ईश्वर-वाद: Difference between revisions
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'''ईश्वरवाद''' संसार की सृष्टि, स्थिति और संहार के कर्ता एवं अनुग्रह और निग्रह के कारणस्वरूप सच्चिदानंदमय, अनंत शक्तिसमन्वित सत्ताविशेष से संबंधित सिद्धांत। इस सिद्धांत के अनुसार ईश्वर की सत्ता स्वयंसिद्ध एवं अनिवार्य है। यद्यपि कारयकार्यवाद के अनुसार भी ईश्वर की सत्ता स्वत:सिद्ध हो जाती है तथापि कुछ मत ईश्वर को केवल निमित्त कारण मानते हैं और कुछ उपादान कारण भी। सृष्टि की सोद्देश्यता और नियमबद्धता से यह प्रमाणित होता है कि इसके पीछे एक बुद्धिमान् समर्थ सत्ता है। वह सत्ता विश्वात्म है, ज्योतिम्रय है, अमरणधर्मा है, ज्ञाता, सर्वज्ञ तथा भुवनों का पालक एवं नियामक है। वह आत्मा में भी स्थित है और विश्वधाम भी है। जिस प्रकार वह भी अपने से ही उत्पन्न तंतुओं से अपने को ही समावृत कर लेती है, उसी प्रकार वह भी अपने से ही उत्पन्न नाना रूपनामकर्मों से अपने को आवृत कर लेता है। वह सभी प्राणियों में संवृत है। वह सर्वव्यापी, सर्वभूतांतरात्मा, सर्वभूताधिवासी, अधिष्ठाता, साक्षी, द्रष्टा एवं चेतनत्व प्रदान करनेवाला है। भारतीय साहित्य में श्वेताश्वतरोपनिषद् में इस प्रकार के विस्तृत विचार मिलते हैं जिनके आधार पर भारतीय ईश्वरवाद की स्थापना की जा सकती है। परवर्ती काल में इस ईश्वरवाद का विविध रूपों में प्रचार प्रसार हुआ, विशेषकर दसवीं शताब्दी के उपरांत इसका विस्तृत व्याख्यान विविध आयामों के साथ भारतीय साहित्य में दिखाई पड़ता है। भक्ति के विविध संप्रदायों के मूल में इसकी धारा प्रवाहित है। इसके अन्य भारतीय प्रमाणग्रंथों में श्रीमद्भगवद्गीता, नारद एवं शांडिल्य के भक्तिसूत्र, रामानुजादि आचार्यों के विविध ग्रंथों की गणना की जा सकती है। भारतीय दार्शनिक आचार्यों में से उदयनाचार्य, उत्पलदेव, अभिनवगुप्तपादाचार्य, यामुनाचार्य, लोकाचार्य, वेदांतदेशिकाचार्य, श्रीनिवासाचार्य आदि ने अपने-अपने ग्रंथों में ईश्वरवाद का दृढ़तापूर्वक सतर्क मंडन किया है। प्राचीन ईसाई तथा अन्य अनेक धर्मों के ग्रंथों में इस सिद्धांत का विस्तार से विविधपक्षीय विवेचन मिलता है। इन सारे विवेचनों, व्याख्यानों एवं मंडनात्मक ऊहापोह के वाङ्मय के आलोड़न से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है इस सिद्धांत के मंडन के लिए युक्ति और अनुमान के साथ ही प्रत्यय की भी आवश्यकता है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=42 |url=}}</ref> | |||
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Latest revision as of 08:13, 30 June 2018
ईश्वरवाद संसार की सृष्टि, स्थिति और संहार के कर्ता एवं अनुग्रह और निग्रह के कारणस्वरूप सच्चिदानंदमय, अनंत शक्तिसमन्वित सत्ताविशेष से संबंधित सिद्धांत। इस सिद्धांत के अनुसार ईश्वर की सत्ता स्वयंसिद्ध एवं अनिवार्य है। यद्यपि कारयकार्यवाद के अनुसार भी ईश्वर की सत्ता स्वत:सिद्ध हो जाती है तथापि कुछ मत ईश्वर को केवल निमित्त कारण मानते हैं और कुछ उपादान कारण भी। सृष्टि की सोद्देश्यता और नियमबद्धता से यह प्रमाणित होता है कि इसके पीछे एक बुद्धिमान् समर्थ सत्ता है। वह सत्ता विश्वात्म है, ज्योतिम्रय है, अमरणधर्मा है, ज्ञाता, सर्वज्ञ तथा भुवनों का पालक एवं नियामक है। वह आत्मा में भी स्थित है और विश्वधाम भी है। जिस प्रकार वह भी अपने से ही उत्पन्न तंतुओं से अपने को ही समावृत कर लेती है, उसी प्रकार वह भी अपने से ही उत्पन्न नाना रूपनामकर्मों से अपने को आवृत कर लेता है। वह सभी प्राणियों में संवृत है। वह सर्वव्यापी, सर्वभूतांतरात्मा, सर्वभूताधिवासी, अधिष्ठाता, साक्षी, द्रष्टा एवं चेतनत्व प्रदान करनेवाला है। भारतीय साहित्य में श्वेताश्वतरोपनिषद् में इस प्रकार के विस्तृत विचार मिलते हैं जिनके आधार पर भारतीय ईश्वरवाद की स्थापना की जा सकती है। परवर्ती काल में इस ईश्वरवाद का विविध रूपों में प्रचार प्रसार हुआ, विशेषकर दसवीं शताब्दी के उपरांत इसका विस्तृत व्याख्यान विविध आयामों के साथ भारतीय साहित्य में दिखाई पड़ता है। भक्ति के विविध संप्रदायों के मूल में इसकी धारा प्रवाहित है। इसके अन्य भारतीय प्रमाणग्रंथों में श्रीमद्भगवद्गीता, नारद एवं शांडिल्य के भक्तिसूत्र, रामानुजादि आचार्यों के विविध ग्रंथों की गणना की जा सकती है। भारतीय दार्शनिक आचार्यों में से उदयनाचार्य, उत्पलदेव, अभिनवगुप्तपादाचार्य, यामुनाचार्य, लोकाचार्य, वेदांतदेशिकाचार्य, श्रीनिवासाचार्य आदि ने अपने-अपने ग्रंथों में ईश्वरवाद का दृढ़तापूर्वक सतर्क मंडन किया है। प्राचीन ईसाई तथा अन्य अनेक धर्मों के ग्रंथों में इस सिद्धांत का विस्तार से विविधपक्षीय विवेचन मिलता है। इन सारे विवेचनों, व्याख्यानों एवं मंडनात्मक ऊहापोह के वाङ्मय के आलोड़न से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है इस सिद्धांत के मंडन के लिए युक्ति और अनुमान के साथ ही प्रत्यय की भी आवश्यकता है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 42 |