दोर्जे गाईड की बातें -अजेय: Difference between revisions

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उधर बड़ी गड़बड़ है  
उधर बड़ी गड़बड़ है  
गड़बड़ पंजाब से उठ कर कश्मीर चली गई है जनाब
गड़बड़ पंजाब से उठ कर कश्मीर चली गई है जनाब
लेकिन हमारे पहाड़ शरीफ हैं  
लेकिन हमारे पहाड़ शरीफ़ हैं  
सर उठा कर जीते हैं  
सर उठा कर जीते हैं  
सब को पानी पिलाते हैं  
सब को पानी पिलाते हैं  
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सच महाराज , आँखों से तो नहीं......  
सच महाराज , आँखों से तो नहीं......  
कहते हैं  
कहते हैं  
गलती से जो कोई देख भी लेता है  
ग़लती से जो कोई देख भी लेता है  
वहीं बरफ हो जाता है  
वहीं बरफ हो जाता है  
‘अगनी’ कसम !!  
‘अगनी’ कसम !!  
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Latest revision as of 13:17, 26 January 2017

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दोर्जे गाईड की बातें -अजेय
कवि अजेय
जन्म स्थान (सुमनम, केलंग, हिमाचल प्रदेश)
बाहरी कड़ियाँ आधिकारिक वेबसाइट
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
अजेय की रचनाएँ

इस से आगे ?
इस से आगे तो कुछ नहीं है सर !
यह इस देश का आखिरी छोर है
इधर बगल मे तिबत है
ऊपर की तरफ कश्मीर
उधर जहाँ सूरज डूब गया है अभी अभी
और जहाँ यह नदी भागती चली जा रही है
वहाँ जम्मू है
उधर बड़ी गड़बड़ है
गड़बड़ पंजाब से उठ कर कश्मीर चली गई है जनाब
लेकिन हमारे पहाड़ शरीफ़ हैं
सर उठा कर जीते हैं
सब को पानी पिलाते हैं
और दूर से इतने दिलकश दिखते हैं
पर ज़रा रुक कर देखो यहाँ .......
नहीं सर , वह वैसा नहीं है
जैसा कि अदीब लिखता है -- भोर की प्रथम किरणों की स्वर्णाभा
शंख धवल मौन शिखर
स्वप्न लोक, रहस्यस्थली
वगैरा वगैरा
      जिसे हाथों से छू लेने की इच्छा रखते हो
वो वैसा खमोश नहीं है
जैसा कि दिखता है

बड़ी हलचल है वहाँ दरअसल
बड़े बड़े चट्टान
गहरे नाले और खड्ड
खतरनाक पगडण्डिय़ाँ है
बरफ के टीले और ढूह
भरभरा कर गिरते रहते हैं
गहरी खाईयों में
बड़ी ज़ोर की हवा चलती है
हड्डियाँ काँप जातीं हैं महाराज
साक्षात ‘शीत’ रहता है वहाँ !

यहाँ सब उस से डरते हैं
वह बरफ का आदमी
बरफ की छड़ी ठकठकाता
ठीक सकराँद के दिन
गाँव से गुज़रते हुए
संगम में नहाता है
इक्कीस दिनों तक सोई रहतीं हैं नदियाँ
दुबक कर बरफ की रज़ाई में
थम जाता है चन्द्र भागा का शोर
परिन्दे तक कूच कर जाते हैं
रोहताँग के पार
तन्दूर के इर्द गिर्द हुक़्क़ा गुडगुड़ाते बुज़ुर्ग
गुप चुप बच्चों को सुनाते हैं
‘शीत’ की आतंक कथा .

नहीं सर
झूठ क्यों बोलना ?
अपनी आँखों से नहीं देखा है उसे
पर सब कहते हैं
घर लौटते हुए कभी चिपक जाता है
मवेशियों की छाती पर
औरतें और बच्चे
भुर्ज की टहनियों से डंगरों को झाड़्ते हैं --
“बरफ की डलियाँ तोड़ो
‘डैहला’ के हार पहनो
शीत देवता
अपने ‘ठार’ जाओ
बेज़ुबानों को छोड़ो”

सच महाराज , आँखों से तो नहीं......
कहते हैं
ग़लती से जो कोई देख भी लेता है
वहीं बरफ हो जाता है
‘अगनी’ कसम !!

अब थोड़ा अलाव ताप लो सर ,
इस से आगे कुछ नहीं है
देश के इस आखिरी छोर पर
‘शीत’ तो है
और उस से डरना भी है
पर लड़ना भी है
यहाँ सब उस से लड़ते हैं जनाब
आप भी लड़ो .


1999

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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