तेभागा आन्दोलन

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तेभागा आन्दोलन बंगाल का प्रसिद्ध किसान आन्दोलन था। वर्ष 1946 ई. का यह आन्दोलन सर्वाधिक सशक्त आन्दोलन था, जिसमें किसानों ने 'फ्लाइड कमीशन' की सिफ़ारिश के अनुरूप लगान की दर घटाकर एक तिहाई करने के लिए संघर्ष शुरू किया था। यह आन्दोलन जोतदारों के विरुद्ध बंटाईदारों का आन्दोलन था। इस आन्दोलन के महत्त्वपूर्ण नेता 'कम्पाराम सिंह' एवं 'भवन सिंह' थे।

किसान आन्दोलन

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

बंगाल का 'तेभागा आंदोलन' फ़सल का दो-तिहाई हिस्सा उत्पीडि़त बटाईदार किसानों को दिलाने का आंदोलन था। यह बंगाल के 28 में से 15 ज़िलों में फैला, विशेषकर उत्तरी और तटवर्ती सुन्दरबन क्षेत्रों में। 'किसान सभा' के आह्वान पर लड़े गए इस आंदोलन में लगभग 50 लाख किसानों ने भाग लिया और इसे खेतिहर मजदूरों का भी व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ। सन 1946 वह वर्ष था, जब भारत के लोगों के आंदोलन बड़े पैमाने पर उमड़ रहे थे। केन्द्रीय नौसेना हड़ताल समिति के आह्वान पर फ़रवरी में बम्बई, कराची और मद्रास के नौसैनिकों की हड़ताल हुई। जब बम्बई के बन्दरगाह मजदूरों ने इसका समर्थन किया तो बकौल नौसेना हड़ताल कमेटी, पहली बार सैनिकों और आम आदमियों का रक्त एक ही उद्देश्य के लिए सड़कों पर बहा, जिसमें लगभग 250 लोग मारे गए।

गाँधीजी की प्रेरणा

सितम्बर, 1946 में 'किसान सभा' ने तेभागा चाई का आह्वान किया। यह अगस्त, 1946 में कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में हुए साम्प्रदायिक कत्लेआम के तुरन्त बाद किया गया, जिसके बाद अक्टूबर में पूर्वी ज़िले नोवाखौली में भी साम्प्रदायिक दंगे हुए। आन्दोलन के मुख्य इलाके की किसान जनता हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों की थी। आदिवासी किसानों ने भी इसमें भाग लिया। यह आन्दोलन अंग्रेज़ शासन के दौरान शुरू हुआ, जब मुस्लिम लीग का सुहरावर्दी मंत्रिमंडल राज कर रहा था। जब महात्मा गाँधी हिन्दू–मुस्लिम मैत्री और प्रार्थना सभाओं का नारा लेकर सामन्तों के साथ नोवाखौली के ग्रामीण अंचल में दौरा कर रहे थे। तब इस वर्ग संघर्ष ने दोनों सम्प्रदायों के दसियों लाख किसानों को प्रेरित करके अपने पीछे समेट लिया।

किसानों का फ़सलों पर कब्जा

इस संघर्ष ने उन सभी जमींदारों को निशाना बनाया, जो साम्प्रदायिक घृणा फैलाने में सक्रिय रहे। इस संघर्ष ने तमाम प्रतिकूल दुष्प्रचार तथा साम्प्रदायिक उकसावे का मुकाबला करते हुए वर्गीय आधार पर जनता की वास्तविक एकता स्थापित की और साम्प्रदायिक शक्तियों को हतोत्साहित कर दिया। किसानों ने तीव्र पुलिस दमन और अत्याचार का मुकाबला करते हुए नवम्बर, 1946 से फ़रवरी, 1947 के बीच फ़सल के दो-तिहाई हिस्से पर अपने कब्जे को बरकरार रखा।


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