मौनवाद

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 11:16, 22 September 2015 by प्रभा तिवारी (talk | contribs) (''''मौनवाद''' ईसाई धर्म की एक रहस्यवादी प्रवृति है, जि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

मौनवाद ईसाई धर्म की एक रहस्यवादी प्रवृति है, जिसमें आंतरिक शांति को ईश्वर के अनुछाव का माध्यम माना गया था। वस्तुत: यह प्रवृत्ति अपने ढंग की अकेली न थी। ईसाई धर्म के इतिहास से पता चलता है कि वह मानव के आत्मिक विकास का ही उद्देश्य लेकर नहीं, वरन्‌ धार्मिक राज्य की स्थापना के निमित्त भी मैदान में उतरा था। अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिये रोम के धार्मिक नियमों के अधीन रखने का प्रयत्न किया। यह असंभव की कल्पना थी, खास तौर से जबकि प्रधानत: बौद्धिक यूनानी दर्शन का विकास हो चुका था। रोम और यूनान के बीच राजनीतिक संबंध भी थे। फलत: रोम का धर्म संघ एक ओर अपनी राजनीतिक सत्ता एवं दंड नीति के द्वारा यूरोप की जनता को अपने अनुशासन में रखने का प्रयत्न करता रहा और दूसरी ओर उन्नतिशील विज्ञान और दर्शन उस अनुशासन की अबौद्धिकता की ओर संकेत करते रहे। संघ की सीमाओं में ही धर्म की बौद्धिक व्याख्याएँ विकसित होती रहीं और अंधविश्वासों के विरूद्ध धीमी आवाजें बराबर सुनाई देती रहीं।

सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में यूरोप के धार्मिक इतिहास में एक उथल पुथल मच गई। यहाँ तक कि पुराने कैथलिक धर्म के समर्थकों और विरोधियों में भेद कर पाना कठिन हो जाता है। 1529 ई० में मार्टिन लूथर के 'विरोध' (प्रोटेस्ट) के बाद, सुधारवादी प्रवृत्ति पूर्ण रूप से जाग उठी। विरोध और सुधार के स्वरों में अंतर कम हो गया और यूरोपीय धर्म जगत्‌ में नवजागरण की लहर दौड़ गई।

इस जागरण काल में, लूथर के अनुयायी फ़िलिप स्पेनर ने 1675 ई० में एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था 'प्रभु को प्रसन्न करने के लिये इंजील के धर्मसंघ में सुधार करने की हार्दिक इच्छा' । स्पेनर का उद्देश्य अंध विश्वास और शास्त्रार्थ दोनों से हटकर, अनुभव और भावना पर बल देना था। उसका मत पवित्रतावाद (पायटिज्म़) के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी समय, स्पेन के एक धर्मशास्त्री माइकेल द मॉलीनॉस (1640-97) ने, जो कैथलिक मतानुयायीश् था, अपनी 'आध्यात्मिक पथप्रदर्शिका' (गाइडा स्पिरिचुएल) नामक पुस्तक प्रकाशित की। उसने भी धर्म की आनुभविक व्याख्या की। रहस्यवादी प्रवृत्ति मध्यकाल से ही पनप रही थी। संत टामस एक्वीनस (1227-74) ने अपनी 'सुम्मा थियोलोजिया' में मानसिक भावन (कंटेंप्लेशन ) को 'नित्य सत्य का सरल रूप' स्वीकार किया था। अन्य रहस्यवादी संतों ने भी बाह्यचार की अपेक्षा सुस्थिर, शांत क्षणों के अनुभव पर बल दिया था।

सोलहवीं शताब्दी में स्पेन के नारी संत टेरेजा (1515-82) ने मानसिक शांति, अथवा मौनावस्था की विशेष रूप से व्याख्या की थी। उसने बताया था कि यह निष्क्रियता नहीं, 'व्यस्त विश्राम' की अवस्था है, जिसमें आत्मा अपनी उच्छ्रंखल वासनाओं को त्याग कर उसी प्रकार ईश्वरोन्मुख हो जाती है, जैसे सीपी सागर का जल पीने के लिये अपना मुँह खेल देती है। संत टेरेज़ाश् ने इस मौन में मन की ग्राहक अवस्था (पैसिव स्टेट) को आवश्यक माना था तथा तो उसने सीपी की भाँति मुँह खोलकर सागर का जल लेने की बात की थी।

मॉलीनॉस ने संत टेरेज़ा के मौन की और स्पष्ट करने की चेष्टा की। उसने धारणा (मेडीटेशन) और भावन (कंटेंप्लेशन) में अंतर करते हुए बताया कि पहली अवस्था बौद्धिक है। मन इसमें सक्रिय रूप से ईसाई विश्वासों में उलझा रहता है। भावन की अवस्था में वह प्रभु के प्रेम में डूब जाता हैं। उसे ईश्वर का अपरोक्षानुभव अथवा साक्षात्कार होता है। वह ईश्वर से संबंद्ध हो जाता है। मॉलीनॉस के अनुसार, मौन की अवस्था में सभी प्रयोजनों, इच्छाओं, विचारों और संकल्पों का अभाव हो जाता है। यह सांसारिक वस्तुओं से पूर्ण विराम की अवस्था है।

अपने विचारों के लिये, मॉलीनॉस को 1685 ई० में 'होली इंक्वीज़िशन' के सामने जाना पड़ा। उसे आजीवन कारावास भुगतान पड़ा। वहीं 1697 में उसकी मृत्यु हुई। किंतु, मौनवादी आंदोलन का अंत न हुआ। मॉलीनॉस के विचारों ने फ्रांस की मैडम गुयाँ (1648-1717) को प्रभावित किया। वह एक धनी परिवार की सुशिक्षित महिला थी, जो वैवाहिक जीवन सुखमय न होने से धर्म की ओर मुड़ गई थी। उसने मौन के निषेधात्मक पक्ष को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया। अपने अनुयायी फेनेलॉन (1651-1715)श् को उसने एक पत्र में बताया था कि उद्बोधन के क्षण से उसे अपनी मौन प्रार्थनाओं में कभी किसी आकार, विचार या बिंब की चेतना नहीं हुई। इस तत्व का संकेत मॉलीनॉस की 'पथ प्रदर्शिका' में भी था। उसने लिखा था कि ईश्वर का ज्ञान स्वीकारोक्तियों से अधिक निषेद्यों से होता है। फेनेलॉन ने अपने उपदेशोंश् में मौनवाद के निषेधात्मक पक्ष को ही स्पष्ट किया।

मैडम गुयाँ से प्रभाव में आने के पूर्व वह कैथलिक संघ की ओर से नियुक्त 'अंत:करण का निदेशक' (डाइरेक्टर ऑव कांशेंस) था। किंतु 1689 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'संतों की सूक्तियाँ' (मैक्जिज़ाम्स ऑवसेंट्स) में उसने 'शुद्ध मानसिक भावन' के लिए लिखा कि 'यह एक निषेधात्मक अवस्था हैं। इसमें किसी इंद्रियसंवेद्य वस्तु का बिंब, कोई नामाख्य विचार नहीं रहता। यह सत्ता के शुद्ध बौद्धिक एवं सूक्ष्म विचार की स्थिति है'। यूरोपीय अध्येताओं के विचार से फेनेलॉन के हाथ में पड़कर यह मत भारतीय बौत्द्ध मत की भाँति शून्यवादी हो गया था।

इस प्रकार, यह मत मौन की उपलब्धि के लिये, दो मानसिक प्रवृत्तियों का अभ्यास आवश्यक समझता है- ग्राहकता (पैसिविटी) तथा उदासीनता (डिस्‌इंटरेस्टेडनेस्‌) । किंतु, इन सबसे अधिक महत्व उस क्षण का है, जिसमें संत टेरेजा या मैडम गुयाँ को बोध हुआ था। यह एक विरला क्षण है, जिसमें आत्मा ईश्वर के प्रति अपना पूर्ण समर्पण कर दती है। आत्मा का यह समर्पण बार बार नहीं होता। इसलिये मौनवादी इसे ¢एकहि कर्म¢ (द वन ऐक्ट) कहते हैं। इस कर्म के बाद मौन की अवस्था स्वाभाविक हो जाती है।

सत्रवहीं और अट्ठारहवीं शताब्दियों में मौनवाद स्पेन और फ़ांस के धार्मिक जागरण की एक सबल प्रवृत्ति समझा जाता रहा। किंतु इस प्रकार की सभी प्रवृत्तियों का उद्देश्य धार्मिक अनुशासन कम करना तथा मनुष्य की बौद्धिक स्वतंत्रता की रक्षा करना था। इसलिये इन उद्देश्यों की पूर्ति के साथ साथ धार्मिक आंदोलन की विविध प्रवृत्तियों का भी लोप होता गया।

सं०ग्र० - समुचित अध्ययन के लिये, 'द केंब्रिज मॉडर्न हिस्ट्री' भाग 5, अध्याय 4 तथा जेम्स हेस्टिंग्ज की 'एनसाइक्लोपीडिया ऑव रेलीजन ऐंड एथिक्स'श् में 'क्वायटिज्म़' पर लेख। [1]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मौनवाद (हिंदी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 22 सितम्बर, 2015।

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः