आर्यदेव बौद्धाचार्य: Difference between revisions
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'''आर्यदेव''' लंका के महाप्रज्ञ एकचक्षु भिक्षु थे, जो अपनी ज्ञानपिपासा शांत करने के लिए नालंदा के आचार्य नागार्जुन के पास पहुँचे। आचार्य ने उनकी प्रतिभा की परीक्षा करने के लिए उनके पास स्वच्छ जल से पूर्ण एक पात्र भेज दिया। आर्यदेव ने उसमें एक सुई डालकर उसे इन्हीं के पास लौटा दिया। आचार्य बड़े प्रसन्न हुए और उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार किया। जलपूर्ण पात्र से उनके ज्ञान की निर्मलता और पूर्णता का संकेत किया गया था और उसमें सूई डालकर उन्होंने निर्देश किया कि वे उस ज्ञान तक पहुँचना चाहते हैं। आर्यदेव आचार्य [[नागार्जुन बौद्धाचार्य|नागार्जुन]] के पट्ट शिष्यों में से अन्यतम हैं। इनके और नागार्जुन के दर्शन में कुछ भी अन्तर नहीं है। उन्होंने नागार्जुन के दर्शन को ही सरल भाषा में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है। इनकी रचनाओं में 'चतु:शतक' प्रमुख है, जिसे 'योगाचार चतु:शतक' भी कहते हैं। [[चन्द्रकीर्ति]] के ग्रन्थों में इसका 'शतक' या 'शतकशास्त्र' के नाम से भी उल्लेख है। ह्रेनसांग ने इसका चीनी भाषा में अनुवाद किया था। [[संस्कृत]] में यह ग्रन्थ पूर्णतया उपलब्ध नहीं है। सातवें से सोलहवें प्रकरण तक भोट भाषा से संस्कृत में रूपान्तरित रूप में उपलब्ध होता है। यह रूपान्तरण भी शत-प्रतिशत ठीक नहीं है। प्रश्नोत्तर शैली में माध्यमिक सिद्धान्त बड़े ही रोचक ढंग से आर्यदेव ने प्रतिपादित किये हैं। कुछ प्रश्न तो ऐसे हैं, जिन्हें आज के विद्वान् भी उपस्थित करते हैं, जिनका आर्यदेव ने सुन्दर समाधान किया है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=440 |url=}}</ref> | |||
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ह्रेनसांग के अनुसार ये सिंहल देश से भारत आये थे। इनकी एक ही आंख थी, इसलिए इन्हें काणदेव भी कहा जाता था। इनके देव एवं नीलनेत्र नाम भी प्रसिद्ध थे। कुमारजीव ने ई.सन 405 में इनकी जीवनी का अनुवाद चीनी भाषा में किया था। 'चित्तविशुद्धिप्रकरण' ग्रन्थ भी इनकी रचना है- ऐसी प्रसिद्धि है। 'हस्तवालप्रकरण' या 'मुष्टिप्रकरण' भी इनका ग्रन्थ माना जाता है। परम्परा में जितना नागार्जुन को प्रामाणिक माना जाता है, उतना ही आर्यदेव को भी। इन दोनों आचार्यों के ग्रन्थ माध्यमिक परम्परा में 'मूलशास्त्र' या 'आगम' के रूप में माने जाते हैं। | ह्रेनसांग के अनुसार ये सिंहल देश से [[भारत]] आये थे। इनकी एक ही आंख थी, इसलिए इन्हें काणदेव भी कहा जाता था। इनके देव एवं नीलनेत्र नाम भी प्रसिद्ध थे। [[कुमारजीव]] ने ई.सन 405 में इनकी जीवनी का अनुवाद चीनी भाषा में किया था। 'चित्तविशुद्धिप्रकरण' ग्रन्थ भी इनकी रचना है- ऐसी प्रसिद्धि है। 'हस्तवालप्रकरण' या 'मुष्टिप्रकरण' भी इनका ग्रन्थ माना जाता है। परम्परा में जितना नागार्जुन को प्रामाणिक माना जाता है, उतना ही आर्यदेव को भी। इन दोनों आचार्यों के ग्रन्थ माध्यमिक परम्परा में 'मूलशास्त्र' या 'आगम' के रूप में माने जाते हैं। | ||
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Latest revision as of 08:48, 19 June 2018
आचार्य आर्यदेव
आर्यदेव लंका के महाप्रज्ञ एकचक्षु भिक्षु थे, जो अपनी ज्ञानपिपासा शांत करने के लिए नालंदा के आचार्य नागार्जुन के पास पहुँचे। आचार्य ने उनकी प्रतिभा की परीक्षा करने के लिए उनके पास स्वच्छ जल से पूर्ण एक पात्र भेज दिया। आर्यदेव ने उसमें एक सुई डालकर उसे इन्हीं के पास लौटा दिया। आचार्य बड़े प्रसन्न हुए और उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार किया। जलपूर्ण पात्र से उनके ज्ञान की निर्मलता और पूर्णता का संकेत किया गया था और उसमें सूई डालकर उन्होंने निर्देश किया कि वे उस ज्ञान तक पहुँचना चाहते हैं। आर्यदेव आचार्य नागार्जुन के पट्ट शिष्यों में से अन्यतम हैं। इनके और नागार्जुन के दर्शन में कुछ भी अन्तर नहीं है। उन्होंने नागार्जुन के दर्शन को ही सरल भाषा में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है। इनकी रचनाओं में 'चतु:शतक' प्रमुख है, जिसे 'योगाचार चतु:शतक' भी कहते हैं। चन्द्रकीर्ति के ग्रन्थों में इसका 'शतक' या 'शतकशास्त्र' के नाम से भी उल्लेख है। ह्रेनसांग ने इसका चीनी भाषा में अनुवाद किया था। संस्कृत में यह ग्रन्थ पूर्णतया उपलब्ध नहीं है। सातवें से सोलहवें प्रकरण तक भोट भाषा से संस्कृत में रूपान्तरित रूप में उपलब्ध होता है। यह रूपान्तरण भी शत-प्रतिशत ठीक नहीं है। प्रश्नोत्तर शैली में माध्यमिक सिद्धान्त बड़े ही रोचक ढंग से आर्यदेव ने प्रतिपादित किये हैं। कुछ प्रश्न तो ऐसे हैं, जिन्हें आज के विद्वान् भी उपस्थित करते हैं, जिनका आर्यदेव ने सुन्दर समाधान किया है।[1]
ह्रेनसांग के अनुसार
ह्रेनसांग के अनुसार ये सिंहल देश से भारत आये थे। इनकी एक ही आंख थी, इसलिए इन्हें काणदेव भी कहा जाता था। इनके देव एवं नीलनेत्र नाम भी प्रसिद्ध थे। कुमारजीव ने ई.सन 405 में इनकी जीवनी का अनुवाद चीनी भाषा में किया था। 'चित्तविशुद्धिप्रकरण' ग्रन्थ भी इनकी रचना है- ऐसी प्रसिद्धि है। 'हस्तवालप्रकरण' या 'मुष्टिप्रकरण' भी इनका ग्रन्थ माना जाता है। परम्परा में जितना नागार्जुन को प्रामाणिक माना जाता है, उतना ही आर्यदेव को भी। इन दोनों आचार्यों के ग्रन्थ माध्यमिक परम्परा में 'मूलशास्त्र' या 'आगम' के रूप में माने जाते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 440 |