एकावली अलंकार: Difference between revisions

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*[[मतिराम]], [[भूषण]] तथा [[पद्माकर]] के लक्षण समान हैं-
*[[मतिराम]], [[भूषण]] तथा [[पद्माकर]] के लक्षण समान हैं-


<blockquote>"गहब तजब अर्थालिको जँह।"<ref>पद्माभरण, 175</ref> और "एक अर्थ लै छोड़िये और अर्थ लै ताहि। अर्थ पाँति इमि कहत है।"<ref>ललित लला, 159</ref></blockquote>
<blockquote>"गहब तजब अर्थालिको जँह।"<ref>पद्माभरण, 175</ref> और "एक अर्थ लै छोड़िये और अर्थ लै ताहि। अर्थ पाँति इमि कहत है।"<ref>[[ललित ललाम]], 159</ref></blockquote>


यहाँ [[विशेषण]] शब्द का प्रयोग सामान्य रूप में ऐसे किसी [[शब्द (व्याकरण)|शब्द]] के लिए हुआ है, जो किसी वस्तु को अन्य वस्तु से अलग करता अथवा उसे विशिष्टता प्रदान करता है। भोज ने इसे 'परिकर' के अंतर्गत स्वीकार किया था। जगन्नाथ के अनुसार 'मालादीपक' को इसका भेद मानना चाहिए।
यहाँ [[विशेषण]] शब्द का प्रयोग सामान्य रूप में ऐसे किसी [[शब्द (व्याकरण)|शब्द]] के लिए हुआ है, जो किसी वस्तु को अन्य वस्तु से अलग करता अथवा उसे विशिष्टता प्रदान करता है। भोज ने इसे 'परिकर' के अंतर्गत स्वीकार किया था। जगन्नाथ के अनुसार 'मालादीपक' को इसका भेद मानना चाहिए।

Revision as of 13:20, 2 June 2015

एकावली अलंकार एक शृंखलामूलक अर्थालंकार है, जिसमें शृंखला-रूप में वर्णित पदार्थों में विशेष्य-विशेषणभाव सम्बन्ध पूर्व-पूर्व विशेष्य, पर-पर विशेषण, पूर्व-पूर्व विशेषण, पर-पर विशेष्य, इन दो रूपों में स्थापित अथवा निषिद्ध किया जाता है।[1] इस अलंकार की योजना कवि केवल चमत्कार उत्पन्न करने के लिए करते हैं। इसमें कल्पना की उड़ान का विनोदात्मक रूप होता है।

  • रुद्रट द्वारा उल्लिखित इस अलंकार को मम्मट के[2] आधार पर विश्वनाथ इसी रूप में स्वीकार करते हैं-

"पूर्व पूर्व प्रति विशेषण-त्वेन परं परम्। स्थाप्यतेऽपोह्यते वा चेत् स्यात्तदैकावली द्विधा"।[3]

  • मम्मट तथा रुद्रट, दोनों ने स्थापना और निषेध के रूप में दो भेद माने हैं।
  • जयदेव ने 'चन्द्रालोक' में इसको केवल 'गृहीतमुक्त रीति से विशेषण-विशेष्य के वर्णन क्रम" के रूप में माना है।
  • हिन्दी में जसवंत सिंह ने 'कुवलयानन्द' के आधार पर इसी का अनुकरण किया है, पर उसका वृत्ति पर ध्यान न देने से लक्षण स्पष्ट नहीं है।
  • हिन्दी के मध्ययुगीन आचार्यों ने प्राय: जयदेव का अनुसरण किया है और लक्षण के अनुसार एक ही उदाहरण दिया है।
  • मतिराम, भूषण तथा पद्माकर के लक्षण समान हैं-

"गहब तजब अर्थालिको जँह।"[4] और "एक अर्थ लै छोड़िये और अर्थ लै ताहि। अर्थ पाँति इमि कहत है।"[5]

यहाँ विशेषण शब्द का प्रयोग सामान्य रूप में ऐसे किसी शब्द के लिए हुआ है, जो किसी वस्तु को अन्य वस्तु से अलग करता अथवा उसे विशिष्टता प्रदान करता है। भोज ने इसे 'परिकर' के अंतर्गत स्वीकार किया था। जगन्नाथ के अनुसार 'मालादीपक' को इसका भेद मानना चाहिए।

  • निम्नांकित पंक्ति में रसखान ने एकावली अलंकार का नियोजन किया है-

वा रस में रसखान पगी रति रैन जगी अंखियां अनुमानै।
चंद पै बिम्ब औ बिंब पै कैरव कैरव पै मुकतान प्रमानै।[6]

यहाँ नायिका के मुख, अधर और नेत्रों के अंगों का एक के बाद एक करके शृंखला रूप में वर्णन हुआ है। रात भर जागरण के कारण नायिका की आँख लाल हो गई हैं। उसके मुख पर चन्द्र पर बिंब[7] है, बिंब पर कैरव[8] हैं और 'कैरव' पर मुक्ताएं[9] हैं। रसखान ने 'एकावली' का प्रयोग एकाध स्थलों पर ही किया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 150 |
  2. काव्यप्रकाश, 10: 131
  3. साहित्य दर्पण, 10: 78
  4. पद्माभरण, 175
  5. ललित ललाम, 159
  6. सुजान रसखान, 119
  7. कुन्दरू- लाल आंखों की ललाई
  8. आंखों में सफ़ेद कौए
  9. रात भर जागने से जंभाई लेने पर स्वत: निकल पड़ने वाली आंसू की बूँदें

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