कुम्भकर्ण: Difference between revisions

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Revision as of 05:13, 27 May 2010

कुंभकर्ण रावण का भाई तथा विश्ववा का पुत्र था। कुंभकर्ण की ऊंचाई छह सौ धनुष तथा मोटाई सौ धनुष थी। उसके नेत्र गाड़ी के पहिये के बराबर थे। [1]उसका विवाह वेरोचन की कन्या 'व्रज्रज्वाला' से हुआ था।[2] वह जन्म से ही अत्यधिक बलवान थां उसने जन्म लेते ही कई हज़ार प्रजा जनों को खा डाला थां उसे बेहद भूख लगती थी और वह मनुष्य और पशुओं को खा जाता था। उससे डरकर प्रजा इन्द्र की शरण में गयी कि यदि यही स्थिति रही तो पृथ्वी ख़ाली हो जायेगी। इन्द्र से कुंभकर्ण का युद्ध हुआ। उसने ऐरावत हाथी के दांत को तोड़कर उससे इन्द्र पर प्रहार किया। उससे इन्द्र जलने लगा। [3] कुंभकर्ण ने घोर तपस्या से ब्रह्मा को प्रसन्न कर लिया अत: जब वे उसे वर देने के लिए जाने लगे तो इन्द्र तथा अन्य सब देवताओं ने उनसे वर न देने की प्रार्थना की क्योंकि कुंभकर्ण से सभी लोग परेशान थे। ब्रह्मा बहुत चिंतित हुए। उन्होंने सरस्वती से कुंभकर्ण की जिह्वा पर प्रतिष्ठित होने के लिए कहा। फलस्वरूप ब्रह्मा के यह कहने पर कि कुंभकर्ण वर मांगे- उसने अनेक वर्षों तक सो पाने का वर मांगा। ब्रह्मा ने वर दिया कि वह निरंतर सोता रहेगा। छह मास के बाद केवल एक दिन के लिए जागेगा। भूख से व्याकुल वह उस दिन पृथ्वी पर चक्कर लगाकर लोगों का भक्षण करेगा। [4]

रामायण में कुंभकर्ण

राम की सेना से युद्ध करने के लिए कुंभकर्ण को जगाया गया था। वह अत्यंत भूखा था। उसने वानरों को खाना प्रारंभ किया। उसका मुंह पाताल की तरह गहरा था। वानर कुंभकर्ण के गहरे मुंह में जाकर उसके नथुनों और कानों से बाहर निकल आते थे। अंततोगत्वा राम युद्धक्षेत्र में उतरे। उन्होंने पहले बाणों से हाथ, फिर पांव काटकर कुंभकर्ण को पंगु बना दिया। तदनंतर उसे अस्त्रों से मार डाला। उसके शव के गिरने से लंका का बाहरी फाटक और परकोटा गिर गया। [5] कुंभपुर के महोदर नामक राजा की कन्या तडित्माला से कुंभकर्ण का विवाह हुआ। कुंभपुर में उसके सुंदर कानों को देखकर किसी व्यक्ति ने उसे प्रेम से बुलाया था इस लिए वह 'कुंभकर्ण' नाम से प्रसिद्ध हुआ।[6]


टीका-टिप्पणी

  1. बाल्मीकि रामायण सर्ग 65, श्लोक 41
  2. बाल्मीकि रामायण, उत्तर कांड, सर्ग 12, श्लोक सं0 22,23
  3. बाल्मीकि रामायण, युद्ध कांड, सर्ग 61, श्लोक 12 से 28 तक
  4. बाल्मीकि रामायण, उत्तर कांड, सर्ग 10, श्लोक 36-49
  5. बाल्मीकि रामायण, युद्ध कांड, सर्ग 66,67
  6. पउम चरित 8।55-60।–