रघुवंश की प्रबन्धात्मकता तथा महावाक्यता: Difference between revisions
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Revision as of 12:23, 25 July 2011
रघुवंश में अनेक कथाचक्र हैं तथा अनेक नायकों के चरित्र हैं। ऐसी स्थिति में इसे एक अपने आप में समग्र प्रबन्ध कैसे माना जा सकता है? टीकाकार 'अरुणगिरिनाथ' ने रघुवंश की पूरी संरचना का विश्लेषण करते हुए इसकी प्रबन्धात्मकता तथा महावाक्यता पर विशद विचार किया है।
- वीर रस
अरुणगिरिनाथ के अनुसार रघुवंश का अंगी रस वीर है। वीर रस का इस महाकाव्य में प्रवाह आद्यंत अक्षुण्ण रूप में प्रवहमान है। प्रसंगानुसार अन्य रसों की निष्पत्ति विभिन्न सर्गों में है, पर वीर रस की सर्वव्यापकता का लोप नहीं हुआ है। सातवें सर्ग में युद्धवर्णन के प्रसंग में श्रृंगार और वीभत्स दोनों रसों का समावेश तथा वीर रस के व्यवधान से उनके विरोध का परिहार आनन्दवर्धन तथा मम्मट आदि आचार्यों के द्वारा भी समीक्षित है, और अरुणगिरिनाथ ने भी रघुवंश की, रसनिर्वाह की दृष्टि से मीमांसा करते हुए इस प्रसंग की समीक्षा की है।[1] रघुवंश की अंतिम पंक्ति - 'राज्ञी राज्यं विधिवदशिषद् भर्तुरव्याहताज्ञा' - में अद्भुत रस से संवलित वीररस के उद्रेक पर भी अरुणगिरिनाथ ने विस्तार से प्रकाश डाला है।[2]
- अन्य रस
वीर रस की इस प्रधानता के साथ इतर सभी रसों की इस रस के प्रवाह में उन्मज्जन - निमज्जन की स्थितियाँ, पूरे प्रबन्ध के चारों पुरुषार्थों की अवगति तथा विधि - निषेधावबोध की दृष्टि से इस महाकाव्य की एकवाक्यता का विश्लेषण करते हुए अरुणगिरि कहते हैं कि पहले ही पद्य में कवि ने उमा - महेश्वर का उपादान करते अपने प्रबन्ध की सर्वरसाश्रयता तथा सर्वपुरुषार्थहेतुता सूचित कर दी है। दिलीप आदि राजाओं के चरित के द्वारा धर्म पुरुषार्थ और तत्संवलित वीर रस, रघु आदि के चरित के द्वारा अर्थ पुरुषार्थ तथा उन्हीं के अंत्याश्रम के अवलम्बन में मोक्ष और शांत रस की निष्पत्ति कवि ने करायी है।
अजविलापादि में करुण रस, ताटकावृत्तांत आदि में वीभत्स रस तथा अग्निवर्ण के वृत्तांत में श्रृंगार रस तथा काम पुरुषार्थ है। शूर्पणखा वृत्तांत में हास्य तथा सीता के द्वारा शूर्पणखा दर्शन में भयानक रस है। इसी प्रकार जामदग्न्य वर्णन में रौद्र तथा माया सिंह आदि के वृतांत में अद्भुत रस है। पर विभिन्न रसों पर विभिन्न वृत्तांतों का समावेश होने पर भी इस महाकाव्य में प्रबन्धात्मकता तथा एकवाक्यता है, क्योंकि विधिनिषधावगतिहेतुक महाकाव्य होना प्रबन्ध का लक्षण है। रघुवंश में एक वंश का ही आद्यांत वर्णन होने से एकवस्तुविषयता है तथा इस एक अर्थ के वर्णन से विधिनिषेधावगति में भी एकता और अंविति यहाँ है, इसलिए सम्पूर्ण महाकाव्य तथा एक प्रबन्ध माना जाना चाहिये, अवांतर वाक्यों की दृष्टि से इसमें सन्धि संध्यांगों आदि का विश्लेषण किया जाना चाहिये - यह अरुणगिरिनाथ का मत है।[3] रघुवंश में पाँचों सन्धियों, संध्यांगों तथा अवस्थाओं और अर्थप्रकृतियों के सम्यक नियोजन से भी प्रबन्धात्मकता का परिपोष हुआ है। अरुणगिरिनाथ के अनुसार प्रथम सर्ग में आरम्भ अवस्था से अनुगत, विधान नामक अंग को छोड़ कर शेष ग्यारह अंगों से युक्त मुखसन्धि है। द्वितीय सर्ग में 'इत्थं व्रतं घारयत: प्रजार्थ' - इस पद्य तक प्रयत्न नामक अवस्था से अनुगत प्रतिमुख सन्धि है तथा इस सर्ग के शेष भाग में प्राप्त्याशा और गर्भसन्धि। सिंह का नन्दिनी पर आक्रमण पताका। तृतीय सर्ग में दिलीप-वृत्तांत की निर्वहण सन्धि तथा रघु - वृत्तांत की मुखसन्धि आरम्भ हो जाती है। इस प्रकार रघुवंश में पाँचों सन्धियों, संध्यांगों तथा अवस्थाओं की चक्राकार गति तथा पुरावर्तन होते हुए भी वंश वर्णन विषयक एक वृत्तांत होने से एकवाक्यता बनी रहती है।[4]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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