कालिदास का समय

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 11:24, 27 August 2011 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replace - "महत्वपूर्ण" to "महत्त्वपूर्ण")
Jump to navigation Jump to search

कालिदास विक्रमादित्य की सभा के नवरत़्नों में से एक थे। इसका आधार 'ज्योतिर्विदाभरण' का यह श्लोक है -

धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशकुर्वेतालभट्टं घटखर्परकालिदासा:।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते: सभायां रत़्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥

कालिदास के समय के विषय में विद्वानों के अलग अलग मत हैं, किंतु कालिदास के समय के विषय में एक तथ्य प्रकाश में आया है, जिसका श्रेय 'डॉ. एकान्त बिहारी' को है। उनके प्रकाशित लेख के अनुसार -

प्राप्त तथ्य

उज्जयिनी से कुछ दूरी पर भैरवगढ़ नामक स्थान से मिली हुई क्षिप्रा नदी के पास दो शिलाखण्ड मिले हैं, इन पर कालिदास से सम्बन्धित कुछ लेख अंकित हैं। इन शिलाखंडों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि 'कालिदास अवन्ति देश में उत्पन्न हुए थे और उनका समय शुंग राजा अग्निमित्र से लेकर विक्रमादित्य तक रहा होगा।' इस शिलालेख से इतना ही ज्ञात होता है कि यह शिलालेख महाराज विक्रम की आज्ञा से हरिस्वामी नामक किसी अधिकारी के आदेश से खुदवाया गया था।

शिलालेखों पर लिखे हुए श्लोक

शिलालेखों पर लिखे हुए श्लोकों का भाव यह है कि महाकवि कालिदास अवन्ती में उत्पन्न हुए तथा वहाँ विदिशा नाम की नगरी में शुंग पुत्र अग्निमित्र द्वारा इनका सम्मान किया गया था। इन्होंने ऋतुसंहार, मेघदूत, मालविकाग्निमित्र, रघुवंश, अभिज्ञानशाकुन्तलम, विक्रमोर्वशीय तथा कुमारसम्भव – इन सात ग्रंथों की रचना की थी। महाकवि ने अपने जीवन का अन्तिम समय महाराज विक्रमार्क (विक्रमादित्य) के आश्रय में व्यतीत किया था। कृत संवत के अन्त में तथा विक्रम संवत के प्रारम्भ में कार्तिक शुक्ला एकादशी, रविवार के दिन 95 वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु हुई। कालिदास का समय ईसा पूर्व 56 वर्ष मानना अधिक उचित होगा।[1]

अन्य जानकारी

इसके अतिरिक्त कालिदास के सम्बन्ध में जो जानकारी प्राप्त की जा सकती है, वह उनकी रचनाओं में जहाँ-तहाँ बिखरे हुए विभिन्न वर्णनों से निष्कर्ष निकालकर प्राप्त की गई है। यह जानकारी अपूर्ण तो है ही, साथ ही अनिश्चित भी है। उदाहरण के लिए केवल इतना जान लेने से कि कालिदास पहली शताब्दी ईस्वी - पूर्व से लेकर ईसा के बाद चौथी शताब्दी तक की अवधि में हुए थे और या तो वे उज्जैनके रहने वाले थे या कश्मीर के या हिमालय के किसी पार्वत्य प्रदेश के, पाठक के मन को कुछ भी संतोष नहीं हो पाता। इस प्रकार के निष्कर्ष निकालने के लिए विद्वानों ने जो प्रमाण उपस्थित किए हैं, वे बहुत जगह विश्वासोत्पादक नहीं है और कई जगह तो उपहासास्पद भी बन गए हैं। फिर भी उन विद्वानों का श्रम व्यर्थ गया, नहीं समझा जा सकता, जिन्होंने इस प्रकार के प्रयत्न द्वारा कालिदास के स्थान और काल का निर्धारण करने का प्रयास किया है। अन्धेरे में टटोलने वाले और ग़लत दिशा में बढ़ने वाले लोग भी एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य को पूर्ण करने में सहायक होते हैं, क्योंकि वे चरम अज्ञान और निष्क्रियता की दशा से आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. साप्ताहिक हिन्दुस्तान, 18 अक्टूबर, 1964 (हिन्दी)

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः