ख़ुदा से क्या कहे इसरार क्यूँ करे
जब चारागर ही मर्ज़ है तो किससे क्या कहें
शब-ए-हिज़्र, अब रह-रह मुझे बीमार क्यूँ करे
ख़ामोश आइने को अब इल्ज़ाम कितने दें
तू ज़िन्दगी की सुबह यूँ बेज़ार क्यूँ करे
परछाइयाँ भी खो गईं ज़ुलमत के साए में
तू आ के, मेरा ज़िक्र ही बेकार क्यूँ करे
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| 18 फ़रवरी, 2015
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स्वामी विवेकानंद एक सभा में 'शब्द' की महिमा बता रहे थे, तभी एक व्यक्ति ने खड़े होकर कहा-
"शब्द का कोई मूल्य नहीं कोई महत्व नहीं है और आप शब्द को सबसे महत्त्वपूर्ण बता रहे हैं... जबकि ध्यान की तुलना में शब्द कुछ भी नहीं है"
विवेकानंद ने कहा-
"बैठ जा मूर्ख, खड़ा क्यों हो गया।"
उस व्यक्ति ने नाराज़ होकर कहा-
"आप मुझे मूर्ख कह रहे हैं। यह भी कोई सभ्यता है ?"
"क्यों बुरा लगा ? मूर्ख भी तो शब्द ही है। इस एक शब्द से आपका पूरा संतुलन डगमगा गया। अब आपकी समझ में आ गया होगा कि शब्द का कितना महत्व है।"
शब्द की महिमा अपार है लेकिन हमारे नेता इस महिमा को भूलते जा रहे हैं।...
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क्या विश्वास एक ऐसा भ्रम नहीं है जो अब तक टूटा नहीं...
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आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
पोस्ट संबंधित चित्र दिनांक

लायक़ नहीं हैं हम तेरे, तू प्यार क्यूँ करे
कोई गुल भला, ख़िज़ाओं से दीदार क्यूँ करे

किस्मत ही दिल फ़रेब थी, तू बेवफ़ा नहीं
बंदा ख़ुदा से क्या कहे इसरार क्यूँ करे

जब चारागर ही मर्ज़ है तो किससे क्या कहें
शब-ए-हिज़्र, अब रह-रह मुझे बीमार क्यूँ करे

ख़ामोश आइने को अब इल्ज़ाम कितने दें
तू ज़िन्दगी की सुबह यूँ बेज़ार क्यूँ करे

परछाइयाँ भी खो गईं ज़ुलमत के साए में
तू आ के, मेरा ज़िक्र ही बेकार क्यूँ करे

18 फ़रवरी, 2015

स्वामी विवेकानंद एक सभा में 'शब्द' की महिमा बता रहे थे, तभी एक व्यक्ति ने खड़े होकर कहा-
"शब्द का कोई मूल्य नहीं कोई महत्व नहीं है और आप शब्द को सबसे महत्त्वपूर्ण बता रहे हैं... जबकि ध्यान की तुलना में शब्द कुछ भी नहीं है"
विवेकानंद ने कहा-
"बैठ जा मूर्ख, खड़ा क्यों हो गया।"
उस व्यक्ति ने नाराज़ होकर कहा-
"आप मुझे मूर्ख कह रहे हैं। यह भी कोई सभ्यता है ?"
"क्यों बुरा लगा ? मूर्ख भी तो शब्द ही है। इस एक शब्द से आपका पूरा संतुलन डगमगा गया। अब आपकी समझ में आ गया होगा कि शब्द का कितना महत्व है।"
शब्द की महिमा अपार है लेकिन हमारे नेता इस महिमा को भूलते जा रहे हैं।...

17 फ़रवरी, 2015

स्वाइन फ़्लू फैल रहा है। जानलेवा है। बहुत ध्यान से रहें। इसके बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी प्राप्त करें और सबको बताएँ। मास्क लगा कर रहें। इसमें शर्म की कोई बात नहीं। डॉक्टर से सलाह लें। विटेमिन सी अधिक लें।
हर किसी को अपना मुँह और अपनी नाक ढक कर रखना जरूरी है, खासकर तब जब कोई छींक रहा हो।
बार-बार हाथ धोना जरूरी है।
अगर किसी को ऐसा लगता है कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है तो उन्हें घर पर रहना चाहिये। ऐसी स्थिति में काम या स्कूल पर जाना उचित नहीं होगा और जहां तक हो सके भीड़ से दूर रहना फायदेमंद साबित होगा।
अगर सांस लेने में तकलीफ होती है, या फिर अचानक चक्कर आने लगते हैं, या उल्टी होने लगती है तो ऐसे हालात में फ़ौरन डॉक्टर के पास जाना जरूरी है।
खराब पानी से दूर रहें।

250px|center 7 फ़रवरी, 2015

क्या विश्वास एक ऐसा भ्रम नहीं है जो अब तक टूटा नहीं...

4 फ़रवरी, 2015

कि तुम कुछ इस तरह आना
मेरे दिल की दुछत्ती में
लगे ऐसा कि जैसे रौशनी है
दिल के आंगन में

बरसना फूल बन गेंदा के
मेरे भव्य स्वागत को
और बन हार डल जाना
मेरी झुकती सी गरदन में

सुबह की चाय की चुसकी की
तुम आवाज़ हो जाना
सुगंधित तेल बन बिखरो
फिसलना मेरे बालों में

रसोई के मसालों सी रोज़
महकाओ घर भर को
कढ़ी चावल सा लिस जाना
मेरे हाथों में होठों में

मचलना, सीऽ-सीऽ होकर
चाट की चटख़ारियों में तुम
कभी खट्टा, कभी मीठा लगो
तुम स्वाद चटनी में

मेरी आँखों के गुलशन में
रहो राहत भरी झपकन
सहमना और सिकुड़ जाना
छुईमुई बन के सपनों में

कहूँ क्या मैं तो
इक सीधा और सादा सा बंदा हूँ
ग़रज़ ये है कि मिलता है
तुम्हीं से सार जीवन में

2 फ़रवरी, 2015

यह स्तुति अब तुम बंद करो
अर्जुन ! जाओ अब तंग न करो
ऐसा कह मौन हुए केशव
सहमे से खड़े हुए थे सब

सहसा विराट बन हुए अचल
यह रूप देख सब थे निश्चल
गंभीर रूप रौरव था स्वर
नि:श्वास छोड़ फिर हुए मुखर

अर्जुन! सुन मेरी करुण कथा
जब कोई नहीं था बस मैं था
इन सूर्य चंद्र से भी पहले
मैं ही मैं था, मैं ही मैं था

मैं अगम अगोचर अनजाना
कोई साथ नहीं मैंने जाना
ब्रह्मांड-व्योम बिन जीता था
अस्तित्व, काल से रीता था

अमरत्व नहीं मैंने पाया
ना काल मुझे ग्रसने आया
कोई आदि नहीं मेरा होता
चिर निद्रा लीन नहीं होता

मुझको एकांत सताता था
मैं यूं ही जीये जाता था
फिर एक दिवस ऐसा आया
मैं रचूँ सृष्टि, मुझको भाया

मैंने ही सृष्टि रची अर्जुन !
अब सुनो बुद्धि से श्रेष्ठ वचन
मनुजों के लिए नहीं थी ये
सब जड़-चेतन समरस ही थे

पर मानव इसका केन्द्र बना
विज्ञान ज्ञान का सेतु तना
हर प्राणी पीछे छूट गया
मैं भी मानव से रूठ गया

मैंने रचकर संसार सकल
होते देखा सब कुछ निष्फल
कोई और नहीं खोता कुछ भी
मरता मैं हूँ कोई और नहीं

तुम मुझे सर्वव्यापी कहकर
कर रहे पाप सब रह रह कर
मैं ही हंता, सृष्टा मैं ही ?
कृष्ण, कंस दोनों मैं ही?

यदि स्वयं कंस में भी रहता
वह दुष्ट भला कैसे मरता
कुछ तो विवेक से भान करो
सद्गुणी जनों का ध्यान धरो

क्यों नहीं तुम्हें यह ज्ञान हुआ
किस कारण ये अज्ञान हुआ
अपराधी मुझको मान लिया
मैंने मुझको ही दंड दिया?

अर्जुन! कैसा है ये अनर्थ
मेरा, होना ही हुआ व्यर्थ
किसकी ऐसी अभिलाषा थी?
जो मेरी ये परिभाषा की?

रक्तिम आँखों के ज्वाल देख
अर्जुन, भगवन् का भाल देख
आँखें मलता सब सुना किया
जैसे-तैसे मन शांत किया

क्या हंता हो सकती माता
क्या काल पिता लेकर आता
जिसने तुमको यह जन्म दिया
उसको तुमने यम रूप दिया

यदि पिता मुझे तुम कहते हो
तो क्यों सहमे से रहते हो
मैं नहीं, देव-दानव कोई
निज ममता नहीं कभी सोई

दुष्टों में नहीं वास करता
मैं मित्र सखा हूँ उन सबका
जो करुणा का रस पीते हैं
समदृष्टि भाव से जीते हैं

कण-कण में बसा नहीं हूँ मैं
सद हृदय ढूँढता शनै: शनै:
और फिर उसमें बस जाता हूँ
जीवन की गीता गाता हूँ

250px|center 1 फ़रवरी 2015

शब्दार्थ

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