क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी

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क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी (1316-1320 ई.) ख़िलजी वंश के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी का तृतीय पुत्र था। अलाउद्दीन के प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक मलिक काफ़ूर इसका संरक्षक था। कुछ समय बाद मलिक काफ़ूर स्वयं सुल्तान बनने का सपना देखने लगा और उसने षड़यंत्र रचकर मुबारक ख़िलजी की हत्या करने की योजना बनाई। किंतु मलिक काफ़ूर के षड़यंत्रों से बच निकलने के बाद मुबारक ख़िलजी ने चार वर्ष तक सफलतापूर्वक राज्य किया। इसके शासनकाल में राज्य में प्राय: शांति व्याप्त रही। देवगिरि तथा गुजरात की विजय से मुबारक ख़िलजी का दिमाग फिर गया और वह भोग-विलास में लिप्त रहने लगा। वह नग्न स्त्री-पुरुषों की संगत को पसन्द करता था। उसके प्रधानमंत्री ख़ुसरों ख़ाँ ने 1320 ई. में उसकी हत्या करवा दी।

राजगद्दी की प्राप्ति

अलाउद्दीन ख़िलजी के सफल शासन और उसकी मृत्यु के बाद उसके प्रभावशाली सेनानायक मलिक काफ़ूर ने दुरभिसंधि कर अलाउद्दीन के कनिष्ठ पुत्र 'मुबारक ख़िलजी' को सिंहासन पर बैठाया और स्वयं उसका संरक्षक बन गया। इसके कुछ ही दिनों बाद स्वयं सुल्तान बनने की इच्छा से उसने अलाउद्दीन के सभी पुत्रों को बंदी बनाकर उन्हें अंधा करना आरंभ किया। मुबारक ख़िलजी किसी तरह बंदीगृह से भाग निकला। जब मलिक काफ़ूर की हत्या उसके शत्रुओं ने कर दी, तब मुबारक ख़िलजी फिर से प्रकट हुआ और अपने छोटे भाई का संरक्षक बना। बाद में स्वंय उसने अपने छोटे भाई को अंधा कर दिया और 'क़ुतुबद्दीन मुबारक ख़िलजी' के नाम से सुल्तान बन गया। उसने अपने को इस्लाम धर्म का सर्वोच्च धर्माधिकारी घोषित किया और 'अल-वासिक-बिल्लाह' की उपाधि धारण की।[1]

देवगिरि तथा गुजरात की विजय

क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने लगभग चार वर्ष तक शासन किया। उसके शासनकाल में गुजरात तथा देवगिरि के अतिरिक्त सारे देश में शांति रही। गुजरात में वहाँ के सूबेदार जफ़र ख़ाँ ने, जो मुबारक ख़िलजी का अपना श्वसुर था, विद्रोह किया। उसने उसका बलपूर्वक दमन किया। इसी प्रकार देवगिरि के शासक हरगोपाल देव ने भी विद्रोह किया। उसका विद्रोह कुछ ज़ोरदार था। अत: मुबारक ख़िलजी ने उसके विरुद्ध एक विशाल सेना का स्वयं नेतृत्व किया। हरगोपाल देव ने भागने की चेष्टा की, लेकिन वह पकड़ा गया और उसकी हत्या कर दी गई। क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने देवगिरि में एक विशाल मसजिद बनवाई और दिल्ली लौट आया।

सुरा-सुन्दरी प्रेम

इन विजयों के कारण ही मुबारक ख़िलजी का दिमाग फिर गया और वह अपना सारा समय सुरा तथा सुन्दरियों में बिताने लगा। उसकी इन विजयों के अतिरिक्त अन्य किसी भी विजय का वर्णन नहीं मिलता है। क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी को नग्न स्त्री-पुरुषों की संगत पसन्द थी। अपनी इसी संगत के कारण कभी-कभी वह राज्य दरबार में स्त्री का वस्त्र पहनकर आ जाया करता था। 'जियाउद्दीन बरनी' के अनुसार मुबारक ख़िलजी कभी-कभी नग्न होकर दरबारियों के बीच दौड़ा करता था।

सुधार कार्य

शासन के प्रारंभिक काल में क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने कुछ लोकप्रिय कार्य भी किए। उसने राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया। अपने सैनिकों को छः माह का अग्रिम वेतन देना प्रारम्भ किया। विद्धानों एवं महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की छीनी गयीं सभी जागीरें उन्हें वापस कर दीं। अलाउद्दीन ख़िलजी की कठोर दण्ड व्यवस्था एवं 'बाज़ार नियंत्रण प्रणाली' आदि को भी समाप्त कर दिया और जो कठोर क़ानून बनाये गए थे, उन्हें समाप्त करवा दिया। इससे जनता को अपार हर्ष तथा संतोष हुआ।

उपाधियाँ

क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने 'अल इमाम', 'उल इमाम' एवं 'ख़िलाफ़त-उल्लाह' की उपाधियाँ धारण की थीं। उसने ख़िलाफ़त के प्रति भक्ति को हटाकर अपने को 'इस्लाम धर्म का सर्वोच्च प्रधान' और 'स्वर्ण तथा पृथ्वी के अधिपति का ख़लीफ़ा' घोषित किया।

हत्या

मुबारक ख़िलजी सारा समय सुरा और सुन्दरियों में व्यतीत करने लगा था। उसने अपना सारा राजकार्य ख़ुसरो ख़ाँ को प्रधानमंत्री बनाकर उसके ऊपर छोड़ दिया। ख़ुसरो ख़ाँ एक निम्न वर्ग का गुजराती था, जिसने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया था। वह बड़ा महत्वाकांक्षी व्यक्ति था, और स्व्यं ही क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी को हटाकर सुल्तान बनना चाहता था। अत: उसके एक साथी नासिरुद्दीन खुशरवशाह ने 15 अप्रैल 1320 ई. में छुरा भोंककर मुबारक ख़िलजी की हत्या कर दी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पांडा, मिथिलो चन्द्र। मुबारक खिलजी क़ुतुबुद्दीन (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 2 अप्रैल, 2012।

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