संयोग -वैशेषिक दर्शन: Difference between revisions

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Latest revision as of 11:53, 23 August 2011

महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।

संयोग का स्वरूप

जब दो द्रव्य इस प्रकार समीपस्थ होते हैं कि उनके बीच कोई व्यवधान न हो तो उनके मेल को संयोग कहते हैं। इस प्रकार संयोग एक सामान्य गुण है, जो दो द्रव्यों पर आश्रित रहता है। संयोग अव्याप्यवृत्ति होता है। उदाहरणतया पुस्तक और मेज का संयोग दो द्रव्यों से सम्बद्ध होता हे, किन्तु यह संयोग दोनों द्रव्यों को पूर्ण रूप से नहीं घेरता, केवल उनके एक देश में रहता है। मेज के साथ पुस्तक के एक पार्श्व का और पुस्तक के साथ मेज के एक भाग का ही संयोग होता है। संयोग को केवल व्यवधानाभाव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि व्यवधानाभाव तो कुछ दूर पर स्थित द्रव्यों में भी हो सकता है। किन्तु संयोग में तो व्यवधानाभाव तो कुछ दूर पर स्थित द्रव्यों में भी हो सकता है। किन्तु संयोग में तो व्यवधानाभाव के साथ ही मेल होना भी आवश्यक है।

  • संयोग तीन प्रकार का होता है-
  1. अन्यतरकर्मज,
  2. उभयकर्मज और
  3. संयोगज-संयोगकर्मज।
  • संयोगनाश के दो कारण होते हैं-
  1. आश्रय का नाश और
  2. विभाग।
  • संयोग का यह वर्गीकरण वैशेषिक दृष्टि से है। नैयायिकों के अनुसार तो संयोग के दो भेद होते हैं- जन्य और अजन्य। जन्य संयोग के तीन उपभेद होते हैं-
  1. अन्यतर कर्मज,
  2. उभयकर्मज और
  3. संयोगज।
  • अजन्य संयोग विभु द्रव्यों में होता है और उसका कोइर अवान्तर भेद नहीं होता। वैशेषिक दर्शन आकाश, काल आदि विभु द्रव्यों के नित्य संयोग के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता। विभु द्रव्यों में विप्रकर्ष भी नहीं है और विभुत्व के कारण उनमें संयोग मानना भी व्यर्थ है। आशय यह है कि वैशेषिक मत में नित्य एवं विभु द्रव्यों का परस्पर संयोग नहीं होता। फलस्वरूप आकाश का आत्मा के साथ अथवा दो आत्मा का परस्पर संयोग नहीं होता।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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