Difference between revisions of "अनमोल वचन 1"

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हम '''अनमोल वचन''' उन बातों और लेखों को कहते हैं, जिन्हें संसार के अनेकानेक विद्वानों ने कहे और लिखे हैं, जो जीवन उपयोगी हैं। इन अनमोल वचनों को हम अपने जीवन में अपनाकर अपने जीवन में नई उंमग एवं उत्साह का संचार कर सकते हैं। अनमोल वचन को हम '''सूक्ति (सु + उक्ति) या सुभाषित (सु + भाषित)''' भी कहते हैं। इन बातों को अनमोल इसलिए भी कहा जाता हैं क्योंकि यदि हम इन बातों का अर्थ या सार समझेगें, तो हम पायेंगे की इन बातों का कोई मोल नहीं लगा सकता। इन बातों को हम अपने जीवन में अपनाकर अपने जीवन की दिशा को बदल सकते हैं और जीवन की दिशा बदलनें वाली बातों का कभी कोई मोल नही लगा सकता हैं क्योकि ये बातें तो अनमोल होती हैं।
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{{दाँयाबक्सा|पाठ=बुद्धिमानो की बुद्धिमता और बरसों का अनुभव सुभाषितों में संग्रह किया जा सकता है।|विचारक=आईजक दिसराली}}
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* हम '''अनमोल वचन ( Priceless Words / Quotes)''' (अमृत वचन/ सुविचार/ सुवचन/ सत्य वचन/ सूक्ति/ सुभाषित/ उत्तम (उत्‍तम) वाणी/ उद्धरण/ धीर गंभीर मृदु वाक्‍य)उन बातों और लेखों को कहते हैं, जिन्हें संसार के अनेकानेक विद्वानों ने कहे और लिखे हैं, जो जीवन उपयोगी हैं। इन अनमोल वचनों को हम अपने जीवन में अपनाकर अपने जीवन में नई उंमग एवं उत्साह का संचार कर सकते हैं। अनमोल वचन को हम '''सूक्ति (सु + उक्ति) या सुभाषित (सु + भाषित)''' भी कहते हैं। जिसका अर्थ है “सुन्दर भाषा में कहा गया”। इन बातों को अनमोल इसलिए भी कहा जाता हैं क्योंकि यदि हम इन बातों का अर्थ या सार समझेगें, तो हम पायेंगे की इन बातों का कोई मोल नहीं लगा सकता। इन बातों को हम अपने जीवन में अपनाकर अपने जीवन की दिशा को बदल सकते हैं और जीवन की दिशा बदलनें वाली बातों का कभी कोई मोल नहीं लगा सकता हैं क्योकि ये बातें तो अनमोल होती हैं।
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* वक्ता हो या संत हो, विद्वान् हो या लेखक हो, राजनेता हो या फिर कोई प्रशासक — अपनी बात कहने के साथ-साथ वह उसे सार-रूप में कहता हुआ एक माला के रूप में पिरोता चलता है। इस सार-रूप में कहे गए वाक्यों में ऐसे सूत्र छिपे रहते हैं, जिन पर चिंतन करने से विचारों की एक व्यवस्थित श्रृंखला का सहज रूप से निर्माण होता है। उस समय ऐसा लगता है मानो किसी विशिष्ट विषय पर लिखी गई पुस्तक के पन्ने एक-एक करके पलट रहे हों।
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* सूत्ररूप में कहे गए ये कथन आत्मविकास के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। इसीलिए व्यक्तित्व विकास पर कार्य कर रहे अनुसंधानकर्ताओं और विद्वानों का कहना है कि प्रत्येक आत्मविकास के इच्छुक को चाहिए कि वह अपने लिए आदर्शवाक्य चुनकर उसे ऐसे स्थान पर रख या चिपका ले, जहाँ उसकी नज़र ज़्यादातर पड़ती हो। ऐसा करने से वह विचार अवचेतन में बैठकर उसके व्यक्तित्व को गहराई तक प्रभावित करेगा। इन वाक्यों का आपसी बातचीत में, भाषण आदि में प्रयोग करके आप अपने पक्ष को पुष्ट करते हैं। ऐसा करने से आपकी बातों में वजन तो आता ही है लोगों के बीच आपकी साख भी बढ़ती है।
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<poem>{{दाँयाबक्सा|पाठ=सुभाषितों की पुस्तक कभी पूरी नहीं हो सकती।|विचारक=राबर्ट हेमिल्टन}}</poem>
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* लोग जीवन में कर्म को महत्त्व देते हैं, विचार को नहीं। ऐसा सोचने वाले शायद यह नहीं जानते कि विचारों का ही स्थूल रूप होता है कर्म अर्थात् किसी भी कर्म का चेतन-अचेतन रूप से विचार ही कारण होता है। '''जानाति, इच्छति, यतते—जानता है (विचार करता है), इच्छा करता है फिर प्रयत्न करता है।''' यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसे आधुनिक मनोविज्ञान भी स्वीकार करता है। जानना और इच्छा करना विचार के ही पहलू हैं । आपने यह भी सुना होगा कि विचारों का ही विस्तार है आपका अतीत, वर्तमान और भविष्य। दूसरे शब्दों में, आज आप जो भी हैं, अपने विचारों के परिमामस्वरूप ही हैं और भविष्य का निर्धारण आपके वर्तमान विचार ही करेंगे। तो फिर उज्ज्वल भविष्य की आकांक्षा करने वाले आप शुभ-विचारों से आपने दिलो-दिमाग को पूरित क्यों नहीं करते।
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* शब्द ब्रह्म है। भारतीय दर्शकों में [[शब्द (व्याकरण)|शब्द]] को उत्तम प्रमाण माना गया है। इस संदर्भ में एक अत्यंत प्रचलित कथा का उल्लेख करना यहां युक्तिसंगत होगा। कथा इस प्रकार है —  दस व्यक्तियों ने बरसाती नदी पार की। पार पहुँचने पर यह जांचने के लिए कि दसों ने नदी पार कर ली है, कोई नदी में डूब तो नहीं गया, एक ने गिनना शुरू किया। उसके अनुसार उनका एक साथी नदी में बह गया था। एक-एक करके सभी ने गिनती की, प्रत्येक का यही मानना था कि कोई बह गया है। सभी उस दसवें व्यक्ति के लिए रोने और विलाप करने लगे। वहाँ से गुज़र रहे एक बुद्धिमान व्यक्ति ने जब उनसे रोने तथा विलाप करने का कारण पूछा, तो उन्होंने सारी बात कह सुनाई। उस व्यक्ति ने उनको एक पंक्ति में खड़ा होने को कहा। जब सब पंक्ति में खड़े हो गए, तब उनमें से एक को बुलाकर उससे गिनने को कहा। उस व्यक्ति ने नौ तक गिनती गिनी और चुप हो गया। तब आगन्तुक ने कहा दसवें तुम हो’ इतना सुनते ही सारा रोना-विलाप करना अपने आप, बिना किसी प्रयास के समाप्त हो गया। आगंतुक ने क्या किया ? उसके शब्दों ने ही रोने-बिलखने को विदाई दिलवा दी।
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* [[शंकराचार्य]] से जब उनके शिष्यों ने पूछा कि इस संसार - चक्र से मुक्त होने का क्या उपाय है, तो उनका जवाब था - केवल विचार ही। इसीलिए प्रत्येक धर्म-संप्रदाय और जाति के महान् पुरुषों ने सुझाव दिया कि जिस दिशा में आप अपने व्यक्तित्व को विकसित करना चाहते हैं, उससे संबंधित विचार को आप किसी ऐसी जगह रखे या चिपकाएं, जहां आपकी नज़र बार-बार जाती हो। वाक्य का अर्थ आपके भीतर बूस्टर की सी प्रतिक्रिया करेगा। श्रीमद्भागवद्ग [[गीता]] में [[श्रीकृष्ण]] ने स्पष्ट कहा कि मनुष्य को स्वयं से स्वयं का उद्धार करना होगा। कोई किसी की अवनति के लिए न तो उत्तरदायी है, न ही कोई किसी की उन्नति में अवरोध पैदा कर सकता है। [[मंथरा]] ने [[कैकेयी]] में परिवर्तन कैसे किया ? कैसे वह [[राम]] के राजा बनने में विरोधी बन गई ? कैसे उसने अपने पति [[दशरथ]] की मृत्यु और अपने वैधव्य की परवाह नहीं की ? इन सभी सवालों का जवाब आपको विचारों के परिवर्तन के इर्द-गिर्द ही घूमता मिलेगा।
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* महापुरुषों के वाक्यों को पढ़ते समय उनके व्यक्तित्व की गरिमा भी आपको प्रभावित करती है, जिससे अचेतन मन वैसा करने या न करने को विवश हो जाता है। इस प्रकार की बेबसी की स्थिति व्यक्तित्व के विकास के लिए अनुकूल वातावरण पैदा करती है, क्योंकि तब आपके मन के पास मनमानी करने का न तो अवसर होता है, न ही सामर्थ्य। अनुभव में एक बात और आई है कि कभी - कभी आपकी ऐसी शंका का समाधान एक छोटा-सा वाक्य कर जाता है, जिसके लिए आप लंबे समय से भटक रहे होते हैं। ‘'''देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर'''’ वाली इन वाक्यों के साथ लागू होती है। बातचीत करते समय, भाषण देते समय, बहस करते वक़्त या लिखते समय जब आप इन वाक्यों द्वारा अपने कथन की पुष्टि करते हैं तो आपकी बात में वजन आ जाता है, आपके व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने में इनसे सहायता मिलती है।
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* हमें विश्वास है कि यह संकलन आपके व्यक्तित्व को विकसित कर आपके जीवन में नई स्फूर्ति का संचार करते हुए आपमें आत्मविश्वास पैदा करेगा कि आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं है और कौन-सा काम ऐसा है, जिसे आप नहीं कर सकते।
  
वक्ता हो या संत हो, विद्वान हो या लेखक हो, राजनेता हो या फिर कोई प्रशासक — अपनी बात कहने के साथ-साथ वह उसे सार-रूप में कहता हुआ एक माला के रूप में पिरोता चलता है। इस सार-रूप में कहे गए वाक्यों में ऐसे सूत्र छिपे रहते हैं, जिन पर चिंतन करने से विचारों की एक व्यवस्थित श्रृंखला का सहज रूप से निर्माण होता है। उस समय ऐसा लगता है मानो किसी विशिष्ट विषय पर लिखी गई पुस्तक के पन्ने एक-एक करके पलट रहे हों।
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{{seealso|कहावत लोकोक्ति मुहावरे|सूक्ति और कहावत|अनमोल वचन 2|अनमोल वचन 3|अनमोल वचन 4|अनमोल वचन 5|अनमोल वचन 6|अनमोल वचन 7|अनमोल वचन 8|महात्मा गाँधी के अनमोल वचन}}
 
 
सूत्ररूप में कहे गए ये कथन आत्मविकास के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। इसीलिए व्यक्तित्व विकास पर कार्य कर रहे अनुसंधानकर्ताओं और विद्वानों का कहना है कि प्रत्येक आत्मविकास के इच्छुक को चाहिए कि वह अपने लिए आदर्शवाक्य चुनकर उसे ऐसे स्थान पर रख या चिपका ले, जहां उसकी नजर ज्यादातर पड़ती हो। ऐसा करने से वह विचार अवचेतन में बैठकर उसके व्यक्तित्व को गहराई तक प्रभावित करेगा। इन वाक्यों का आपसी बातचीत में, भाषण आदि में प्रयोग करके आप अपने पक्ष को पुष्ट करते हैं। ऐसा करने से आपकी बातों में वजन तो आता ही है लोगों के बीच आपकी साख भी बढ़ती है।
 
 
 
लोग जीवन में कर्म को महत्त्व देते हैं, विचार को नहीं। ऐसा सोचने वाले शायद यह नहीं जानते कि विचारों का ही स्थूल रूप होता है कर्म अर्थात् किसी भी कर्म का चेतन-अचेतन रूप से विचार ही कारण होता है। जानाति, इच्छति, यतते—जानता है (विचार करता है), इच्छा करता है फिर प्रयत्न करता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसे आधुनिक मनोविज्ञान भी स्वीकार करता है। जानना और इच्छा करना विचार के ही पहलू हैं । आपने यह भी सुना होगा कि विचारों का ही विस्तार है आपका अतीत, वर्तमान और भविष्य। दूसरे शब्दों में, आज आप जो भी हैं, अपने विचारों के परिमामस्वरूप ही हैं और भविष्य का निर्धारण आपके वर्तमान विचार ही करेंगे। तो फिर उज्ज्वल भविष्य की आकांक्षा करने वाले आप शुभ-विचारों से आपने दिलो-दिमाग को पूरित क्यों नहीं करते।
 
 
 
<blockquote>ख़ंज़र की क्या मजाल जो इक ज़ख़्म कर सके। तेरा ही है ख़याल कि घायल हुआ है तू।।  ---  '''स्वामी रामतीर्थ'''</blockquote>
 
 
 
शब्द ब्रह्म है। भारतीय दर्शकों में शब्द को उत्तम प्रमाण माना गया है। इस संदर्भ में एक अत्यंत प्रचलित कथा का उल्लेख करना यहां युक्तिसंगत होगा। कथा इस प्रकार है —  दस व्यक्तियों ने बरसाती नदी पार की। पार पहुँचने पर यह जांचने के लिए कि दसों ने नदी पार कर ली है, कोई नदी में डूब तो नहीं गया, एक ने गिनना शुरू किया। उसके अनुसार उनका एक साथी नदी में बह गया था। एक-एक करके सभी ने गिनती की, प्रत्येक का यही मानना था कि कोई बह गया है। सभी उस दसवें व्यक्ति के लिए रोने और विलाप करने लगे। वहां से गुजर रहे एक बुद्धिमान व्यक्ति ने जब उनसे रोने तथा विलाप करने का कारण पूछा, तो उन्होंने सारी बात कह सुनाई। उस व्यक्ति ने उनको एक पंक्ति में खड़ा होने को कहा। जब सब पंक्ति में खड़े हो गए, तब उनमें से एक को बुलाकर उससे गिनने को कहा। उस व्यक्ति ने नौ तक गिनती गिनी और चुप हो गया। तब आगन्तुक ने कहा दसवें तुम हो’ इतना सुनते ही सारा रोना-विलाप करना अपने आप, बिना किसी प्रयास के समाप्त हो गया। आगंतुक ने क्या किया ? उसके शब्दों ने ही रोने-बिलखने को विदाई दिलवा दी।
 
 
 
ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण मिल जाएँगे, जिनसे इस बात की पुष्टि होगी कि एक वाक्य ने किसी की जीवनधारा ही बदल दी। आपने कहानी सुनी होगी यह छोटी-सी कहानी, जो कुछ ठगों ने मिलकर एक व्यक्ति को, जो बछिया ले जा रहा था, यह विश्वास दिला दिया कि वह हछिया नहीं, बकरी ले जा रहा है। एक विचार यदि आपके अचेतन पर बराबर चोट करे तो आपकी दृष्टि में परिवर्तन हो जाता है।
 
 
 
आद्यशंकराचार्य से जब उनके शिष्यों ने पूछा कि इस संसार - चक्र से मुक्त होने का क्या उपाय है, तो उनका जवाब था - केवल विचार ही। इसीलिए प्रत्येक धर्म-संप्रदाय और जाति के महान पुरुषों ने सुझाव दिया कि जिस दिशा में आप अपने व्यक्तित्व को विकसित करना चाहते हैं, उससे संबंधित विचार को आप किसी ऐसी जगह रखे या चिपकाएं, जहां आपकी नजर बार-बार जाती हो। वाक्य का अर्थ आपके भीतर बूस्टर की सी प्रतिक्रिया करेगा। श्रीमद्भागवद्ग गीता में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा कि मनुष्य को स्वयं से स्वयं का उद्धार करना होगा। कोई किसी की अवनति के लिए न तो उत्तरदायी है, न ही कोई किसी की उन्नति में अवरोध पैदा कर सकता है। मंथरा ने कैकेई में परिवर्तन कैसे किया ? कैसे वह राम के राजा बनने में विरोधी बन गई ? कैसे उसने अपने पति दशरथ की मृत्यु और अपने वैधव्य की परवाह नहीं की ? इन सभी सवालों का जवाब आपको विचारों के परिवर्तन के इर्द-गिर्द ही घूमता मिलेगा। जिसने ‘क्रिश्चियन साइन्स’ — एक ऐसा उपचार पद्धति जिसमें रोगी अपने स्वस्थ होने के विचारों से स्वयं पूरित करता है और स्वस्थ हो जाता है — का विकास किया, वह स्वयं विचारों के प्रभाव को भोग चुकी थी। तात्पर्य यह है कि एक ही विचार की बारंबारता के प्रभाव की गहराई का आपको एकदम पता नहीं चलेगा, लेकिन कुछ दिनों के बाद उसके फलस्वरूप होने वाले परिवर्तन को आप स्वयं महसूस करेंगे।
 
 
 
महापुरुषों के वाक्यों को पढ़ते समय उनके व्यक्तित्व की गरिमा भी आपको प्रभावित करती है, जिससे अचेतन मन वैसा करने या न करने को विवश हो जाता है। इस प्रकार की बेबसी की स्थिति व्यक्तित्व के विकास के लिए अनुकूल वातावरण पैदा करती है, क्योंकि तब आपके मन के पास मनमानी करने का न तो अवसर होता है, न ही सामर्थ्य। अनुभव में एक बात और आई है कि कभी - कभी आपकी ऐसी शंका का समाधान एक छोटा-सा वाक्य कर जाता है, जिसके लिए आप लंबे समय से भटक रहे होते हैं। ‘देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर’ वाली इन वाक्यों के साथ लागू होती है। बातचीत करते समय, भाषण देते समय, बहस करते वक्त या लिखते समय जब आप इन वाक्यों द्वारा अपने कथन की पुष्टि करते हैं तो आपकी बात में वजन आ जाता है, आपके व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने में इनसे सहायता मिलती है। सुनने - पढ़ने वाले ‘कुएं का मेढक’ नहीं समझते।
 
 
 
हमें विश्वास है कि यह संकलन आपके व्यक्तित्व को विकसित कर आपके जीवन में नई स्फूर्ति का संचार करते हुए आपमें आत्मविश्वास पैदा करेगा कि आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं है और कौन-सा काम ऐसा है, जिसे आप नहीं कर सकते।
 
 
 
{{seealso|कहावत लोकोक्ति मुहावरे|सूक्ति और कहावत}}
 
  
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==अनमोल वचन संग्रह==
 
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'''तीन बातें'''
| '''[[महात्मा गाँधी]]''' के अनमोल वचन --  महात्मा, ट्रुथ इज गॉड, एविल रोट बाइ द इंग्लिश मिडीयम, द मैसेज ऑफ द गीता और माइंड ऑफ महात्मा गांधी पुस्तकों से
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* तीन बातें कभी भूलें - प्रतिज्ञा करके, क़र्ज़ लेकर और विश्वास देकर। - महावीर
[[चित्र:MKGandhi.gif|150px|right|महात्मा गाँधी]]
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* तीन बातें करो - उत्तम के साथ संगीत, विद्वान् के साथ वार्तालाप और सहृदय के साथ मैत्री। - विनोबा
*'''अहिंसा''' एक [[विज्ञान]] है। विज्ञान के शब्दकोश में 'असफलता' का कोई स्थान नहीं।
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* तीन अनमोल वचन - धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया और चरित्र गया तो सब गया। - अंग्रेजी कहावत
*उस आस्था का कोई मूल्य नहीं जिसे आचरण में लाया जा सके।
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* तीन से घृणा न करो - रोगी से, दुखी से और निम्न जाती से। - मुहम्मद साहब
*सार्थक [[कला]] रचनाकार की प्रसन्नता, समाधान और पवित्रता की गवाह होती है।
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* तीन के आंसू पवित्र होते हैं - प्रेम के, करुना के और सहानुभूति के। - बुद्ध
*एक सच्चे कलाकार के लिए सिर्फ वही चेहरा सुंदर होता है जो बाहरी दिखावे से परे, आत्मा की सुंदरता से चमकता है।
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* तीन बातें सुखी जीवन के लिए- अतीत की चिंता मत करो, भविष्य का विश्वास करो और वर्तमान को व्यर्थ मत जाने दो।
*मनुष्य अक्सर '''सत्य''' का सौंदर्य देखने में असफल रहता है, सामान्य व्यक्ति इससे दूर भागता है और इसमें निहित सौंदर्य के प्रति अंधा बना रहता है।
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* तीन चीज़ें किसी का इन्तजार नहीं करती - समय, मौत, ग्राहक।
*चरित्र और शैक्षणिक सुविधाएँ ही वह पूँजी है जो माता-पिता अपने संतान में समान रूप से स्थानांतरित कर सकते हैं।
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* तीन चीज़ें जीवन में एक बार मिलती है - मां, बांप, और जवानी।
*विश्व के सारे महान '''[[धर्म]]''' मानवजाति की समानता, भाईचारे और सहिष्णुता का संदेश देते हैं।
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* तीन चीज़ें पर्दे योग्य है - धन, स्त्री और भोजन।
*अधिकारों की प्राप्ति का मूल स्रोत कर्तव्य है।
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* तीन चीजों से सदा सावधान रहिए - बुरी संगत, परस्त्री और निन्दा।
*सच्ची अहिंसा मृत्युशैया पर भी मुस्कराती रहेगी। '''अहिंसा''' ही वह एकमात्र शक्ति है जिससे हम शत्रु को अपना मित्र बना सकते हैं और उसके प्रेमपात्र बन सकते हैं |
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* तीन चीजों में मन लगाने से उन्नति होती है - ईश्वर, परिश्रम और विद्या।
*अधभूखे राष्ट्र के पास न कोई धर्म, न कोई कला और न ही कोई संगठन हो सकता है।
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* तीन चीजों को कभी छोटी ना समझे - बीमारी, कर्जा, शत्रु।
*निःशस्त्र '''अहिंसा''' की शक्ति किसी भी परिस्थिति में सशस्त्र शक्ति से सर्वश्रेष्ठ होगी।
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* तीनों चीजों को हमेशा वश में रखो - मन, काम और लोभ।
*आत्मरक्षा हेतु मारने की शक्ति से बढ़कर मरने की हिम्मत होनी चाहिए।
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* तीन चीज़ें निकलने पर वापिस नहीं आती - तीर कमान से, बात जुबान से और प्राण शरीर से।
*जब भी मैं सूर्यास्त की अद्भुत लालिमा और चंद्रमा के सौंदर्य को निहारता हूँ तो मेरा हृदय सृजनकर्ता के प्रति श्रद्धा से भर उठता है।
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* तीन चीज़ें कमज़ोर बना देती है - बदचलनी, क्रोध और लालच।
*वीरतापूर्वक सम्मान के साथ मरने की कला के लिए किसी विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती। उसके लिए परमात्मा में जीवंत श्रद्धा काफ़ी है।
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* तीन चीज़े असल उद्धेश्य से रोकता हैं - बदचलनी, क्रोध और लालच।
*क्रूरता का उत्तर क्रूरता से देने का अर्थ अपने नैतिक व बौद्धिक पतन को स्वीकार करना है।
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* तीन चीज़ें कोई चुरा नहीं सकता - अकल, चरित्र, हुनर।
*एकमात्र वस्तु जो हमें पशु से भिन्न करती है वह है सही और गलत के मध्य भेद करने की क्षमता जो हम सभी में समान रूप से विद्यमान है।
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* तीन व्यक्ति वक़्त पर पहचाने जाते हैं - स्त्री, भाई, दोस्त।
*वक्ता के विकास और चरित्र का वास्तविक प्रतिबिंब '[[भाषा]]' है।
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* तीनों व्यक्ति का सम्मान करो - माता, पिता और गुरु।
*स्वच्छता, पवित्रता और आत्म-सम्मान से जीने के लिए धन की आवश्यकता नहीं होती।
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* तीनों व्यक्ति पर सदा दया करो - बालक, भूखे और पागल।
*निर्मल चरित्र एवं आत्मिक पवित्रता वाला व्यक्तित्व सहजता से लोगों का विश्वास अर्जित करता है और स्वतः अपने आस पास के वातावरण को शुद्ध कर देता है।
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* तीन चीज़े कभी नहीं भूलनी चाहिए - कर्ज़, मर्ज़ और फर्ज़।
*जीवन में स्थिरता, शांति और विश्वसनीयता की स्थापना का एकमात्र साधन '''भक्ति''' है।
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* तीन बातें कभी मत भूलें - उपकार, उपदेश और उदारता।
*सुखद जीवन का भेद त्याग पर आधारित है। त्याग ही जीवन है।
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* तीन चीज़े याद रखना ज़रुरी हैं - सच्चाई, कर्तव्य और मृत्यु।
*अधिकार-प्राप्ति का उचित माध्यम कर्तव्यों का निर्वाह है।
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* तीन बातें चरित्र को गिरा देती हैं - चोरी, निंदा और झूठ।
*उफनते तूफान को मात देना है तो अधिक जोखिम उठाते हुए हमें पूरी शक्ति के साथ आगे बढना होगा।
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* तीन चीज़ें हमेशा दिल में रखनी चाहिए - नम्रता, दया और माफ़ी।
*[[गुलाब]] को उपदेश देने की आवश्यकता नहीं होती। वह तो केवल अपनी खुशबू बिखेरता है। उसकी खुशबू ही उसका संदेश है।
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* तीन चीज़ों पर कब्ज़ा करो - ज़बान, आदत और गुस्सा।
*जहाँ तक मेरी दृष्टि जाती है मैं देखता हूं कि परमाणु शक्ति ने सदियों से मानवता को संजोये रखने वाली कोमल भावना को नष्ट कर दिया है।
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* तीन चीज़ों से दूर भागो - आलस्य, खुशामद और बकवास।
*मेरे विचारानुसार [[गीता]] का उद्देश्य आत्म-ज्ञान की प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग बताना है।
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* तीन चीज़ों के लिए मर मिटो - धेर्य, देश और मित्र।
*गीता में उल्लिखित भक्ति, कर्म और प्रेम के मार्ग में मानव द्वारा मानव के तिरस्कार के लिए कोई स्थान नहीं है।
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* तीन चीज़ें इंसान की अपनी होती हैं - रूप, भाग्य और स्वभाव।
*मैं यह अनुभव करता हूं कि गीता हमें यह सिखाती है कि हम जिसका पालन अपने दैनिक जीवन में नहीं करते हैं, उसे धर्म नहीं कहा जा सकता है।
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* तीन चीजों पर अभिमान मत करो – ताकत, सुन्दरता, यौवन।
*हजारों लोगों द्वारा कुछ सैकडों की हत्या करना बहादुरी नहीं है। यह कायरता से भी बदतर है। यह किसी भी राष्ट्रवाद और धर्म के विरुद्ध है।
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* तीन चीज़ें अगर चली गयी तो कभी वापस नहीं आती - समय, शब्द और अवसर।
*साहस कोई शारीरिक विशेषता न होकर आत्मिक विशेषता है।
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* तीन चीज़ें इन्सान कभी नहीं खो सकता - शान्ति, आशा और ईमानदारी।
*संपूर्ण विश्व का इतिहास उन व्यक्तियों के उदाहरणों से भरा पडा है जो अपने आत्म-विश्वास, साहस तथा दृढता की शक्ति से नेतृत्व के शिखर पर पहुंचे हैं।
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* तीन चीज़ें जो सबसे अमूल्य है - प्यार, आत्मविश्वास और सच्चा मित्र।
*हृदय में क्रोध, लालसा व इसी तरह की भावनाओं को रखना, सच्ची अस्पृश्यता है।
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* तीन चीजे जो कभी निश्चित नहीं होती - सपनें, सफलता और भाग्य।
*मेरी अस्पृश्यता के विरोध की लडाई, मानवता में छिपी अशुद्धता से लडाई है।
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* तीन चीजें, जो जीवन को संवारती है - कड़ी मेहनत, निष्ठा और त्याग।
*सच्चा व्यक्तित्व अकेले ही सत्य तक पहुंच सकता है।
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* तीन चीज़ें किसी भी इन्सान को बरबाद कर सकती है - शराब, घमन्ड और क्रोध।
*शांति का मार्ग ही सत्य का मार्ग है। शांति की अपेक्षा सत्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
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* तीन चीजों से बचने की कोशिश करनी चाहिये – बुरी संगत, स्वार्थ और निन्दा।
*हमारा जीवन सत्य का एक लंबा अनुसंधान है और इसकी पूर्णता के लिए आत्मा की शांति आवश्यक है।
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* कोई भी कार्य करने से पहले – सोचो, समझो, फिर करो।
*यदि समाजवाद का अर्थ शत्रु के प्रति मित्रता का भाव रखना है तो मुझे एक सच्चा समाजवादी समझा जाना चाहिए।
 
*'''आत्मा''' की शक्ति संपूर्ण विश्व के हथियारों को परास्त करने की क्षमता रखती है।
 
*किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए सोने की बेडियां, लोहे की बेडियों से कम कठोर नहीं होगी। चुभन धातु में नहीं वरन् बेडियों में होती है।
 
*'''ईश्वर''' इतना निर्दयी व क्रूर नहीं है जो पुरुष-पुरुष और स्त्री-स्त्री के मध्य ऊंच-नीच का भेद करे।
 
*'''नारी''' को अबला कहना अपमानजनक है। यह पुरुषों का नारी के प्रति अन्याय है।
 
*गति जीवन का अंत नहीं हैं। सही अर्थों में मनुष्य अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए जीवित रहता है।
 
*जहाँ '''प्रेम''' है, वही जीवन है। ईर्ष्या-द्वेष विनाश की ओर ले जाते हैं।
 
*यदि अंधकार से [[प्रकाश]] उत्पन्न हो सकता है तो द्वेष भी प्रेम में परिवर्तित हो सकता है।
 
*प्रेम और एकाधिकार एक साथ नहीं हो सकता है।
 
*प्रतिज्ञा के बिना जीवन उसी तरह है जैसे लंगर के बिना नाव या रेत पर बना महल।
 
*यदि आप न्याय के लिए लड रहे हैं, तो ईश्वर सदैव आपके साथ है।
 
*मनुष्य अपनी तुच्छ वाणी से केवल ईश्वर का वर्णन कर सकता है।
 
*यदि आपको अपने उद्देश्य और साधन तथा ईश्वर में आस्था है तो सूर्य की तपिश भी शीतलता प्रदान करेगी।
 
*युद्धबंदी के लिए प्रयत्नरत् इस विश्व में उन राष्ट्रों के लिए कोई स्थान नहीं है जो दूसरे राष्ट्रों का शोषण कर उन पर वर्चस्व स्थापित करने में लगे हैं।
 
*जिम्मेदारी युवाओं को मृदु व संयमी बनाती है ताकि वे अपने दायित्त्वों का निर्वाह करने के लिए तैयार हो सकें।
 
*[[बुद्ध]] ने अपने समस्त भौतिक सुखों का त्याग किया क्योंकि वे संपूर्ण विश्व के साथ यह खुशी बांटना चाहते थे जो मात्र सत्य की खोज में कष्ट भोगने तथा बलिदान देने वालों को ही प्राप्त होती है।
 
*हम धर्म के नाम पर गौ-रक्षा की दुहाई देते हैं किंतु बाल-विधवा के रूप में मौजूद उस मानवीय गाय की सुरक्षा से इंकार कर देते हैं।
 
*अपने कर्तव्यों को जानने व उनका निर्वाह करने वाली स्त्री ही अपनी गौरवपूर्ण मर्यादा को पहचान सकती है।
 
*स्त्री का अंतर्ज्ञान पुरुष के श्रेष्ठ ज्ञानी होने की घमंडपूर्ण धारणा से अधिक यथार्थ है।
 
*जो व्यक्ति अहिंसा में विश्वास करता है और ईश्वर की सत्ता में आस्था रखता है वह कभी भी पराजय स्वीकार नहीं करता।
 
*समुद्र जलराशियों का समूह है। प्रत्येक बूंद का अपना अस्तित्व है तथापि वे अनेकता में एकता के द्योतक हैं।
 
*पीडा द्वारा तर्क मजबूत होता है और पीडा ही व्यक्ति की अंत–दृष्टि खोल देती है।
 
*किसी भी विश्वविद्यालय के लिए वैभवपूर्ण इमारत तथा सोने-चांदी के खजाने की आवश्यकता नहीं होती। इन सबसे अधिक जनमत के बौद्धिक ज्ञान-भंडार की आवश्यकता होती है।
 
*विश्वविद्यालय का स्थान सर्वोच्च है। किसी भी वैभवशाली इमारत का अस्तित्व तभी संभव है जब उसकी नपव ठोस हो।
 
*मेरे विचारानुसार मैं निरंतर विकास कर रहा हूं। मुझे बदलती परिस्थितियों के प्रति अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना आ गया है तथापि मैं भीतर से अपरिवर्तित ही हूं।
 
*ब्रह्मचर्य क्या है ? यह जीवन का एक ऐसा मार्ग है जो हमें परमेश्वर की ओर अग्रसर करता है।
 
*प्रत्येक भौतिक आपदा के पीछे एक दैवी उद्देश्य विद्यमान होता है ।
 
*सत्याग्रह और चरखे का घनिष्ठ संबंध है तथा इस अवधारणा को जितनी अधिक चुनौतियां दी जा रही हैं इससे मेरा विश्वास और अधिक दृढ होता जा रहा है।
 
*हमें बच्चों को ऐसी शिक्षा नहीं देनी चाहिए जिससे वे श्रम का तिरस्कार करें।
 
*सभ्यता का सच्चा अर्थ अपनी इच्छाओं की अभिवृद्धि न कर उनका स्वेच्छा से परित्याग करना है।
 
*अंततः अत्याचार का परिणाम और कुछ नहीं केवल अव्यवस्था ही होती है।
 
*हमारा समाजवाद अथवा साम्यवाद अहिंसा पर आधारित होना चाहिए जिसमें मालिक मजदूर एवं जमपदार किसान के मध्य परस्पर सद्भावपूर्ण सहयोग हो।
 
*किसी भी समझौते की अनिवार्य शर्त यही है कि वह अपमानजनक तथा कष्टप्रद न हो।
 
*यदि शक्ति का तात्पर्य नैतिक दृढता से है तो स्त्री पुरुषों से अधिक श्रेष्ठ है ।
 
*'''स्त्री''' पुरुष की सहचारिणी है जिसे समान मानसिक सामर्थ्य प्राप्त है ।
 
*जब कोई युवक विवाह के लिए दहेज की शर्त रखता है तब वह न केवल अपनी शिक्षा और अपने देश को बदनाम करता है बल्कि स्त्री जाति का भी अपमान करता है।
 
*धर्म के नाम पर हम उन तीन लाख बाल-विधवाओं पर वैधव्य थोप रहे हैं जिन्हें विवाह का अर्थ भी ज्ञात नहीं है।
 
*स्त्री जीवन के समस्त पवित्र एवं धार्मिक धरोहर की मुख्य संरक्षिका है।
 
*महाभारत के रचयिता ने भौतिक युद्ध की अनिवार्यता का नहीं वरन् उसकी निरर्थकता का प्रतिपादन किया  है।
 
*स्वामी की आज्ञा का अनिवार्य रूप से पालन करना परतंत्रता है परंतु पिता की आज्ञा का स्वेच्छा से पालन करना पुत्रत्व का गौरव प्रदान करती है।
 
*भारतीयों के एक वर्ग को दूसरे के प्रति शत्रुता की भावना से देखने के लिए प्रेरित करने वाली मनोवृत्ति आत्मघाती है। यह मनोवृत्ति परतंत्रता को चिरस्थायी बनाने में ही उपयुक्त होगी।
 
*स्वतंत्रता एक जन्म की भांति है। जब तक हम पूर्णतः स्वतंत्र नहीं हो जाते तब तक हम परतंत्र ही रहेंगे।
 
*आधुनिक सभ्यता ने हमें रात को दिन में और सुनहरी खामोशी को पीतल के कोलाहल और शोरगुल में परिवर्तित करना सिखाया है।
 
*मनुष्य तभी विजयी होगा जब वह जीवन-संघर्ष के बजाय परस्पर-सेवा हेतु संघर्ष करेगा।
 
*अयोग्य व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी दूसरे अयोग्य व्यक्ति के विषय में निर्णय दे।
 
*'''धर्म''' के बिना व्यक्ति पतवार बिना नाव के समान है।
 
*सादगी ही सार्वभौमिकता का सार है।
 
*अहिंसा पर आधारित स्वराज्य में, व्यक्ति को अपने अधिकारों को जानना उतना आवश्यक नहीं है जितना कि अपने कर्तव्यों का ज्ञान होना।
 
*मजदूर के दो हाथ जो अर्जित कर सकते हैं वह मालिक अपनी पूरी संपत्ति द्वारा भी प्राप्त नहीं कर सकता।
 
*अपनी भूलों को स्वीकारना उस झाडू के समान है जो गंदगी को साफ कर उस स्थान को पहले से अधिक स्वच्छ कर देती है।
 
*पराजय के क्षणों में ही नायकों का निर्माण होता है। अंतः सफलता का सही अर्थ महान असफलताओं की श्रृंखला है।<ref>{{cite web |url=http://www.hindi.mkgandhi.org/efg.htm |title=गांधीजी के शब्दों में |accessmonthday=20 जनवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
 
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| '''[[स्वामी विवेकानन्द]]''' के अनमोल वचन
 
[[चित्र:Swami_Vivekananda.gif|150px|right|स्वामी विवेकानन्द]]
 
* उठो, जागो और तब तक रुको नही जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये।
 
* जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो - उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो। दुर्बलता को कभी प्रश्रय मत दो। सत्य की ज्योति ‘बुद्धिमान’ मनुष्यों के लिए यदि अत्यधिक मात्रा में प्रखर प्रतीत होती है, और उन्हें बहा ले जाती है, तो ले जाने दो - वे जितना शीघ्र बह जाएँ उतना अच्छा ही है।
 
* तुम अपनी अंत:स्थ आत्मा को छोड़ किसी और के सामने सिर मत झुकाओ। जब तक तुम यह अनुभव नहीं करते कि तुम स्वयं देवों के देव हो, तब तक तुम मुक्त नहीं हो सकते।
 
* '''ईश्वर''' ही ईश्वर की उपलब्धि कर सकता है। सभी जीवंत ईश्वर हैं - इस भाव से सब को देखो। मनुष्य का अध्ययन करो, मनुष्य ही जीवन्त काव्य है। जगत में जितने ईसा या बुद्ध हुए हैं, सभी हमारी ज्योति से ज्योतिष्मान हैं। इस ज्योति को छोड़ देने पर ये सब हमारे लिए और अधिक जीवित नहीं रह सकेंगे, मर जाएंगे। तुम अपनी आत्मा के ऊपर स्थिर रहो।
 
* ज्ञान स्वयमेव वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है।
 
* मानव - देह ही सर्वश्रेष्ठ देह है, एवं मनुष्य ही सर्वोच्च प्राणी है, क्योंकि इस मानव - देह तथा इस जन्म में ही हम इस सापेक्षिक जगत् से संपूर्णतया बाहर हो सकते हैं - निश्चय ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त कर सकते हैं, और यह मुक्ति ही हमारा चरम लक्ष्य है।
 
* जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ेगा। वह जिस युग में जन्मा है, उससे उसे बहुत आगे जाना पड़ेगा, किन्तु साधारण लोग किसी तरह रेंगते-रेंगते ही आगे बढ़ सकते हैं।
 
* जो महापुरुष प्रचार - कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है - अंत में उनकी शक्ति का चरम फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत को शिक्षा प्रदान करता है।
 
* आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित हो चुकने पर धर्मसंघ में बना रहना अवांछनीय है। उससे बाहर निकलकर स्वाधीनता की मुक्त वायु में जीवन व्यतीत करो।
 
* मुक्ति - लाभ के अतिरिक्त और कौन सी उच्चावस्था का लाभ किया जा सकता है ? देवदूत कभी कोई बुरे कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें कभी दंड भी प्राप्त नहीं होता, अतएव वे मुक्त भी नहीं हो सकते। सांसारिक धक्का ही हमें जगा देता है, वही इस जगत्स्वप्न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रकार के लगातार आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।
 
* हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होती है, उतना ही उच्च हमारा [[प्रत्यक्ष]] अनुभव होता है, और उतनी ही हमारी इच्छा शक्ति अधिक बलवती होती है।
 
* मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका प्रयोग करो - उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को भी प्राप्त कर सकता है।
 
* पहले स्वयं संपूर्ण मुक्तावस्था प्राप्त कर लो, उसके बाद इच्छा करने पर फिर अपने को सीमाबद्ध कर सकते हो। प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो।
 
* सभी मरेंगे- साधु या असाधु, धनी या दरिद्र - सभी मरेंगे। चिर काल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और संपूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ। [[भारत]] में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र, चाहिए इस तरह की दृढ़ता और चरित्र का बल, जिससे मनुष्य आजीवन दृढ़व्रत बन सके।
 
* संन्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम। सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु संन्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम आत्महत्या कर लें। आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती है। संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए धीरे -  धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाना।
 
* हे सखे, तुम क्योँ रो रहे हो ? सब शक्ति तो तुम्हीं में हैं। हे भगवन, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप को विकसित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड़ की कोई शक्ति नहीं प्रबल शक्ति आत्मा की हैं। हे विद्वान! डरो मत; तुम्हारा नाश नहीं हैं, संसार-सागर से पार उतरने का उपाय हैं। जिस पथ के अवलम्बन से यती लोग संसार-सागर के पार उतरे हैं, वही श्रेष्ठ पथ मै तुम्हें दिखाता हूँ!
 
* बडे-बडे दिग्गज बह जायेंगे। छोटे - मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो - यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है। डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं - इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे। भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा [[हृदय]] बनाकर कार्य में जुट जाओ।
 
* किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। [[सिंह]] की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो।
 
* लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, [[लक्ष्मी]] तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक [[युग]] मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो।
 
* वीरता से आगे बढो। एक दिन या एक साल में सिद्धि की आशा न रखो। उच्चतम आदर्श पर दृढ रहो। स्थिर रहो। स्वार्थपरता और ईर्ष्या से बचो। आज्ञा-पालन करो। सत्य, मनुष्य -- जाति और अपने देश के पक्ष पर सदा के लिए अटल रहो, और तुम संसार को हिला दोगे। याद रखो - व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है, इसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं।
 
* मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्न्त बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा- मैं कहता हूँ, अवश्य बनना होगा। आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना। इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता। 
 
* जिस तरह हो, इसके लिए हमें चाहे जितना कष्ट उठाना पडे- चाहे कितना ही त्याग करना पडे यह भाव (भयानक ईर्ष्या) हमारे भीतर न घुसने पाये- हम दस ही क्यों न हों- दो क्यों न रहें- परवाह नहीं परन्तु जितने हों सम्पूर्ण शुद्धचरित्र हों।
 
* शक्तिमान, उठो तथा सामर्थ्यशाली बनो। कर्म, निरन्तर कर्म; संघर्ष, निरन्तर संघर्ष! अलमिति। पवित्र और निःस्वार्थी बनने की कोशिश करो - सारा धर्म इसी में है।
 
* शत्रु को पराजित करने के लिए ढाल तथा तलवार की आवश्यकता होती है। इसलिए [[अंग्रेज़ी]] और [[संस्कृत]] का अध्ययन मन लगाकर करो।
 
* बच्चों, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है। जो केवल प्रभु - प्रभु की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परम पिता के इच्छानुसार कार्य करता है वही धार्मिक है। यदि कभी कभी तुमको संसार का थोडा-बहुत धक्का भी खाना पडे, तो उससे विचलित न होना, मुहूर्त भर में वह दूर हो जायगा तथा सारी स्थिति पुनः ठीक हो जायगी।
 
* जब तक जीना, तब तक सीखना' - अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।
 
* जिस प्रकार स्वर्ग में, उसी प्रकार इस नश्वर जगत में भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो, क्योंकि अनन्त काल के लिए जगत में तुम्हारी ही महिमा घोषित हो रही है एवं सब कुछ तुम्हारा ही राज्य है।
 
* पवित्रता, दृढता तथा उद्यम- ये तीनों गुण मैं एक साथ चाहता हूँ।
 
* पवित्रता, धैर्य तथा प्रयत्न के द्वारा सारी बाधाएँ दूर हो जाती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि महान कार्य सभी धीरे धीरे होते हैं।
 
* साहसी होकर काम करो। धीरज और स्थिरता से काम करना - यही एक मार्ग है। आगे बढो और याद रखो धीरज, साहस, पवित्रता और अनवरत कर्म। जब तक तुम पवित्र होकर अपने उद्देश्य पर डटे रहोगे, तब तक तुम कभी निष्फल नहीं होओगे - माँ तुम्हें कभी न छोडेगी और पूर्ण आशीर्वाद के तुम पात्र हो जाओगे।
 
* बच्चों, जब तक तुम लोगों को भगवान तथा गुरु में, भक्ति तथा सत्य में विश्वास रहेगा, तब तक कोई भी तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। किन्तु इनमें से एक के भी नष्ट हो जाने पर परिणाम विपत्तिजनक है।
 
* महाशक्ति का तुममें संचार होगा -- कदापि भयभीत मत होना। पवित्र होओ, विश्वासी होओ, और आज्ञापालक होओ।
 
* बिना पाखण्डी और कायर बने सबको प्रसन्न रखो। पवित्रता और शक्ति के साथ अपने आदर्श पर दृढ रहो और फिर तुम्हारे सामने कैसी भी बाधाएँ क्यों न हों, कुछ समय बाद संसार तुमको मानेगा ही।
 
* धीरज रखो और मृत्युपर्यन्त विश्वासपात्र रहो। आपस में न लडो! रुपये - पैसे के व्यवहार में शुद्ध भाव रखो। हम अभी महान कार्य करेंगे। जब तक तुममें ईमानदारी, भक्ति और विश्वास है, तब तक प्रत्येक कार्य में तुम्हें सफलता मिलेगी।
 
* जो पवित्र तथा साहसी है, वही जगत में सब कुछ कर सकता है। माया-मोह से प्रभु सदा तुम्हारी रक्षा करें। मैं तुम्हारे साथ काम करने के लिए सदैव प्रस्तुत हूँ एवं हम लोग यदि स्वयं अपने मित्र रहें तो प्रभु भी हमारे लिए सैकडों मित्र भेजेंगे, आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः।
 
* ईर्ष्या तथा अंहकार को दूर कर दो - संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो।
 
* पूर्णतः निःस्वार्थ रहो, स्थिर रहो, और काम करो। एक बात और है। सबके सेवक बनो और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो, क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज़ बर्बाद हो जायेगी। आगे बढो तुमने बहुत अच्छा काम किया है। हम अपने भीतर से ही सहायता लेंगे अन्य सहायता के लिए हम प्रतीक्षा नहीं करते। मेरे बच्चे, आत्मविशवास रखो, सच्चे और सहनशील बनो।
 
* यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खडे हो जाओगे, तो तुम्हे सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढेगा। यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' ही नाश कर डालो।
 
* यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निन्दा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। इन बातों को सुनना भी महान पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा।
 
* गम्भीरता के साथ शिशु सरलता को मिलाओ। सबके साथ मेल से रहो। अहंकार के सब भाव छोड दो और साम्प्रदायिक विचारों को मन में न लाओ। व्यर्थ विवाद महापाप है।
 
* बच्चे, जब तक तुम्हारे हृदय में उत्साह एवं गुरु तथा ईश्वर में विश्वास - ये तीनों वस्तुएँ रहेंगी - तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता। मैं दिनोदिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ। हे साहसी बालकों, कार्य करते रहो।
 
* किसी को उसकी योजनाओं में हतोत्साह नहीं करना चाहिए। आलोचना की प्रवृत्ति का पूर्णतः परित्याग कर दो। जब तक वे सही मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं; तब तक उन्के कार्य में सहायता करो; और जब कभी तुमको उनके कार्य में कोई ग़लती नज़र आये, तो नम्रतापूर्वक ग़लती के प्रति उनको सजग कर दो। एक दूसरे की आलोचना ही सब दोषों की जड है। किसी भी संगठन को विनष्ट करने में इसका बहुत बडा हाथ है।
 
* किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो।
 
* क्या तुम नहीं अनुभव करते कि दूसरों के ऊपर निर्भर रहना बुद्धिमानी नहीं है। बुद्धिमान व्यक्ति को अपने ही पैरों पर दृढता पूर्वक खडा होकर कार्य करना चहिए। धीरे धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा।
 
* आओ हम नाम, यश और दूसरों पर शासन करने की इच्छा से रहित होकर काम करें। काम, क्रोध एंव लोभ -- इस त्रिविध बन्धन से हम मुक्त हो जायें और फिर सत्य हमारे साथ रहेगा।
 
* न टालो, न ढूँढों - भगवान अपनी इच्छानुसार जो कुछ भेहे, उसके लिए प्रतिक्षा करते रहो, यही मेरा मूलमंत्र है।
 
* शक्ति और विशवास के साथ लगे रहो। सत्यनिष्ठा, पवित्र और निर्मल रहो, तथा आपस में न लडो। हमारी जाति का रोग ईर्ष्या ही है।
 
* एक ही आदमी मेरा अनुसरण करे, किन्तु उसे मृत्युपर्यन्त सत्य और विश्वासी होना होगा। मैं सफलता और असफलता की चिन्ता नहीं करता। मैं अपने आन्दोलन को पवित्र रखूँगा, भले ही मेरे साथ कोई न हो। कपटी कार्यों से सामना पडने पर मेरा धैर्य समाप्त हो जाता है। यही संसार है कि जिन्हें तुम सबसे अधिक प्यार और सहायता करो, वे ही तुम्हे धोखा देंगे।
 
* मेरा आदर्श अवश्य ही थोडे से शब्दों में कहा जा सकता है - मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरूप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना।
 
* जब कभी मैं किसी व्यक्ति को उस उपदेशवाणी (श्री रामकृष्ण के वाणी) के बीच पूर्ण रूप से निमग्न पाता हूँ, जो भविष्य में संसार में शान्ति की वर्षा करने वाली है, तो मेरा हृदय आनन्द से उछलने लगता है। ऐसे समय मैं पागल नहीं हो जाता हूँ, यही आश्चर्य की बात है।
 
* 'बसन्त की तरह लोग का हित करते हुए' - यहि मेरा धर्म है। "मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, बसन्तवल्लोकहितं चरन्तः - यही मेरा धर्म है।"
 
* हर काम को तीन अवस्थाओं में से गुज़रना होता है -- उपहास, विरोध और स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे निश्चय ही ग़लत समझते है। इसलिए विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं; परन्तु मुझे दृढ और पवित्र होना चाहिए और भगवान में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए, तब ये सब लुप्त हो जायेंगे।
 
* यही दुनिया है! यदि तुम किसी का उपकार करो, तो लोग उसे कोई महत्व नहीं देंगे, किन्तु ज्यों ही तुम उस कार्य को वन्द कर दो, वे तुरन्त (ईश्वर न करे) तुम्हें बदमाश प्रमाणित करने में नहीं हिचकिचायेंगे। मेरे जैसे भावुक व्यक्ति अपने सगे - स्नेहियों द्वरा सदा ठगे जाते हैं।
 
* न संख्या-शक्ति, न धन, न पाण्डित्य, न वाक चातुर्य, कुछ भी नहीं, बल्कि पवित्रता, शुद्ध जीवन, एक शब्द में अनुभूति, आत्म - साक्षात्कार को विजय मिलेगी! प्रत्येक देश में सिंह जैसी शक्तिमान दस-बारह आत्माएँ होने दो, जिन्होंने अपने बन्धन तोड डाले हैं, जिन्होंने अनन्त का स्पर्श कर लिया है, जिनका चित्र ब्रह्मनुसन्धान में लीन है, जो न धन की चिन्ता करते हैं, न बल की, न नाम की और ये व्यक्ति ही संसार को हिला डालने के लिए पर्याप्त होंगे।
 
* यही रहस्य है। योग प्रवर्तक पंतजलि कहते हैं, "जब मनुष्य समस्त अलौकेक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है, तभी उसे धर्म मेघ नामक समाधि प्राप्त होती है। वह प्रमात्मा का दर्शन करता है, वह परमात्मा बन जाता है और दूसरों को तदरूप बनने में सहायता करता है। मुझे इसी का प्रचार करना है। जगत में अनेक मतवादों का प्रचार हो चुका है। लाखों पुस्तकें हैं, परन्तु हाय! कोई भी किंचित् अंश में प्रत्यक्ष आचरण नहीं करता।
 
* जो सबका दास होता है, वही उन्का सच्चा स्वामी होता है। जिसके प्रेम में ऊँच - नीच का विचार होता है, वह कभी नेता नहीं बन सकता। जिसके प्रेम का कोई अन्त नहीं है, जो ऊँच - नीच सोचने के लिए कभी नहीं रुकता, उसके चरणों में सारा संसार लोट जाता है।
 
* अकेले रहो, अकेले रहो। जो अकेला रहता है, उसका किसी से विरोध नहीं होता, वह किसी की शान्ति भंग नहीं करता, न दूसरा कोई उसकी शान्ति भंग करता है।
 
* मेरी दृढ धारणा है कि तुममें अन्धविश्वास नहीं है। तुममें वह शक्ति विद्यमान है, जो संसार को हिला सकती है, धीरे - धीरे और भी अन्य लोग आयेंगे। 'साहसी' शब्द और उससे अधिक 'साहसी' कर्मों की हमें आवश्यकता है। उठो! उठो! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकते हो? हम बार - बार पुकारें, जब तक सोते हुए देवता न जाग उठें, जब तक अन्तर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन में और क्या है? इससे महान कर्म क्या है?
 
* तुमने बहुत बहादुरी की है। शाबाश! हिचकने वाले पीछे रह जायेंगे और तुम कुद कर सबके आगे पहुँच जाओगे। जो अपना उद्धार में लगे हुए हैं, वे न तो अपना उद्धार ही कर सकेंगे और न दूसरों का। ऐसा शोर - गुल मचाओ की उसकी आवाज़ दुनिया के कोने कोने में फैल जाय। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि दूसरों की त्रुटियों को देखने के लिए तैयार बैठे हैं, किन्तु कार्य करने के समय उनका पता नही चलता है। जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढो। इसके बाद मैं भारत पहुँच कर सारे देश में उत्तेजना फूँक दूंगा। डर किस बात का है? नहीं है, नहीं है, कहने से साँप का विष भी नहीं रहता है। नहीं नहीं कहने से तो 'नहीं' हो जाना पडेगा। खूब शाबाश! छान डालो - सारी दूनिया को छान डालो! अफसोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो - चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी होते
 
* श्रेयांसि बहुविघ्नानि अच्छे कर्मों में कितने ही विघ्न आते हैं। -- प्रलय मचाना ही होगा, इससे कम में किसी तरह नहीं चल सकता। कुछ परवाह नहीं। दुनिया भर में प्रलय मच जायेगा, वाह! गुरु की फतह! अरे भाई श्रेयांसि बहुविघ्नानि, उन्ही विघ्नों की रेल पेल में आदमी तैयार होता है। मिशनरी फिशनरी का काम थोडे ही है जो यह धक्का सम्हाले! ....बडे - बडे बह गये, अब गडरिये का काम है जो थाह ले? यह सब नहीं चलने का भैया, कोई चिन्ता न करना। सभी कामों में एक दल शत्रुता ठानता है; अपना काम करते जाओ किसी की बात का जवाब देने से क्या काम? सत्यमेव जयते नानृतं, सत्येनैव पन्था विततो देवयानः (सत्य की ही विजय होती है, मिथ्या की नहीं; सत्य के ही बल से देवयानमार्ग की गति मिलती है।) ...धीरे - धीरे सब होगा।
 
* मन और मुँह को एक करके भावों को जीवन में कार्यान्वित करना होगा। इसीको श्री रामकृष्ण कहा करते थे, "भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।" सब विषओं में व्यवहारिक बनना होगा। लोगों या समाज की बातों पर ध्यान न देकर वे एकाग्र मन से अपना कार्य करते रहेंगे क्या तुने नहीं सुना, [[कबीरदास]] के दोहे में है - "हाथी चले बाज़ार में, कुत्ता भोंके हजार, साधुन को दुर्भाव नहिं, जो निन्दे संसार" ऐसे ही चलना है। दुनिया के लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देना होगा। उनकी भली बुरी बातों को सुनने से जीवन भर कोई किसी प्रकार का महत् कार्य नहीं कर सकता।
 
* अन्त में प्रेम की ही विजय होती है। हैरान होने से काम नहीं चलेगा - ठहरो - धैर्य धारण करने पर सफलता अवश्यम्भावी है - तुमसे कहता हूँ देखना - कोई बाहरी अनुष्ठानपध्दति आवश्यक न हो - बहुत्व में एकत्व सार्वजनिन भाव में किसी तरह की बाधा न हो। यदि आवश्यक हो तो "सार्वजनीनता" के भाव की रक्षा के लिए सब कुछ छोडना होगा। मैं मरूँ चाहे बचूँ, देश जाऊँ या न जाऊँ, तुम लोग अच्छी तरह याद रखना कि, सार्वजनीनता- हम लोग केवल इसी भाव का प्रचार नहीं करते कि, "दूसरों के धर्म का द्वेष न करना"; नहीं, हम सब लोग सब धर्मों को सत्य समझते हैं और उनका ग्रहण भी पूर्ण रूप से करते हैं हम इसका प्रचार भी करते हैं और इसे कार्य में परिणत कर दिखाते हैं सावधान रहना, दूसरे के अत्यन्त छोटे अधिकार में भी हस्तक्षेप न करना - इसी भँवर में बडे-बडे जहाज डूब जाते हैं पूरी भक्ति, परन्तु कट्टरता छोडकर, दिखानी होगी, याद रखना उनकी कृपा से सब ठीक हो जायेगा।
 
* नीतिपरायण तथा साहसी बनो, अन्त: करण पूर्णतया शुद्ध रहना चाहिए। पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो -- प्रणों के लिए भी कभी न डरो। कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरुष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते -- यहाँ तक कि कभी वे मन में भी पाप का विचार नहीं लाते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। बच्चों, तुम्हारे लिए नीतिपरायणता तथा साहस को छोडकर और कोई दूसरा धर्म नहीं। इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतान्तर तुम्हारे लिए नहीं है। कायरता, पाप्, असदाचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिए, बाक़ी आवश्यकीय वस्तुएँ अपने आप आकर उपस्थित होंगी।
 
* यदि कोई भंगी हमारे पास भंगी के रूप में आता है, तो छुतही बीमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं। परन्तु जब उसके सिर पर एक कटोरा पानी डालकर कोई पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना देता है और जब उसे पहनने को एक कोट मिल जाता है -- वह कितना ही फटा - पुराना क्यों न हो -- तब चाहे वह किसी कट्टर से कट्टर [[हिन्दू]] के कमरे के भीतर पहुँच जाय, उसके लिए कहीं रोक-टोक नहीं, ऐसा कोई नहीं, जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे! इससे अधिक विड्म्बना की बात क्या हो सकता है?
 
* प्रायः देखने में आता है कि अच्छे से अच्छे लोगों पर कष्ट और कठिनाइयाँ आ पडती हैं। इसका समाधान न भी हो सके, फिर भी मुझे जीवन में ऐसा अनुभव हुआ है कि जगत में कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो मूल रूप में भली न हो। ऊपरी लहरें चाहे जैसी हों, परन्तु वस्तु मात्र के अन्तरकाल में प्रेम एवं कल्याण का अनन्त भण्डार है। जब तक हम उस अन्तराल तक नहीं पहुँचते, तभी तक हमें कष्ट मिलता है। एक बार उस शान्ति-मण्डल में प्रवेश करने पर फिर चाहे आँधी और तूफान के जितने तुमुल झकोरे आयें, वह मकान, जो सदियों की पुरानि चट्टान पर बना है, हिल नहीं सकता।
 
* मेरी केवल यह इच्छा है कि प्रतिवर्ष यथेष्ठ संख्या में हमारे नवयुवकों को [[चीन]], [[जापान]] में आना चाहिए। जापानी लोगों के लिए आज भारतवर्ष उच्च और श्रेष्ठ वस्तुओं का स्वप्नराज्य है। और तुम लोग क्या कर रहे हो? ... जीवन भर केवल बेकार बातें किया करते हो, व्यर्थ बकवास करने वालों, तुम लोग क्या हो? आओ, इन लोगों को देखो और उसके बाद जाकर लज्जा से मुँह छिपा लो। सठियाई बुद्धिवालों, तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली जायगी! अपनी खोपडी में वर्षों के अन्धविश्वास का निरन्तर वृद्धिगत कूडा - कर्कट भरे बैठे, सैकडों वर्षों से केवल आहार की छुआछूत के विवाद में ही अपनी सारी शक्ति नष्ट करने वाले, युगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी सारी मानवता का गला घोटने वाले, भला बताओ तो सही, तुम कौन हो? और तुम इस समय कर ही क्या रहे हो? ...किताबें हाथ में लिए तुम केवल समुद्र के किनारे फिर रहे हो। तीस रुपये की मुंशी-गीरी के लिए अथवा बहुत हुआ, तो एक वकील बनने के लिए जी - जान से तडप रहे हो -- यही तो भारतवर्ष के नवयुवकों की सबसे बडी महत्वाकांक्षा है। जिस पर इन विद्यार्थियों के भी झुण्ड के झुण्ड बच्चे पैदा हो जाते हैं, जो भूख से तडपते हुए उन्हें घेरकर ' रोटी दो, रोटी दो ' चिल्लाते रहते हैं। क्या समुद्र में इतना पानी भी न रहा कि तुम उसमें विश्वविद्यालय के डिप्लोमा, गाउन और पुस्तकों के समेत डूब मरो ? आओ, मनुष्य बनो! उन पाखण्डी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नत्ति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मारकर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उनके हृदय कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकडों वर्षों के अन्धविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखंड को ज़ड - मूल से निकाल फेंको। आओ, मनुष्य बनों। कूपमंडूकता छोडो और बाहर दृष्टि डालो। देखों, अन्य देश किस तरह आगे बढ रहे हैं। क्या तुम्हें मनुष्य से प्रेम है? यदि 'हाँ' तो आओ, हम लोग उच्चता और उन्नति के मार्ग में प्रयत्नशील हों। पीछे मुडकर मत देखों; अत्यन्त निकट और प्रिय सम्बन्धी रोते हों, तो रोने दो, पीछे देखो ही मत। केवल आगे बढते जाओ। भारतमाता कम से कम एक हज़ार युवकों का बलिदान चाहती है -- मस्तिष्क - वाले युवकों का, पशुओं का नहीं। परमात्मा ने तुम्हारी इस निश्चेष्ट सभ्यता को तोडने के लिए ही अंग्रेज़ी राज्य को भारत में भेजा है...<ref>{{cite web |url=http://www.chhathpuja.co/community/groups/viewgroup/178-%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%80+%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6+%E0%A4%95%E0%A5%87+%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0,swami+vivekananda+quotes,Swami+vivekananda+quotes+in+hindi,Swami+vivekananda+quotes+in+hindi,Hindi+Quotes+by+Swami+Vivekananda,Swami+Vivekananda+quote+in+hindi,Vivekanandas+Hindi+Quotes,Swami+vivekananda+Hindi+quotations |title=स्वामी विवेकानन्द के सुविचार |accessmonthday=20 जनवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=पी.एच.पी. |publisher=छठ पूजा |language=हिन्दी}}</ref>
 
* एक महान रहस्य का मैंने पता लगा लिया है -- वह यह कि केवल धर्म की बातें करने वालों से मुझे कुछ भय नहीं है। और जो सत्यदृष्ट महात्मा हैं, वे कभी किसी से बैर नहीं करते। वाचालों को वाचाल होने दो! वे इससे अधिक और कुछ नहीं जानते! उन्हें नाम, यश, धन, स्त्री से सन्तोष प्राप्त करने दो। और हम धर्मोपलब्धि, ब्रह्मलाभ एवं ब्रह्म होने के लिए ही दृढव्रत होंगे। हम आमरण एवं जन्म - जन्मान्त में सत्य का ही अनुसरण करेंगें। दूसरों के कहने पर हम तनिक भी ध्यान न दें और यदि आजन्म यत्न के बाद एक, केवल एक ही आत्मा संसार के बन्धनों को तोडकर मुक्त हो सके तो हमने अपना काम कर लिया।
 
* वत्स, धीरज रखो, काम तुम्हारी आशा से बहुत ज्यादा बढ जाएगा। हर एक काम में सफलता प्राप्त करने से पहले सैंकडो कठिनाइयों का सामना करना पडता है। जो उद्यम करते रहेंगे, वे आज या कल सफलता को देखेंगे। परिश्रम करना है वत्स, कठिन परिश्रम् ! काम कांचन के इस चक्कर में अपने आप को स्थिर रखना, और अपने आदर्शों पर जमे रहना, जब तक कि आत्मज्ञान और पूर्ण त्याग के साँचे में शिष्य न ढल जाय निश्चय ही कठिन काम है। जो प्रतिक्षा करता है, उसे सब चीज़े मिलती हैं। अनन्त काल तक तुम भाग्यवान बने रहो।
 
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|'''स्वामी रामदेव''' के अनमोल वचन
 
[[चित्र:Baba-Ramdev.jpg|150px|right|स्वामी रामदेव]]
 
*जीवन भगवान की सबसे बड़ी सौगात है। मनुष्य का जन्म हमारे लिए भगवान का सबसे बड़ा उपहार है।
 
*जीवन को छोटे उद्देश्यों के लिए जीना जीवन का अपमान है।
 
*अपनी आन्तरिक क्षमताओं का पूरा उपयोग करें तो हम पुरुष से महापुरुष, युगपुरुष, मानव से महामानव बन सकते हैं।
 
*मैं परमात्मा का प्रतिनिधि हूँ।
 
*मेरे मस्तिष्क में ब्रह्माण्ड सा तेज़, मेधा, प्रज्ञा व विवेक है।
 
*मैं माँ भारती का अमृतपुत्र हूँ, “माता भूमि: पुत्रोहं प्रथिव्या:”।
 
*प्रत्येक जीव की आत्मा में मेरा परमात्मा विराजमान है।
 
*मैं पहले माँ भारती का पुत्र हूँ, बाद में सन्यासी, ग्रहस्थ, नेता, अभिनेता, कर्मचारी, अधिकारी या व्यापारी हूँ।
 
*“इदं राष्ट्राय इदन्न मम” मेरा यह जीवन राष्ट्र के लिए है।
 
*मैं सदा प्रभु में हूँ, मेरा प्रभु सदा मुझमें है।
 
*मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मैंने इस पवित्र भूमि व देश में जन्म लिया है।
 
*मैं अपने जीवन पुष्प से माँ भारती की आराधना करुँगा।
 
*मैं पुरुषार्थवादी, राष्ट्रवादी, मानवतावादी व अध्यात्मवादी हूँ।
 
*कर्म ही मेरा धर्म है। कर्म ही मेरी पूजा है।
 
*मैं मात्र एक व्यक्ति नहीं, अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र व देश की सभ्यता व संस्कृति की अभिव्यक्ति हूँ।
 
*निष्काम कर्म, कर्म का अभाव नहीं, कर्तृत्व के अहंकार का अभाव होता है।
 
*पराक्रमशीलता, राष्ट्रवादिता, पारदर्शिता, दूरदर्शिता, आध्यात्मिक, मानवता एवं विनयशीलता मेरी कार्यशैली के आदर्श हैं।
 
*जब मेरा अन्तर्जागरण हुआ, तो मैंने स्वयं को संबोधि वृक्ष की छाया में पूर्ण तृप्त पाया।
 
*इन्सान का जन्म ही, दर्द एवं पीडा के साथ होता है। अत: जीवन भर जीवन में काँटे रहेंगे। उन काँटों के बीच तुम्हें गुलाब के फूलों की तरह, अपने जीवन-पुष्प को विकसित करना है।
 
*ध्यान-उपासना के द्वारा जब तुम ईश्वरीय शक्तियों के संवाहक बन जाते हो, तब तुम्हें निमित्त बनाकर भागवत शक्ति कार्य कर रही होती है।
 
*बाह्य जगत में प्रसिद्धि की तीव्र लालसा का अर्थ है-तुम्हें आन्तरिक सम्रध्द व शान्ति उपलब्ध नहीं हो पाई है।
 
*ज्ञान का अर्थ मात्र जानना नहीं, वैसा हो जाना है।
 
*दृढ़ता हो, जिद्द नहीं। बहादुरी हो, जल्दबाजी नहीं। दया हो, कमज़ोरी नहीं।
 
*मेरे भीतर संकल्प की अग्नि निरंतर प्रज्ज्वलित है। मेरे जीवन का पथ सदा प्रकाशमान है।
 
*सदा चेहरे पर प्रसन्नता व मुस्कान रखो। दूसरों को प्रसन्नता दो, तुम्हें प्रसन्नता मिलेगी।
 
*माता-पिता के चरणों में चारों धाम हैं। माता-पिता इस धरती के भगवान हैं।
 
*“मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव” की संस्कृति अपनाओ!
 
*अतीत को कभी विस्म्रत न करो, अतीत का बोध हमें ग़लतियों से बचाता है।
 
*यदि बचपन व माँ की कोख की याद रहे, तो हम कभी भी माँ-बाप के कृतघ्न नहीं हो सकते। अपमान की ऊचाईयाँ छूने के बाद भी अतीत की याद व्यक्ति के जमीन से पैर नहीं उखड़ने देती।
 
*सुख बाहर से नहीं भीतर से आता है।
 
*भगवान सदा हमें हमारी क्षमता, पात्रता व श्रम से अधिक ही प्रदान करते हैं।
 
*हम मात्र प्रवचन से नहीं अपितु आचरण से परिवर्तन करने की संस्कृति में विश्वास रखते हैं।
 
*विचारवान व संस्कारवान ही अमीर व महान है तथा विचारहीन ही कंगाल व दरिद्र है।
 
*भीड़ में खोया हुआ इंसान खोज लिया जाता है, परन्तु विचारों की भीड़ के बीहड़ में भटकते हुए इंसान का पूरा जीवन अंधकारमय हो जाता है।
 
*बुढ़ापा आयु नहीं, विचारों का परिणाम है।
 
*विचार शहादत, कुर्बानी, शक्ति, शौर्य, साहस व स्वाभिमान है। विचार आग व तूफ़ान है, साथ ही शान्ति व सन्तुष्टी का पैगाम है।
 
*पवित्र विचार-प्रवाह ही जीवन है तथा विचार-प्रवाह का विघटन ही मृत्यु है।
 
*विचारों की अपवित्रता ही हिंसा, अपराध, क्रूरता, शोषण, अन्याय, अधर्म और भ्रष्टाचार का कारण है।
 
*विचारों की पवित्रता ही नैतिकता है।
 
*विचार ही सम्पूर्ण खुशियों का आधार हैं।
 
*सदविचार ही सद्व्यवहार का मूल है।
 
*विचारों का ही परिणाम है-हमारा सम्पूर्ण जीवन। विचार ही बीज है, जीवनरुपी इस व्रक्ष का।
 
*विचारशीलता ही मनुष्यता और विचारहीनता ही पशुता है।
 
*पवित्र विचार प्रवाह ही मधुर व प्रभावशाली वाणी का मूल स्त्रोत है।
 
*अपवित्र विचारों से एक व्यक्ति को चरित्रहीन बनाया जा सकता है, तो शुद्ध सात्विक एवं पवित्र विचारों से उसे संस्कारवान भी बनाया जा सकता है।
 
*हमारे सुख-दुःख का कारण दूसरे व्यक्ति या परिस्थितियाँ नहीं अपितु हमारे अच्छे या बूरे विचार होते हैं।
 
*वैचारिक दरिद्रता ही देश के दुःख, अभाव पीड़ा व अवनति का कारण है। वैचारिक दृढ़ता ही देश की सुख-समृद्धि व विकास का मूल मंत्र है।
 
*हमारा जीना व दुनियाँ से जाना ही गौरवपूर्ण होने चाहिए।
 
*आरोग्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।
 
*उत्कर्ष के साथ संघर्ष न छोड़ो!
 
*बिना सेवा के चित्त शुद्धि नहीं होती और चित्तशुद्धि के बिना परमात्मतत्व की अनुभूति नहीं होती।
 
*आहार से मनुष्य का स्वभाव और प्रकृति तय होती है, शाकाहार से स्वभाव शांत रहता है, मांसाहार मनुष्य को उग्र बनाता है।
 
*जहाँ मैं और मेरा जुड़ जाता है, वहाँ ममता, प्रेम, करुणा एवं समर्पण होते हैं।
 
*“न” के लिए अनुमति नहीं है।
 
*स्वधर्म में अवस्थित रहकर स्वकर्म से परमात्मा की पूजा करते हुए तुम्हें समाधि व सिद्धि मिलेगी।
 
*प्रेम, वासना नहीं उपासना है। वासना का उत्कर्ष प्रेम की हत्या है, प्रेम समर्पण एवं विश्वास की परकाष्ठा है।
 
*माता-पिता का बच्चों के प्रति, आचार्य का शिष्यों के प्रति, राष्ट्रभक्त का मातृभूमि के प्रति ही सच्चा प्रेम है।<ref>{{cite web |url=http://patanjaliyogkarjan.blogspot.com/ |title=स्वामी रामदेव- अनमोल  |accessmonthday=30 जनवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=पंतजलि योग कर्जन |language=हिन्दी}}</ref>
 
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|'''आचार्य बालकृष्ण''' के अनमोल वचन
 
*गुण और दोष प्रत्येक व्यक्ति में होते हैं, योग से जुड़ने के बाद दोषों का शमन हो जाता है और गुणों में बढ़ोत्तरी होने लगती है।
 
*घृणा करने वाला निन्दा, द्वेष, ईर्ष्या करने वाले व्यक्ति को यह डर भी हमेशा सताये रहता है, कि जिससे मैं घृणा करता हूँ, कहीं वह भी मेरी निन्दा व मुझसे घृणा न करना शुरु कर दे।
 
*निन्दक दूसरों के आर-पार देखना पसन्द करता है, परन्तु खुद अपने आर-पार देखना नहीं चाहता।
 
*असंयम की राह पर चलने से आनन्द की मंजिल नहीं मिलती।
 
*मेरे पूर्वज, मेरे स्वाभिमान हैं।
 
*गुणों की वृद्धि और क्षय तो अपने कर्मों से होता है।
 
*सज्जन व कर्मशील व्यक्ति तो यह जानता है, कि शब्दों की अपेक्षा कर्म अधिक ज़ोर से बोलते हैं। अत: वह अपने शुभकर्म में ही निमग्न रहता है।
 
*जो किसी की निन्दा स्तुति में ही अपने समय को बर्बाद करता है, वह बेचारा दया का पात्र है, अबोध है।
 
*आयुर्वेद हमारी मिट्टी हमारी संस्कृति व प्रकृती से जुड़ी हुई निरापद चिकित्सा पद्धति है।
 
*शरीर स्वस्थ और निरोग हो, तो ही व्यक्ति दिनचर्या का पालन विधिवत कर सकता है, दैनिक कार्य और श्रम कर सकता है।
 
*आयुर्वेद वस्तुत: जीवन जीने का ज्ञान प्रदान करता है, अत: इसे हम धर्म से अलग नहीं कर सकते। इसका उद्देश्य भी जीवन के उद्देश्य की भाँति चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति ही है।
 
*आनन्द प्राप्ति हेतु त्याग व संयम के पथ पर बढ़ना होगा।
 
*जब आत्मा मन से, मन इन्द्रिय से और इन्द्रिय विषय से जुडता है, तभी ज्ञान प्राप्त हो पाता है।
 
*जो मनुष्य मन, वचन और कर्म से, ग़लत कार्यों से बचा रहता है, वह स्वयं भी प्रसन्न रहता है।।<ref>{{cite web |url=http://www.bharatswabhimantrust.org/bharatswa/H_Anmolwachan.aspx |title=आचार्य बालकृष्ण |accessmonthday=30 जनवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=ए.एस.पी |publisher=भारत स्वाभिमान |language=हिन्दी}}</ref>
 
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|'''महापुरूषों के प्रेरक-वचन एवं कहावतें'''
 
*मुठ्ठी भर संकल्पवान लोग, जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ़ आस्था है, इतिहास की धारा को बदल सकते हैं। - [[महात्मा गांधी]]
 
*ऐसे देश को छोड़ देना चाहिए, जहाँ न आदर है, न जीविका, न मित्र, न परिवार और न ही ज्ञान की आशा। - [[विनोबा भावे]]
 
*स्वतंत्र वही हो सकता है, जो अपना काम अपने आप कर लेता है। - [[विनोबा भावे]]
 
*द्वेष बुद्धि को हम द्वेष से नहीं मिटा सकते, प्रेम की शक्ति ही उसे मिटा सकती है।  -  [[विनोबा भावे]]
 
*अपने को संकट में डाल कर कार्य संपन्न करने वालों की विजय होती है, कायरों की नहीं।  - [[ जवाहरलाल नेहरू]]
 
*सच्चाई से जिसका मन भरा है, वह विद्वान न होने पर भी बहुत देश सेवा कर सकता है।  -  [[पं. मोतीलाल नेहरू]]
 
*नियम के बिना और अभिमान के साथ किया गया तप व्यर्थ ही होता है।  -  [[वेदव्यास]]
 
*जैसे सूर्योदय के होते ही अंधकार दूर हो जाता है, वैसे ही मन की प्रसन्नता से सारी बाधाएँ शांत हो जाती हैं।  -  [[अमृतलाल नागर]]
 
*जैसे उल्लू को सूर्य नहीं दिखाई देता, वैसे ही दुष्ट को सौजन्य दिखाई नहीं देता।  -  [[स्वामी भजनानंद]]
 
*मनुष्‍य के पूर्व कर्मों से प्रारब्‍ध का निर्माण होता है और प्रारब्‍ध से भाग्‍य बनता है, मनुष्‍य के वर्तमान कर्म उसके भविष्‍य का निर्धारण करते हैं । अत: प्राप्ति जितनी सहज हो उसे सहेजना उससे कई गुना दुष्‍कर होता है ।  -  '''संस्‍कृत की प्राचीन कहावत'''
 
*तपेश्‍वरी सो राजेश्‍वरी और राजेश्‍वरी सो नरकेश्‍वरी। अर्थात तपस्‍या से राज्‍य अर्थात शासकीय पद प्राप्‍त होता है और राजकीय पद या राज्‍य से नरक की प्राप्ति होती है – '''एक प्राचीन भारतीय कहावत'''
 
*हम अमन चाहते हैं जुल्‍म के खिलाफ़, फैसला ग़र जंग से होगा, तो जंग ही सही।  - [[ रामप्रसाद विस्मिल]]
 
*हर अच्‍छे, श्रेष्‍ठ और महान कार्य में तीन चरण होते हैं, प्रथम उसका उपहास उड़ाया जाता है, दूसरा चरण उसे समाप्‍त या नष्‍ट करने की हद तक विरोध किया जाता है और तीसरा चरण है, स्‍वीकृति और मान्‍यता, जो इन तीनों चरणों में बिना विचलित हुये अडिग रहता है, वह श्रेष्‍ठ बन जाता है और उसका कार्य सर्व स्‍वीकृत होकर अनुकरणीय बन जाता है –  [[स्वामी विवेकानन्द]]
 
*यदि सदगुरु मिल जाये तो जानो सब मिल गया, फिर कुछ मिलना शेष नहीं रहा! यदि सदगुरु नहीं मिले तो समझों कोई नहीं मिला, क्योंकि माता-पिता, पुत्र और भाई तो घर-घर में होते हैं! ये सांसारिक नाते सभी को सुलभ है, परन्तु सदगुरु की प्राप्ति दुर्लभ है!  --  [[कबीरदास]]
 
*जिनके हाथ ही पात्र हैं, भिक्षाटन से प्राप्त अन्न का निस्वादी भोजन करते हैं, विस्तीर्ण चारों दिशाएं ही जिनके वस्त्र हैं, पृथ्वी पर जो शयन करते हैं, अन्तकरण की शुद्धता से जो संतुष्ट हुआ करते हैं और देने भावों को त्याग कर जन्मजात कर्मों को नष्ट करते हैं, ऐसे ही मनुष्य धन्य है!  --  [[भर्तृहरी शतक]]
 
*जो नसीहतें नहीं सुनता, उसे लानत-मलामत सुनने का सुख होता है! --  [[शेख़ सादी]]
 
*आपदर्थे धनं रक्षेद दारान रक्षेद धनैरपि! आत्मान सतत रक्षेद दारैरपि धनैरपि!!<br>
 
विपत्ति के समय काम आने वाले धन की रक्षा करें! धन से स्त्री की रक्षा करें और अपनी रक्षा धन और स्त्री से सदा करें!  --  [[चाणक्य]]
 
*प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजा के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का हित नहीं है, प्रजा की प्रियता में ही राजा का हित है।  -  चाणक्य
 
*ईमानदार के लिए किसी छद्म वेश-भूषा या साज-श्रृंगार की आवश्यकता नहीं होती! इसके लिए सादगी ही प्रर्याप्त है!  --  औटवे
 
*शब्द धरती, शब्द आकाश, शब्द शब्द भया परगास! <br>
 
सगली शब्द के पाछे, नानक शब्द घटे घाट आछे !!  --  [[गुरु नानक]] <ref>{{cite web |url=http://roshan.himdhara.in/2010/03/blog-post.html |title=अनमोल वचन |accessmonthday=30 जनवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=आधारशिला  |language=हिन्दी}}</ref>
 
*लोहा गरम भले ही हो जाए पर हथौड़ा तो ठंडा रह कर ही काम कर सकता है।  -  [[सरदार पटेल]]
 
*कष्ट ही तो वह प्रेरक शक्ति है, जो मनुष्य को कसौटी पर परखती है और आगे बढ़ाती है।  -  [[वीर सावरकर]]
 
*संयम संस्कृति का मूल है। विलासिता, निर्बलता और चाटुकारिता के वातावरण में न तो संस्कृति का उद्भव होता है और न विकास। -  [[काका कालेलकर]]
 
*चाहे गुरु पर हो या ईश्वर पर, श्रद्धा अवश्य रखनी चाहिए। क्योंकि बिना श्रद्धा के सब बातें व्यर्थ होती हैं।  -  [[समर्थ रामदास]]
 
*असंतोष की भावना को लगन व धैर्य से रचनात्मक शक्ति में न बदला जाए, तो वह ख़तरनाक भी हो सकती है।  -  इंदिरा गांधी
 
*साहित्य का कर्तव्य केवल ज्ञान देना नहीं है, बल्कि एक नया वातावरण देना भी है।  -  [[ डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन]]
 
*लोकतंत्र के पौधे का, चाहे वह किसी भी क़िस्म का क्यों न हो, तानाशाही में पनपना संदेहास्पद है।  -  [[जयप्रकाश नारायण]]
 
*सहिष्णुता और समझदारी संसदीय लोकतंत्र के लिए उतने ही आवश्यक हैं, जितने संतुलन और मर्यादित चेतना।  -  [[डॉ. शंकर दयाल शर्मा]]
 
*धर्म करते हुए मर जाना अच्छा है, पर पाप करते हुए विजय प्राप्त करना अच्छा नहीं।  -  [[महाभारत]]
 
*दंड द्वारा प्रजा की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन बिना कारण किसी को दंड नहीं देना चाहिए।  -  [[रामायण]]
 
*शाश्वत शांति की प्राप्ति के लिए शांति की इच्छा नहीं, बल्कि आवश्यक है, इच्छाओं की शांति।  -  स्वामी ज्ञानानंद
 
*धर्म का अर्थ तोड़ना नहीं, बल्कि जोड़ना है। धर्म एक संयोजक तत्व है। धर्म लोगों को जोड़ता है।  -  [[डॉ. शंकरदयाल शर्मा]]<ref>{{cite web |url=http://mahashakti.bharatuday.in/2010/06/blog-post_06.html |title=महापुरूषों के प्रेरक-वचन एवं कहावतें |accessmonthday=30 जनवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=महाशक्ति  |language=हिन्दी}}</ref>
 
*दुखियारों को हमदर्दी के आँसू भी कम प्यारे नहीं होते।  -  [[प्रेमचंद]]
 
*अनुराग, यौवन, रूप या धन से उत्पन्न नहीं होता। अनुराग, अनुराग से उत्पन्न होता है।  -  [[प्रेमचंद]]
 
*कुल की प्रतिष्ठा भी विनम्रता और सदव्यवहार से होती है, हेकड़ी और रुआब दिखाने से नहीं।  -  [[प्रेमचंद]]
 
*अधिक हर्ष और अधिक उन्नति के बाद ही अधिक दुख और पतन की बारी आती है।  -  [[जयशंकर प्रसाद]]
 
*सारा जगत स्वतंत्रता के लिए लालायित रहता है, फिर भी प्रत्येक जीव अपने बंधनो को प्यार करता है। यही हमारी प्रकृति की पहली दुरूह ग्रंथि और विरोधाभास है।  -  श्री अरविंद
 
*अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच-सींच कर महाप्राण शक्तियाँ बनाते हैं।  -  [[महर्षि अरविंद]]
 
*वही उन्नति करता है, जो स्वयं अपने को उपदेश देता है।  -  स्वामी रामतीर्थ
 
*जंज़ीरें, जंज़ीरें ही हैं, चाहे वे लोहे की हों या सोने की, वे समान रूप से तुम्हें गुलाम बनाती हैं।  -  स्वामी रामतीर्थ
 
*त्याग निश्चय ही आपके बल को बढ़ा देता है, आपकी शक्तियों को कई गुना कर देता है, आपके पराक्रम को दृढ कर देता है, वही आपको ईश्वर बना देता है! वह आपकी चिंताएं और भय हर लेता है, आप निर्भय तथा आनंदमय हो जाते हैं!  -  स्वामी रामतीर्थ
 
*जैसे अंधे के लिए जगत अंधकारमय है और आँखों वाले के लिए प्रकाशमय है, वैसे ही अज्ञानी के लिए जगत दुखदायक है और ज्ञानी के लिए आनंदमय।  -  [[संपूर्णानंद]]
 
*नम्रता और मीठे वचन ही मनुष्य के आभूषण होते हैं। शेष सब नाममात्र के भूषण हैं।  -  [[संत तिरुवल्लुर]]
 
*अपने विषय में कुछ कहना प्राय: बहुत कठिन हो जाता है, क्योंकि अपने दोष देखना आपको अप्रिय लगता है और उनको अनदेखा करना औरों को।  -  [[महादेवी वर्मा]]
 
*करुणा में शीतल अग्नि होती है, जो क्रूर से क्रूर व्यक्ति का हृदय भी आर्द्र कर देती है।  -  [[सुदर्शन]]
 
*तप ही परम कल्याण का साधन है। दूसरे सारे सुख तो अज्ञान मात्र हैं।  -  [[वाल्मीकि]]
 
*हताश न होना सफलता का मूल है और यही परम सुख है। उत्साह मनुष्य को कर्मों में प्रेरित करता है और उत्साह ही कर्म को सफल बनता है।  -    वाल्मीकि
 
*मित्रों का उपहास करना उनके पावन प्रेम को खंडित करना है।  -  [[राम प्रताप त्रिपाठी]]
 
*नेकी से विमुख हो जाना और बदी करना नि:संदेह बुरा है, मगर सामने हँस कर बोलना और पीछे चुगलखोरी करना, उससे भी बुरा है।  -  संत तिरुवल्लुवर
 
*कवि और चित्रकार में भेद है। कवि अपने स्वर में और चित्रकार अपनी रेखा में जीवन के तत्व और सौंदर्य का रंग भरता है।  -  [[डॉ. रामकुमार वर्मा]]
 
*तलवार ही सब कुछ है, उसके बिना न मनुष्य अपनी रक्षा कर सकता है और न निर्बल की।  -  [[गुरु गोविंद सिंह]]
 
*मनुष्य क्रोध को प्रेम से, पाप को सदाचार से, लोभ को दान से और झूठ को सत्य से जीत सकता है।  -  गौतम बुद्ध
 
*स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है!  -  [[ लोकमान्य तिलक]]
 
*जो अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है, वही सबसे बड़ा विजयी है।  -  [[गौतम बुद्ध]]
 
*मनुष्य का जीवन एक महानदी की भाँति है, जो अपने बहाव द्वारा नवीन दिशाओं में राह बना लेती है।  -  रबीन्द्रनाथ ठाकुर
 
*प्रत्येक बालक यह संदेश लेकर आता है, कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है।  -  [[रबीन्द्रनाथ ठाकुर]]
 
*विश्वास वह पक्षी है, जो प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है।  -रबीन्द्रनाथ ठाकुर
 
*जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है, वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए।  -  [[वेदव्यास]] <ref>{{cite web |url=http://www.abhivyakti-hindi.org/vichar/amarvani1.htm |title=सूक्तियाँ|accessmonthday=30 जनवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=अभिव्यक्ति  |language=हिन्दी}}</ref>
 
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|'''ज्ञान का सागर - अनमोल वचन'''
 
1  सत्य परायण मनुष्य किसी से घृणा नहीं करता है। <br>
 
2  जो क्षमा करता है और बीती बातों को भूल जाता है, उसे ईश्वर पुरस्कार देता है। <br>
 
3  यदि तुम फूल चाहते हो तो जल से पौधों को सींचना भी सीखो। <br>
 
4  '''ईश्वर''' की शरण में गए बगैर साधना पूर्ण नहीं होती। <br>
 
5  लज्जा से रहित व्यक्ति ही स्वार्थ के साधक होते हैं। <br>
 
6  जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है। <br>
 
7  '''रोग''' का सूत्रपान मानव मन में होता है। <br>
 
8  किसी भी व्यक्ति को मर्यादा में रखने के लिये तीन कारण जिम्मेदार होते हैं - व्यक्ति का मष्तिष्क, शारीरिक संरचना और कार्यप्रणाली, तभी उसके व्यक्तित्व का सामान्य विकास हो पाता है। <br>
 
9  सामाजिक और धार्मिक शिक्षा व्यक्ति को नैतिकता एवं अनैतिकता का पाठ पढ़ाती है। <br>
 
10  यदि कोई दूसरों की जिन्दगी को खुशहाल बनाता है तो उसकी जिन्दगी अपने आप खुशहाल बन जाती है। <br>
 
11  यदि व्यक्ति के संस्कार प्रबल होते हैं तो वह नैतिकता से भटकता नहीं है।<br>
 
12  सात्त्विक स्वभाव सोने जैसा होता है, लेकिन सोने को आकृति देने के लिये थोड़ा - सा पीतल मिलाने कि जरुरत होती है। <br>
 
13  संसार कार्यों से, कर्मों के परिणामों से चलता है। <br>
 
14  संन्यास डरना नहीं सिखाता। <br>
 
15  सुख - दुःख जीवन के दो पहलू हैं, धूप व छांव की तरह। <br>
 
16  अपनों के चले जाने का दुःख असहनीय होता है, जिसे भुला देना इतना आसान नहीं है; लेकिन ऐसे भी मत खो जाओ कि खुद का भी होश ना रहे। <br>
 
17  इंसान को आंका जाता है अपने काम से। जब काम व उत्तम विचार मिलकर काम करें तो मुख पर एक नया - सा, अलग - सा तेज आ जाता है। <br>
 
18  अपने आप को अधिक समझने व मानने से स्वयं अपना रास्ता बनाने वाली बात है। <br>
 
19  अगर कुछ करना व बनाना चाहते हो तो सर्वप्रथम लक्ष्य को निर्धारित करें। वरना जीवन में उचित उपलब्धि नहीं कर पायेंगे। <br>
 
20  ऊंचे उद्देश्य का निर्धारण करने वाला ही उज्जवल भविष्य को देखता है। <br>
 
21  संयम की शक्ति जीवं में सुरभि व सुगंध भर देती है। <br>
 
22  जहाँ वाद - विवाद होता है, वहां श्रद्धा के फूल नहीं खिल सकते और जहाँ जीवन में आस्था व श्रद्धा को महत्व न मिले, वहां जीवन नीरस हो जाता है। <br>
 
23  फल की सुरक्षा के लिये छिलका जितना जरूरी है, धर्म को जीवित रखने के लिये सम्प्रदाय भी उतना ही काम का है। <br>
 
24  सभ्यता एवं संस्कृति में जितना अंतर है, उतना ही अंतर उपासना और धर्म में है। <br>
 
25  जब तक मानव के मन में मैं (अहंकार) है, तब तक वह शुभ कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि मैं स्वार्थपूर्ति करता है और शुद्धता से दूर रहता है। <br>
 
26  इस दुनिया में भगवान् से बढ़कर कोई घर या अदालत नहीं है। <br>
 
27  मां है मोहब्बत का नाम, मां से बिछुड़कर चैन कहाँ। <br>
 
28  सत्य का पालन ही राजाओं का दया प्रधान सनातन अचार था। राज्य सत्य स्वरुप था और सत्य में लोक प्रतिष्ठित था। <br>
 
29  सत्य के समान कोई धर्म नहीं है। सत्य से उत्तम कुछ भी नहीं हैं और जूठ से बढ़कर तीव्रतर पाप इस जगत में दूसरा नहीं है। <br>
 
30  अच्छा साहित्य जीवन के प्रति आस्था ही उत्पन्न नहीं करता, वरन उसके सौंदर्य पक्ष का भी उदघाटन कर उसे पूजनीय बना देता है। <br>
 
31  सत्य भावना का सबसे बड़ा धर्म है।<br>
 
32  व्रतों से सत्य सर्वोपरि है। <br>
 
33  वह सत्य नहीं जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दया युक्त हो तो असत्य भी सत्य ही कहा जाता है। जिसमें मनुष्य का हित होता हो, वही सत्य है। <br>
 
34  मनुष्य को उत्तम शिक्षा अच्चा स्वभाव, धर्म, योगाभ्यास और विज्ञान का सार्थक ग्रहण करके जीवन में सफलता प्राप्त करनी चाहिए। <br>
 
35  जीवन का महत्वा इसलिये है, ख्योंकी मृत्यु है। मृत्यु न हो तो जिन्दगी बोझ बन जायेगी. इसलिये मृत्यु को दोस्त बनाओ, उसी दरो नहीं। <br>
 
36  कर्म करनी ही उपासना करना है, विजय प्राप्त करनी ही त्याग करना है। स्वयं जीवन ही धर्म है, इसे प्राप्त करना और अधिकार रखना उतना ही कठोर है जितना कि इसका त्याग करना और विमुख होना। <br>
 
37  संसार की चिंता में पढ़ना तुम्हारा काम नहीं है, बल्कि जो सम्मुख आये, उसे भगवद रूप मानकर उसके अनुरूप उसकी सेवा करो। <br>
 
38  मृत्यु दो बार नहीं आती और जब आने को होती है, उससे पहले भी नहीं आती है। <br>
 
39  मां प्यार का सुर होती है। मां बनी तभी तो प्यार बना, सब दिन मां के दिए होते हैं। इसलिये सब दिन मदर्स दे होता है। <br>
 
40  ज्ञान मूर्खता छुडवाता है और परमात्मा का सुख देता है। यही आत्मसाक्षात्कार का मार्ग है। <br>
 
41  संसार के सारे दु:ख चित्त की मूर्खता के कारण होते है। जितनी मूर्खता ताकतवर उतना ही दुःख मजबूत, जितनी मूर्खता कम उतना ही दुःख कम। मूर्खता हटी तो समझो दुःख छू-मंतर हो जायेगी। <br>
 
42  पढ़ना एक गुण, चिंतन दो गुना, आचरण चौगुना करना चाहिए। <br>
 
43  दण्ड देने की शक्ति होने पर भी दण्ड न देना सच्चे क्षमा है। <br>
 
44  उसकी जय कभी नहीं हो सकती, जिसका दिल पवित्र नहीं है। <br>
 
45  सच्चा दान वही है, जिसका प्रचार न किया जाए। <br>
 
46  पाप आत्मा का शत्रु है और सद्गुण आत्मा का मित्र। <br>
 
47  हमारा शरीर ईश्वर के मन्दिर के समान है, इसलिये इसे स्वस्थ रखना भी एक तरह की इश्वर - आराधना है। <br>
 
48  सैकड़ों गुण रहित और मूर्ख पुत्रों के बजाय एक गुणवान और विद्वान पुत्र होना अच्छा है; क्योंकि रात्रि के समय हजारों तारों की उपेक्षा एक चन्द्रमा से ही प्रकाश फैलता है। <br>
 
49  एक ही पुत्र यदि विद्वान और अच्छे स्वभाव वाला हो तो उससे परिवार को ऐसी ही खुशी होती है, जिस प्रकार एक चन्द्रमा के उत्पन्न होने पर काली रात चांदनी से खिल उठती है।<br>
 
50  ब्रह्म विद्या मनुष्य को ब्रह्म - परमात्मा के चरणों में बिठा देती है और चित्त की मूर्खता छुडवा देती है। <br>
 
51  जिस तरह से एक ही सूखे वृक्ष में आग लगने से सारा जंगल जलकर राख हो सकता है, उसी प्रकार एक मूर्ख पुत्र सारे कुल को नष्ट कर देता है।<br>
 
52  जिस प्रकार सुगन्धित फूलों से लदा एक वृक्ष सारे जंगले को सुगन्धित कर देता है, उसी प्रकार एक सुपुत्र से वंश की शोभा बढती है।<br>
 
53  पांच वर्ष की आयु तक पुत्र को प्यार करना चाहिए। इसके बाद दस वर्ष तक इस पर निगरानी राखी जानी चाहिए और गलती करने पर उसे दण्ड भी दिया जा सकता है, परन्तु सोलह वर्ष की आयु के बाद उससे मित्रता कर एक मित्र के समान व्यवहार करना चाहिए। <br>
 
54  दुःख देने वाले और हृदय को जलाने वाले बहुत से पुत्रों से क्या लाभ? कुल को सहारा देने वाला एक पुत्र ही श्रेष्ठ होता है।<br>
 
55  यदि पुत्र विद्वान और माता-पिता की सेवा करने वाला न हो तो उसका धरती पर जन्म लेना व्यर्थ है।<br>
 
56  जो न दान देता है, न भोग करता है, उसका धन स्वतः नष्ट हो जाता है। अतः योग्य पात्र को दान देना चाहिए।<br>
 
57  बुरी मंत्रणा से राजा, विषयों की आसक्ति से योगी, स्वाध्याय न करने से विद्वान, अधिक प्यार से पुत्र, दुष्टों की संगती से चरित्र, प्रदेश में रहने से प्रेम, अन्याय से ऐश्वर्य, प्रेम न होने से मित्रता तथा प्रमोद से धन नष्ट हो जाता है; अतः बुद्धिमान अपना सभी प्रकार का धन संभालकर रखता है, बुरे समय का हमें हमेशा ध्यान रहता है।<br>
 
58    पापों का नाश प्रायश्चित करने और इससे सदा बचने के संकल्प से होता है।<br>
 
59    जब मनुष्य दूसरों को भी अपना जीवन सार्थक करने को प्रेरित करता है तो मनुष्य के जीवन में सार्थकता आती है।<br>
 
60    जो मिला है और मिल रहा है, उससे संतुष्ट रहो।<br>
 
61    सब जीवों के प्रति मंगल कामना धर्म का प्रमुख ध्येय है।<br>
 
62    जीवन को विपत्तियों से धर्म ही सुरक्षित रख सकता है।<br>
 
63    दूसरों के जैसे बनने के प्रयास में अपना निजीपन नष्ट मत करो।<br>
 
64    सत्य बोलने तक सीमित नहीं, वह चिंतन और कर्म का प्रकार है, जिसके साथ ऊंचा उद्देश्य अनिवार्य जुडा होता है।<br>
 
65    महान प्यार और महान उपलब्धियों के खतरे भी महान होते हैं।<br>
 
66    कभी-कभी मौन से श्रेष्ठ उत्तर नहीं होता, यह मंत्र याद रखो और किसी बात के उत्तर नहीं देना चाहते हो तो हंसकर पूछो- आप यह क्यों जानना चाहते हों?<br>
 
67    अच्छा व ईमानदार जीवन बिताओ और अपने चरित्र को अपनी मंजिल मानो।<br>
 
68    जब कभी भी हारो, हार के कारणों को मत भूलो।<br>
 
69    धीरे बोल। जल्दी सोचों और छोटे-से विवाद पर पुरानी दोस्ती कुर्बान मत करो।<br>
 
70    जब भी आपको महसूस हो, आपसे गलती हो गयी है, उसे सुधारने के उपाय तुरंत शुरू करो।<br>
 
71    दुष्कर्मों के बढ़ जाने पर सच्चाई निष्क्रिय हो जाती है, जिसके परिणाम स्वरुप वह राहत के बदले प्रतिक्रया करना शुरू कर देती है।<br>
 
72    क्रोध बुद्धि को समाप्त कर देता है। जब क्रोध समाप्त हो जाता है तो बाद में बहुत पश्चाताप होता है।<br>
 
73    भले बनकर तुम दूसरों की भलाई का कारण भी बन जाते हो।<br>
 
74    अपनी कलम सेवा के काम में लगाओ, न कि प्रतिष्ठा व पैसे के लिये। कलम से ही ज्ञान, साहस और त्याग की भावना प्राप्त करें।<br>
 
75    समाज में कुछ लोग ताकत इस्तेमाल कर दोषी व्यक्तियों को बचा लेते हैं, जिससे दोषी व्यक्ति तो दोष से बच निकलता है और निर्दोष व्यक्ति क़ानून की गिरफ्त में आ जाता है। इसे नैतिक पतन का तकाजा ही कहा जायेगा।<br>
 
76    न तो दरिद्रता में मोक्ष है और न सम्पन्नता में, बंधन धनी हो या निर्धन दोनों ही स्थितियों में ज्ञान से मोक्ष मिलता है।<br>
 
77    कोई भी व्यक्ति क्रुद्ध हो सकता है, लेकिन सही समय पर, सही मात्रा में, सही स्थान पर, सही उद्देश्य के लिये सही ढंग से क्रुद्ध होना सबके सामर्थ्य की बात नहीं है।<br>
 
78    हीन से हीन प्राणी में भी एकाध गुण होते हैं। उसी के आधार पर वह जीवन जी रहा है।<br>
 
79    सुखों का मानसिक त्याग करना ही सच्चा सुख है जब तक व्यक्ति लौकिक सुखों के आधीन रहता है, तब तक उसे अलौकिक सुख की प्राप्ति नहीं हों सकती, क्योंकि सुखों का शारीरिक त्याग तो आसान काम है, लेकिन मानसिक त्याग अति कठिन है।<br>
 
80    लोगों को चाहिए कि इस जगत में मनुष्यता धारण कर उत्तम शिक्षा, अच्छा स्वभाव, धर्म, योग्याभ्यास और विज्ञान का सम्यक ग्रहण करके सुख का प्रयत्न करें, यही जीवन की सफलता है।<br>
 
81    विधा, बुद्धि और ज्ञान को जितना खर्च करो, उतना ही बढ़ते हैं।<br>
 
82    सब कर्मों में आत्मज्ञान श्रेष्ठ समझना चाहिए; क्योंकि यह सबसे उत्तम विद्या है। यह अविद्या का नाश करती है और इससे मुक्ति प्राप्त होती है।<br>
 
83    अपनी स्वंय की [[आत्मा]] के उत्थान से लेकर, व्यक्ति विशेष या सार्वजनिक लोकहितार्थ में निष्ठापूर्वक निष्काम भाव आसक्ति को त्याग कर समत्व भाव से किया गया प्रत्येक कर्म यज्ञ है।<br>
 
84    परमात्मा वास्तविक स्वरुप को न मानकर उसकी कथित पूजा करना अथवा अपात्र को दान देना, ऐसे कर्म क्रमश: कोई कर्म-फल प्राप्त नहीं कराते, बल्कि पाप का भागी बनाते हैं।<br>
 
85    जिस कर्म से किन्हीं मनुष्यों या अन्य प्राणियों को किसी भी प्रकार का कष्ट या हानि पहुंचे, वे ही दुष्कर्म कहलाते हैं।<br>
 
86    यज्ञ, दान और तप से त्याग करने योग्य कर्म ही नहीं, अपितु अनिवार्य कर्त्तव्य कर्म भी हैं; क्योंकि यज्ञ, दान व तप बुद्धिमान लोगों को पवित्र करने वाले हैं।<br>
 
87    परोपकारी, निष्कामी और सत्यवादी यानी निर्भय होकर मन, वचन व कर्म से सत्य का आचरण करने वाला देव है।<br>
 
88    परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव के समान अपने स्वयं के गुण, कर्म व स्वभावों को समयानुसार धारण करना ही परमात्मा की सच्ची पूजा है।<br>
 
89    जो कार्य प्रारंभ में कष्टदायक होते हैं, वे परिणाम में अत्यंत सुखदायक होते हैं।<br>
 
90    जो दानदाता इस भावना से सुपात्र को दान देता है कि, तेरी (परमात्मा) वस्तु तुझे ही अर्पित है; परमात्मा उसे अपना प्रिय सखा बनाकर उसका हाथ थामकर उसके लिये धनों के द्वार खोल देता है; क्योंकि मित्रता सदैव समान विचार और कर्मों के कर्ता में ही होती है, विपरीत वालों में नहीं।<br>
 
91    जो मनुष्य अपने समीप रहने वालों की तो सहायता नहीं करता, किन्तु दूरस्थ की सहायता करता है, उसका दान, दान न होकर दिखावा है।<br>
 
92    दान की वृत्ति दीपक की ज्योति के समान होनी चाहिए, जो समीप से अधिक प्रकाश देती है और ऐसे दानी अमरपद को प्राप्त करते हैं।<br>
 
93    समय मूल्यवान है, इसे व्यर्थ नष्ट न करो। आप समय देकर धन पैदा कर रखते हैं और संसार की सभी वस्तुएं प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन स्मरण रहे - सब कुछ देकर भी समय प्राप्त नहीं कर सकते अथवा गए समय को वापिस नहीं ला सकते।<br>
 
94    यदि ज़्यादा पैसा कमाना हाथ की बात नहीं तो कम खर्च करना तो हाथ की बात है; क्योंकि खर्चीला जीवन बनाना अपनी स्वतन्त्रता को खोना है।<br>
 
95    ज़्यादा पैसा कमाने की इच्छा से ग्रसित मनुष्य झूठ, कपट, बेईमानी, धोखेबाजी, विश्वाघात आदि का सहारा लेकर परिणाम में दुःख ही प्राप्त करता है।<br>
 
96    इन दोनों व्यक्तियों के गले में पत्थर बाँधकर पानी में डूबा देना चाहिए- एक दान न करने वाला धनिक तथा दूसरा परिश्रम न करने वाला दरिद्र।<br>
 
97    ज्ञान से एकता पैदा होती है और अज्ञान से संकट।<br>
 
98    भगवान् प्रेम के भूखे हैं, पूजा के नहीं।<br>
 
99    परमात्मा इन्साफ करता है, पर सदगुरु बख्शता है।<br>
 
100  जिसके पास कुछ नहीं रहता, उसके पास भगवान् रहता है।<br>
 
101    उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति होने तक मत रुको।<br>
 
102    जिस तेज़ी से विज्ञान की प्रगति के साथ उपभोग की वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में बनना शुरू हो गयी हैं, वे मनुष्य के लिये पिंजरा बन रही हैं।<br>
 
103    जिस व्यक्ति का मन चंचल रहता है, उसकी कार्यसिद्धि नहीं होती।<br>
 
104    अपराध करने के बाद डर पैदा होता है और यही उसका दण्ड है।<br>
 
105    अभागा वह है, जो कृतज्ञता को भूल जाता है।<br>
 
106    पूर्वजों के गुणों का अनुसरण करना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देना है।<br>
 
107    वृद्धावस्था बीमारी नहीं, विधि का विधान है, इस दौरान सक्रिय रहें।<br>
 
108    अतीत की स्म्रतियाँ और भविष्य की कल्पनाएँ मनुष्य को वर्तमान जीवन का सही आनंद नहीं लेने देतीं। वर्तमान में सही जीने के लिये आवश्य है अनुकूलता और प्रतिकूलता में सम रहना।<br>
 
109    मानसिक शांति के लिये मन-शुद्धी, श्वास-शुद्धी एवं इन्द्रिय-शुद्धी का होना अति आवश्यक है।<br>
 
110    अडिग रूप से चरित्रवान बनें, ताकि लोग आप पर हर परिस्थिति में विश्वास कर सकें।<br>
 
111    जैसे एक अच्छा गीत तभी सम्भव है, जब संगीत व शब्द लयबद्ध हों; वैसे ही अच्छे नेतृत्व के लिये ज़रूरी है कि आपकी करनी एवं कथनी में अंतर न हो।<br>
 
112    अपने व्यवहार में पारदर्शिता लाएँ। अगर आप में कुछ कमियाँ भी हैं, तो उन्हें छिपाएं नहीं; क्योंकि कोई भी पूर्ण नहीं है, सिवाय एक ईश्वर के।<br>
 
113    मनुष्य की सफलता के पीछे मुख्यता उसकी सोच, शैली एवं जीने का नज़रिया होता है।<br>
 
114    गुण व कर्म से ही व्यक्ति स्वयं को ऊपर उठाता है। जैसे कमल कहाँ पैदा हुआ, इसमें विशेषता नहीं, बल्कि विशेषता इसमें है कि, कीचड़ में रहकर भी उसने स्वयं को ऊपर उठाया है।<br>
 
115    हमें अपने अभाव एवं स्वभाव दोनों को ही ठीक करना चाहिए; क्योंकि ये दोनों ही उन्नति के रास्ते में बाधक होते हैं।<br>
 
116    अगर हर आदमी अपना-अपना सुधार कर ले तो, सारा संसार सुधर सकता है; क्योंकि एक-एक के जोड़ से ही संसार बनता है।<br>
 
117    अपनों के लिये गोली सह सकते हैं, लेकिन बोली नहीं सह सकते। गोली का घाव भर जाता है, पर बोली का नहीं।<br>
 
118    भगवान् से निराश कभी मत होना, संसार से आशा कभी मत करना; क्योंकि संसार स्वार्थी है। इसका नमूना तुम्हारा खुद शरीर है।<br>
 
119    धन अच्छा सेवक भी है और बुरा मालिक भी।<br>
 
120    जिसका मन-बुद्धि परमात्मा के प्रति वफादार है, उसे मन की शांति अवश्य मिलती है।<br>
 
121    राग-द्वेष की भावना अगर प्रेम, सदाचार और कर्त्तव्य को महत्व दें तो, मन की सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है।<br>
 
122    कुमति व कुसंगति को छोड़ अगर सुमति व सुसंगति को बढाते जायेंगे तो एक दिन सुमार्ग को आप अवश्य पा लेंगे।<br>
 
123    यह सच है कि सच्चाई को अपनाना बहुत अच्छी बात है, लेकिन किसी सच से दूसरे का नुकसान होता हो तो, ऐसा सच बोलते समय सौ बार सोच लेना चाहिए।<br>
 
124    स्वर्ग व नरक कोई भौगोलिक स्थिति नहीं हैं, बल्कि एक मनोस्थिति है। जैसा सोचोगे, वैसा ही पाओगे।<br>
 
125    पूरी तरह तैरने का नाम तीर्थ है। एक मात्र पानी में डुबकी लगाना ही तीर्थस्नान नहीं।<br>
 
126  सदा, सहज व सरल रहने से आतंरिक खुशी मिलती है। <br>
 
127  मन की शांति के लिये अंदरूनी संघर्ष को बंद करना ज़रूरी है, जब तक अंदरूनी युद्ध चलता रहेगा, शांति नहीं मिल सकती।<br>
 
128  किसी का बुरा मत सोचो; क्योंकि बुरा सोचते-सोचते एक दिन अच्छा-भला व्यक्ति भी बुरे रास्ते पर चल पड़ता है।<br>
 
129  सारा संसार ऐसा नहीं हो सकता, जैसा आप सोचते हैं, अतः समझौतावादी बनो।<br>
 
130  महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिये बहुत कष्ट सहना पड़ता है, जो तप के समान होता है; क्योंकि ऊंचाई पर स्थिर रह पाना आसान काम नहीं है।<br>
 
131  जैसे प्रकृति का हर कारण उपयोगी है, ऐसे ही हमें अपने जीवन के हर क्षण को परहित में लगाकर स्वयं और सभी के लिये उपयोगी बनाना चाहिए।<br>
 
132  हर व्यक्ति संवेदनशील होता है, पत्थर कोई नहीं होता; लेकिन सज्जन व्यक्ति पर बाहरी प्रभाव पानी की लकीर की भाँति होता है।<br>
 
133  जहाँ भी हो, जैसे भी हो, कर्मशील रहो, भाग्य अवश्य बदलेगा; अतः मनुष्य को कर्मवादी होना चाहिए, भाग्यवादी नहीं।<br>
 
134  सभी मन्त्रों से महामंत्र है- कर्म मंत्र, कर्म करते हुए भजन करते रहना ही प्रभु की सच्ची भक्ति है।<br>
 
135  जूँ, खटमल की तरह दूसरों पर नहीं पलना चाहिए, बल्कि अंत समय तक कार्य करते जाओ; क्योंकि गतिशीलता जीवन का आवश्यक अंग है।<br>
 
136  बाहर मैं, मेरा और अंदर तू, तेरा, तेरी के भाव के साथ जीने का आभास जिसे हो गया, वह उसके जीवन की एक महान व उत्तम प्राप्ति है।<br>
 
137  भाग्यशाली होते हैं वे, जो अपने जीवन के संघर्ष के बीच एक मात्र सहारा परमात्मा को मानते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। <br>
 
138  सन्यासी स्वरुप बनाने से अहंकार बढ़ता है, कपडे मत रंगवाओ, मन को रंगों तथा भीतर से सन्यासी की तरह रहो।<br>
 
139  जीवन चलते रहने का नाम है। सोने वाला सतयुग में रहता है, बैठने वाला द्वापर में, उठ खडा होने वाला त्रेता में, और चलने वाला सतयुग में, इसलिए चलते रहो।<br>
 
140  अपनों व अपने प्रिय से धोखा हो या बीमारी से उठे हों या राजनीति में हार गए हों या श्मशान घर में जाओ; तब जो मन होता है, वैसा मन अगर हमेशा रहे, तो मनुष्य का कल्याण हो जाए।<br>
 
141  मनुष्य का मन कछुए की भाँति होना चाहिए, जो बाहर की चोटें सहते हुए भी अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ता और धीरे-धीरे मंजिल पर पहुँच जाता है।<br>
 
142  हर शाम में एक जीवन का समापन हो रहा है और हर सवेरे में नए जीवन की शुरूआत होती है।<br>
 
143  भगवान् को अनुशासन एवं सुव्यवस्थितपना बहुत पसंद है. अतः उन्हें ऐसे लोग ही पसंद आते हैं, जो सुव्यवस्था व अनुशासन को अपनाते हैं।<br>
 
144  आज का मनुष्य अपने अभाव से इतना दुखी नहीं है, जितना दूसरे के प्रभाव से होता है।<br>
 
145  जानकारी व वैदिक ज्ञान का भार तो लोग सिर पर गधे की तरह उठाये फिरते हैं और जल्द अहंकारी भी हो जाते हैं, लेकिन उसकी सरलता का आनंद नहीं उठा सकते हैं।<br>
 
146  जहाँ सत्य होता है, वहां लोगों की भीड़ नहीं हुआ करती; क्योंकि सत्य जहर होता है और जहर को कोई पीना या लेना नहीं चाहता है, इसलिए आजकल हर जगह मेला लगा रहता है।<br>
 
147  दिन में अधूरी इच्छा को व्यक्ति रात को स्वप्न के रूप में देखता है, इसलिए जितना मन अशांत होगा, उतने ही अधिक स्वप्न आते हैं।<br>
 
148  कई बच्चे हज़ारों मील दूर बैठे भी माता - पिता से दूर नहीं होते और कई घर में साथ रहते हुई भी हजारों मील दूर होते हैं।<br>
 
149  जो व्यक्ति हर स्थिति में प्रसन्न और शांत रहना सीख लेता है, वह जीने की कला प्राणी मात्र के लिये कल्याणकारी है।<br>
 
150  जो व्यक्ति आचरण की पोथी को नहीं पढता, उसके पृष्ठों को नहीं पलटता, वह भला दूसरों का क्या भला कर पायेगा।<br>
 
151  हमारे शरीर को नियमितता भाती है, लेकिन मन सदैव परिवर्तन चाहता है।<br>
 
152  मनुष्य अपने अंदर की बुराई पर ध्यान नहीं देता और दूसरों की उतनी ही बुराई की आलोचना करता है, अपने पाप का तो बड़ा नगर बसाता है और दूसरे का छोटा गाँव भी ज़रा-सा सहन नहीं कर सकता है।<br>
 
153  सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय, मान-अपमान, निंदा-स्तुति, ये द्वन्द निरंतर एक साथ जगत में रहते हैं और ये हमारे जीवन का एक हिस्सा होते हैं, दोनों में भगवान् को देखें। <br>
 
154  मन-बुद्धि की भाषा है-मैं, मेरी, इसके बिना बाहर के जगत का कोई व्यवहार नहीं चलेगा, अगर अंदर स्वयं को जगा लिया तो भीतर तेरा-तेरा शुरू होने से व्यक्ति परम शांति प्राप्त कर लेता है। <br>
 
155  न तो किसी तरह का कर्म करने से नष्ट हुई वस्तु मिल सकती है, न चिंता से। कोई ऐसा दाता भी नहीं है, जो मनुष्य को विनष्ट वस्तु दे दे, विधाता के विधान के अनुसार मनुष्य बारी-बारी से समय पर सब कुछ पा लेता है।<br>
 
156  जिस राष्ट्र में विद्वान् सताए जाते हैं, वह विपत्तिग्रस्त होकर वैसे ही नष्ट हो जाता है, जैसे टूटी नौका जल में डूबकर नष्ट हो जाती है।<br>
 
157  पूरी दुनिया में 350 धर्म हैं, हर धर्म का मूल तत्व एक ही है, परन्तु आज लोगों का धर्म की उपेक्षा अपने-अपने भजन व पंथ से अधिक लगाव है।<br>
 
158  तीनों लोकों में प्रत्येक व्यक्ति सुख के लिये दौड़ता फिरता है, दुखों के लिये बिल्कुल नहीं, किन्तु दुःख के दो स्त्रोत हैं-एक है देह के प्रति मैं का भाव और दूसरा संसार की वस्तुओं के प्रति मेरेपन का भाव।<br>
 
159  सारे काम अपने आप होते रहेंगे, फिर भी आप कार्य करते रहें. निरंतर कार्य करते रहें, पर उसमें ज़रा भी आसक्त न हों. आप बस कार्य करते रहें, यह सोचकर कि अब हम जा रहें हैं बस, अब जा रहे हैं।<br>
 
160  आप बच्चों के साथ कितना समय बिताते हैं, वह इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कैसे बिताते हैं।<br>
 
161  पिता सिखाते हैं पैरों पर संतुलन बनाकर व ऊंगली थाम कर चलना, पर माँ सिखाती है सभी के साथ संतुलन बनाकर दुनिया के साथ चलना, तभी वह अलग है, महान है।<br>
 
162  माँ-बेटी का रिश्ता इतना अनूठा, इतना अलग होता है कि उसकी व्याख्या करना मुश्किल है, इस रिश्ते से सदैव पहली बारिश की फुहारों-सी ताजगी रहती है, तभी तो माँ के साथ बिताया हर क्षण होता है अमिट, अलग उनके साथ गुज़ारा हर पल शानदार होता है।<br>
 
163  जो संसार से ग्रसित रहता है, वह बुद्धू तो हो सकता; लेकिन बुद्ध नहीं हो सकता।<br>
 
164  विपरीत दिशा में कभी न घबराएं, बल्कि पक्की ईंट की तरह मजबूत बनना चाहिय और जीवन की हर चुनौती को परीक्षा एवं तपस्या समझकर निरंतर आगे बढना चाहिए।<br>
 
165  सत्य बोलते समय हमारे शरीर पर कोई दबाव नहीं पड़ता, लेकिन झूठ बोलने पर हमारे शरीर पर अनेक प्रकार का दबाव पड़ता है, इसलिए कहा जाता है कि सत्य के लिये एक हाँ और झूठ के लिये हज़ारों बहाने ढूँढने पड़ते हैं। <br>
 
166  अखण्ड ज्योति ही प्रभु का प्रसाद है, वह मिल जाए तो जीवन में चार चाँद लग जाएँ।<br>
 
167  दो प्रकार की प्रेरणा होती है-एक बाहरी व दूसरी अंतर प्रेरणा, आतंरिक प्रेरणा बहुत महत्वपूर्ण होती है; क्योंकि वह स्वयं की निर्मात्री होती है। <br>
 
168  अपने आप को बचाने के लिये तर्क-वितर्क करना हर व्यक्ति की आदत है, जैसे क्रोधी व लोभी आदमी भी अपने बचाव में कहता मिलेगा कि, यह सब मैंने तुम्हारे कारण किया है।<br>
 
169  जब-जब ह्रदय की विशालता बढ़ती है, तो मन प्रफुल्लित होकर आनंद की प्राप्ति कर्ता है और जब संकीर्ण मन होता है, तो व्यक्ति दुःख भोगता है। <br>
 
170  जैसे बाहरी जीवन में युक्ति व शक्ति ज़रूरी है, वैसे ही आतंरिक जीवन के लिये मुक्ति व भक्ति आवश्यक है। <br>
 
171  तर्क से विज्ञान में वृद्धि होती है, कुतर्क से अज्ञान बढ़ता है और वितर्क से अध्यात्मिक ज्ञान बढ़ता है। <br>
 
172  जिसकी मुस्कुराहट कोई छीन न सके, वही असल सफ़ा व्यक्ति है। <br>
 
173  मनुष्य का जीवन तीन मुख्य तत्वों का समागम है-शरीर, विचार एवं मन। <br>
 
174  प्रेम करने का मतलब सम-व्यवहार ज़रूरी नहीं, बल्कि समभाव होना चाहिए, जिसके लिये घोड़े की लगाम की भाँति व्यवहार में ढील देना पड़ती है और कभी खींचना भी ज़रूरी हो जाता है। <br>
 
175  इस दुनिया में ना कोई ज़िन्दगी जीता है, ना कोई मरता है, सभी सिर्फ़ अपना-अपना कर्ज़ चुकाते हैं।<ref>{{cite web |url=http://uditbhargavajaipur.blogspot.com/2010/04/blog-post_5344.html |title=ज्ञान का सागर- अनमोल वचन |accessmonthday=30 जनवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=अपने विचार |language=हिन्दी}}</ref>
 
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|'''अनमोल वचन'''
 
1. हमारे वचन चाहे कितने भी श्रेष्ठ क्यों न हों, परन्तु दुनिया हमें हमारे कर्मों के द्वारा पहचानती है। <br>
 
2. यदि आपको मरने का डर है, तो इसका यही अर्थ है, की आप जीवन के महत्व को ही नहीं समझते। <br>
 
3. अधिक सांसारिक ज्ञान अर्जित करने से अंहकार आ सकता है, परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान जितना अधिक अर्जित करते हैं, उतनी ही नम्रता आती है। <br>
 
4 वही सबसे तेज़ चलता है, जो अकेला चलता है। <br>
 
5. प्रत्येक अच्छा कार्य पहले असम्भव नजर आता है। <br>
 
6. ऊद्यम ही सफलता की कुंजी है। <br>
 
7. एकाग्रता से ही विजय मिलती है। <br>
 
8. कीर्ति वीरोचित कार्यों की सुगन्ध है। <br>
 
9. भाग्य साहसी का साथ देता है। <br>
 
10. सफलता अत्यधिक परिश्रम चाहती है। <br>
 
11. विवेक बहादुरी का उत्तम अंश है। <br>
 
12. कार्य उद्यम से सिद्ध होते हैं, मनोरथों से नहीं। <br>
 
13. संकल्प ही मनुष्य का बल है। <br>
 
14. प्रचंड वायु मे भी पहाड़ विचलित नहीं होते। <br>
 
15. कर्म करने मे ही अधिकार है, फल मे नहीं। <br>
 
16. मेहनत, हिम्मत और लगन से कल्पना साकार होती है। <br>
 
17. अपनी शक्तियो पर भरोसा करने वाला कभी असफल नहीं होता। <br>
 
18. मुस्कान प्रेम की भाषा है। <br>
 
19. सच्चा प्रेम दुर्लभ है, सच्ची मित्रता और भी दुर्लभ है। <br>
 
20. अहंकार छोड़े बिना सच्चा प्रेम नहीं किया जा सकता। <br>
 
21. प्रसन्नता स्वास्थ्य देती है, विषाद रोग देते हैं। <br>
 
22. प्रसन्न करने का उपाय है, स्वयं प्रसन्न रहना। <br>
 
23. अधिकार जताने से अधिकार सिद्ध नहीं होता। <br>
 
24. एक गुण समस्त दोषो को ढक लेता है। <br>
 
25. दूसरों से प्रेम करना अपने आप से प्रेम करना है। <br>
 
26. समय महान चिकित्सक है। <br>
 
27. समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। <br>
 
27. हर दिन वर्ष का सर्वोत्तम दिन है। <br>
 
28. एक झूठ छिपाने के लिये दस झूठ बोलने पडते हैं। <br>
 
29. प्रकृति के सब काम धीरे-धीरे होते हैं। <br>
 
30. बिना गुरु के ज्ञान नहीं होता। <br>
 
31. आपकी बुद्धि ही आपका गुरु है। <br>
 
32. जिज्ञासा के बिना ज्ञान नहीं होता। <br>
 
33. बिना अनुभव के कोरा शाब्दिक ज्ञान अंधा है। <br>
 
34 अल्प ज्ञान ख़तरनाक होता है। <br>
 
35. कर्म सरल है, विचार कठिन। <br>
 
36. उपदेश देना सरल है, उपाय बताना कठिन। <br>
 
37. धन अपना पराया नहीं देखता। <br>
 
38. जैसा अन्न, वैसा मन। <br>
 
39. अहिंसा सर्वोत्तम धर्म है। <br>
 
40. बहुमत की आवाज न्याय का द्योतक नहीं है। <br>
 
41. अन्याय मे सहयोग देना, अन्याय के ही समान है। <br>
 
42. विश्वास से आश्चर्य-जनक प्रोत्साहन मिलता है। <br><ref>{{cite web |url=http://quotes2u.blogspot.com/ |title=अनमोल वचन|accessmonthday=30 जनवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=quotes  |language=हिन्दी}}</ref>
 
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|'''सुभाषित'''<br>
 
1) इस संसार में प्यार करने लायक दो वस्तुएँ हैं - एक दु:ख और दूसरा श्रम। दुख के बिना हृदय निर्मल नहीं होता और श्रम के बिना मनुष्यत्व का विकास नहीं होता।<br>
 
2) ज्ञान का अर्थ है-जानने की शक्ति। सच को झूठ को सच से पृथक्‌ करने वाली जो विवेक बुद्धि है-उसी का नाम ज्ञान है।<br>
 
3) अध्ययन, विचार, मनन, विश्वास एवं आचरण द्वार जब एक मार्ग को मजबूति से पकड़ लिया जाता है, तो अभीष्ट उद्द्‌श्य को प्राप्त करना बहुत सरल हो जाता है।<br>
 
4) आदर्शों के प्रति श्रद्धा और कत्र्तव्य के प्रति लगन का जहाँ भी उदय हो रहा है, समझना चाहिए कि वहाँ किसी देवमानव का आविर्भाव हो रहा है।<br>
 
5) कुचक्र, छद्‌म और आतंक के बलबूते उपार्जित की गई सफलताएँ जादू के तमाशे में हथेली पर सरसों जमाने जैसे चमत्कार दिखाकर तिरोहित हो जाती हैं। बिना जड़ का पेड़ कब तक टिकेगा और किस प्रकार फलेगा-फूलेगा।<br>
 
6) जो दूसरों को धोखा देना चाहता है, वास्तव में वह अपने आपको ही धोखा देता है।<br>
 
7) समर्पण का अर्थ है - पूर्णरूपेण प्रभु को हृदय में स्वीकार करना, उनकी इच्छा, प्रेरणाओं के प्रति सदैव जागरूक रहना और जीवन के प्रतयेक क्षण में उसे परिणत करते रहना।<br>
 
8) मनोविकार भले ही छोटे हों या बड़े, यह शत्रु के समान हैं और प्रताड़ना के ही योग्य हैं। 9) सबसे महान्‌ धर्म है, अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना।<br>
 
10) सद्‌व्यवहार में शक्ति है। जो सोचता है कि मैं दूसरों के काम आ सकने के लिए कुछ करूँ, वही आत्मोन्नति का सच्चा पथिक है।<br>
 
11) जिनका प्रत्येक कर्म भगवान्‌ को, आदर्शों को समर्पित होता है, वही सबसे बड़ा योगी है।<br>
 
12) कोई भी कठिनाई क्यों न हो, अगर हम सचमुच शान्त रहें तो समाधान मिल जाएगा।<br>
 
13) सत्संग और प्रवचनों का-स्वाध्याय और सुदपदेशों का तभी कुछ मूल्य है, जब उनके अनुसार कार्य करने की प्रेरणा मिले। अन्यथा यह सब भी कोरी बुद्धिमत्ता मात्र है।<br>
 
14) सब ने सही जाग्रत्‌ आत्माओं में से जो जीवन्त हों, वे आपत्तिकालीन समय को समझें और व्यामोह के दायरे से निकलकर बाहर आएँ। उन्हीं के बिना प्रगति का रथ रुका पड़ा है।<br>
 
15) साधना एक पराक्रम है, संघर्ष है, जो अपनी ही दुष्प्रवृत्तियों से करना होता है।<br>
 
16) आत्मा को निर्मल बनाकर, इंद्रियों का संयम कर उसे परमात्मा के साथ मिला देने की प्रक्रिया का नाम योग है।<br>
 
17) जैसे कोरे कागज पर ही पत्र लिखे जा सकते हैं, लिखे हुए पर नहीं, उसी प्रकार निर्मल अंत:करण पर ही योग की शिक्षा और साधना अंकित हो सकती है।<br>
 
18) योग के दृष्टिकोण से तुम जो करते हो वह नहीं, बल्कि तुम कैसे करते हो, वह बहुत अधिक महत्त्पूर्ण है।<br>
 
19) यह आपत्तिकालीन समय है। आपत्ति धर्म का अर्थ है-सामान्य सुख-सुविधाओं की बात ताक पर रख देना और वह करने में जुट जाना जिसके लिए मनुष्य की गरिमा भरी अंतरात्मा पुकारती है।<br>
 
20) जीवन के प्रकाशवान्‌ क्षण वे हैं, जो सत्कर्म करते हुए बीते।<br>
 
21) प्रखर और सजीव आध्यात्मिकता वह है, जिसमें अपने आपका निर्माण दुनिया वालों की अँधी भेड़चाल के अनुकरण से नहीं, वरन्‌ स्वतंत्र विवेक के आधार पर कर सकना संभव हो सके।<br>
 
22) बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है।<br>
 
23) जिस आदर्श के व्यवहार का प्रभाव न हो, वह फिजूल है और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो, वह भयंकर है।<br>
 
24) भगवान जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं।<br>
 
25) हम अपनी कमियों को पहचानें और इन्हें हटाने और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियाँ स्थापित करने का उपाय सोचें इसी में अपना व मानव मात्र का कल्याण है।<br>
 
26) प्रगति के लिए संघर्ष करो। अनीति को रोकने के लिए संघर्ष करो और इसलिए भी संघर्ष करो कि संघर्ष के कारणों का अन्त हो सके।<br>
 
27) धर्म की रक्षा और अधर्म का उन्मूलन करना ही अवतार और उसके अनुयायियों का कत्र्तव्य है। इसमें चाहे निजी हानि कितनी ही होती हो, कठिनाई कितनी ही उइानी पड़ती हो।<br>
 
28) अवतार व्यक्ति के रूप में नहीं, आदर्शवादी प्रवाह के रूप में होते हैं और हर जीवन्त आत्मा को युगधर्म निबाहने के लिए बाधित करते हैं।<br>
 
29) शरीर और मन की प्रसन्नता के लिए जिसने आत्म-प्रयोजन का बलिदान कर दिया, उससे बढ़कर अभागा एवं दुबुद्धि और कौन हो सकता है?<br>
 
30) जीवन के आनन्द गौरव के साथ, सम्मान के साथ और स्वाभिमान के साथ जीने में है।<br>
 
31) आचारनिष्ठ उपदेशक ही परिवर्तन लाने में सफल हो सकते हैं। अनधिकारी ध्र्मोपदेशक खोटे सिक्के की तरह मात्र विक्षोभ और अविश्वास ही भड़काते हैं।<br>
 
32) इन दिनों जाग्रत्‌ आत्मा मूक दर्शक बनकर न रहे। बिना किसी के समर्थन, विरोध की परवाह किए आत्म-प्रेरणा के सहारे स्वयंमेव अपनी दिशाधारा का निर्माण-निर्धारण करें।<br>
 
33) जौ भौतिक महत्त्वाकांक्षियों की बेतरह कटौती करते हुए समय की पुकार पूरी करने के लिए बढ़े-चढ़े अनुदान प्रस्तुत करते और जिसमेंं महान्‌ परम्परा छोड़ जाने की ललक उफनती रहे, यही है-प्रज्ञापुत्र शब्द का अर्थ।<br>
 
34) दैवी शक्तियों के अवतरण के लिए पहली शर्त है- साधक की पात्रता, पवित्रता और प्रामाणिकता।<br>
 
35) आशावादी हर कठिनाई में अवसर देखता है, पर निराशावादी प्रत्येक अवसर में कठिनाइयाँ ही खोजता है।<br>
 
36) चरित्रवान्‌ व्यक्ति ही किसी राष्ट्र की वास्तविक सम्पदा है।-वाङ्गमय<br>
 
37) व्यक्तिगत स्वार्थों का उत्सर्ग सामाजिक प्रगति के लिए करने की परम्परा जब तक प्रचलित न होगी, तब तक कोई राष्ट्र सच्चे अर्थों मेंं सामथ्र्यवान्‌ नहीं बन सकता है।-वाङ्गमय<br>
 
38) युग निर्माण योजना का लक्ष्य है-शुचिता, पवित्रता, सच्चरित्रता, समता, उदारता, सहकारिता उत्पन्न करना।-वाङ्गमय<br>
 
39) भुजार्ए साक्षात्‌ हनुमान हैं और मस्तिष्क गणेश, इनके निरन्तर साथ रहते हुए किसी को दरिद्र रहने की आवश्यकता नहीं।<br>
 
40) विद्या की आकांक्षा यदि सच्ची हो, गहरी हो तो उसके रह्ते कोई व्यक्ति कदापि मूर्ख, अशिक्षित नहीं रह सकता।- वाङ्गमय<br>
 
41) मनुष्य दु:खी, निराशा, चिंतित, उदिग्न बैठा रहता हो तो समझना चाहिए सही सोचने की विधि से अपरिचित होने का ही यह परिणाम है।-वाङ्गमय<br>
 
42) धर्म अंत:करण को प्रभावित और प्रशासित करता है, उसमें उत्कृष्टता अपनाने, आदर्शों को कार्यान्वित करने की उमंग उत्पन्न करता है।-वाङ्गमय<br>
 
43) जीवन साधना का अर्थ है- अपने समय, श्रम ओर साधनों का कण-कण उपयोगी दिशा में नियोजित किये रहना।-वाङ्गमय<br>
 
44) निकृष्ट चिंतन एवं घृणित कर्तृत्व हमारी गौरव गरिमा पर लगा हुआ कलंक है।-वाङ्गमय<br>
 
45) आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है।-वाङ्गमय<br>
 
46) हम कोई ऐसा काम न करें, जिसमें अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कारे।-वाङ्गमय<br>
 
47) अपनी दुCताएँ दूसरों से छिपाकर रखी जा सकती हैं, पर अपने आप से कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता।<br>
 
48) किसी महान्‌ उद्देश्य को न चलना उतनी लज्जा की बात नहीं होती, जितनी कि चलने के बाद कठिनाइयों के भय से पीछे हट जाना।<br>
 
49) महानता का गुण न तो किसी के लिए सुरक्षित है और न प्रतिबंधित। जो चाहे अपनी शुभेच्छाओं से उसे प्राप्त कर सकता है।<br>
 
50) सच्ची लगन तथा निर्मल उद्देश्य से किया हुआ प्रयत्न कभी निष्फल नहींं जाता।<br>
 
51) खरे बनिये, खरा काम कीजिए और खरी बात कहिए। इससे आपका हृदय हल्का रहेगा।<br>
 
52) मनुष्य जन्म सरल है, पर मनुष्यता कठिन प्रयत्न करके कमानी पड़ती है।<br>
 
53) साधना का अर्थ है-कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए भी सत्प्रयास जारी रखना।<br>
 
54) सज्जनों की कोई भी साधना कठिनाइयों में से होकर निकलने पर ही पूर्ण होती है।<br>
 
55) असत्‌ से सत्‌ की ओर, अंधकार से आलोक की और विनाश से विकास की ओर बढ़ने का नाम ही साधना है।<br>
 
56) किसी सदुद्देश्य के लिए जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है।<br>
 
57) अपना मूल्य समझो और विश्वास करो कि तुम संसार के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हो।<br>
 
58) उत्कृष्ट जीवन का स्वरूप है-दूसरों के प्रति नम्र और अपने प्रति कठोर होना।<br>
 
59) वही जीवति है, जिसका मस्तिष्क ठण्डा, रक्त गरम, हृदय कोमल और पुरुषार्थ प्रखर है।<br>
 
60) चरित्र का अर्थ है- अपने महान्‌ मानवीय उत्तरदायित्वों का महत्त्व समझना और उसका हर कीमत पर निर्वाह करना।<br>
 
61) मनुष्य एक भटका हुआ देवता है। सही दिशा पर चल सके, तो उससे बढ़कर श्रेष्ठ और कोई नहीं।<br>
 
62) अपने अज्ञान को दूर करके मन-मन्दिर में ज्ञान का दीपक जलाना भगवान्‌ की सच्ची पूजा है।<br>
 
63) जो बीत गया सो गया, जो आने वाला है वह अज्ञात है! लेकिन वर्तमान तो हमारे हाथ मेंं है।<br>
 
64) हर वक्त, हर स्थिति मेंं मुस्कराते रहिये, निर्भय रहिये, कत्र्तव्य करते रहिये और प्रसन्न रहिये।<br>
 
65) वह स्थान मंदिर है, जहाँ पुस्तकों के रूप में मूक; किन्तु ज्ञान की चेतनायुक्त देवता निवास करते हैं।<br>
 
66) वे माता-पिता धन्य हैं, जो अपनी संतान के लिए उत्तम पुस्तकों का एक संग्रह छोड़ जाते हैं।<br>
 
67) मनोविकारों से परेशान, दु:खी, चिंतित मनुष्य के लिए उनके दु:ख-दर्द के समय श्रेष्ठ पुस्तकें ही सहारा है।<br>
 
68) अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बढ़कर प्रमाद इस संसार में और कोई दूसरा नहीं हो सकता।<br>
 
69) विषयों, व्यसनों और विलासों मेंं सुख खोजना और पाने की आशा करना एक भयानक दुराशा है।<br>
 
70) कुकर्मी से बढ़कर अभागा और कोई नहीं है; क्यांकि विपत्ति में उसका कोई साथी नहीं होता।<br>
 
71) गृहसि एक तपोवन है जिसमें संयम, सेवा, त्याग और सहिष्णुता की साधना करनी पड़ती है।<br>
 
72) परमात्मा की सृष्टि का हर व्यक्ति समान है। चाहे उसका रंग वर्ण, कुल और गोत्र कुछ भी क्यों न हो।<br>
 
73) ज्ञान अक्षय है, उसकी प्राप्ति शैय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।<br>
 
74) वास्तविक सौन्दर्य के आधर हैं-स्वस्थ शरीर, निर्विकार मन और पवित्र आचरण।<br>
 
75) ज्ञानदान से बढ़कर आज की परिस्थितियों मेंं और कोई दान नहीं।<br>
 
76) केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्त्व है, जो कहीं भी, किसी अवस्था और किसी काल में भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता।<br>
 
77) इस युग की सबसे बड़ी शक्ति शस्त्र नहीं, सद्‌विचार है।<br>
 
78) उत्तम पुस्तकें जाग्रत्‌ देवता हैं। उनके अध्ययन-मनन-चिंतन के द्वारा पूजा करने पर तत्काल ही वरदान पाया जा सकता है।<br>
 
79) शान्तिकुञ्ज एक विश्वविद्यालय है। कायाकल्प के लिए बनी एक अकादमी है। हमारी सतयुगी सपनों का महल है।<br>
 
80) शांन्किुञ्ज एक क्रान्तिकारी विश्वविद्यालय है। अनौचित्य की नींव हिला देने वाली यह संस्था प्रभाव पर्त की एक नवोदित किरण है।<br>
 
81) गंगा की गोद, हिमालय की छाया, ऋषि विश्वामित्र की तप:स्थली, अजस्त्र प्राण ऊर्जा का उद्‌भव स्त्रोत गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज जैसा जीवन्त स्थान उपासना के लिए दूसरा ढूँढ सकना कठिन है।<br>
 
82) नित्य गायत्री जप, उदित होते स्वर्णिम सविता का ध्यान, नित्य यज्ञ, अखण्ड दीप का सान्निध्य, दिव्यनाद की अवधारणा, आत्मदेव की साधना की दिव्य संगम स्थली है-शांतिकुञ्ज गायत्री तीर्थ।<br>
 
83) धर्म का मार्ग फूलों सेज नहीं, इसमें बड़े-बड़े कष्ट सहन करने पड़ते हैं।<br>
 
84) मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है; परन्तु इनके परिणामों में चुनाव की कोई सुविधा नहीं।<br>
 
85) सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे।<br>
 
86) हम क्या करते हैं, इसका महत्त्व कम है; किन्तु उसे हम किस भाव से करते हैं इसका बहुत महत्त्व है।<br>
 
87) संसार में सच्चा सुख ईश्वर और धर्म पर विश्वास रखते हुए पूर्ण परिश्रम के साथ अपना कत्र्तव्य पालन करने में है।<br>
 
88) किसी को आत्म-विश्वास जगाने वाला प्रोत्साहन देना ही सर्वोत्तम उपहार है।<br>
 
89) दुनिया में आलस्य को पोषण देने जैसा दूसरा भयंकर पाप नहीं है।<br>
 
90) निरभिमानी धन्य है; क्योंकि उन्हीं के हृदय में ईश्वर का निवास होता है।<br>
 
91) दुनिया में भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है।<br>
 
92) सज्जनता ऐसी विधा है जो वचन से तो कम; किन्तु व्यवहार से अधिक परखी जाती है।<br>
 
93) अपनी महान्‌ संभावनाओं पर अटूट विश्वास ही सच्ची आस्तिकता है।<br>
 
94) 'अखण्ड ज्योति' हमारी वाणी है। जो उसे पढ़ते हैं, वे ही हमारी प्रेरणाओं से परिचित होते हैं।<br>
 
95) चरित्रवान्‌ व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में भगवद्‌ भक्त हैं।<br>
 
96) ऊँचे उठो, प्रसुप्त को जगाओं, जो महान्‌ है उसका अवलम्बन करो ओर आगे बढ़ो।<br>
 
97) जिस आदर्श के व्यवहार का प्रभाव न हो, वह फिजूल और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो, वह भयंकर है।<br>
 
98) परमात्मा जिसे जीवन मेंं कोई विशेष अभ्युदय-अनुग्रह करना चाहता है, उसकी बहुत-सी सुविधाओं को समाप्त कर दिया करता है।<br>
 
99) देवमानव वे हैं, जो आदर्शों के क्रियान्वयन की योजना बनाते और सुविधा की ललक-लिप्सा को अस्वीकार करके युगधर्म के निर्वाह की काँटों भरी राह पर एकाकी चल पड़ते हैं।<br>
 
100) अच्छाइयों का एक-एक तिनका चुन-चुनकर जीवन भवन का निर्माण होता है, पर बुराई का एक हल्का झोंका ही उसे मिटा डालने के लिए पर्याप्त होता है।<br>
 
101) स्वार्थ, अंहकार और लापरवाही की मात्रा बढ़ जाना ही किसी व्यक्ति के पतन का कारण होता है।<br>
 
102) बुद्धिमान्‌ वह है, जो किसी को गलतियों से हानि होते देखकर अपनी गलतियाँ सुधार लेता है।<br>
 
103) भूत लौटने वाला नहीं, भविष्य का कोई निश्चय नहीं; सँभालने और बनाने योग्य तो वर्तमान है।<br>
 
104) लोग क्या कहते हैं-इस पर ध्यान मत दो। सिर्फ यह देखो कि जो करने योग्य था, वह बनपड़ा या नहीं?<br>
 
105) जिनकी तुम प्रशंसा करते हो, उनके गुणों को अपनाओ और स्वयं भी प्रशंसा के योग्य बनो।<br>
 
106) भगवान्‌ के काम में लग जाने वाले कभी घाटे में नहीं रह सकते।<br>
 
107) दूसरों की निन्दा और त्रूटियाँ सुनने में अपना समय नष्ट मत करो।<br>
 
108) दूसरों की निन्दा करके किसी को कुछ नहींं मिला, जिसने अपने को सुधारा उसने बहुत कुछ पाया।<br>
 
109) सबसे बड़ा दीन-दुर्बल वह है, जिसका अपने ऊपर नियंत्रयण नहीं।<br>
 
110) यदि मनुष्य कुछ सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ सिखा देती है।<br>
 
111) मानवता की सेवा से बढ़कर और कोई काम बडΠा नहीं हो सकता।<br>
 
112) जिसने शिष्टता और नम्रता नहीं सीखी, उनका बहुत सीखना भी व्यर्थ रहा।<br>
 
113) शुभ कार्यों के लिए हर दिन शुभ और अशुभ कार्यों के लिए हर दिना अशुभ है।<br>
 
114) किसी सदुद्देश्य के लिए जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है।<br>
 
115) अपनी प्रशंसा आप न करें, यह कार्य आपके सत्कर्म स्वयं करा लेंगे।<br>
 
116) भगवान्‌ जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं।<br>
 
117) गुण, कर्म और स्वभाव का परिष्कार ही अपनी सच्ची सेवा है।<br>
 
118) दूसरों के साथ वह व्यवहार न करो, जो तुम्हें अपने लिए पसन्द नहीं।<br>
 
119) आज के काम कल पर मत टालिए।<br>
 
120) आत्मा की पुकार अनसुनी न करें।<br>
 
121) मनुष्य परिस्थितियों का गुलाम नहीं, अपने भाग्य का निर्माता और विधाता है।<br>
 
122) आप समय को नष्ट करेंगे तो समय भी आपको नष्ट कर देगा।<br>
 
123) समय की कद्र करो। एक मिनट भी फिजूल मत गँवाओं।<br>
 
124) जीवन का हर क्षण उज्ज्वल भविष्य की संभावना लेकर आता है।<br>
 
125) कत्र्तव्यों के विषय में आने वाले कल की कल्पना एक अंध-विश्वास है।<br>
 
126) हँसती-हँसाती जिन्दगी ही सार्थक है।<br>
 
127) पढ़ने का लाभ तभी है जब उसे व्यवहार में लाया जाए।<br>
 
128) वत मत करो, जिसके लिए पीछे पछताना पड़े।<br>
 
129) प्रकृति के अनुकूल चलें, स्वस्थ रहें।<br>
 
130) स्वच्छता सभ्यता का प्रथम सोपान है।<br>
 
131) भगवान्‌ भावना की उत्कृष्टता को ही प्यार करता है।<br>
 
132) सत्प्रयत्न कभी निरर्थक नहीं होते।<br>
 
133) गुण ही नारी का सच्चा आभूषण है।<br>
 
134) नर और नारी एक ही आत्मा के दो रूप है।<br>
 
135) नारी का असली श्रृंगार, सादा जीवन उच्च विचार।<br>
 
136) बहुमूल्य वर्तमान का सदुपयोग कीजिए।<br>
 
137) जो तुम दूसरे से चाहते हो, उसे पहले स्वयं करो।<br>
 
138) जो हम सोचते हैं सो करते हैं और जो करते हैं सो भुगतते हैं।<br>
 
139) सेवा में बड़ी शक्ति है। उससे भगवान्‌ भी वश में हो सकते हैं।<br>
 
140) स्वाध्याय एक वैसी ही आत्मिक आवश्यकता है जैसे शरीर के लिए भोजन।<br>
 
141) दूसरों के साथ सदैव नम्रता, मधुरता, सज्जनता, उदारता एवं सहृदयता का व्यवहार करें।<br>
 
142) अपने कार्यों में व्यवस्था, नियमितता, सुन्दरता, मनोयोग तथा जिम्मेदार का ध्यान रखें।<br>
 
143) धैर्य, अनुद्वेग, साहस, प्रसन्नता, दृढ़ता और समता की संतुलित स्थिति सदेव बनाये रखें।<br>
 
144) स्वर्ग और नरक कोई स्थान नहीं, वरन्‌ दृष्टिकोण है।<br>
 
145) आत्मबल ही इस संसार का सबसे बड़ा बल है।<br>
 
146) सादगी सबसे बड़ा फैशन है।<br>
 
147) हर मनुष्य का भाग्य उसकी मुट्ठी में है।<br>
 
148) सन्मार्ग का राजपथ कभी भी न छोड़े।<br>
 
149) आत्म-निरीक्षण इस संसार का सबसे कठिन, किन्तु करने योग्य कर्म है।<br>
 
150) महानता के विकास में अहंकार सबसे घातक शत्रु है।<br>
 
151) 'स्वाध्यान्मा प्रमद:' अर्थात्‌ स्वाध्याय में प्रमाद न करें।<br>
 
152) श्रेष्ठता रहना देवत्व के समीप रहना है।<br>
 
153) मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।<br>
 
154) परमात्मा की सच्ची पूजा सद्‌व्यवहार है।<br>
 
155) आत्म-निर्माण का ही दूसरा नाम भाग्य निर्माण है।<br>
 
156) आत्मा की उत्कृष्टता संसार की सबसे बड़ी सिद्धि है।<br>
 
157) ज्ञान की आराधना से ही मनुष्य तुच्छ से महान्‌ बनता है।<br>
 
158) उपासना सच्ची तभी है, जब जीवन में ईश्वर घुल जाए।<br>
 
159) आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है।<br>
 
160) सज्जनता और मधुर व्यवहार मनुष्यता की पहली शर्ता है।<br>
 
161) दूसरों को पीड़ा न देना ही मानव धर्म है।<br>
 
162) खुद साफ रहो, सुरक्षित रहो और औरों को भी रोगों से बचाओं।<br>
 
163) 'स्वर्ग' शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता उनमें सर्वप्रमुख है।<br>
 
164) धरती पर स्वर्ग अवतरित करने का प्रारम्भ सफाई और स्वच्छता से करें।<br>
 
165) गलती को ढँÚूढ़ना, मानना और सुधारना ही मनुष्य का बड़प्पन है।<br>
 
166) जीवन एक पाठशाला है, जिसमें अनुभवों के आधार पर हम शिक्षा प्राप्त करते हैं।<br>
 
167) प्रशंसा और प्रतिष्ठा वही सच्ची है, जो उत्कृष्ट कार्य करने के लिए प्राप्त हो।<br>
 
168) दृष्टिकोण की श्रेष्ठता ही वस्तुत: मानव जीवन की श्रेष्ठता है।<br>
 
169) जीवन एक परीक्षा है। उसे परीक्षा की कसौटी पर सर्वत्र कसा जाता है।<br>
 
170) उत्कृष्टता का दृष्टिकोण ही जीवन को सुरक्षित एवं सुविकसित बनाने एकमात्र उपाय है।<br>
 
171) खुशामद बड़े-बड़ों को ले डूृबती है।<br>
 
172) आशावाद और ईश्वरवाद एक ही रहस्य के दो नाम हैं।<br>
 
173) ईष्र्या न करें, प्रेरणा ग्रहण करें।<br>
 
174) ईश्र्या आदमी को उसी तरह खा जाती है, जैसे कपड़े को कीड़ा।<br>
 
175) स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है।<br>
 
176) अनासक्त जीवन ही शुद्ध और सच्चा जीवन है।<br>
 
177) विचारों की पवित्रता स्वयं एक स्वास्थ्यवर्धक रसायन है।<br>
 
178) सुखी होना है तो प्रसन्न रहिए, निश्चिन्त रहिए, मस्त रहिए।<br>
 
179) ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब वह आचरण में आए।<br>
 
180) समय का सुदपयोग ही उन्नति का मूलमंत्र है।<br>
 
181) एक सत्य का आधार ही व्यक्ति को भवसागर से पार कर देता है।<br>
 
182) जाग्रत्‌ आत्मा का लक्षण है- सत्यम्‌, शिवम्‌ और सुन्दरम्‌ की ओर उन्मुखता।<br>
 
183) परोपकार से बढ़कर और निरापद दूसरा कोई धर्म नहीं।<br>
 
184) जीवन उसी का सार्थक है, जो सदा परोपकार में प्रवृत्त है।<br>
 
185) बड़प्पन सादगी और शालीनता में है।<br>
 
186) चरित्रनिष्ठ व्यक्ति ईश्वर के समान है।<br>
 
187) मनुष्य उपाधियों से नहीं, श्रेष्ठ कार्यों से सज्जन बनता है।<br>
 
188) धनवाद्‌ नहीं, चरित्रवान्‌ सुख पाते हैं।<br>
 
189) बड़प्पन सुविधा संवर्धन में नहीं, सद्‌गुण संवर्धन का नाम है।<br>
 
190) भाग्य पर नहीं, चरित्र पर निर्भर रहो।<br>
 
191) वही उन्नति कर सकता है, जो स्वयं को उपदेश देता है।<br>
 
192) भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है।<br>
 
193) प्रसुप्त देवत्व का जागरण ही सबसे बड़ी ईश्वर पूजा है।<br>
 
194) चरित्र ही मनुष्य की श्रेष्ठता का उत्तम मापदण्ड है।<br>
 
195) आत्मा के संतोष का ही दूसरा नाम स्वर्ग है।<br>
 
196) मनुष्य का अपने आपसे बढ़कर न कोई शत्रु है, न मित्र।<br>
 
197) फूलों की तरह हँसते-मुस्कराते जीवन व्यतीत करो।<br>
 
198) उत्तम ज्ञान और सद्‌विचार कभी भी नष्ट नहीं होते है।<br>
 
199) अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है।<br>
 
200) भाग्य को मनुष्य स्वयं बनाता है, ईश्वर नहीं।<br>
 
201) अवसर की प्रतीक्षा में मत बैठों। आज का अवसर ही सर्वोत्तम है।<br>
 
202) दो याद रखने योग्य हैं-एक कत्र्तव्य और दूसरा मरण।<br>
 
203) कर्म ही पूजा है और कत्र्तव्यपालन भक्ति है।<br>
 
204) र्हमान और भगवान्‌ ही मनुष्य के सच्चे मित्र है।<br>
 
205) सम्मान पद में नहीं, मनुष्यता में है।<br>
 
206) महापुरुषों का ग्रंथ सबसे बड़ा सत्संग है।<br>
 
207) चिंतन और मनन बिना पुस्तक बिना साथी का स्वाध्याय-सत्संग ही है।<br>
 
208) बहुमूल्य समय का सदुपयोग करने की कला जिसे आ गई उसने सफलता का रहस्य समझ लिया।<br>
 
209) सबकी मंगल कामना करो, इससे आपका भी मंगल होगा।<br>
 
210) स्वाध्याय एक अनिवार्य दैनिक धर्म कत्र्तव्य है।<br>
 
211) स्वाध्याय को साधना का एक अनिवार्य अंग मानकर अपने आवश्यक नित्य कर्मों में स्थान दें।<br>
 
212) अपना आदर्श उपस्थित करके ही दूसरों को सच्ची शिक्षा दी जा सकती है।<br>
 
213) प्रतिकूल परिस्थितियों करके ही दूसरों को सच्ची शिक्षा दी जा सकती है।<br>
 
214) प्रतिकूल परिस्थिति में भी हम अधीर न हों।<br>
 
215) जैसा खाय अन्न, वैसा बने मन।<br>
 
216) यदि मनुष्य सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल उसे कुछ न कुछ सिखा देती है।<br>
 
217) कत्र्तव्य पालन ही जीवन का सच्चा मूल्य है।<br>
 
218) इस संसार में कमजोर रहना सबसे बड़ा अपराध है।<br>
 
219) काल(समय) सबसे बड़ा देवता है, उसका निरादर मत करा॥<br>
 
220) अवकाश का समय व्यर्थ मत जाने दो।<br>
 
221) परिश्रम ही स्वस्थ जीवन का मूलमंत्र है।<br>
 
222) व्यसनों के वश मेंं होकर अपनी महत्ता को खो बैठे वह मूर्ख है।<br>
 
223) संसार में रहने का सच्चा तत्त्वज्ञान यही है कि प्रतिदिन एक बार खिलखिलाकर जरूर हँसना चाहिए।<br>
 
224) विवेक और पुरुषार्थ जिसके साथी हैं, वही प्रकाश प्राप्त करेंगे।<br>
 
225) अज्ञानी वे हैं, जो कुमार्ग पर चलकर सुख की आशा करते हैं।<br>
 
226) जो जैसा सोचता और करता है, वह वैसा ही बन जाता है।<br>
 
227) अज्ञान और कुसंस्कारों से छूटना ही मुक्ति है।<br>
 
228) किसी को गलत मार्ग पर ले जाने वाली सलाह मत दो।<br>
 
229) जो महापुरुष बनने के लिए प्रयत्नशील हैं, वे धन्य है।<br>
 
230) भाग्य भरोसे बैठे रहने वाले आलसी सदा दीन-हीन ही रहेंगे।<br>
 
231) जिसके पास कुछ भी कर्ज नहीं, वह बड़ा मालदार है।<br>
 
232) नैतिकता, प्रतिष्ठाओं में सबसे अधिक मूल्यवान्‌ है।<br>
 
233) जो तुम दूसरों से चाहते हो, उसे पहले तुम स्वयं करो।<br>
 
234) वे प्रत्यक्ष देवता हैं, जो कत्र्तव्य पालन के लिए मर मिटते हैं।<br>
 
235) जो असत्य को अपनाता है, वह सब कुछ खो बैठता है।<br>
 
236) जिनके भीतर-बाहर एक ही बात है, वही निष्कपट व्यक्ति धन्य है।<br>
 
237) दूसरों की निन्दा-त्रुटियाँ सुनने में अपना समय नष्ट मत करो।<br>
 
238) आत्मोन्नति से विमुख होकर मृगतृष्णा में भटकने की मूर्खता न करो।<br>
 
239) आत्म निर्माण ही युग निर्माण है।<br>
 
240) जमाना तब बदलेगा, जब हम स्वयं बदलेंगे।<br>
 
241) युग निर्माण योजना का आरम्भ दूसरों को उपदेश देने से नहीं, वरन्‌ अपने मन को समझाने से शुरू होगा।<br>
 
242) भगवान्‌ की सच्ची पूजा सत्कर्मों में ही हो सकती है।<br>
 
243) सेवा से बढ़कर पुण्य-परमार्थ इस संसार में और कुछ नहीं हो सकता।<br>
 
244) स्वयं उत्कृष्ट बनने और दूसरों को उत्कृष्ट बनाने का कार्य आत्म कल्याण का एकमात्र उपाय है।<br>
 
245) अपने आपको सुधार लेने पर संसार की हर बुराई सुधर सकती है।<br>
 
246) अपने आपको जान लेने पर मनुष्य सब कुछ पा सकता है।<br>
 
247) सबके सुख में ही हमारा सुख सन्निहित है।<br>
 
248) उनसे दूर रहो जो भविष्य को निराशाजनक बताते है।<br>
 
249) सत्कर्म ही मनुष्य का कत्र्तव्य है।<br>
 
250) जीवन दिन काटने के लिए नहीं, कुछ महान्‌ कार्य करने के लिए है।<br>
 
251) राष्ट्र को बुराइयों से बचाये रखने का उत्तरदायित्व पुरोहितों का है।<br>
 
252) इतराने में नहीं, श्रेष्ठ कार्यों में ऐश्वर्य का उपयोग करो।<br>
 
253) सतोगुणी भोजन से ही मन की सात्विकता स्थिर रहती है।<br>
 
254) जीभ पर काबू रखो, स्वाद के लिए नहीं, स्वास्थ्य के लिए खाओ।<br>
 
255) श्रम और तितिक्षा से शरीर मजबूत बनता है।<br>
 
256) दूसरे के लिए पाप की बात सोचने में पहले स्वयं को ही पाप का भागी बनना पड़ता है।<br>
 
257) पराये धन के प्रति लोभ पैदा करना अपनी हानि करना है।<br>
 
258) ईष्र्या और द्वेष की आग में जलने वाले अपने लिए सबसे बड़े शत्रु हैं।<br>
 
259) चिता मरे को जलाती है, पर चिन्ता तो जीवित को ही जला डालती है।<br>
 
260) पेट और मस्तिष्क स्वास्थ्य की गाड़ी को ठीक प्रकार चलाने वाले दो पहिए हैं। इनमेंं से एक बिगड़ गया तो दूसरा भी बेकार ही बना रहेगा।<br>
 
261) आराम की जिन्गदी एक तरह से मौत का निमंत्रण है।<br>
 
262) आलस्य से आराम मिल सकता है, पर यह आराम बड़ा महँगा पड़ता है।<br>
 
263) ईश्वर उपासना की सर्वोपरि सब रोग नाशक औषधि का आप नित्य सेवन करें।<br>
 
264) मन का नियन्त्रण मनुष्य का एक आवश्यक कत्र्तव्य है।<br>
 
265) किसी बेईमानी का कोई सच्चा मित्र नहीं होता।<br>
 
266) शिक्षा का स्थान स्कूल हो सकते हैं, पर दीक्षा का स्थान तो घर ही है।<br>
 
267) वाणी नहीं, आचरण एवं व्यक्तित्व ही प्रभावशाली उपदेश है<br>
 
268) आत्म निर्माण का अर्थ है-भाग्य निर्माण।<br>
 
269) ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण ही है।<br>
 
270) बच्चे की प्रथम पाठशाला उसकी माता की गोद में होती है।<br>
 
271) शिक्षक राष्ट्र मंदिर के कुशल शिल्पी हैं।<br>
 
272) शिक्षक नई पीढ़ी के निर्माता होत हैं।<br>
 
273) समाज सुधार सुशिक्षितों का अनिवार्य धर्म-कत्र्तव्य है।<br>
 
274) ज्ञान और आचरण में जो सामंजस्य पैदा कर सके, उसे ही विद्या कहते हैं।<br>
 
275) अब भगवानÔ गंगाजल, गुलाबजल और पंचामृत से स्नान करके संतुष्ट होने वाले नहीं हैं। उनकी माँग श्रम बिन्दुओं की है। भगवान्‌ का सच्चा भक्त वह माना जाएगा जो पसीने की बूँदों से उन्हें स्नान कराये।<br>
 
276) जो हमारे पास है, वह हमारे उपयोग, उपभोग के लिए है यही असुर भावना है।<br>
 
277) स्वार्थपरता की कलंक कालिमा से जिन्होंने अपना चेहरा पोत लिया है, वे असुर है।<br>
 
278) मात्र हवन, धूपबत्ती और जप की संख्या के नाम पर प्रसन्न होकर आदमी की मनोकामना पूरी कर दिया करे, ऐसी देवी दुनिया मेंं कहीं नहीं है।<br>
 
279) दुनिया में सफलता एक चीज के बदले में मिलती है और वह है आदमी की उत्कृष्ट व्यक्तित्व।<br>
 
280) जब तक तुम स्वयं अपने अज्ञान को दूर करने के लिए कटिबद्ध नहीं होत, तब तक कोई तुम्हारा उद्धार नहीं कर सकता।<br>
 
281) सूर्य प्रतिदिन निकलता है और डूबते हुए आयु का एक दिन छीन ले जाता है, पर माया-मोह में डूबे मनुष्य समझते नहीं कि उन्हें यह बहुमूल्य जीवन क्यों मिला ?<br>
 
282) दरिद्रता पैसे की कमी का नाम नहीं है, वरन्‌ मनुष्य की कृपणता का नाम दरिद्रता है।<br>
 
283) हे मनुष्य! यश के पीछे मत भाग, कत्र्तव्य के पीछे भाग। लोग क्या कहते हैं यह न सुनकर विवेक के पीछे भाग। दुनिया चाहे कुछ भी कहे, सत्य का सहारा मत छोड़।<br>
 
284) कामना करने वाले कभी भक्त नहीं हो सकते। भक्त शब्द के साथ में भगवान्‌ की इच्छा पूरी करने की बात जुड़ी रहती है।<br>
 
285) भगवान्‌ आदर्शों, श्रेष्ठताओं के समूच्चय का नाम है। सिद्धान्तों के प्रति मनुष्य के जो त्याग और बलिदान है, वस्तुत: यही भगवान्‌ की भक्ति है।<br>
 
286) आस्तिकता का अर्थ है-ईश्वर विश्वास और ईश्वर विश्वास का अर्थ है एक ऐसी न्यायकारी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करना जो सर्वव्यापी है और कर्मफल के अनुरूप हमें गिरने एवं उठने का अवसर प्रस्तुत करती है।<br>
 
287) पुण्य-परमार्थ का कोई अवसर टालना नहीं चाहिए; क्योंकि अगले क्षण यह देह रहे या न रहे क्या ठिकाना।<br>
 
288) अपनी दिनचर्या में परमार्थ को स्थान दिये बिना आत्मा का निर्मल और निष्कलंक रहना संभव नहीं।<br>
 
289) जो मन की शक्ति के बादशाह होते हैं, उनके चरणों पर संसार नतमस्तक होता है।<br>
 
290) एक बार लक्ष्य निर्धारित करने के बाद बाधाओं और व्यवधानों के भय से उसे छोड़ देना कायरता है। इस कायरता का कलंक किसी भी सत्पुरुष को नहीं लेना चाहिए।<br>
 
291) आदर्शवाद की लम्बी-चौड़ी बातें बखानना किसी के लिए भी सरल है, पर जो उसे अपने जीवनक्रम में उतार सके, सच्चाई और हिम्मत का धनी वही है।<br>
 
292) किसी से ईष्र्या करके मनुष्य उसका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकता है, पर अपनी निद्रा, अपना सुख और अपना सुख-संतोष अवश्य खो देता है।<br>
 
293) ईष्र्या की आग में अपनी शक्तियाँ जलाने की अपेक्षा कहीं अच्छा और कल्याणकारी है कि दूसरे के गुणों और सत्प्रयत्नों को देखें जिसके आधार पर उनने अच्छी स्थिति प्राप्त की है।<br>
 
294) जिस दिन, जिस क्षण किसी के अंदर बुरा विचार आये अथवा कोई दुष्कर्म करने की प्रवृत्ति उपजे, मानना चाहिए कि वह दिन-वह क्षण मनुष्य के लिए अशुभ है।<br>
 
295) किसी महान्‌ उद्द्‌ेश्य को लेकर न चलना उतनी लज्जा की बात नहीं होती, जितनी कि चलने के बाद कठिनाइयों के भय से रुक जाना अथवा पीछे हट जाना।<br>
 
296) सहानुभूति मनुष्य के हृदय में निवास करने वाली वह कोमलता है, जिसका निर्माण संवेदना, दया, प्रेम तथा करुणा के सम्मिश्रण से होता है।<br>
 
297) असफलताओं की कसौटी पर ही मनुष्य के धैर्य, साहस तथा लगनशील की परख होती है। जो इसी कसौटी पर खरा उतरता है, वही वास्तव में सच्चा पुरुषार्थी है।<br>
 
298) 'स्वर्ग' शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता उनमें सर्वप्रमुख है।<br>
 
299) जाग्रत आत्माएँ कभी चुप बैठी ही नहीं रह सकतीं। उनके अर्जित संस्कार व सत्साहस युग की पुकार सुनकर उन्हें आगे बढ़ने व अवतार के प्रयोजनों हेतु क्रियाशील होने को बाध्य कर देते हैं।<br>
 
300) जाग्रत्‌ अत्माएँ कभी अवसर नहीं चूकतीं। वे जिस उद्देश्य को लेकर अवतरित होती हैं, उसे पूरा किये बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता।<br>
 
301) शूरता है सभी परिस्थितियों में परम सत्य के लिए डटे रह सकना, विरोध में भी उसकी घोषण करना और जब कभी आवश्यकता हो तो उसके लिए युद्ध करना। <br>
 
302) सुख बाँटने की वस्तु है और दु:खे बँटा लेने की। इसी आधार पर आंतरिक उल्लास और अन्यान्यों का सद्‌भाव प्राप्त होता है। महानता इसी आधार पर उपलब्ध होती है।<br>
 
303) हम स्वयं ऐसे बनें, जैसा दूसरों को बनाना चाहते हैं। हमारे क्रियाकलाप अंदर और बाहर से उसी स्तर के बनें जैसा हम दूसरों द्वारा क्रियान्वित किये जाने की अपेक्षा करते हैं।<br>
 
304) ज्ञानयोगी की तरह सोचें, कर्मयोगी की तरह पुरुषार्थ करें और भक्तियोगी की तरह सहृदयता उभारें।<br>
 
305) परमात्मा जिसे जीवन में कोई विशेष अभ्युदय-अनुग्रह करना चाहता है, उसकी बहुत-सी सुविधाओं को समाप्त कर दिया करता है।<br>
 
306) अंत:करण मनुष्य का सबसे सच्चा मित्र, नि:स्वार्थ पथप्रदर्शक और वात्सल्यपूर्ण अभिभावक है। वह न कभी धोखा देता है, न साथ छोड़ता है और न उपेक्षा करता है।<br>
 
307) वासना और तृष्णा की कीचड़ से जिन्होंने अपना उद्धार कर लिया और आदर्शों के लिए जीवित रहने का जिन्होंने व्रत धारण कर लिया वही जीवन मुक्त है।<br>
 
308) परिवार एक छोटा समाज एवं छोटा राष्ट्र है। उसकी सुव्यवस्था एवं शालीनता उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी बड़े रूप में समूचे राष्ट्र की।<br>
 
309) व्यक्तिवाद के प्रति उपेक्षा और समूहवाद के प्रति निष्ठा रखने वाले व्यक्तियों का समाज ही समुन्नत होता है।<br>
 
310) जिस प्रकार हिमालय का वक्ष चीरकर निकलने वाली गंगा अपने प्रियतम समुद्र से मिलने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए तीर की तरह बहती-सनसनाती बढ़ती चली जाती है और उसक मार्ग रोकने वाले चट्टान चूर-चूर होते चले जाते हैं उसी प्रकार पुL षार्थी मनुष्य अपने लक्ष्य को अपनी तत्परता एवं प्रखरता के आधार पर प्राप्त कर सकता है।<br>
 
311) ईमानदारी, खरा आदमी, भलेमानस-यह तीन उपाधि यदि आपको अपने अन्तस्तल से मिलती है तो समझ लीजिए कि आपने जीवन फल प्राप्त कर लिया, स्वर्ग का राज्य अपनी मुट्ठी में ले लिया।<br>
 
312) सत्य का मतलब सच बोलना भर नहीं, वरन्‌ विवेक, कत्र्तव्य, सदाचरण, परमार्थ जैसी सत्प्रवृत्तियों और सद्‌भावनाओं से भरा हुआ जीवन जीना है।<br>
 
313) भगवान्‌ भावना की उत्कृष्टता को ही प्यार करता है और सर्वोत्तम सद्‌भावना का एकमात्र प्रमाण जनकल्याण के कार्यों में बढ़-चढ़कर योगदान करना है।<br>
 
314) भगवान्‌ का अवतार तो होता है, परन्तु वह निराकार होता है। उनकी वास्तविक शक्ति जाग्रत्‌ आत्मा होती है, जो भगवान्‌ का संदेश प्राप्त करके अपना रोल अदा करती है।<br>
 
315) प्रगतिशील जीवन केवल वे ही जी सकते हैं, जिनने हृदय में कोमलता, मस्तिष्क में तीष्णता, रक्त में उष्णता और स्वभाव में दृढ़ता का समुतिच समावेश कर लिया है।<br>
 
316) दया का दान लड़खड़ाते पैरा में नई शक्ति देना, निराश हृदय में जागृति की नई प्रेरणा फूँकना, गिरे हुए को उठाने की सामथ्र्य प्रदान करना एवं अंधकार में भटके हुए को प्रकाश देना।<br>
 
317) साहस और हिम्मत से खतरों में भी आगे बढ़िये। जोखित उठाये बिना जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण सफलता नहीं पाई जा सकती।<br>
 
318) अपने जीवन में सत्प्रवृत्तियों को प्रोतसाहन एवं प्रश्रय देने का नाम ही विवेक है। जो इस स्थिति को पा लेते हैं, उन्हीं का मानव जीवन सफल कहा जा सकता है।<br>
 
319) जो मन का गुलाम है, वह ईश्वर भक्त नहीं हो सकता। जो ईश्वर भक्त है, उसे मन की गुलामी न स्वीकार हो सकती है, न सहन।<br>
 
320) अपना काम दूसरों पर छोड़ना भी एक तरह से दूसरे दिन काम टालने के समान ही है। ऐसे व्यक्ति का अवसर भी निकल जाता है और उसका काम भी पूरा नहीं हीता।<br>
 
321) आत्म-विश्वास जीवन नैया का एक शक्तिशाली समर्थ मल्लाह है, जो डूबती नाव को पतवार के सहारे ही नहीं, वरन्‌ अपने हाथों से उठाकर प्रबल लहरों से पार कर देता है।<br>
 
322) माँ का जीवन बलिदान का, त्याग का जीवन है। उसका बदला कोई भी पुत्र नहीं चुका सकता चाहे वह भूमंडल का स्वामी ही क्यों न हो।<br>
 
323) स्वस्थ क्रोध उस राख से ढँकी चिंगारी की तरह है, जो अपनी ज्वाला से किसी को दग्ध तो नहीं करती, किन्तु आवश्यकता पड़ने पर बfiत कुछ को जलाने की सामथ्र्य रखती है।<br>
 
324) धन्य है वे जिन्होंने करने के लिए अपना काम प्राप्त कर लिया है और वे उसमें लीन है। अब उन्हें किसी और वरदान की याचना नहीं करना चाहिए।<br>
 
325) परमार्थ के बदले यदि हमको कुछ मूल्य मिले, चाहे वह पैसे के रूप में प्रभाव, प्रभुत्व व पद-प्रतिष्ठा के रूप में तो वह सच्चा परमार्थ नहीं है। इसे कत्र्तव्य पालन कह सकते हैं।<br>
 
326) समय की कद्र करो। प्रत्येक दिवस एक जीवन है। एक मिनट भी फिजूल मत गँवाओ। जिन्दगी की सच्ची कीमत हमारे वक्त का एक-एक क्षण ठीक उपयोग करने में है।<br>
 
327) साहस ही एकमात्र ऐसा साथी है, जिसको साथ लेकर मनुष्य एकाकी भी दुर्गम दीखने वाले पथ पर चल पड़ते एवं लक्ष्य तक जा पहुँचने में समर्थ हो सकता है।<br>
 
328) तुम सेवा करने के लिए आये हो, हुकूमत करने के लिए नहीं। जान लो कष्ट सहने और परिश्रम करने के लिए तुम बुलाये गये हो, आलसी और वार्तालाप में समय नष्ट करने के लिए नहीं।<br>
 
329) जो लोग पाप करते हैं उन्हें एक न एक विपत्ति सवदा घेरे ही रहती है, किन्तु जो पुण्य कर्म किया करते हैं वे सदा सुखी और प्रसन्न रह्ते हैं।<br>
 
330) दूसरों पर भरोसा लादे मत बैठे रहो। अपनी ही हिम्मत पर खड़ा रह सकना और आगे बढ़् सकना संभव हो सकता है। सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे।<br>
 
331) जो लोग डरने, घबराने में जितनी शक्ति नष्ट करते हैं, उसकी आधी भी यदि प्रस्तुत कठिनाइयों से निपटने का उपाय सोचने के लिए लगाये तो आधा संकट तो अपने आप ही टल सकता है।<br>
 
332) समर्पण का अर्थ है- मन अपना विचार इष्ट के, हृदय अपना भावनाएँ इष्ट की और आपा अपना किन्तु कत्र्तव्य समग्र रूप से इष्ट का।<br>
 
333) आज के कर्मों का फल मिले इसमें देरी तो हो सकती है, किन्तु कुछ भी करते रहने और मनचाहे प्रतिफल पाने की छूट किसी को भी नहीं है।<br>
 
334) विपत्ति से असली हानि उसकी उपस्थिति से नहीं होती, जब मन:स्थिति उससे लोहा लेने में असमर्थता प्रकट करती है तभी व्यक्ति टूटता है और हानि सहता है।<br>
 
335) श्रद्धा की प्रेरणा है-श्रेष्ठता के प्रति घनिष्ठता, तन्मयता एवं समर्पण की प्रवृतित। परमेश्वर के प्रति इसी भाव संवेदना को विकसित करने का नमा है-भक्ति।<br>
 
336) अच्छाइयों का एक-एक तिनका चुन-चुनकर जीवन भवन का निर्माण होता है, पर बुराई का एक हलका झोंका ही उसे मिटा डालने के लिए पर्याप्त होता है।<br>
 
337) जब संकटों के बादल सिर पर मँडरा रहे हों तब भी मनुष्य को धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए। धैर्यवान व्यक्ति भीषण परिस्थितियों में भी विजयी होते हैं।<br>
 
338) ज्ञान का जितना भाग व्यवहार में लाया जा सके वही सार्थक है, अन्यथा वह गधे पर लदे बोझ के समान है।<br>
 
339) नाव स्वयं ही नदी पार नहीं करती। पीठ पर अनेकों को भी लाद कर उतारती है। सन्त अपनी सेवा भावना का उपयोग इसी प्रकार किया करते है।<br>
 
340) कोई अपनी चमड़ी उखाड़ कर भीतर का अंतरंग परखने लगे तो उसे मांस और हड्डियों में एक तत्व उफनता दृष्टिगोचर होगा, वह है असीम प्रेम। हमने जीवन में एक ही उपार्जन किया है प्रेम। एक ही संपदा कमाई है-प्रेम। एक ही रस हमने चखा है वह है प्रेम का।<br>
 
341) हमारी कितने रातें सिसकते बीती हैं-कितनी बार हम फूट-फूट कर रोये हैं इसे कोई कहाँ जानता है? लोग हमें संत, सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं, कोई लेखक, विद्वान, वक्ता, नेता, समझा हैं। कोई उसे देख सका होता तो उसे मानवीय व्यथा वेदना की अनुभूतियों से करुण कराह से हाहाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इस हड्डियों के ढ़ाँचे में बैठी बिलखती दिखाई पड़ती है।<br>
 
342) परिजन हमारे लिए भगवान की प्रतिकृति हैं और उनसे अधिकाधिक गहरा प्रेम प्रसंग बनाए रखने की उत्कंठा उमड़ती रहती है। इस वेदना के पीछे भी एक ऐसा दिव्य आनंद झाँकता है इसे भक्तियोग के मर्मज्ञ ही जान सकते है।<br>
 
343) हराम की कमाई खाने वाले,भष्ट्राचारी बेईमान लोगों के विरुद्ध इतनी तीव्र प्रतिक्रिया उठानी होगी जिसके कारण उन्हें सड़क पर चलना और मुँह दिखाना कठिन हो जाये। जिधर से वे निकलें उधर से ही धिक्कार की आवाजें ही उन्हें सुननी पडें। समाज में उनका उठना-बैठना बन्द हो जाये और नाई, धोबी, दर्जी कोई उनके साथ किसी प्रकार का सहयोग करने के लिए तैयार न हों।<br>
 
344) जटायु रावण से लड़कर विजयी न हो सका और न लड़ते समय जीतने की ही आशा की थी फिर भी अनीति को आँखो से देखते रहने और संकट में न पड़ने के भय से चुप रहने की बात उसके गले न उतरी और कायरता और मृत्यु में से एक को चुनने का प्रसंग सामने रहने पर उसने युद्ध में ही मर मिटने की नीति को ही स्वीकार किया।<br>
 
345) गाली-गलौज, कर्कश, कटु भाषण, अश्लील मजाक, कामोत्तेजक गीत, निन्दा, चुगली, व्यX, क्रोध एवं आवेश भरा उच्चारण, वाणी की रुग्णता प्रकट करते हैं। ऐसे शब्द दूसरों के लिए ही मर्मभेदी नहीं होते वरन्‌ अपने लिए भी घातक परिणाम उत्पन्न करते है।<br>
 
346) अंत:मन्थन उन्हें खासतौर से बेचैन करता है, जिनमें मानवीय आस्थाएँ अभी भी अपने जीवंत होने का प्रमाण देतीं और कुछ सोचने करने के लिये नोंचती-कचौटती रहती हैं।<br>
 
347) जिस भी भले बुरे रास्ते पर चला जाये उस पर साथी-सहयोगी तो मिलते ही रहते हैं। इस दुनियाँ में न भलाई की कमी है, न बुराई की। पसंदगी अपनी, हिम्मत अपनी, सहायता दुनियाँ की।<br>
 
348) लोकसेवी नया प्रजनन बंद कर सकें, जितना हो चुका उसी के निर्वाह की बात सोचें तो उतने भर से उन समस्याओं का आधा समाधान हो सकता है जो पर्वत की तरह भारी और विशालकाय दीखती है।<br>
 
349) उनकी नकल न करें जिनने अनीतिपूर्वक कमाया और दुव्र्यसनों में उड़ाया। बुद्धिमान कहलाना आवश्यक नहीं। चतुरता की दृष्टि से पक्षियों में कौवे को और जानवरों में चीते को प्रमुख गिना जाता है। ऐसे चतुरों और दुस्साहसियों की बिरादरी जेलखानों में बनी रहती है। ओछों की नकल न करें। आदर्शों की स्थापना करते समय श्रेष्ठ, सज्जनों को, उदार महामानवों को ही सामने रखें।<br>
 
350) अज्ञान, अंधकार, अनाचार और दुराग्रह के माहौल से निकलकर हमें समुद्र में खड़े स्तंभों की तरह एकाकी खड़े होना चाहिये। भीतर का ईमान, बाहर का भगवान्‌ इन दो को मजबूती से पकड़ें और विवेक तथा औचित्य के दो पग बढ़ाते हुये लक्ष्य की ओर एकाकी आगे बढ़ें तो इसमें ही सच्चा शौर्य, पराक्रम है। भले ही लोग उपहास उड़ाएं या असहयोगी, विरोधी रुख बनाए रहें।<br>
 
351)चोर, उचक्के, व्यसनी, जुआरी भी अपनी बिरादरी निरंतर बढ़ाते रहते हैं । इसका एक ही कारण है कि उनका चरित्र और चिंतन एक होता है। दोनों के मिलन पर ही प्रभावोत्पादक शक्ति का उद्‌भव होता है। किंतु आदर्शों के क्षेत्र में यही सबसे बड़ी कमी है।<br>
 
352)दुष्टता वस्तुत: पह्ले दर्जे की कायरता का ही नाम है। उसमें जो आतंक दिखता है वह प्रतिरोध के अभाव से ही पनपता है। घर के बच्चें भी जाग पड़े तो बलवान चोर के पैर उखड़ते देर नहीं लगती। स्वाध्याय से योग की उपासना करे और योग से स्वाध्याय का अभ्यास करें। स्वाध्याय की सम्पत्ति से परमात्मा का साक्षात्कार होता है।<br>
 
353)धर्म को आडम्बरयुक्त मत बनाओ, वरन्‌ उसे अपने जीवन में धुला डालो। धर्मानुकूल ही सोचो और करो। शास्त्र की उक्ति है कि रक्षा किया हुआ धर्म अपनी रक्षा करता है और धर्म को जो मारता है, धर्म उसे मार डालता है, इस तथ्य को।<br>
 
354)ध्यान में रखकर ही अपने जीवन का नीति निर्धारण किया जाना चाहिए।<br>
 
355)मनुष्य को एक ही प्रकार की उन्नति से संतुष्ट न होकर जीवन की सभी दिशाओं में उन्नति करनी चाहिए। केवल एक ही दिशा में उन्नति के लिए अत्यधिक प्रयत्न करना और अन्य दिशाओं की उपेक्षा करना और उनकी ओर से उदासीन रहना उचित नहीं है।<br>
 
356)विपन्नता की स्थिति में धैर्य न छोड़ना मानसिक संतुलन नष्ट न होने देना, आशा पुरूषार्थ को न छोड़ना, आस्तिकता अर्थात्‌ ईश्वर विश्वास का प्रथम चिन्ह है।<br>
 
357)दृढ़ आत्मविश्वास ही सफलता की एकमात्र कुTी है।<br>
 
358)आत्मीयता को जीवित रखने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि गलतियों को हम उदारतापूर्वक क्षमा करना सीखें।<br>
 
359)समस्त हिंसा, द्वेष, बैर और विरोध की भीषण लपटें दया का संस्पर्श पाकर शान्त हो जाती हैं।<br>
 
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|'''सुभाषित'''
 
1) यह संसार कर्म की कसौटी है। यहाँ मनुष्य की पहचान उसके कर्मों से होती है।<br>
 
2) दुष्ट चिंतन आग में खेलने की तरह है।<br>
 
3) जो अपनी राह बनाता है वह सफलता के शिखर पर चढ़ता है; पर जो औरों की राह ताकता है सफलता उसकी मुँह ताकती रहती है।<br>
 
4) जीवनोद्देश्य की खोज ही सबसे बड़ा सौभाग्य है। उसे और कहीं ढूँढ़ने की अपेक्षा अपने हृदय में ढूँढ़ना चाहिए।<br>
 
5) वह मनुष्य विवेकवान्‌ है, जो भविष्य से न तो आशा रखता है और न भयभीत ही होता है।<br>
 
6) बुद्धिमान्‌ बनने का तरीका यह है कि आज हम जितना जानते हैं भविष्य में उससे अधिक जानने के लिए प्रयत्नशील रहें।<br>
 
7) जीवन उसी का धन्य है जो अनेकों को प्रकाश दे। प्रभाव उसी का धन्य है जिसके द्वारा अनेकों में आशा जाग्रत हो।<br>
 
8) तुम्हारा प्रत्येक छल सत्य के उस स्वच्छ प्रकाश में एक बाधा है जिसे तुम्हारे द्वारा उसी प्रकार प्रकाशित होना चाहिए जैसे साफ शीशे के द्वारा सूर्य का प्रकाश प्रकाशित होता है।<br>
 
9) मनुष्य जीवन का पूरा विकास गलत स्थानों, गलत विचारों और गलत दृष्टिकोणों से मन और शरीर को बचाकर उचित मार्ग पर आरूढ़ कराने से होता है।<br>
 
10) जीवन एक परख और कसौटी है जिसमें अपनी सामथ्र्य का परिचय देने पर ही कुछ पा सकना संभव होता है।<br>
 
11) सेवा का मार्ग ज्ञान, तप, योग आदि के मार्ग से भी ऊँचा है।<br>
 
12) अधिक इच्छाएँ प्रसन्नता की सबसे बड़ी शत्रु हैं।<br>
 
13) मस्तिष्क में जिस प्रकार के विचार भरे रहते हैं वस्तुत: उसका संग्रह ही सच्ची परिस्थिति है। उसी के प्रभाव से जीवन की दिशाएँ बनती और मुड़ती रहती हैं।<br>
 
14) संघर्ष ही जीवन है। संघर्ष से बचे रह सकना किसी के लिए भी संभव नहीं।<br>
 
15) अपने हित की अपेक्षा जब परहित को अधिक महत्त्व मिलेगा तभी सच्चा सतयुग प्रकट होगा।<br>
 
16) सत्य, प्रेम और न्याय को आचरण में प्रमुख स्थान देने वाला नर ही नारायण को अति प्रिय है।<br>
 
17) ज्ञान और आचरण में बोध और विवेक में जो सामञ्जस्य पैदा कर सके उसे ही विद्या कहते हैं।<br>
 
18) संसार में हर वस्तु में अच्छे और बुरे दो पहलू हैं, जो अच्छा पहलू देखते हैं वे अच्छाई और जिन्हें केवल बुरा पहलू देखना आता है वह बुराई संग्रह करते हैं।<br>
 
19) सलाह सबकी सुनो पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे।<br>
 
20) फल के लिए प्रयत्न करो, परन्तु दुविधा में खड़े न रह जाओ। कोई भी कार्य ऐसा नहीं जिसे खोज और प्रयत्न से पूर्ण न कर सको।<br>
 
21) अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बड़ा प्रमाद इस संसार में और कोई नहीं हो सकता।<br>
 
22) वही उन्नति कर सकता है, जो स्वयं को उपदेश देता है।<br>
 
23) स्वार्थ, अहंकार और लापरवाही की मात्रा बढ़ जाना ही किसी व्यक्ति के पतन का कारण होता है।<br>
 
24) अवसर की प्रतीक्षा में मत बैठो। आज का अवसर ही सर्वोत्तम है।<br>
 
25) पाप अपने साथ रोग, शोक, पतन और संकट भी लेकर आता है।<br>
 
26) ईमानदार होने का अर्थ है - हजार मनकों में अलग चमकने वाला हीरा।<br>
 
27) वही जीवित है, जिसका मस्तिष्क ठंडा, रक्त गरम, हृदय कोमल और पुरुषार्थ प्रखर है।<br>
 
28) सद्‌गुणों के विकास में किया हुआ कोई भी त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता।<br>
 
29) जो आलस्य और कुकर्म से जितना बचता है, वह ईश्वर का उतना ही बड़ा भक्त है।<br>
 
30) वयúं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता:। हम पुरोहितगण अपने राष्ट्र में जाग्रत (जीवन्त) रहें।<br>
 
31) सत्कर्म की प्रेरणा देने से बढ़कर और कोई पुण्य हो ही नहीं सकता।<br>
 
32) नरक कोई स्थान नहीं, संकीर्ण स्वार्थपरता की और निकृष्ट दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया मात्र है।<br>
 
33) सद्‌भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों से जिनका जीवन जितना ओतप्रोत है, वह ईश्वर के उतना ही निकट है।<br>
 
34) असत्‌ से सत्‌ की ओर, अंधकार से आलोक की ओर तथा विनाश से विकास की ओर बढ़ने का नाम ही साधना है।<br>
 
35) सच्चाई, ईमानदारी, सज्जनता और सौजन्य जैसे गुणों के बिना कोई मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता।<br>
 
36) किसी आदर्श के लिए हँसते-हँसते जीवन का उत्सर्ग कर देना सबसे बड़ी बहादुरी है।<br>
 
37) उदारता, सेवा, सहानुभूति और मधुरता का व्यवहार ही परमार्थ का सार है।<br>
 
38) गायत्री उपासना का अधिकर हर किसी को है। मनुष्य मात्र बिना किसी भेदभाव के उसे कर सकता है।<br>
 
39) भगवान्‌ को घट-घट वासी और न्यायकारी मानकर पापों से हर घड़ी बचते रहना ही सच्ची भक्ति है।<br>
 
40) अस्त-व्यस्त रीति से समय गँवाना अपने ही पैरों कुल्हाड़ी मारना है।<br>
 
41) अपने गुण, कर्म, स्वभाव का शोधन और जीवन विकास के उच्च गुणों का अभ्यास करना ही साधना है।<br>
 
42) जो टूटे को बनाना, रूठे को मनाना जानता है, वही बुद्धिमान है।<br>
 
43) समाज का मार्गदर्शन करना एक गुरुतर दायित्व है, जिसका निर्वाह कर कोई नहीं कर सकता।<br>
 
44) नेतृत्व पहले विशुद्ध रूप से सेवा का मार्ग था। एक कष्ट साध्य कार्य जिसे थोड़े से सक्षम व्यक्ति ही कर पाते थे।<br>
 
45) सारी शक्तियाँ लोभ, मोह और अहंता के लिए वासना, तृष्णा और प्रदर्शन के लिए नहीं खपनी चाहिए।<br>
 
46) निश्चित रूप से ध्वंस सरल होता है और निर्माण कठिन है।<br>
 
47) अपने देश का यह दुर्भाग्य है कि आजादी के बाद देश और समाज के लिए नि:स्वार्थ भाव से खपने वाले सृजेताओं की कमी रही है।<br>
 
48) उच्चस्तरीय महत्त्वाकांक्षा एक ही है कि अपने को इस स्तर तक सुविस्तृत बनाया जाय कि दूसरों का मार्गदर्शन कर सकना संभव हो सके।<br>
 
49) शक्ति उनमें होती है, जिनकी कथनी और करनी एक हो, जो प्रतिपादन करें, उनके पीछे मन, वचन और कर्म का त्रिविध समावेश हो।<br>
 
50) व्यक्ति का चिंतन और चरित्र इतना ढीला हो गया है कि स्वार्थ के लिए अनर्थ करने में व्यक्ति चूकता नहीं।<br>
 
51) संसार का सबसे बड़ानेता है-सूर्य। वह आजीवन व्रतशील तपस्वी की तरह निरंतर नियमित रूप से अपने सेवा कार्य में संलग्न रहता है।<br>
 
52) नेतृत्व ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है, क्योंकि वह प्रामाणिकता, उदारता और साहसिकता के बदले खरीदा जाता है।<br>
 
53) किसी का अमंगल चाहने पर स्वयं पहले अपना अमंगल होता है।<br>
 
54) महात्मा वह है, जिसके सामान्य शरीर में असामान्य आत्मा निवास करती है।<br>
 
55) जिसका हृदय पवित्र है, उसे अपवित्रता छू तक नहीं सकता।<br>
 
56) स्वर्ग और मुक्ति का द्वार मनुष्य का हृदय ही है।<br>
 
57) यथार्थ को समझना ही सत्य है। इसी को विवेक कहते हैं।<br>
 
58) अहंकार के स्थान पर आत्मबल बढ़ाने में लगें, तो समझना चाहिए कि ज्ञान की उपलब्धि हो गयी।<br>
 
59) समय को नियमितता के बंधनों में बाँधा जाना चाहिए।<br>
 
60) अपनापन ही प्यारा लगता है। यह आत्मीयता जिस पदार्थ अथवा प्राणी के साथ जुड़ जाती है, वह आत्मीय, परम प्रिय लगने लगती है।<br>
 
61) चेतना के भावपक्ष को उच्चस्तरीय उत्कृष्टता के साथ एकात्म कर देने को 'योग' कहते हैं।<br>
 
62) कुकर्मी से बढ़कर अभागा कोई नहीं, क्योंकि विपत्ति में उसका कोई साथी नहीं रहता।<br>
 
63) जिसने जीवन में स्नेह, सौजन्य का समुचित समावेश कर लिया, सचमुच वही सबसे बड़ा कलाकार है।<br>
 
64) अपने को मनुष्य बनाने का प्रयत्न करो, यदि उसमें सफल हो गये, तो हर काम में सफलता मिलेगी।<br>
 
65) जीवन का अर्थ है समय। जो जीवन से प्यार करते हों, वे आलस्य में समय न गँवाएँ।<br>
 
66) जो बच्चों को सिखाते हैं, उन पर बड़े खुद अमल करें, तो यह संसार स्वर्ग बन जाय।<br>
 
67) बुराई मनुष्य के बुरे कर्मों की नहीं, वरन्‌ बुरे विचारों की देन होती है।<br>
 
68) सब कुछ होने पर भी यदि मनुष्य के पास स्वास्थ्य नहीं, तो समझो उसके पास कुछ है ही नहीं।<br>
 
69) अपनी विकृत आकांक्षाओं से बढ़कर अकल्याणकारी साथी दुनिया में और कोई दूसरा नहीं।<br>
 
70) सत्य एक ऐसी आध्यात्मिक शक्ति है, जो देश, काल, पात्र अथवा परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होती।<br>
 
71) सत्य ही वह सार्वकालिक और सार्वदेशिक तथ्य है, जो सूर्य के समान हर स्थान पर समान रूप से चमकता रहता है।<br>
 
72) जो प्रेरणा पाप बनकर अपने लिए भयानक हो उठे, उसका परित्याग कर देना ही उचित है।<br>
 
73) कोई भी साधना कितनी ही ऊँची क्यों न हो, सत्य के बिना सफल नहीं हो सकती।<br>
 
74) उतावला आदमी सफलता के अवसरों को बहुधा हाथ से गँवा ही देता है।<br>
 
75) ज्ञान अक्षय है। उसकी प्राप्ति मनुष्य शय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से न जाने देना चाहिए।<br>
 
76) अवांछनीय कमाई से बनाई हुई खुशहाली की अपेक्षा ईमानदारी के आधार पर गरीबों जैसा जीवन बनाये रहना कहीं अच्छा है।<br>
 
77) आवेश जीवन विकास के मार्ग का भयानक रोड़ा है, जिसको मनुष्य स्वयं ही अपने हाथ अटकाया करता है।<br>
 
78) मनुष्यता सबसे अधिक मूल्यवान्‌ है। उसकी रक्षा करना प्रत्येक जागरूक व्यक्ति का परम कत्र्तव्य है।<br>
 
79) ज्ञान ही धन और ज्ञान ही जीवन है। उसके लिए किया गया कोई भी बलिदान व्यर्थ नहींं जाता।<br>
 
80) असफलता केवल यह सिद्ध करती है कि सफलता का प्रयास पूरे मन से नहीं हुआ।<br>
 
81) गृहस्थ एक तपोवन है, जिसमें संयम, सेवा और सहिष्णुता की साधना करनी पड़ती है।<br>
 
82) असत्य से धन कमाया जा सकता है, पर जीवन का आनन्द, पवित्रता और लक्ष्य नहीं प्राप्त किया जा सकता।<br>
 
83) शालीनता बिना मूल्य मिलती है, पर उससे सब कुछ खरीदा जा सकता है।<br>
 
84) मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं, वह उनका निर्माता, नियंत्रणकत्र्ता और स्वामी है।<br>
 
85) जिन्हें लम्बी जिन्दगी जीना हो, वे बिना कड़ी भूख लगे कुछ भी न खाने की आदत डालें।<br>
 
86) कायर मृत्यु से पूर्व अनेकों बार मर चुकता है, जबकि बहादुर को मरने के दिन ही मरना पड़ता है।<br>
 
87) आय से अधिक खर्च करने वाले तिरस्कार सहते और कष्ट भोगते हैं।<br>
 
88) दु:ख का मूल है पाप। पाप का परिणाम है-पतन, दु:ख, कष्ट, कलह और विषाद। यह सब अनीति के अवश्यंभावी परिणाम हैं।<br>
 
89) अस्वस्थ मन से उत्पन्न कार्य भी अस्वस्थ होंगे।<br>
 
90) आसक्ति संकुचित वृत्ति है।<br>
 
91) समान भाव से आत्मीयता पूर्वक कत्र्तव्य-कर्मों का पालन किया जाना मनुष्य का धर्म है।<br>
 
92) पाप की एक शाखा है - असावधानी।<br>
 
93) जब तक मनुष्य का लक्ष्य भोग रहेगा, तब तक पाप की जड़ें भी विकसित होती रहेंगी।<br>
 
94) मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान और आत्म-विज्ञान की जानकारी हुए बिना यह संभव नहीं है कि मनुष्य दुष्कर्मों का परित्याग करे।<br>
 
95) ईश्वर अर्थात्‌ मानवी गरिमा के अनुरूप अपने को ढालने के लिए विवश करने की व्यवस्था।<br>
 
96) मनुष्य बुद्धिमानी का गर्व करता है, पर किस काम की वह बुद्धिमानी-जिससे जीवन की साधारण कला हँस-खेल कर जीने की प्रक्रिया भी हाथ न आए।<br>
 
97) जब अंतराल हुलसता है, तो तर्कवादी के कुतर्की विचार भी ठण्डे पड़ जाते हैं।<br>
 
98) मनुष्य के भावों में प्रबल रचना शक्ति है, वे अपनी दुनिया आप बसा लेते हैं।<br>
 
99) पग-पग पर शिक्षक मौजूद हैं, पर आज सीखना कौन चाहता है?<br>
 
100) इस संसार में अनेक विचार, अनेक आदर्श, अनेक प्रलोभन और अनेक भ्रम भरे पड़े हैं।<br>
 
101) पादरी, मौलवी और महंत भी जब तक एक तरह की बात नहीं कहते, तो दो व्यक्तियों में एकमत की आशा की ही कैसे जाए?<br>
 
102) जीवन की सफलता के लिए यह नितांत आवश्यक है कि हम विवेकशील और दूरदर्शी बनें।<br>
 
103) विवेकशील व्यक्ति उचित अनुचित पर विचार करता है और अनुचित को किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं करता।<br>
 
104) धर्मवान्‌ बनने का विशुद्ध अर्थ बुद्धिमान, दूरदर्शी, विवेकशील एवं सुरुचि सम्पन्न बनना ही है।<br>
 
105) मानव जीवन की सफलता का श्रेय जिस महानता पर निर्भर है, उसे एक शब्द में धार्मिकता कह सकते हैं।<br>
 
106) मांसाहार मानवता को त्यागकर ही किया जा सकता है।<br>
 
107) परमार्थ मानव जीवन का सच्चा स्वार्थ है।<br>
 
108) समय उस मनुष्य का विनाश कर देता है, जो उसे नष्ट करता रहता है।<br>
 
109) अश£ील, अभद्र अथवा भोगप्रदधान मनोरंजन पतनकारी होते हैं।<br>
 
110) परोपकार से बढ़कर और निरापत दूसरा कोई ध्धर्म नहीं।<br>
 
111) परावलम्बी जीवित तो रहते हैं, पर मृत तुल्य ही।<br>
 
112) अंध श्रद्धा का अर्थ है, बिना सोचे-समझे, आँख मूँदकर किसी पर भी विश्वास।<br>
 
113) एकांगी अथवा पक्षपाती मस्तिष्क कभी भी अच्छा मित्र नहीं रहता।<br>
 
114) सबसे बड़ा दीन दुर्बल वह है, जिसका अपने ऊपर नियंत्रण नहीं।<br>
 
115) जो जैसा सोचता है और करता है, वह वैसा ही बन जाता है।<br>
 
116) भगवान्‌ की दण्ड संहिता में असामाजिक प्रवृत्ति भी अपराध है।<br>
 
117) करना तो बड़ा काम, नहीं तो बैठे रहना, यह दुराग्रह मूर्खतापूर्ण है।<br>
 
118) डरपोक और शक्तिहीन मनुष्य भाग्य के पीछे चलता है।<br>
 
119) मानवता की सेवा से बढ़कर और कोई बड़ा काम नहीं हो सकता।<br>
 
120) प्रकृतित: हर मनुष्य अपने आप में सुयोग्य एवं समर्थ है।<br>
 
121) व्यक्तित्व की अपनी वाणी है, जो जीभ या कलम का इस्तेमाल किये बिना भी लोगों के अंतराल को छूती है।<br>
 
122) प्रस्तुत उलझनें और दुष्प्रवृत्तियाँ कहीं आसमान से नहीं टपकीं। वे मनुष्य की अपनी बोयी, उगाई और बढ़ाई हुई हैं।<br>
 
123) दीनता वस्तुत: मानसिक हीनता का ही प्रतिफल है।<br>
 
124) जीवनी शक्ति पेड़ों की जड़ों की तरह भीतर से ही उपजती है।<br>
 
125) सत्कर्मों का आत्मसात होना ही उपासना, साधना और आराधना का सारभूत तत्व है।<br>
 
126) जनसंख्या की अभिवृद्धि हजार समस्याओं की जन्मदात्री है।<br>
 
127) अंतरंग बदलते ही बहिरंग के उलटने में देर नहीं लगती है।<br>
 
128) सद्‌विचार तब तक मधुर कल्पना भर बने रहते हैं, जब तक उन्हें कार्य रूप में परिणत नहीं किया जाय।<br>
 
129) नेतृत्व का अर्थ है वह वर्चस्व जिसके सहारे परिचितों और अपरिचितों को अंकुश में रखा जा सके, अनुशासन में चलाया जा सके।<br>
 
130) आत्मानुभूति यह भी होनी चाहिए कि सबसे बड़ी पदवी इस संसार में मार्गदर्शक की है।<br>
 
131) नेता शिक्षित और सुयोग्य ही नहीं, प्रखर संकल्प वाला भी होना चाहिए, जो अपनी कथनी और करनी को एकरूप में रख सके।<br>
 
132) सफल नेता की शिवत्व भावना-सबका भला 'बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय' से प्रेरित होती है।<br>
 
133) जो व्यक्ति कभी कुछ कभी कुछ करते हैं, वे अन्तत: कहीं भी नहीं पहुँच पाते।<br>
 
134) विपरीत प्रतिकूलताएँ नेता के आत्म विश्वास को चमका देती हैं।<br>
 
135) सच्चे नेता आध्यात्मिक सिद्धियों द्वारा आत्म विश्वास फैलाते हैं। वही फैलकर अपना प्रभाव मुहल्ला, ग्राम, शहर, प्रांत और देश भर में व्याप्त हो जाता है।<br>
 
136) सफल नेतृत्व के लिए मिलनसारी, सहानुभूति और कृतज्ञता जैसे दिव्य गुणों की अतीव आवश्यकता है।<br>
 
137) हर व्यक्ति जाने या अनजाने में अपनी परिस्थितियों का निर्माण आप करता है।<br>
 
138) अनीति अपनाने से बढ़कर जीवन का तिरस्कार और कुछ हो ही नहीं सकता।<br>
 
139) काम छोटा हो या बड़ा, उसकी उत्कृष्टता ही करने वाले का गौरव है।<br>
 
140) निरंकुश स्वतंत्रता जहाँ बच्चों के विकास में बाधा बनती है, वहीं कठोर अनुशासन भी उनकी प्रतिभा को कुंठित करता है।<br>
 
141) दिल खोलकर हँसना और मुस्कराते रहना चित्त को प्रफुल्लित रखने की एक अचूक औषधि है।<br>
 
142) नास्तिकता ईश्वर की अस्वीकृति को नहीं, आदर्शों की अवहेलना को कहते हैं।<br>
 
143) श्रेष्ठ मार्ग पर कदम बढ़ाने के लिए ईश्वर विश्वास एक सुयोग्य साथी की तरह सहायक सिद्ध होता है।<br>
 
144) मरते वे हैं, जो शरीर के सुख और इन्दि्रय वासनाओं की तृप्ति के लिए रात-दिन खपते रहते हैं।<br>
 
145) राष्ट्र के उत्थान हेतु मनीषी आगे आयें।<br>
 
146) राष्ट्र निर्माण जागरूक बुद्धिजीवियों से ही संभव है।<br>
 
147) राष्ट्रोत्कर्ष हेतु संत समाज का योगदान अपेक्षित है।<br>
 
148) राष्ट्र का विकास, बिना आत्म बलिदान के नहीं हो सकता।<br>
 
149) राष्ट्र को समृद्ध और शक्तिशाली बनाने के लिए आदर्शवाद, नैतिकता, मानवता, परमार्थ, देश भक्ति एवं समाज निष्ठा की भावना की जागृति नितान्त आवश्यक है।<br>
 
150) सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में जो विकृतियाँ, विपन्नताएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं, वे कहीं आकाश से नहीं टपकी हैं, वरन्‌ हमारे अग्रणी, बुद्धिजीवी एवं प्रतिभा सम्पन्न लोगों की भावनात्मक विकृतियों ने उन्हें उत्पन्न किया है।<br>
 
151) राष्ट्रीय स्तर की व्यापक समस्याएँ नैतिक दृष्टि धूमिल होने और निकृष्टता की मात्रा बढ़ जाने के कारण ही उत्पन्न होती है।<br>
 
152) राष्ट्र के नव निर्माण में अनेकों घटकों का योगदान होता है। प्रगति एवं उत्कर्ष के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयास चलते और उसके अनुरूप सफलता-असफलताएँ भी मिलती हैं।<br>
 
153) राष्ट्रों, राज्यों और जातियों के जीवन में आदिकाल से उल्लेखनीय धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक क्रान्तियाँ हुई हैं। उन परिस्थितियों में श्रेय भले ही एक व्यक्ति या वर्ग को मार्गदर्शन को मिला हो, सच्ची बात यह रही है कि बुद्धिजीवियों, विचारवान्‌ व्यक्तियों ने उन क्रान्तियों को पैदा किया, जन-जन तक फैलाया और सफल बनाया।<br>
 
154) धर्म का मार्ग फूलों की सेज नहीं है। इसमें बड़े-बड़े कष्ट सहन करने पड़ते हैं।<br>
 
155) अवसर उनकी सहायता कभी नहीं करता, जो अपनी सहायता नहीं करते।<br>
 
156) ज्ञान के नेत्र हमें अपनी दुर्बलता से परिचित कराने आते हैं। जब तक इंद्रियों में सुख दीखता है, तब तक आँखों पर पर्दा हुआ मानना चाहिए।<br>
 
157) जो सच्चाई के मार्ग पर चलता है, वह भटकता नहीं।<br>
 
158) किसी का मनोबल बढ़ाने से बढ़कर और अनुदान इस संसार में नहीं है।<br>
 
159) बड़प्पन सुविधा संवर्धन का नहीं, सद्‌गुण संवर्धन का नाम है।<br>
 
160) संसार का सबसे बड़ा दीवालिया वह है, जिसने उत्साह खो दिया।<br>
 
161) मनुष्य की संकल्प शक्ति संसार का सबसे बड़ा चमत्कार है।<br>
 
162) अपने दोषों से सावधान रहो; क्योंकि यही ऐसे दुश्मन है, जो छिपकर वार करते हैं।<br>
 
163) आत्मविश्वासी कभी हारता नहीं, कभी थकता नहीं, कभी गिरता नहीं और कभी मरता नहीं।<br>
 
164) उनकी प्रशंसा करो जो धर्म पर दृढ़ हैं। उनके गुणगान न करो, जिनने अनीति से सफलता प्राप्त की।<br>
 
165) जिनके अंदर ऐय्याशी, फिजूलखर्ची और विलासिता की कुर्बानी देने की हिम्मत नहीं, वे अध्यात्म से कोसों दूर हैं।<br>
 
166) ऊँचे सिद्धान्तों को अपने जीवन में धारण करने की हिम्मत का नाम है - अध्यात्म।<br>
 
167) स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है।<br>
 
168) प्रतिभावान्‌ व्यक्तित्व अर्जित कर लेना, धनाध्यक्ष बनने की तुलना में कहीं अधिक श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है।<br>
 
169) दरिद्रता कोई दैवी प्रकोप नहीं, उसे आलस्य, प्रमाद, अपव्यय एवं दुर्गुणों के एकत्रीकरण का प्रतिफल ही करना चाहिए।<br>
 
170) शत्रु की घात विफल हो सकती है, किन्तु आस्तीन के साँप बने मित्र की घात विफल नहीं होती।<br>
 
171) अंध परम्पराएँ मनुष्य को अविवेकी बनाती हैं।<br>
 
172) जब हम किसी पशु-पक्षी की आत्मा को दु:ख पहुँचाते हैं, तो स्वयं अपनी आत्मा को दु:ख पहुँचाते हैं।<br>
 
173) हम आमोद-प्रमोद मनाते चलें और आस-पास का समाज आँसुओं से भीगता रहे, ऐसी हमारी हँसी-खुशी को धिक्कार है।<br>
 
174) दूसरों की सबसे बड़ी सहायता यही की जा सकती है कि उनके सोचने में जो त्रुटि है, उसे सुधार दिया जाए।<br>
 
175) ठगना बुरी बात है, पर ठगाना उससे कम बुरा नहीं है।<br>
 
176) प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं बरसती, वह अंदर से जागती है और उसे जगाने के लिए केवल मनुष्य होना पर्याप्त है।<br>
 
177) संकल्प जीवन की उत्कृष्टता का मंत्र है, उसका प्रयोग मनुष्य जीवन के गुण विकास के लिए होना चाहिए।<br>
 
178) पुण्य की जय-पाप की भी जय ऐसा समदर्शन तो व्यक्ति को दार्शनिक भूल-भुलैयों में उलझा कर संसार का सर्वनाश ही कर देगा।<br>
 
179) अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बड़ा प्रमाद इस संसार में और कोई दूसरा नहीं हो सकता।<br>
 
180) अव्यवस्थित जीवन, जीवन का ऐसा दुरुपयोग है, जो दरिद्रता की वृद्धि कर देता है। काम को कल के लिए टालते रहना और आज का दिन आलस्य में बिताना एक बहुत बड़ी भूल है। आरामतलबी और निष्कि्रयता से बढ़कर अनैतिक बात और दूसरी कोई नहीं हो सकती।<br>
 
181) किसी समाज, देश या व्यक्ति का गौरव अन्याय के विरुद्ध लड़ने में ही परखा जा सकता है।<br>
 
182) दुष्कर्म स्वत: ही एक अभिशाप है, जो कत्र्ता को भस्म किये बिना नहीं रहता।<br>
 
183) कत्र्तव्य पालन करते हुए मौत मिलना मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सफलता और सार्थकता है।<br>
 
184) बड़प्पन बड़े आदमियों के संपर्क से नहीं, अपने गुण, कर्म और स्वभाव की निर्मलता से मिला करता है।<br>
 
185) पुण्य-परमार्थ का कोई भी अवसर टालना नहीं चाहिए। अगले क्षण यह देह रहे या न रह ेक्या ठिकाना?<br>
 
186) शुभ कर्यों को कल के लिए मत टालिए, क्योंकि कल कभी आता नहीं।<br>
 
  
 
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Latest revision as of 11:01, 9 February 2021

chitr:Blockquote-open.gif buddhimano ki buddhimata aur barasoan ka anubhav subhashitoan mean sangrah kiya ja sakata hai. chitr:Blockquote-close.gif

- aeejak disarali
  • ham anamol vachan ( Priceless Words / Quotes) (amrit vachan/ suvichar/ suvachan/ saty vachan/ sookti/ subhashit/ uttam (uth‍tam) vani/ uddharan/ dhir ganbhir mridu vakh‍y)un batoan aur lekhoan ko kahate haian, jinhean sansar ke anekanek vidvanoan ne kahe aur likhe haian, jo jivan upayogi haian. in anamol vachanoan ko ham apane jivan mean apanakar apane jivan mean nee uanmag evan utsah ka sanchar kar sakate haian. anamol vachan ko ham sookti (su + ukti) ya subhashit (su + bhashit) bhi kahate haian. jisaka arth hai “sundar bhasha mean kaha gaya”. in batoan ko anamol isalie bhi kaha jata haian kyoanki yadi ham in batoan ka arth ya sar samajhegean, to ham payeange ki in batoan ka koee mol nahian laga sakata. in batoan ko ham apane jivan mean apanakar apane jivan ki disha ko badal sakate haian aur jivan ki disha badalanean vali batoan ka kabhi koee mol nahian laga sakata haian kyoki ye batean to anamol hoti haian.
  • vakta ho ya sant ho, vidvanh ho ya lekhak ho, rajaneta ho ya phir koee prashasak — apani bat kahane ke sath-sath vah use sar-roop mean kahata hua ek mala ke roop mean pirota chalata hai. is sar-roop mean kahe ge vakyoan mean aise sootr chhipe rahate haian, jin par chiantan karane se vicharoan ki ek vyavasthit shrriankhala ka sahaj roop se nirman hota hai. us samay aisa lagata hai mano kisi vishisht vishay par likhi gee pustak ke panne ek-ek karake palat rahe hoan.
  • sootraroop mean kahe ge ye kathan atmavikas ke lie atyant upayogi haian. isilie vyaktitv vikas par kary kar rahe anusandhanakartaoan aur vidvanoan ka kahana hai ki pratyek atmavikas ke ichchhuk ko chahie ki vah apane lie adarshavaky chunakar use aise sthan par rakh ya chipaka le, jahaan usaki nazar zyadatar p dati ho. aisa karane se vah vichar avachetan mean baithakar usake vyaktitv ko gaharaee tak prabhavit karega. in vakyoan ka apasi batachit mean, bhashan adi mean prayog karake ap apane paksh ko pusht karate haian. aisa karane se apaki batoan mean vajan to ata hi hai logoan ke bich apaki sakh bhi badhati hai.

chitr:Blockquote-open.gif subhashitoan ki pustak kabhi poori nahian ho sakati. chitr:Blockquote-close.gif

- rabart hemiltan
  • log jivan mean karm ko mahattv dete haian, vichar ko nahian. aisa sochane vale shayad yah nahian janate ki vicharoan ka hi sthool roop hota hai karm arthath kisi bhi karm ka chetan-achetan roop se vichar hi karan hota hai. janati, ichchhati, yatate—janata hai (vichar karata hai), ichchha karata hai phir prayatn karata hai. yah ek aisi prakriya hai, jise adhunik manovijnan bhi svikar karata hai. janana aur ichchha karana vichar ke hi pahaloo haian . apane yah bhi suna hoga ki vicharoan ka hi vistar hai apaka atit, vartaman aur bhavishy. doosare shabdoan mean, aj ap jo bhi haian, apane vicharoan ke parimamasvaroop hi haian aur bhavishy ka nirdharan apake vartaman vichar hi kareange. to phir ujjval bhavishy ki akaanksha karane vale ap shubh-vicharoan se apane dilo-dimag ko poorit kyoan nahian karate.
  • shabd brahm hai. bharatiy darshakoan mean shabd ko uttam praman mana gaya hai. is sandarbh mean ek atyant prachalit katha ka ullekh karana yahaan yuktisangat hoga. katha is prakar hai — das vyaktiyoan ne barasati nadi par ki. par pahuanchane par yah jaanchane ke lie ki dasoan ne nadi par kar li hai, koee nadi mean doob to nahian gaya, ek ne ginana shuroo kiya. usake anusar unaka ek sathi nadi mean bah gaya tha. ek-ek karake sabhi ne ginati ki, pratyek ka yahi manana tha ki koee bah gaya hai. sabhi us dasavean vyakti ke lie rone aur vilap karane lage. vahaan se guzar rahe ek buddhiman vyakti ne jab unase rone tatha vilap karane ka karan poochha, to unhoanne sari bat kah sunaee. us vyakti ne unako ek pankti mean kh da hone ko kaha. jab sab pankti mean kh de ho ge, tab unamean se ek ko bulakar usase ginane ko kaha. us vyakti ne nau tak ginati gini aur chup ho gaya. tab agantuk ne kaha dasavean tum ho’ itana sunate hi sara rona-vilap karana apane ap, bina kisi prayas ke samapt ho gaya. agantuk ne kya kiya ? usake shabdoan ne hi rone-bilakhane ko vidaee dilava di.
  • shankarachary se jab unake shishyoan ne poochha ki is sansar - chakr se mukt hone ka kya upay hai, to unaka javab tha - keval vichar hi. isilie pratyek dharm-sanpraday aur jati ke mahanh purushoan ne sujhav diya ki jis disha mean ap apane vyaktitv ko vikasit karana chahate haian, usase sanbandhit vichar ko ap kisi aisi jagah rakhe ya chipakaean, jahaan apaki nazar bar-bar jati ho. vaky ka arth apake bhitar boostar ki si pratikriya karega. shrimadbhagavadg gita mean shrikrishna ne spasht kaha ki manushy ko svayan se svayan ka uddhar karana hoga. koee kisi ki avanati ke lie n to uttaradayi hai, n hi koee kisi ki unnati mean avarodh paida kar sakata hai. manthara ne kaikeyi mean parivartan kaise kiya ? kaise vah ram ke raja banane mean virodhi ban gee ? kaise usane apane pati dasharath ki mrityu aur apane vaidhavy ki paravah nahian ki ? in sabhi savaloan ka javab apako vicharoan ke parivartan ke ird-gird hi ghoomata milega.
  • mahapurushoan ke vakyoan ko padhate samay unake vyaktitv ki garima bhi apako prabhavit karati hai, jisase achetan man vaisa karane ya n karane ko vivash ho jata hai. is prakar ki bebasi ki sthiti vyaktitv ke vikas ke lie anukool vatavaran paida karati hai, kyoanki tab apake man ke pas manamani karane ka n to avasar hota hai, n hi samarthy. anubhav mean ek bat aur aee hai ki kabhi - kabhi apaki aisi shanka ka samadhan ek chhota-sa vaky kar jata hai, jisake lie ap lanbe samay se bhatak rahe hote haian. ‘dekhan mean chhote lagean, ghav karean ganbhir’ vali in vakyoan ke sath lagoo hoti hai. batachit karate samay, bhashan dete samay, bahas karate vaqt ya likhate samay jab ap in vakyoan dvara apane kathan ki pushti karate haian to apaki bat mean vajan a jata hai, apake vyaktitv ko prabhavashali banane mean inase sahayata milati hai.
  • hamean vishvas hai ki yah sankalan apake vyaktitv ko vikasit kar apake jivan mean nee sphoorti ka sanchar karate hue apamean atmavishvas paida karega ki apase shreshth koee nahian hai aur kaun-sa kam aisa hai, jise ap nahian kar sakate.
  1. REDIRECTsaancha:inhean bhi dekhean

anamol vachan sangrah

anamol vachan

tin batean

  • tin batean kabhi n bhoolean - pratijna karake, qarz lekar aur vishvas dekar. - mahavir
  • tin batean karo - uttam ke sath sangit, vidvanh ke sath vartalap aur sahriday ke sath maitri. - vinoba
  • tin anamol vachan - dhan gaya to kuchh nahian gaya, svasthy gaya to kuchh gaya aur charitr gaya to sab gaya. - aangreji kahavat
  • tin se ghrina n karo - rogi se, dukhi se aur nimn jati se. - muhammad sahab
  • tin ke aansoo pavitr hote haian - prem ke, karuna ke aur sahanubhooti ke. - buddh
  • tin batean sukhi jivan ke lie- atit ki chianta mat karo, bhavishy ka vishvas n karo aur vartaman ko vyarth mat jane do.
  • tin chizean kisi ka intajar nahian karati - samay, maut, grahak.
  • tin chizean jivan mean ek bar milati hai - maan, baanp, aur javani.
  • tin chizean parde yogy hai - dhan, stri aur bhojan.
  • tin chijoan se sada savadhan rahie - buri sangat, parastri aur ninda.
  • tin chijoan mean man lagane se unnati hoti hai - eeshvar, parishram aur vidya.
  • tin chijoan ko kabhi chhoti na samajhe - bimari, karja, shatru.
  • tinoan chijoan ko hamesha vash mean rakho - man, kam aur lobh.
  • tin chizean nikalane par vapis nahian ati - tir kaman se, bat juban se aur pran sharir se.
  • tin chizean kamazor bana deti hai - badachalani, krodh aur lalach.
  • tin chize asal uddheshy se rokata haian - badachalani, krodh aur lalach.
  • tin chizean koee chura nahian sakata - akal, charitr, hunar.
  • tin vyakti vaqt par pahachane jate haian - stri, bhaee, dost.
  • tinoan vyakti ka samman karo - mata, pita aur guru.
  • tinoan vyakti par sada daya karo - balak, bhookhe aur pagal.
  • tin chize kabhi nahian bhoolani chahie - karz, marz aur pharz.
  • tin batean kabhi mat bhoolean - upakar, upadesh aur udarata.
  • tin chize yad rakhana zaruri haian - sachchaee, kartavy aur mrityu.
  • tin batean charitr ko gira deti haian - chori, nianda aur jhooth.
  • tin chizean hamesha dil mean rakhani chahie - namrata, daya aur mafi.
  • tin chizoan par kabza karo - zaban, adat aur gussa.
  • tin chizoan se door bhago - alasy, khushamad aur bakavas.
  • tin chizoan ke lie mar mito - dhery, desh aur mitr.
  • tin chizean iansan ki apani hoti haian - roop, bhagy aur svabhav.
  • tin chijoan par abhiman mat karo – takat, sundarata, yauvan.
  • tin chizean agar chali gayi to kabhi vapas nahian ati - samay, shabd aur avasar.
  • tin chizean insan kabhi nahian kho sakata - shanti, asha aur eemanadari.
  • tin chizean jo sabase amooly hai - pyar, atmavishvas aur sachcha mitr.
  • tin chije jo kabhi nishchit nahian hoti - sapanean, saphalata aur bhagy.
  • tin chijean, jo jivan ko sanvarati hai - k di mehanat, nishtha aur tyag.
  • tin chizean kisi bhi insan ko barabad kar sakati hai - sharab, ghamand aur krodh.
  • tin chijoan se bachane ki koshish karani chahiye – buri sangat, svarth aur ninda.
  • koee bhi kary karane se pahale – socho, samajho, phir karo.


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh


tika tippani aur sandarbh

sanbandhit lekh