धमेख स्तूप

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धमेख स्तूप सारनाथ, उत्तर प्रदेश में स्थित है। यह वाराणसी से 13 किलोमीटर की दूरी पर है। इस स्तूप के निकट ही मौर्य सम्राट अशोक का एक स्तम्भ भी है। ऐसा माना जाता है कि डीयर पार्क में स्थित धमेख स्तूप ही वह स्थान है, जहाँ भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को प्रथम उपदेश दिया था। इस स्तूप को छ: बार बड़ा किया गया था। इसके बावजूद भी इसका ऊपरी हिस्सा अधूरा ही रहा। इस स्तूप की नींव अशोक के समय में रखी गई थी। इसका विस्तार कुषाण काल में हुआ, लेकिन गुप्त काल में यह पूर्णत: तैयार हुआ।

निर्माण

धमेख स्तूप का निर्माण 500 ईस्वी में सम्राट अशोक द्वारा 249 ईसा पूर्व बनाए गए एक स्तूप व अन्य कई स्मारकों के स्थान पर किया गया था। दरअसल सम्राट अशोक ने अपने शासनकाल में कई स्तूप बनवाए। इन स्तूपों में गौतम बुद्ध से जुड़ी निशानियाँ रखी गईं थीं। यहाँ पास में ही एक अशोक स्तंभ भी है। ऐसा माना जाता है कि डीयर पार्क में स्थित धमेख स्तूप ही वह जगह है, जहाँ भगवान बुद्ध ने ज्ञान की प्राप्ति के बाद अपने शिष्यों को पहला उपदेश दिया था। यहीं पर उन्होंने आर्य अष्टांग मार्ग की अवधारणा को बतलाया था, जिस पर चलकर व्यक्ति मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। इस स्तूप को छ: बार बड़ा किया गया। इसके बावजूद इसका ऊपरी हिस्सा अधूरा ही रहा।

नामकरण

'धमेक' (धमेख) शब्द की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों का मत है कि यह संस्कृत के ‘धर्मेज्ञा’ शब्द से निकला है। किंतु 11 वीं शताब्दी की एक मुद्रा पर ‘धमाक जयतु’ शब्द मिलता है, जिससे उसकी उत्पत्ति का ऊपर लिखे शब्द से संबंधित होना संदेहास्पद लगता है। इस मुद्रा में इस स्तूप को 'धमाक' कहा गया है। इसे लोग बड़ी आदर की दृष्टि से देखते थे और इसकी पूजा करते थे। कनिंघम ने ‘धमेख’ शब्द को संस्कृत शब्द ‘धर्मोपदेशक’ का संक्षिप्त रूप स्वीकार किया है। उल्लेखनीय है कि बुद्ध ने सर्वप्रथम यहाँ ‘धर्मचक्र’ प्रारंभ किया था। अत: ऐसा संभव है कि इस कारण ही इसका नाम 'धमेख' पड़ा हो।

जुआनच्वांग का कथन

एक चीनी यात्री जुआनच्वांग ने पांचवीं शताब्दी में सारनाथ का भ्रमण किया था। उन्होंने लिखा है कि- "उस समय कॉलोनी में 1500 से ज्यादा धर्माचार्य थे और मुख्य स्तूप करीब 300 फीट ऊंचा था।"

स्थापत्य

धमेख स्तूप एक ठोस गोलाकार बुर्ज की भाँति है। इसका व्यास 28.35 मीटर (93 फुट) और ऊँचाई 39.01 मीटर (143 फुट) है। 11.20 मीटर तक इसका घेरा सुंदर अलंकृत शिलापट्टों से आच्छादित है। इसका यह आच्छादन कला की दृष्टि से अत्यंत सुंदर एवं आकर्षक है। अलंकरणों में मुख्य रूप से स्वस्तिक, नन्द्यावर्त सदृश विविध आकृतियाँ और फूल-पत्ती के कटाव की बेलें हैं। इस प्रकार के वल्लरी प्रधान अलंकरण बनाने में गुप्त काल के शिल्पी पारंगत थे। इस स्तूप की नींव अशोक के समय में पड़ी। इसका विस्तार कुषाण काल में हुआ, लेकिन गुप्त काल में यह पूर्णत: तैयार हुआ। यह साक्ष्य पत्थरों की सजावट और उन पर गुप्त लिपि में अंकित चिह्नों से निश्चित होता है।

शिलापट्ट

कनिंघम ने सर्वप्रथम इस स्तूप के मध्य खुदाई कराकर 0.91 मीटर (3 फुट) नीचे एक शिलापट्ट प्राप्त किया था। इस शिलापट्ट पर सातवीं शताब्दी की लिपि में ये धर्महेतु प्रभवा मंच अंकित था। इस स्तूप में प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 8 ½ इंच X 2 ¼ इंच आकार की हैं।[34]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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