उर्स: Difference between revisions

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* उर्स [[मुसलमान|मुसलमानों]] के मतानुसार किसी फ़कीर, महात्मा, पीर आदि के मरने के दिन का कृत्य या उत्सव होता है।  
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* इस दिन संबंधित फ़कीर या पीर की दरगाह की सफाई करके उसे सजाया जाता है और मुसलमान लोग नमाज़ पढ़ने के बाद उस पर चिराग जलाते या चादरें चढ़ाते हैं।  
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* तत्पश्चात्‌ वहाँ [[संगीत]]<ref>क़व्वाली)</ref> का कार्यक्रम रखा जाता है। [[भारत]] में [[अजमेर]] और पिरानकलियर के उर्स बहुत प्रसिद्ध हैं जहाँ देश भर के कव्वाल तथा गायक-गायिकाएँ आती हैं और अपने संगीत से उपस्थित जनसमुदाय का मनोरंजन करती हैं।
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'''उर्स''' से अभिप्राय है- "किसी फ़कीर, महात्मा, पीर आदि मृत्यु के दिन का कृत्य या उत्सव"। [[मुस्लिम]] समुदाय में यह दिन बहुत ही पाक और पवित्र माना जाता है। इस दिन संबंधित फ़कीर या पीर की दरगाह की साफ-सफाई करके उसे सुन्दरता के साथ सजाया जाता है। मुस्लिम समुदाय के लोग [[नमाज़]] पढ़ने के बाद दरगाह पर चिराग आदि जलाते और चादरें चढ़ाते हैं। उर्स के दिन दरगाह में [[संगीत]] ([[क़व्वाली]]) आदि का कार्यक्रम रखा जाता है। [[भारत]] में [[अजमेर]] और पिरानकलियर के उर्स बहुत प्रसिद्ध हैं, जहाँ देश भर के कव्वाल तथा गायक-गायिकाएँ आती हैं और अपने संगीत से उपस्थित जनसमुदाय का मनोरंजन करती हैं।
==अजमेर उर्स==
दक्षिण एशिया में सामान्यत: 'उर्स' किसी सूफ़ी संत की पुण्य तिथि पर उसकी दरगाह पर वार्षिक रूप से आयोजित किये जाने वाले 'उत्सव' को कहा जाता है। दक्षिण एशियाई सूफ़ी संत मुख्य रूप से 'चिश्तिया' कहे जाते हैं। ये सूफ़ी संत परमेश्वर के प्रेमी समझे जाते हैं। सूफ़ी संत की मृत्यु को 'विसाल' पुकारा जाता है, जिसका अर्थ है- "प्रेमियों का मिलाप"। [[भारत]] के [[राजस्थान]] में [[अजमेर]] में [[ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती]] की दरगाह में होने वाला 'अजमेर उर्स' विश्व प्रसिद्ध है। यह उर्स [[हिन्दू]]-[[मुस्लिम]] एकता और विश्वशांति का प्रतीक है। यह उर्स आपसी भाईचारे की सबसे बड़ी पहचान है। महान् सूफ़ी संत हजरत ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चढ़ाए जाने वाले [[फूल]] [[पुष्कर]] से आते हैं तो पुष्कर पर चढ़ाई जाने वाली [[पूजा]] सामग्री की खीलें दरगाह ख़्वाजा साहब के बाज़ार से ही जाती हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता और आपसी भाईचारे की इससे अधिक अच्छी मिसाल और कोई नहीं हो सकती है। अजमेर में कभी भी हिन्दू-मुस्लिम तनाव नहीं देखा गया। यहाँ के बहुत-से गैर मुस्लिम [[रमजान]] के मास में दरगाह में आकर रोजा खोलते हैं।
====कौमी एकता का प्रतीक====
प्राचीन काल में अजमेर का राज्य बड़ा विस्तृत था, इसीलिए कहा जाता रहा है-<br />
<blockquote>"अजमेरा रे मायने चार चीज सरनाम, ख़्वाजा साहब की दरगाह कहिए, पुष्कर का असनान मकराणा में पत्थर निपजे, सांभर लूण की खान।"</blockquote>
 
इन चार मुख्य स्थानों में ख़्वाजा साहब की दरगाह को अधिक महत्व दिया गया है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि [[अजमेर]] आने वाले लगभग सभी लोग दरगाह आया करते हैं। इसीलिए 'होली बायोग्राफी' के लेखक मिर्ज़ा वहीदुद्दीन बेग ने ख़्वाजा साहब की दरगाह को कौमी एकता का सदाबहार सरचश्मा कहा है। यह अजमेर नगर में जड़े [[हीरा|हीरे]] की भांति है। ख़्वाजा के दरबार में [[वर्ष]] भर आने वाले यात्रियों का तांता लगा रहता है। दरगाह के गोल गुंबद पर लगा स्वर्ण कलश मानो दूर से ही आने वाले जायरीनों को आमंत्रित करता है। फिर रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, शहर के मुख्य स्थानों, दरगाह बाज़ार और दरगाह के द्वार पर ग़रीब नवाज की दरगाह के खादिम भक्तों की अगवानी के लिए तैयार रहते हैं। शायद इसी खिदमत की भावना को ध्यान में रखते हुए 'राजस्थान राज्य पर्यटन विकास निगम' द्वारा अपने टूरिस्ट बंगलों का नाम भी 'खादिम पर्यटक विश्राम' रखा गया है। अरबी माह [[रजब]] की एक से छ: तारीख तक ग़रीब नवाज [[ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती|ख़्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती]] के उर्स मेले के मौके पर तो अजमेर और ख़ासतौर से [[मुईनुद्दीन चिश्ती दरगाह|दरगाह शरीफ]] और दरगाह बाज़ार की रौनक देखते ही बनती है।
====जन्नती दरवाज़ा====
[[चित्र:Dargah-Ajmer-Sharif.jpg|thumb|300px|उर्स के दौरान दरगाह पर आकर्षक विद्युतीय सजावट]]
[[अजमेर]] में उर्स का आगाज़ चाँद रात और [[रजब]] का महीना शुरू होते ही किया जाता है। ख़्वाजा के अकीदमंदों के लिए सबसे विशेष बात ये भी रहती है कि इस दिन से दरगाह में पहुँचने वाले जायरीनों के लिए 'जन्नती दरवाज़ा' भी खोला जाता है। इस जन्नती दरवाज़े से गुजरने के लिए देश-विदेश से अकीदतमंद सूफ़ी संत के दर पर पहुँचते हैं। ख़्वाजा ग़रीब नवाज के दर से हमेशा भाईचारे का संदेश ही लोगों के बीच पहुँचता है। इस दर पर हर धर्म, समुदाय के जायरीन अकीदत के लिए पहुँचते हैं। अजमेर उर्स के दौरान लाखों की संख्या में जायरीन ख़्वाजा ग़रीब नवाज के दर पर पहुँचते हैं। ऐसी मान्यता है कि ख़्वाजा के पर दर सच्चे दिल से जिसने जो भी मांगा ख़्वाजा ने उसकी मुराद ज़रूर पूरी की है। उर्से के दिनों से दरगाह के 'शाहजानी मस्जिद' के पास बने जन्नती दरवाज़े से गुजर कर जायरीन ख़्वाजा के संदल की भी तमन्ना रखते हैं, जो सिर्फ़ साल में एक बार उर्स के दौरान ही उतारा जाता है। उर्स के इन दिनों में लाखों की संख्या में देसी-विदेशी जायरीन [[अजमेर]] पहुँचते हैं। जायरीनों के लिए इस दौरान कोई तकलीफ़ या परेशानी न हो, इसके लिए भी ख़ास इंतज़ामात किए जाते हैं।


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*[http://www.p7news.com/states/8972-801-urs-festival-start-in-ajmer.html अजमेर में 801वाँ उर्स]
*[http://www.rajasthanpatrika.com/news/home-page/522013/urs-special-train-by-nw-railway/456131 उर्स रेल सेवा का संचालन]
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
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Latest revision as of 07:05, 9 May 2018

उर्स
अनुयायी मुस्लिम
तिथि अजमेर में उर्स का आगाज़ चाँद रात और रजब का महीना शुरू होते ही किया जाता है।
धार्मिक मान्यता सामान्यत: 'उर्स' किसी सूफ़ी संत की पुण्य तिथि पर उसकी दरगाह पर वार्षिक रूप से आयोजित किये जाने वाले 'उत्सव' को कहा जाता है।
संबंधित लेख मुईनुद्दीन चिश्ती, मुईनुद्दीन चिश्ती दरगाह
अन्य जानकारी राजस्थान के अजमेर में ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में होने वाला 'अजमेर उर्स' विश्व प्रसिद्ध है। यह उर्स हिन्दू-मुस्लिम एकता और विश्वशांति का प्रतीक है। यह उर्स आपसी भाईचारे की सबसे बड़ी पहचान है।

उर्स से अभिप्राय है- "किसी फ़कीर, महात्मा, पीर आदि मृत्यु के दिन का कृत्य या उत्सव"। मुस्लिम समुदाय में यह दिन बहुत ही पाक और पवित्र माना जाता है। इस दिन संबंधित फ़कीर या पीर की दरगाह की साफ-सफाई करके उसे सुन्दरता के साथ सजाया जाता है। मुस्लिम समुदाय के लोग नमाज़ पढ़ने के बाद दरगाह पर चिराग आदि जलाते और चादरें चढ़ाते हैं। उर्स के दिन दरगाह में संगीत (क़व्वाली) आदि का कार्यक्रम रखा जाता है। भारत में अजमेर और पिरानकलियर के उर्स बहुत प्रसिद्ध हैं, जहाँ देश भर के कव्वाल तथा गायक-गायिकाएँ आती हैं और अपने संगीत से उपस्थित जनसमुदाय का मनोरंजन करती हैं।

अजमेर उर्स

दक्षिण एशिया में सामान्यत: 'उर्स' किसी सूफ़ी संत की पुण्य तिथि पर उसकी दरगाह पर वार्षिक रूप से आयोजित किये जाने वाले 'उत्सव' को कहा जाता है। दक्षिण एशियाई सूफ़ी संत मुख्य रूप से 'चिश्तिया' कहे जाते हैं। ये सूफ़ी संत परमेश्वर के प्रेमी समझे जाते हैं। सूफ़ी संत की मृत्यु को 'विसाल' पुकारा जाता है, जिसका अर्थ है- "प्रेमियों का मिलाप"। भारत के राजस्थान में अजमेर में ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में होने वाला 'अजमेर उर्स' विश्व प्रसिद्ध है। यह उर्स हिन्दू-मुस्लिम एकता और विश्वशांति का प्रतीक है। यह उर्स आपसी भाईचारे की सबसे बड़ी पहचान है। महान् सूफ़ी संत हजरत ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चढ़ाए जाने वाले फूल पुष्कर से आते हैं तो पुष्कर पर चढ़ाई जाने वाली पूजा सामग्री की खीलें दरगाह ख़्वाजा साहब के बाज़ार से ही जाती हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता और आपसी भाईचारे की इससे अधिक अच्छी मिसाल और कोई नहीं हो सकती है। अजमेर में कभी भी हिन्दू-मुस्लिम तनाव नहीं देखा गया। यहाँ के बहुत-से गैर मुस्लिम रमजान के मास में दरगाह में आकर रोजा खोलते हैं।

कौमी एकता का प्रतीक

प्राचीन काल में अजमेर का राज्य बड़ा विस्तृत था, इसीलिए कहा जाता रहा है-

"अजमेरा रे मायने चार चीज सरनाम, ख़्वाजा साहब की दरगाह कहिए, पुष्कर का असनान मकराणा में पत्थर निपजे, सांभर लूण की खान।"

इन चार मुख्य स्थानों में ख़्वाजा साहब की दरगाह को अधिक महत्व दिया गया है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि अजमेर आने वाले लगभग सभी लोग दरगाह आया करते हैं। इसीलिए 'होली बायोग्राफी' के लेखक मिर्ज़ा वहीदुद्दीन बेग ने ख़्वाजा साहब की दरगाह को कौमी एकता का सदाबहार सरचश्मा कहा है। यह अजमेर नगर में जड़े हीरे की भांति है। ख़्वाजा के दरबार में वर्ष भर आने वाले यात्रियों का तांता लगा रहता है। दरगाह के गोल गुंबद पर लगा स्वर्ण कलश मानो दूर से ही आने वाले जायरीनों को आमंत्रित करता है। फिर रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, शहर के मुख्य स्थानों, दरगाह बाज़ार और दरगाह के द्वार पर ग़रीब नवाज की दरगाह के खादिम भक्तों की अगवानी के लिए तैयार रहते हैं। शायद इसी खिदमत की भावना को ध्यान में रखते हुए 'राजस्थान राज्य पर्यटन विकास निगम' द्वारा अपने टूरिस्ट बंगलों का नाम भी 'खादिम पर्यटक विश्राम' रखा गया है। अरबी माह रजब की एक से छ: तारीख तक ग़रीब नवाज ख़्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती के उर्स मेले के मौके पर तो अजमेर और ख़ासतौर से दरगाह शरीफ और दरगाह बाज़ार की रौनक देखते ही बनती है।

जन्नती दरवाज़ा

thumb|300px|उर्स के दौरान दरगाह पर आकर्षक विद्युतीय सजावट अजमेर में उर्स का आगाज़ चाँद रात और रजब का महीना शुरू होते ही किया जाता है। ख़्वाजा के अकीदमंदों के लिए सबसे विशेष बात ये भी रहती है कि इस दिन से दरगाह में पहुँचने वाले जायरीनों के लिए 'जन्नती दरवाज़ा' भी खोला जाता है। इस जन्नती दरवाज़े से गुजरने के लिए देश-विदेश से अकीदतमंद सूफ़ी संत के दर पर पहुँचते हैं। ख़्वाजा ग़रीब नवाज के दर से हमेशा भाईचारे का संदेश ही लोगों के बीच पहुँचता है। इस दर पर हर धर्म, समुदाय के जायरीन अकीदत के लिए पहुँचते हैं। अजमेर उर्स के दौरान लाखों की संख्या में जायरीन ख़्वाजा ग़रीब नवाज के दर पर पहुँचते हैं। ऐसी मान्यता है कि ख़्वाजा के पर दर सच्चे दिल से जिसने जो भी मांगा ख़्वाजा ने उसकी मुराद ज़रूर पूरी की है। उर्से के दिनों से दरगाह के 'शाहजानी मस्जिद' के पास बने जन्नती दरवाज़े से गुजर कर जायरीन ख़्वाजा के संदल की भी तमन्ना रखते हैं, जो सिर्फ़ साल में एक बार उर्स के दौरान ही उतारा जाता है। उर्स के इन दिनों में लाखों की संख्या में देसी-विदेशी जायरीन अजमेर पहुँचते हैं। जायरीनों के लिए इस दौरान कोई तकलीफ़ या परेशानी न हो, इसके लिए भी ख़ास इंतज़ामात किए जाते हैं।


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