आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट नवम्बर 2014: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
('{{आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट}} {{फ़ेसबुक पोस्ट}} {| width=100% sty...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
m ("आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट नवम्बर 2014" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (अनिश्चित्त अवधि) [move=sysop] (अनिश्चित्त �)
(No difference)

Revision as of 13:07, 27 December 2014

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
पोस्ट संबंधित चित्र दिनांक

नहीं आवाज़ होती है, दिलों के टूट जाने की
ज़रूरत क्या है फिर तुमको, इसे सुनने-सुनाने की

मेरे तन्हाई के आलम में सारे ख़ाब फीके थे
तुम्हारी ज़िद थी फिर इनको, बहारों से सजाने की

जो मैं था वो तो रहने ही कहाँ तुमने दिया मुझको
जो मैं अब हो गया तुम सा, तो ज़िद है छोड़ जाने की

मैं ख़ुश कितना हूँ ये तुमको बताने के लिए आया
तुम्हें फ़ुर्सत कहाँ नाचीज़ को दिल से लगाने की

हज़ारों ख़्वाइशों को छोड़ के तुमको ही चाहा था
तुम्हें बेचौनियां रहती हैं अब सारे ज़माने की

250px|center 20 नवम्बर, 2014

पिछले दिनों, फ़ेसबुक चर्चा में एक ‘चर्च’ था (वाह ! ये तो नया शब्द ईजाद हो गया ‘चर्च’, इसका मतलब समझा जाय कि ‘Thread’ याने कोई Comment, हा हा हा)… तो ये चर्च ग्रामीण जीवन से जुड़ी बातों और शब्दों से संबंधित था। इन शब्दों की व्याख्या कर रहा हूँ...
'चर्स' या 'पुर' :-
प्राचीन भारत में सिंचाई के कुछ साधन ऐसे थे जो अब विद्यमान नहीं हैं और कुछ अब भी हैं। एक था 'चर्स' या 'पुर' द्वारा सिंचाई, यह एक जटिल और जोखिम का काम था इसमें दो बैल और दो आदमी लगते थे। जो 'न्हैचिया' पर चलते थे। न्हैचिया उस ढलान को कहते थे जिस पर चलकर बैल पानी खींचते थे।
'चर्स' या 'पुर' लगभग 7 मन पानी (लगभग पौने तीन सौ लीटर पानी) की क्षमता रखता था। यह चमड़े का बना होता था। जब पानी से भरा हुआ 'पुर' कुँए की मेड़ पर आता था तो एक व्यक्ति उसको अपनी तरफ़ खींचकर ख़ाली करता था। इस क्षण पर उसे ज़ोर से 'राम' कहना होता था, जिससे बैलों के साथ वाला व्यक्ति बैलों की रस्सी से 'किल्ली' (लकड़ी की मोटी कील) को निकाल देता था। पुर आसानी से ख़ाली हो जाता था। जब कुँए पर बैठा व्यक्ति 'राम' कहना भूल जाता था तो आदत के अनुसार बैल वापस चल देते थे। इससे 'पुर' भरी हुई हालत में ही कुँए में वापस जाने लगता था। यह भयानक विपत्ति होती थी जिसके कारण कभी-कभी बैल भी कुँए में चले जाते थे।
इस दुर्घटना का नाम होता है 'मचैंड़ा बजना' ( गाँव में 'मचैंड़ौ बाजगौ')। मैंने इस प्रकार की सिंचाई अपनी आखों से देखी है। अपने ही खेत में।
मेरे पिताजी के सामने यह दुर्घटना घटी थी। वे न्हैचिया पर कसरत करने जाते थे। जब उन्होंने देखा कि पुर वापस कुँए में जा रहा है तो उन्होंने रस्सा हाथों से पकड़ लिया और तब तक पुर को रोके रहे जब तक कि कई लोगों ने आकर साथ नहीं दिया। इसमें पिताजी के हाथों की खाल तक उतर गई थी। पिताजी बेहद शक्तिशाली थे, वरना अकेले पुर को रोकना असंभव जैसा काम माना जाता था। (चित्र में देखें)
पासी :-
भुस को सर पर ले जाने के लिए गाँवों में एक जालीदार गठरी बुनी जाती है। जिसमें लॉन टेनिस के नेट जैसी बुनाई होती है।
बढ़ार:-
बारात जब अगले दिन सुबह विदा न होकर एक दिन और रुकती है तो वह बढ़ार कहलाती है, उसे बारात की दावत न कहकर बढ़ार की दावत कहते हैं।
भोका:- यह चमड़े, बांस की फंच्चट या टिन की सहायता से बना एक बड़े सूप की बनावट का चौकोर परात जैसा उपकरण होता है। इसमें चार रस्सियां बंधी होती हैं। दो-दो रस्सियों को दो व्यक्ति पकड़ते हैं और पानी को खेत में फेंकते हैं। केवल प्रयोग बतौर मैंने इसे चलाया है, पेट की मांस पेशियां खिंच जाती हैं। (सिक्स पॅक बनाने का देहाती साधन भी है… हा हा हा)- (चित्र में देखें)
ढेंकली:
ये सिंचाई का साधन था, जो कहीं-कहीं आज भी प्रयोग में है। ये एक लम्बी ‘बल्ली’ होती थी जो ‘Y’ के आकार के लकड़ी के खूंटे पर टिकी होती थी। इसका एक सिरा जिस पर कोई बड़ा सा बर्तन बंधा होता था; कुँए, बावड़ी, नदी या नहर की तरफ़ रहता था और दूसरे सिरे पर एक रस्सी बांधी जाती थी। रस्सी को ढीला करने और फिर खींचने से पानी भरकर खेत में उडेला जा सकता था। (चित्र में देखें)
रहट:
ये सिंचाई का साधन था। इसके बारे में तो ज़्यादातर लोग जानते होंगे। (चित्र देखें)
लदपामरी:
फावड़े से मिलता-जुलता उपकरण जो पूरा लकड़ी का होता है। गाय-भैंस का गोबर खिसकाने-इकट्ठा करने के काम आता है। मैंने इसका इस्तेमाल किया है।
तिक:
हल जोतने के लिए दो बैल या दो भैंसे चाहिए। इसके लिए अपना jargon है। सामान्यत: बाँये (अंदर वाले) बैल को ‘आ:' और दाँये (बाहरी) को तिक कहा जाता है और यही दोनों शब्द इनको क़ाबू करने के लिए भी बोले जाते हैं। बैल ज़्यादा समझदार होते हैं वे अधिक आसानी से समझ लेते हैं और भैंसा तो फिर भैंसा है ही…
पैर:
कटाई के समय, ‘पैर' खेत के एक हिस्से में बना लिया जाता है। इसी पैर में फ़सल से अनाज निकाला जाता है।
पैर बनाना भी एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। एक बड़ी सी क्यारी बना ली जाती है। इसमें पानी भर देते हैं। नंगे पैरों से इसकी खुंदाई होती है। सूखने के बाद पैर तैयार हो जाता है। यहीं पर बालों से अनाज निकालने का कार्यक्रम चलता है।
लांक:
कटी फ़सल के ढेर को ही लांक कहते हैं।

250px|center 17 नवम्बर, 2014

हर आन कस की दारद हुश व राइव दीन।
पस अज़ मर्ग बर मन कुनद आफ़रीन॥
-फ़िरदौसी
इसका अर्थ है “हर वह व्यक्ति जो साहित्य को परखने की दृष्टि रखता है, वह मेरे मरने के बाद भी मेरे कृत्य की प्रशंसा अवश्य करेगा।”
ईरान के मशहूर कवि फ़िरदौसी ने दसवीं शताब्दी में 60 हज़ार शेरों का महाकाव्य ‘शाहनामा’ की रचना की। शाहनामा की तुलना महाभारत और इलियड से की जाती है।

17 नवम्बर, 2014

     घर में मेरा बचपन था और एक पॅट्रोमॅक्स भी था। जिसे सही तरह से जलाना मैंने सीख लिया था। हर बार जल्दी से जल्दी सही तरह से पॅट्रोमॅक्स जलाने की ज़िम्मेदारी मेरी हुआ करती थी। फंणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पंचलाइट के गोधन का सा हाल समझिए कुछ-कुछ...
बिजली के जाते ही हल्ला होता था कि 'भैया कहाँ है... भैया कहाँ है...?'।
     घरेलू नौकर तो कई थे लेकिन 'गॅस की लालटेन' को सही तरह से जलाना मुझे ही आता था। दूसरे जलाते तो कभी फिलामेन्ट (फ़्लामेंट) फट जाता तो कभी बहुत ज़्यादा ज़ोर से आग के बढ़ जाने से काँच ही टूट जाते। मैं बाक़ायदा स्प्रिट का इस्तेमाल करके उसे बड़े सलीक़े से जलाता था।
दीये, लालटेन, कुल्लड़ वग़ैरा... ऐसी बहुत सी चीज़े थीं जो ज़िन्दगी से जुड़ी थीं। जिनमें एक थी 'जमना जी' (यमुना नदी)। पिताजी जीप में भरकर हम बच्चों को गर्मियों की छुट्टियों में जमना निलहाने (नहलाने) ले जाते थे और वहाँ पहुँच कर हमें तरह-तरह के निर्देश दिए जाते थे। जैसे कि कछुओं से बचने के लिए पानी को हाथ से छप-छप करते रहना, नदी में आगे जाने में बड़ा बच्चा आगे चलेगा, कोई भी किसान से पूछे बिना तरबूज़ नहीं तोड़ेगा आदि-आदि। गर्मियों में पानी कम रहता था...
     जीप, रेत पर किनारे खड़ी कर दी जाती और हम बच्चे यमुना को देखते ही जीप में ही कपड़े उतारना शुरू कर देते और जीप से कूद कर नदी की तरफ़ भाग लेते। बालू, रेत, तरबूज़ की बाड़ी और सरकंडों की झाड़ी...।
यमुना का पानी निर्मल जल हुआ करता था और झर-झर बहता था उसमें हम नौनिहाल किलोल किया करते थे।
     एक बार मैं अकेला ही नदी में अंदर तक चला गया... पानी बहुत गहरा था अचानक से एक गड्ढे जैसे में गुड़ुम्म से डूब गया। मुझे लगा कि भीमसेन की तरह पाताल लोक में चला गया.... लेकिन मुझे तैरना बचपन से ही आता था तो हाथ-पैर चला कर ऊपर आ गया लेकिन नाक में पानी भर गया था। बहुत देर तक चुपचाप किनारे पर बैठा रहा। किसी को बताया नहीं और किसी को पता भी नहीं चला। थोड़ी देर बाद तरबूज़ आ गया। उस वक़्त हम इसे 'तरबूजा' कहते थे। तरबूज़ मेरे लिए हमेशा चुनौती रहा। एक तो ये पता करना असंभव होता था कि कौन सा अंदर से लाल और मीठा निकलेगा दूसरा ये कि बाड़ी वाले किसान को ये बात कैसे पता चलती थी। ख़ैर तरबूज़ खाने में ये कम्पटीशन ज़रूर होता था कि बीज को कौन कितनी दूर तक फेंक सकता है। अब ध्यान तरबूज़ खाने पर कम और मुँह से बीज को दूर तक फेंकने में ज़्यादा रहता था।
     जब में साइकिल चलाना सीख गया तो मैंने कई दु:साहसिक क़दम उठाए जैसे कि तरबूज़ की ख़रीदारी...। मंडी हमारे घर से पास ही थी। मैंने एक बड़ा सा गोल तरबूज़ ख़रीदा और साइकिल के कॅरियर पर पीछे बाँध लिया। अब साइकिल चलाना अपने आप में एक सरकस था। साइकिल थी कि संभलती ही नहीं थी। ऐसा लगता था कि मैं नहीं बल्कि तरबूज़ साइकिल को कंट्रोल कर रहा है। जैसे-तैसे घर पहुँचा, तरबूज़ काटा तो सफ़ेद निकला... अम्माजी ने समझाया कि 'टांकी' लगवा के देख लिया कर कि कैसा है ! चल छोड़ इसे गंगा खा लेगी। गंगा हमारी गाय का नाम था।
     साइकिल से जुड़ाव होना बचपन की सहज प्रक्रिया होती है लेकिन साइकिल को खाट (चारपाई) के सिरहाने रखकर सोना मेरी बहुत बड़ी ख़ुशी रही। क्या आनंद आता था सोने में... खाट के सिरहाने साइकिल और तकिये के बग़ल में अपने नये जूते। एक वक़्त में 'बाटा' की भूमिका ज़िन्दगी में फ़ेसबुक और वॉट्स ऍप से ज़्यादा हुआ करती थी। जब भी बाटा के नए काले बूट मिलते मैं कई दिन तक उन्हें सिरहाने रखकर सोता...
     साइकिल की ओवरहॉलिंग मेरे पसंदीदा कामों में से एक हुआ करता था। रीम की लहक निकालना, तानों का जाल कसना सब सीख लिया था, पिताजी ने सिखाया। ये सब तो सीखा लेकिन एक खेल मैं कभी नहीं खेल पाया, वो था साइकिल के टायर या रीम को लकड़ी से चलाते हुए खेतों की पगडंडी पर भागते चला जाना। जब कभी पिताजी-अम्माजी के साथ गाँवों में जाता तो साथ के बच्चों को पहिया घुमाते हुए भागते देखता तो ईर्ष्या और आश्चर्य से भर जाता। कई बार कोशिश की लेकिन ज़्यादा दूर तक नहीं ले जा पाता था।
एक बार एक लड़की को भी पहिया भगाते देखा तो शर्म से मर ही गया... आज भी मैं पहिया नहीं चला पाता...
- बाक़ी फिर कभी...

250px|center 6 नवम्बर, 2014

कल उसे मुर्ग़ा बनाया था, भरे दरबार में
आज बत्तीसी दिखाता चित्र है, अख़बार में

     ज़ोर से दुम को हिलाना सीख लें, काम आएगी
     ये कला बेजोड़ है, हर एक कारोबार में

नाक को भी काटकर रख लें, छुपाकर जेब में
ज़िन्दगी का फ़लसफा है, नाक के आकार में

     रुक गया ट्रॅफ़िक, संभल के सांस को भी रोक लो
     उनका कुत्ता सो रहा, लम्बी सी काली कार में

अब झुका लो गर्दनें वरना कटेंगी खच्च से
बहुत सारे जोखिमों का रिस्क है दीदार में

     कौन से सपने सुनहरे देखते रहते हो तुम
     अनगिनत हैं, जिनको चुनवाया गया दीवार में

जाने कब होगा सवेरा ? मौन क़ब्रस्तान का
इस तरह की बात मत करना यहाँ बेकार में

250px|center 2 नवम्बर, 2014

शब्दार्थ

संबंधित लेख