आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
Line 9: Line 9:
! style="width:25%;"| संबंधित चित्र
! style="width:25%;"| संबंधित चित्र
! style="width:15%;"| दिनांक
! style="width:15%;"| दिनांक
|-
|
<poem>
ज़रा सी आँख लग जाती तो इक सपना बना लेते
ज़माना राहतें देता, तुझे अपना बना लेते
तुझे सुनने की चाहत है, हमें कहना नहीं आता
जो ऐसी क़ुव्वतें होतीं, शहर अपना बना लेते
जहाँ जिससे भी मिलना हो, नज़र बस तू ही आता है
सनम! हालात में ऐसे, किसे अपना बना लेते
ये दुनिया ख़ूबसूरत है, बस इक तेरी ज़रूरत है
जिसे भी चाहता हो तू उसे अपना बना लेते
तमन्नाओं के दरवाज़ों से आके देख ले मंज़र
तेरी आमद जो हो जाती तो अपना घर बना लेते
</poem>
|  [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-37.jpg|250px|center]]
| 25 जुलाई, 2014
|-
|-
|  
|  

Revision as of 12:13, 2 August 2014

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
पोस्ट संबंधित चित्र दिनांक

ज़रा सी आँख लग जाती तो इक सपना बना लेते
ज़माना राहतें देता, तुझे अपना बना लेते

तुझे सुनने की चाहत है, हमें कहना नहीं आता
जो ऐसी क़ुव्वतें होतीं, शहर अपना बना लेते

जहाँ जिससे भी मिलना हो, नज़र बस तू ही आता है
सनम! हालात में ऐसे, किसे अपना बना लेते

ये दुनिया ख़ूबसूरत है, बस इक तेरी ज़रूरत है
जिसे भी चाहता हो तू उसे अपना बना लेते

तमन्नाओं के दरवाज़ों से आके देख ले मंज़र
तेरी आमद जो हो जाती तो अपना घर बना लेते

250px|center 25 जुलाई, 2014

क्या यही तुम्हारा विशेष है?
कि बस जीते रहना है उस जीवन को
जो कि शेष है...

या कुछ देखना है कभी
उन पर्दों के पार की ज़िन्दगी
जो तुम्हारी उस खिड़की पर लगे हैं
जिसके गिर्द बना दी है
चाँदी की दीवार तुमने
और उन्हें
कभी न खोलने का निर्देश है

तुम्हारा वो काला चश्मा भी
उतरेगा अब नहीं
जो शौक़ था पहले
और अब व्यवसाय की मजबूरी
क्या तुम देख पाओगे कभी
कि कैसा ये देश है

परफ़्यूम भी नहीं छोड़ पाओगे
पसीने की गंध से तो
बहुत दूर हो जाओगे
इसी पसीने में ही तो
देश की आज़ादी का संदेश है

ख़ून बहाकर मिली थी आज़ादी
ख़ून तुम भी बहाते हो लेकिन
तभी जबकि
ब्लड टेस्ट करवाते हो
कभी देखा है ग़ौर से कि
तुम्हारे ख़ून का रंग
कितना सफ़ेद है

कितने बिस्मिल थे
भगत सिंह और अशफ़ाक़
जिनकी आमद से
सिहर गया होगा यमराज भी
क्योंकि यही तो वह मृत्यु है
जो विशेष है
बाक़ी तो सब यूँ ही है
फ़ेक है

250px|center 4 जुलाई, 2014

मैं उन लोगों में से हूँ जो अपने बचपन में सोने से पहले बिस्तर पर लेेटे-लेटे तब तक गायत्री मंत्र का पाठ करता था कि जब तक नींद न आ जाए। इम्तिहान के दिनों में 108 मनकों की एक माला रोज़ाना सरस्वती के बीज मंत्र की करनी होती थी। अपने घर में ही, रामचरित मानस के अखंड पाठ में, मैंने उस उम्र में हिस्सा लिया था जिस उम्र में बच्चे सिर्फ़ दौड़ने और पेड़ पर चढ़ने को ही बहुत बड़ा खेल समझते हैं। हनुमान चालीसा, गणेश वन्दना और ओम जय जगदीश हरे, गीता के श्लोक, वेद और उपनिषदों के कुछ श्लोक जैसे अनेक धार्मिक पाठ... मुझे रटे हुए थे। रामचरित मानस और महाभारत का कोई प्रसंग ऐसा नहीं था जो मुझसे अछूता रहा हो।
धार्मिक सिनेमा की तो हालत यह थी कि 'बलराम श्रीकृष्ण' फ़िल्म देखने के लिए मैं लगातार पूरे सप्ताह अपनी मां के साथ जाता रहा। हनुमान और बलराम मेरे हीरो उसी तरह थे जैसे आजकल स्पाइडर मॅन और बॅटमॅन बच्चों के हीरो होते हैं। कृष्ण और अर्जुन मेरी दुर्गम लक्ष्य प्राप्ति की प्रेरणा थे, हनुमान और भीम मेरी कसरत की प्रेरणा, एकलव्य और कर्ण का जीवन मुझे भावुक बना देता था।
आज भी मैं धार्मिक और देशभक्ति के धारावाहिक टी॰वी॰ पर देखकर बेहद भावुक हो जाता हूँ। अक्सर रो पड़ता हूँ। राधा की विरह, सुदामा की बेबसी, भरत मिलाप, हनुमान की राम भक्ति, भीष्म की प्रतिज्ञा, राजा नल की विपत्ति, सावित्री-सत्यवान प्रसंग, कर्ण का दान आदि ऐसे अनेक प्रसंग हैं जो आज भी मुझे भावुक बना देते हैं।
हम बचपन को छोड़ आते हैं... कमबख़्त बचपन हमें नहीं छोड़ता।

लेकिन फिर भी इस सब के बाद अब मेरी अपनी पहचान क्या है ?
कभी लोग मुझसे पूछ लेते हैं कि वास्तव में मेरी जाति, धर्म और विचार क्या हैं। शायद इसका जवाब है कि-

"मैं सूफ़ी हिन्दू हूँ
बुतपरस्त मुस्लिम हूँ
कर्मकाण्डी शूद्र हूँ
म्लेच्छ ब्राह्मण हूँ
और
मेरे राजनैतिक और सामाजिक विचार ये हैं-
"मैं सर्वहारा बुर्जुआ हूँ
समाजवादी दक्षिणपंथी हूँ
भावुक यथार्थवादी हूँ
संन्यासी गृहस्थ हूँ"
अलबत्ता एक बात तो पक्की है कि

"भारत मुझको जान से प्यारा है
सबसे प्यारा गुलिस्तां हमारा है"

24 जुलाई, 2014

मृत्यु जीवन की परछाईं है
तभी तक साथ रहती है जब तक कि जीवन है...
... लोग कहते हैं कि मरने के बाद वह क्या है जो मनुष्य का साथ छोड़ देता है। कोई कहता है आत्मा, कोई ऊर्जा, कोई प्राण आदि-आदि
लेकिन वास्तविकता यह है कि मरने पर 'मृत्यु' साथ छोड़ देती है जो कि हमारे साथ हर समय रहती है जब तक कि हम जीवित हैं।
हमारा जन्मदिन ही हमारी मृत्यु का भी जन्मदिन भी होता है और हमारा मृत्युदिन हमारी मृत्यु का मृत्युदिन भी...

250px|center 24 जुलाई, 2014

क्या हुआ ? एक हफ्ते से किसी ने मुझे candy crush खेलने के लिए invite नहीं किया और ना ही मुझे किसी अपनी जागरूक post या तस्वीर के साथ tag किया है।
'वो FB मित्रों का मुझे tag करना... फिर फ़ौरन सारे काम छोड़कर मेरा उन tag को हटाना... मेरे पास तो अब जैसे कोई काम ही नहीं बचा...'
मैं जैसे ही किसी की friend request को स्वीकार करता हूँ तो अक्सर वो मुझे tag करके अपनी मित्रता का फ़र्ज़ अदा करते हैं। कितना प्यार है मुझसे...
ख़ैर...

20 जुलाई, 2014

प्रिय मित्रो ! शिवकुमार जी (Shivkumar Bilgrami) ने अपनी पत्रिका के जनवरी अंक में अम्माजी की कविता छाप दी और अब मुझे उसकी प्रति भेजी है। अम्माजी को 84 वर्ष की आयु में अब अपनी कोई कविता याद नहीं है, सिवाय इसके...

250px|center 20 जुलाई, 2014

इस दुनिया में, वास्तविक रूप से, अपनी ग़लती मान लेने वाला व्यक्ति ही, निर्विवाद रूप से बुद्धिमान होता है।
इसके अलावा जितने भी बुद्धि के पैमाने हैं वे सब बहुत बाद में अपनी भूमिका रखते हैं।

19 जुलाई, 2014

मेरे एक पुराने मित्र आए और उन्होंने जो कुछ मुझसे कहा उसे थोड़ा सभ्य भाषा में प्रस्तुत कर रहा हूँ-
"तुमको ब्रजडिस्कवरी और भारतकोश बना कर क्या मिला ? ब्रजडिस्कवरी और भारतकोश बनाने-चलाने में तुम्हारे हर्निया के दो ऑपरेशन हो गए, लम्बार स्पाइन की समस्या हो गई, चश्मे के नंबर बढ़ गए, खिलाड़ियों जैसा कसरती शरीर पिलपिले बैंगन जैसा हो गया, बुढ़ापे के लिए बचाया पैसा और संपत्ति ख़त्म हो गए, राजनैतिक जीवन और मथुरा में सामाजिक जीवन समाप्त हो गया, दोस्तों से मिलना-मिलाना ख़त्म हो गया। मैंने तुमको 85 किलो बॅंच प्रॅस करते देखता था लेकिन अब 85 ग्राम का फ़ोन भी तुम्हें भारी लगता है। तुम अपने पिताजी की उस उक्ति को भूल गए जब वे कहा करते थे कि चढ़ जा बेटा सूली पै, भली करेंगे राम। अब तक तुम चौधरी सा'ब की तरह 4 बार सांसद बन सकते थे... लेकिन तुमने सब सत्यानाश कर दिया"

इसके बाद ज्यों के त्यों, मेरे मित्र के ही शब्द हैं "बोलो क्या मिला तुमको 'बाबा जी ठुल्लू'... मैंने तुमसे बड़ा इमोशनल फ़ूल नहीं देखा।"

मेरे पास मुस्कुराने के सिवा कोई चारा नहीं था। मेरे मित्र, मुझे अपनी व्यक्तिगत संपत्ति की तरह ही व्यवहार में लाते हैं और मैं इसका आनंद लेता हूँ। मेरे अजीब-अजीब जीवन-प्रयोग उन्हें चकित भी करते हैं और क्रोधित भी... पर उनके प्यार में कमी नहीं होती।

इस लॅक्चर के बाद मैंने उनसे कहा-

1857 में मेरे प्रपितामह बाबा देवकरण सिंह को विद्रोह करने पर अंग्रेज़ों ने फांसी दी थी। उनको गिरफ़्तार करवाने वाले एक ज़मीदार को इनाम में एक और ज़मीदारी दी गई। मेरे पर दादा को क्या मिला ? पूछा मैंने। भरी जवानी में मेरे पिता को अंग्रेज़ो ने जेल में डाल दिया, उन्हें क्या मिला। ये भी पूछा मैंने।
और मैं ! मैं तो उनका बस एक नालायक़ सा वंशज हूँ। मेरी औक़ात ही क्या है ! जो कुछ कर रहा हूँ वो बहुत-बहुत कम है...

अब तक तो मुझे किसी भ्रष्ट अधिकारी या नेता को खुले आम चुनौती देने के चक्कर में तबाह हो जाना चाहिए था। किसी जनहित आंदोलन की बलि चढ़ जाना चाहिए था, लेकिन मैं बच्चे पालने में लगा रहा। जब मेरे सर से ये ज़िम्मेदारी हट गई है, बच्चे ज़िम्मेदार हो गए हैं... तो अब तो कम से कम मुझे अपने मन की करने दो। अपने मन से जीने दो अपने मन से मरने दो। जिससे मुझे लगे कि मैं भी इस दुनिया में आकर इंसानों के श्रेणी में शामिल हूँ।

आज मेरे जीने का आधार क्या है ? मेरे जीने का आधार है भारतकोश के वे 10 करोड़ से अधिक पाठक जिनमें 6 करोड़ से अधिक नौजवान हैं। हर महीने 7-8 लाख लोग जो भारतकोश देख रहे हैं। वे छात्र जो परीक्षा और प्रतियोगिता के लिए भारतकोश पढ़ते हैं।

मेरे दोस्तो ! मैं पागल था, पागल हूँ और पागल ही रहूँगा। इसलिए परेशान होने के ज़रूरत नहीं है। हो सके तो भारतकोश की कुछ आर्थिक मदद करो... या...।

19 जुलाई, 2014

जब कोई मरता है तो कहते हैं- "वे भगवान को प्यारे हो गए"
जीते जी भगवान के प्यारे होने का कोई तरीक़ा नहीं है क्या ?

19 जुलाई, 2014

डॉ॰ महेश चंद्र चतुर्वेदी मथुरा के विद्वानों में गिने जाते थे। वे मेरे पिताजी के पास भी आया करते थे, यह बात मुझे मेरी अम्माजी ने उनकी किताब पर उनका फ़ोटो देखकर बताई।
उनके पुत्र आशुतोष चतुर्वेदी (Ashutosh Chaturvedi) मेरे बचपन के मित्र हैं। आशुतोष ने मुझे यह किताब दी थी। डॉ॰ साहिब की लिखी मेरी पसंद की एक कविता प्रस्तुत है-

'सलीब'

झूठ बोलूंगा नहीं पर, सत्य की हिम्मत नहीं
मुझसे मेरी ज़िन्दगी के, हाल को मत पूछिए

अपने हिस्से का यहाँ
मैंने भी ढोया है सलीब
क्या सितम मुझ पर पड़े हैं
मुझसे यह मत पूछिए

प्यार क्या शै है
मुझे अब तक नहीं मालूम है
उम्र कैसे काट पाया
मुझसे यह मत पूछिए

मुस्कुरा कर काट ली है
मैंने शामे ज़िन्दगी
किससे मुझको थी शिकायत
मुझसे यह मत पूछिए

मैं किसी का हो न पाया
कोई मेरा था नहींं
क्यों रहा दुनिया में तनहा,
मुझसे यह मत पूछिए - डॉ॰ महेशचंद्र चतुर्वेदी

250px|center 4 जुलाई, 2014

जावेद अख़्तर की बेमिसाल रचना है। जब भी सुनता हूँ, रो पड़ता हूँ। भूपेन हज़ारिका की आवाज़ में असमी और बंगाली रंग है। इसलिए किसी-किसी को ये आवाज़ पसंद नहीं आती... मगर इतना तो यक़ीं है कि ये ग़ज़ब है... अगर पूरा सुन लें तो...
Duniya Parayee Log Yahan Begane

4 जुलाई, 2014

हे ईश्वर ! तूने एक करोड़ से ज़्यादा भारत वासियों पर ज़रा भी रहम नहीं किया। मुढ़िया पूनो पर इस आग बरसाती गर्मी में वे श्रद्धालु मथुरा में, गिरिराज महाराज की परिक्रमा लगाते रहे। उनके पैर जलते रहे, दण्डौती देने में जिस्म झुलसते रहे। अब कम से कम रोज़ा रखने वालों पर तो नज़र-ओ-करम रख कि पूरे दिन भूखे प्यासे रहकर वो तुझे याद करते हैं। अब तो बरस... वरना कौन तुझ पर भरोसा करेगा।
लगता है तुझे अहसास नहीं है गर्मी का...

13 जुलाई, 2014

यह फ़ेसबुक पोस्ट, मेरे प्रिय छोटे भाई पवन चतुर्वेदी(Pavan Chaturvedi) को ...

एक समय था जब हमारे घर पर विद्वानों का आना बना रहता था। इन विद्वानों में चतुर्वेदी अधिक संख्या में होते थे। जिनमें भाषा, धर्म, संस्कृति, दर्शन आदि के विद्वान अपने-अपने विचार रखते थे। उनकी चर्चाएँ मैं सुना करता था। जिसमें किसी भी दूसरे धर्म की आलोचना नाम-मात्र को होती थी। ब्रज और यमुना जी को लेकर उनकी चिन्ताएँ लगातार बनी रहती थीं। वे अपने ही धर्म को लेकर और नई पीढ़ी के आचार-विचार से ही व्यथित रहते थे। यह चतुर्वेदियों की एक अनोखी विशेषता थी। आजकल तो दूसरों के धर्म को बिना बात, धाराप्रवाह गालियां दी जाती हैं।

मथुरा के चतुर्वेदी उन गिनी-चुनी जातियों में से हैं जिनमें आज भी कई भाषाओं के पंडित आसानी से मिल जाते हैं और उन्हें प्रचार की लालसा भी नहीं है। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में चतुर्वेदियों के घरों में क्रांतिकारी छुपे रहे जिससे चतुर्वेदियों को अंग्रेज़ों का कोपभाजन बनना पड़ा (देखें ऍफ़॰ ऍस॰ ग्राउस की पुस्तक और ब्रोकमॅन का गज़टियर)। इससे पहली बार यह पता चला कि चतुर्वेदी शासन की हाँ में हाँ मिलाने वाली क़ौम नहीं है बल्कि प्रगति और स्वतंत्रता उसकी नसों में लहू बन के दौड़ रही है। मेरे प्रपितामह को भी 1857 में अंग्रज़ों ने फांसी दी थी। इसलिए मेरी रुचि इन संदर्भों ज्यादा है।

1947 के स्वातंत्र्य संग्राम में तो चतुर्वेदियों ने मथुरा का नाम स्वर्णाक्षरों मे लिखा। जब श्री राधामोहन चतुर्वेदी और मेरे पिता चौधरी दिगम्बर सिंह एक साथ जेल में बंद थे। पिताजी बताते थे कि उस समय चतुर्वेदी जी जेल में अंग्रेज़ी की किताब हाथ में लेकर धारा प्रवाह हिन्दी अनुवाद सुनाया करते थे और क़ैदियों को अंग्रेज़ी पढ़ाया करते थे। उस समय श्री शिवदत्त चतुर्वेदी के पिताजी श्री गौरीदत्त चतुर्वेदी भी जेल में थे।

मथुरा के चौबों को सामान्यत: लोग परदेसियों से मांग-खाकर गुज़रा करने वाली जाति समझ लेते हैं। इसमें कुछ ग़लत तो नहीं लेकिन चतुर्वेदियों में हुए विद्वान, कलाकार, साहित्यकार और स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या प्रतिशत के अनुपात में अन्य जातियों से बहुत-बहुत अधिक है। ध्रुपद धमार, हवेली संगीत, पहलवानी, संस्कृत भाषा और अर्थशास्त्र में इनकी दख़ल उल्लेखनीय है।

आज भी जब मेरे छोटे भाई पवन चतुर्वेदी का हमारे घर आना होता है तो पवन की हज़ारों ग़ज़लों और शेरों के मुँह ज़बानी याद होने की प्रतिभा से दंग रह जाता हूँ (और वह भी भावार्थ सहित)। श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी (Jagadishwar Chaturvedi) जब आते हैं तो ऐसा लगता है कि विभिन्न विषयों पर धारा प्रवाह बोलते-बोलते कभी थकेंगे ही नहीं। बड़े भाई श्री मनोहर लाल चतुर्वेदी (Manohar Lal Chaturvedi) के आने पर उनके व्यवहार से ही विनम्रता और सभ्यता का पाठ सीखने को मिलता है, जो विरासत उनके चारों बेटों में भरपूर आई है। पिछले दिनों श्री नवीन चतुर्वेदी (Navin C. Chaturvedi) आए उनका ग़ज़ल ज्ञान मुझे बहुत भाया।

श्री शिवदत्त चतुर्वेदी, श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी, श्री हरिवंश चतुर्वेदी (Harivansh Chaturvedi), श्री आशुतोष चतुर्वेदी (Ashutosh Chaturvedi)), श्री पवन चतुर्वेदी, श्री मधुवन दत्त चतुर्वेदी (Madhuvandutt Chaturvedi) जैसे कुछ नाम हैं जो एक समय-एक जगह इकट्ठे हों तो लगता है कि 'ज्ञान बाढ़' आ जाएगी ।

जै जमना मैया की...

11 जुलाई, 2014

अभी-अभी दु:ख भरा समाचार मिला कि महान शख़्सियत श्रीमती ज़ोहरा सहगल नहीं रहीं। मुझे जिनसे प्रेरणा मिलती थी उनमें ज़ोहरा जी का नाम बहुत-बहुत ऊँचा था। ऐसे लोग बार-बार नहीं जन्मा करते। उन्होंने जो जगह ख़ाली की उसे भरना असंभव है। मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, जब कि वे हमारी दूर की रिश्तेदार भी थीं।

ज़िन्दा दिल लोग सिर्फ़ जीते हैं मरते नहीं
मरते तो सिर्फ़ वो हैं
जिन्होंने ज़िन्दगी को जिया ही नहीं

विनम्र श्रद्धाञ्जलि

250px|center 10 जुलाई, 2014

"रात निर्मला दिन परछांई
कहि 'सहदेव' कि बरसा नाहीं"
परसों अम्माजी ने यह सुनाया जिसका अर्थ है कि यदि रात में बादल नहीं हैं और सिर्फ़ दिन में ही होते हैं तो वर्षा की संभावना नहीं होती।

4 जुलाई, 2014

चीन की सेना ने छ: महीने की कठोर अभ्यास का पाठ्यक्रम शुरू किया है। यह विशेष रूप से उन किशोर/किशोरियों के लिए है जो इंटरनेट पर अपना समय बिताते हैं। इनकी हालत दीवानों जैसी है और इंटरनेट की दुनिया ही इनकी वास्तविक दुनिया बनती जा रही है। इससे इन छात्रों के स्वास्थ्य पर बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है। दिमाग़, हाथ-पैर, पाचन-तंत्र आदि सब बेकार होते जा रहे हैं। चीन में ऐसे छात्रों को तलाश कर सूची बद्ध किया जा रहा है।
इसमें इनकी मदद स्कूल-कॉलेज और अभिभावकों के साथ-साथ पड़ोसी भी कर रहे हैं। सेना के विशेष कॅम्प में छ: महीने की कठोर ट्रेनिंग दी जाती है। जिसमें सब्ज़ी काटना, शौचालय साफ़ करना, झाड़ू-पौंछा, बर्तन धोना, कपड़े धोना आदि से लेकर कठोर शारीरिक कसरत भी शामिल है। इन विशेष रिहॅब (Rehabilitation centre) में कठोर अनुशासन के द्वारा इनका जीवन दोबारा से सही रास्ते पर लाया जाता है।

ज़रा सोचिए कि चीन की आबादी भारत से ज़्यादा है...

4 जुलाई, 2014

शब्दार्थ

संबंधित लेख