विश्वामित्र और वसिष्ठ कथा: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - "==टीका टिप्पणी==" to "==टीका टिप्पणी और संदर्भ==")
m (Text replace - "कामधेनु" to "कामधेनु")
Line 1: Line 1:
   
   
महर्षि [[वसिष्ठ]] और विश्वामित्र [[वैदिक काल]] में हुए हैं। ये दोनों ही महान तपस्वी तथा ज्ञान के भंडार थे। महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय थे, अतः क्रोधी भी थे, लेकिन इन्होंने अपनी तपस्या के बल से ब्रह्मऋर्षियों में स्थान प्राप्त कर लिया था। '''गायत्री मन्त्र, जो हिन्दू समाज में अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है, इन्हीं की देन है।''' इसे ब्राह्मण की कामधेनु कहा गया है अर्थात जो कुछ आप चाहेंगे इसके सिद्ध होने पर प्राप्त कर सकेंगे। इसमें [[सूर्य देवता|सूर्य]]देव से सदबुद्धि की प्रार्थना की गई है। महर्षि वसिष्ठ ब्रह्मर्षि हैं। वे ब्राह्मण थे। उनके ब्रह्मतेज के सामने विश्वामित्र का क्षात्रबल फीका पड़ जाता था, इन्होंने भी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मन्त्र की रचना की जो [[महामृत्युंजय मन्त्र]] कहलाता है, इससे लम्बी आयु प्राप्त होती है तथा मृत्यु से रंक्षा हो जाती है। [[ऋग्वेद]] में यह मन्त्र इस प्रकार उपलब्ध है –
महर्षि [[वसिष्ठ]] और विश्वामित्र [[वैदिक काल]] में हुए हैं। ये दोनों ही महान तपस्वी तथा ज्ञान के भंडार थे। महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय थे, अतः क्रोधी भी थे, लेकिन इन्होंने अपनी तपस्या के बल से ब्रह्मऋर्षियों में स्थान प्राप्त कर लिया था। '''गायत्री मन्त्र, जो हिन्दू समाज में अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है, इन्हीं की देन है।''' इसे ब्राह्मण की [[कामधेनु]] कहा गया है अर्थात जो कुछ आप चाहेंगे इसके सिद्ध होने पर प्राप्त कर सकेंगे। इसमें [[सूर्य देवता|सूर्य]]देव से सदबुद्धि की प्रार्थना की गई है। महर्षि वसिष्ठ ब्रह्मर्षि हैं। वे ब्राह्मण थे। उनके ब्रह्मतेज के सामने विश्वामित्र का क्षात्रबल फीका पड़ जाता था, इन्होंने भी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मन्त्र की रचना की जो [[महामृत्युंजय मन्त्र]] कहलाता है, इससे लम्बी आयु प्राप्त होती है तथा मृत्यु से रंक्षा हो जाती है। [[ऋग्वेद]] में यह मन्त्र इस प्रकार उपलब्ध है –
<blockquote><poem>
<blockquote><poem>
'''त्र्यम्बकं  यजामहे  सुगन्धिं    पुष्टिवर्धनम्'''
'''त्र्यम्बकं  यजामहे  सुगन्धिं    पुष्टिवर्धनम्'''

Revision as of 14:06, 28 June 2010

महर्षि वसिष्ठ और विश्वामित्र वैदिक काल में हुए हैं। ये दोनों ही महान तपस्वी तथा ज्ञान के भंडार थे। महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय थे, अतः क्रोधी भी थे, लेकिन इन्होंने अपनी तपस्या के बल से ब्रह्मऋर्षियों में स्थान प्राप्त कर लिया था। गायत्री मन्त्र, जो हिन्दू समाज में अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है, इन्हीं की देन है। इसे ब्राह्मण की कामधेनु कहा गया है अर्थात जो कुछ आप चाहेंगे इसके सिद्ध होने पर प्राप्त कर सकेंगे। इसमें सूर्यदेव से सदबुद्धि की प्रार्थना की गई है। महर्षि वसिष्ठ ब्रह्मर्षि हैं। वे ब्राह्मण थे। उनके ब्रह्मतेज के सामने विश्वामित्र का क्षात्रबल फीका पड़ जाता था, इन्होंने भी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मन्त्र की रचना की जो महामृत्युंजय मन्त्र कहलाता है, इससे लम्बी आयु प्राप्त होती है तथा मृत्यु से रंक्षा हो जाती है। ऋग्वेद में यह मन्त्र इस प्रकार उपलब्ध है –

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्
उर्वारकमिव बन्धान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात॥

एक बार इन दोनों महात्माओं में इस बात पर वाद-विवाद छिड़ गया कि सत्संग और तपस्या दोनों में से कौन श्रेष्ठ है। वसिष्ठ जी सत्संग के पक्ष मे थे और विश्वमित्र जी को अपनी तपस्या का अभिमान था। वे उसे ही श्रेष्ठ समझते थे। जब वाद-विवाद का कोई निर्णय नहीं हो सका तो दोनों ने यह निश्चय किया कि किसी तीसरे व्यक्ति से इसका निर्णय कराया जाए। दोनों शेष नाग भगवान के पास चल दिए। दोनों ने अपनी-अपनी बात उनके सामने रखी। कहते हैं कि शेषनाग ही हमारी इस पृथ्वी को अपने सिर पर धारण किए हुए हैं। वे कहने लगे, 'देखो मेरे सिर पर इस इतनी भारी पृथ्वी का बोझ रखा है, पहले इससे तो मैं हल्का हो जाऊं तभी कुछ निर्णय कर सकूंगा। तुम दोनों में से कोई इस भार को थोड़ी देर के लिए उठा लो तो मैं सोचूं।' महर्षि विश्वामित्र तुंरत तैयार हो गए और उन्होंने अपनी दस हज़ार वर्ष तपस्या के फल को भेंट करते हुए पृथ्वी को अपने सिर पर उठाने की चेष्टा की लेकिन उनके हाथ लगाते ही पृथ्वी डांवाडोल होने लगी, तभी शेष नाग ने उसे फिर उसे संभाल लिया।

अब महर्षि वसिष्ठ ने अपने सत्संग के आधे क्षण के फल को समर्पित करते हुए पृथ्वी को उठाने की चेष्टा की और पृथ्वी आसानी से उनके सिर पर ठहर गई। जब कुछ देर बीत गई तो ऋषियों ने कहा, 'भगवान आपने हमारे विवाद के विषय में अभी तक कोई निर्णय नहीं दिया।' शेषनाग मुस्कराए और बोले 'निर्णय तो अपने आप हो गया, अब मैं क्या करूं।' अर्थात जिसने पृथ्वी के भार को सहन कर लिया उसी का विस्तार सत्य है। तो सत्संग की यही महिमा है अर्थात अच्छे व्यक्तियों के संग बैठना-उठना, अच्छी पुस्तकों का अध्ययन करना, जीवन के प्रत्येक क्षे़त्र में सफलता प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है।

पुनर्दहताघ्नता जानता सं गमेमहि[1]
हम दानी पुरुषों से, विश्वासघातादि न करने वालों से तथा विवेकी, विचारवान एवं ज्ञानी पुरुषों के साथ सत्संग करते रहें।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋग्वेद 5-51-15

अन्य लिंक