धृतराष्ट्र का वनगमन: Difference between revisions
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पांडवों के लौटने के उपरांत धृतराष्ट्र आदि [[हरिद्वार]] चले गये। धृतराष्ट्र मुँह में पत्थर का टुकड़ा रखकर केवल वायु का आहार करने लगे, गांधारी मात्र जल लेती थी, कुंती माह में एक बार और संजय दो दिन बाद तीसरे दिन एक बार भोजन करते थे। एक दिन वे चारों गंगा में स्नान करके चुके थे कि चारों ओर वन में दावाग्नि का प्रकोप फैल गया। धृतराष्ट्र ने संजय को वहाँ से भाग जाने का आदेश दिया तथा स्वयं गांधारी तथा कुंती के साथ पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये। वे तीनों योगयुक्त होकर अग्नि में भस्म हो गये। संजय तापसों को इस दुर्घटना का समाचार देकर हिमालय की ओर चले गये। पांडवों ने उनकी हड्डियाँ चुनकर नदी में प्रवाहित की तथा उनका श्राद्ध किया।<ref> महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 1, श्लोक 94-95, उद्योगपर्व 20 से 34, स्त्रीपर्व, 1 से 12, आश्रमपर्व, 5-20, 33-39</ref> | पांडवों के लौटने के उपरांत धृतराष्ट्र आदि [[हरिद्वार]] चले गये। धृतराष्ट्र मुँह में पत्थर का टुकड़ा रखकर केवल वायु का आहार करने लगे, गांधारी मात्र जल लेती थी, कुंती माह में एक बार और संजय दो दिन बाद तीसरे दिन एक बार भोजन करते थे। एक दिन वे चारों गंगा में स्नान करके चुके थे कि चारों ओर वन में दावाग्नि का प्रकोप फैल गया। धृतराष्ट्र ने संजय को वहाँ से भाग जाने का आदेश दिया तथा स्वयं गांधारी तथा कुंती के साथ पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये। वे तीनों योगयुक्त होकर अग्नि में भस्म हो गये। संजय तापसों को इस दुर्घटना का समाचार देकर हिमालय की ओर चले गये। पांडवों ने उनकी हड्डियाँ चुनकर नदी में प्रवाहित की तथा उनका श्राद्ध किया।<ref> महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 1, श्लोक 94-95, उद्योगपर्व 20 से 34, स्त्रीपर्व, 1 से 12, आश्रमपर्व, 5-20, 33-39</ref> | ||
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पांडवों ने विजयी होने के उपरांत धृतराष्ट्र तथा गांधारी की पूर्ण तन्मयता से सेवा की। पांडवों में से भीमसेन ऐसे थे जो सबकी चोरी से धृतराष्ट्र को अप्रिय लगने वाले काम करते रहते थे, कभी-कभी सेवकों से भी धृष्टतापूर्ण मंत्रणाएँ करवाते थे। धृतराष्ट्र धीरे-धीरे दो दिन या चार दिन में एक बार भोजन करने लगे। पंद्रह वर्ष बाद उन्हें इतना वैराग्य हुआ कि वे वन जाने के लिए छटपटाने लगे। वे और गांधारी युधिष्ठिर तथा व्यास मुनि से आज्ञा लेकर वन में चले गये। चलते समय जयद्रथ तथा पुत्रों का श्राद्ध करने के लिए वे धन लेना चाहते थे। भीम देना नहीं चाहता था तथापि युधिष्ठिर आदि भीमेतर पांडवों ने उन्हें दान-दक्षिणा के लिए यथेच्छ धन ले लेने के लिए कहा। धृतराष्ट्र और गांधारी ने वन के लिए प्रस्थान किया तो कुंती भी उनके साथ हो ली। पांडवों के कितनी ही प्रकार के अनुरोध को टालकर उसने गांधारी का हाथ पकड़ लिया। कुंती ने पांडवों से कहा कि वह अपने पति के युग में पर्याप्त भोग कर चुकी है, वन में जाकर तप करना ही उसके लिए श्रेयस्कर है। पांडवों को चाहिए कि वे उदारता तथा धर्म के साथ राज्य का पालन करें। वे तीनों कुरुक्षेत्र स्थित मर्हिष शतयूप के आश्रम में पहुँचे। शतयूप केकय का राज्य-सिंहासन अपने पुत्र को सौपंकर वन में रहने लगे थे। तदनंतर व्यास से वनवास की दीक्षा लेकर धृतराष्ट्र आदि शतयूप के आश्रम में रहने लगे। घूमते हुए नारद उस आश्रम में पहुँचे। उन्होंने बताया कि इंद्रलोक की चर्चा थी कि धृतराष्ट्र के जीवन के तीन वर्ष शेष रह गये हैं। तदुपरांत वे कुबेर के लोक में जायेगें।
सपरिवार पांडव उनके दर्शन करने वन में पहुँचे। वे लोग धृतराष्ट्र के आश्रम पर एक मास तक रहें इसी मध्य विदुर ने शरीर त्याग दिया तथा एक रात व्यास मुनि सबको गंगा के तट पर ले गये। गंगा में प्रवेश कर उन्होंने महाभारत के समस्त मृत सैनिकों का आवाहन किया। उन सबके दर्शन करने के लिए व्यास ने धृतराष्ट्र को दिव्य नेत्र प्रदान किये। जो नारियाँ अपने मृत पति का लोक प्राप्त करना चाहती थीं, उन्होंने गंगा में गोता लगाया तथा वे शरीर त्याग उनके साथ ही चली गयीं। प्रात:काल से पूर्व ही आहूत वीर अंतर्धान हो गये।
पांडवों के लौटने के उपरांत धृतराष्ट्र आदि हरिद्वार चले गये। धृतराष्ट्र मुँह में पत्थर का टुकड़ा रखकर केवल वायु का आहार करने लगे, गांधारी मात्र जल लेती थी, कुंती माह में एक बार और संजय दो दिन बाद तीसरे दिन एक बार भोजन करते थे। एक दिन वे चारों गंगा में स्नान करके चुके थे कि चारों ओर वन में दावाग्नि का प्रकोप फैल गया। धृतराष्ट्र ने संजय को वहाँ से भाग जाने का आदेश दिया तथा स्वयं गांधारी तथा कुंती के साथ पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये। वे तीनों योगयुक्त होकर अग्नि में भस्म हो गये। संजय तापसों को इस दुर्घटना का समाचार देकर हिमालय की ओर चले गये। पांडवों ने उनकी हड्डियाँ चुनकर नदी में प्रवाहित की तथा उनका श्राद्ध किया।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 1, श्लोक 94-95, उद्योगपर्व 20 से 34, स्त्रीपर्व, 1 से 12, आश्रमपर्व, 5-20, 33-39