परमार वंश: Difference between revisions

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मालवा के परमार वंशी शासक सम्भवतः [[राष्ट्रकूट वंश|राष्ट्रकूटों]] या फिर [[गुर्जर प्रतिहार वंश|प्रतिहारों]] के समान थे। इस वंश के प्रारम्भिक शासक उपेन्द्र, वैरसिंह प्रथम, सीयक प्रथम, वाक्पति प्रथम एवं वैरसिंह द्वितीय थे। उपेन्द्र अथवा कृष्णराज परमार वंश का संस्थापक था। परमारों की प्रारम्भिक राजधानी [[उज्जैन]] में थी पर कालान्तर में राजधानी '''धारा''', [[मध्य प्रदेश]] में स्थानान्तरित कर ली गई। इस वंश का प्रथम स्वतंत्र एवं प्रतापी राजा '''सीयक अथवा श्रीहर्ष''' था। उसने अपने वंश को राष्ट्रकूटों की अधीनता से मुक्त कराया।
'''परमार वंश''' का आरम्भ नवीं [[शताब्दी]] के प्रारम्भ में [[नर्मदा नदी]] के उत्तर मालवा (प्राचीन [[अवन्ती]]) क्षेत्र में उपेन्द्र अथवा कृष्णराज द्वारा हुआ था।  
*[[वाक्पति मुंज]] (973 से 995 ई.)
इस वंश के शासकों ने 800 से 1327 ई. तक शासन किया। [[मालवा]] के परमार वंशी शासक सम्भवतः [[राष्ट्रकूट वंश|राष्ट्रकूटों]] या फिर [[गुर्जर प्रतिहार वंश|प्रतिहारों]] के समान थे।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय इतिहास कोश |लेखक= सच्चिदानन्द भट्टाचार्य|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=233|url=}}</ref>
*[[भोज]] (1000 से 1055 ई.)
वाक्पति मुंज (973 से 995 ई.)- मंज सीयक का दत्तक पुत्र एवं उत्तराधिकारी था। उसने कलचुरी शासक युवराज द्वितीय तथा चालुक्य राजा तैलप द्वितीय को युद्व में परास्त किया। तैलप को मंजु ने करीब 6 बार युद्ध में परास्त किया था। सातवी बार युद्ध में बन्दी बनाकर उसकी हत्या कर दी गयी। इस घटना का उल्लेख अभिलेखों एवं आइना-ए-अकबरी में मिलता है। उसका काल परमारों के लिए गौरव का काल था। मंजु ने श्री वल्लभ, पृथ्वी वल्लभ, अमोघवर्ष आदि उपाधियां धारण की। कौथेम दानपात्र से विदित होता है कि उसने हूणों को भी पराजित किया था। मंजु एक सफल विजेता होने के साथ कवियों एवं विद्धानों का आश्रयदाता भी था। उसके राजदरबार में यशोरूपावलोक के रचयिता धनिक, नवसाहसांकचरित के लेखक पद्मगुप्त, दशरूपक के लेखक धनंजय आदि रहते थे। उसके बाद उसका छोटा भाई सिंधु राज शासक हुआ। उसने कुमार नारायण एवं साहसांक की उपाधि धारण की ।मूंज ने धारा में अपने नाम से 'मुज सागर' नामक तालाब का निर्माण कराया था।
भोज (1000 से 1055 ई.)- सिंधुराज का पुत्र एवं उत्तराधिकारी भोज परमार वंश का योग्य एवं प्रतापी शासक था। उसका कल्याणी के चालुक्य एवं अन्हिवाड़ के चालुक्यों से युद्ध हुआ। चालुक्य नरेश विक्रमादित्य चतुर्थ एवं कलचुरी राजा गांगेय देव को भोज ने पराजित किया जबकि चन्देल नरेश विद्याधर ने भोज को परास्त किया था। अन्ततः गुजरात के सोलंकी एवं त्रिपुरा के कलचुरी के संघ ने मिलकर भोज की राजधानी धारा पर दो ओर से आकमण कर राजधानी को नष्ट कर दिया। भोज के बाद शासक जयसिंह ने शत्रुओं के समक्ष आत्मसमर्पण कर मालवा से अपने अधिकार को खो दिया। भोज के साम्राज्य के अन्तर्गत मालवा, कोकण, खान देश, भिलसा, डूगंरपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था। भोज ने उज्जैन की जगह अपने नई राजधानी धारा को बनाया। भोज एक पराक्रमी शासक होने के साथ ही विद्वान एवं विद्या तथा कला का उदार संरक्षक था। अपनी विद्वता के कारण ही उसने कविराज की उपाधि धारण की । उसने कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथ जैसे- समरांगणसूत्रधार,सरस्वतीकंठाभरण, सिद्वान्तसंग्रह, राजकार्तड, योग्यसूत्रवृत्ति, विद्याविनोद, युक्तिकल्पतरु, चारुचर्चा, आदित्य प्रताप सिद्धान्त, आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश, प्राकृत व्याकरण, कूर्मशतक, श्रृंगार मंजरी, भोजचम्पू, कृत्यकल्पतरु, तत्वप्रकाश, शब्दानुशासन, राज्मृडाड आदि की रचना की। 'आईना-ए-अकबरी' के वर्णन के आधार पर माना जाता है कि उसके राजदरबार में लगभग 500 विद्धान थे। उसके दरबारी कवियों में भास्कर भट्ट, दामोदर मिश्र, धनपाल आदि प्रमुख थे। उसके बार में अनुश्रति थी कि वह हर एक कवि को प्रत्येक श्लोक पर एक लाख मुद्रायें प्रदान करता था। उसकी मृत्यु पर पण्डितों को हार्दिक दुखः हुआ, तभी एक प्रसिद्ध लोकोत्ति के अनुसार उसकी मृत्यु से विद्या एवं विद्वान, दोनों निराश्रित हो गये भोज ने अपनी राजधानी धारा को विद्या एवं कला के महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में स्थापित किया। यहां पर भोज ने अनेक महल एवं मन्दिरों का निर्माण करवाया, जिनमें सरस्वती मंदिर सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। उसके अन्य निर्माण कार्य केदारेश्वर, रामेश्वर, सोमनाथ सुडार आदि मंदिर हैं। इसके अतिरिक्त भोज ने भोजपुर नगर एवं भोजसेन नामक तालाब का भी निर्माण करवाया था। उसने त्रिभुवन नारायण, सार्वभौम, मालवा चक्रवर्ती जैसे विरुद्ध धारण किया था। उसने त्रिभुवन नारायण, सार्वभौम, मालवा चक्रवर्ती जैसे विरुद्ध धारण किया था। अपने नाम पर उसने भोजपुर नगर बसाया तथाएक बहुत बड़े भोजसर नामक तालाब को निर्मित कराया।


{{लेख प्रगति
*इस वंश के प्रारम्भिक शासक उपेन्द्र, वैरसिंह प्रथम, सीयक प्रथम, वाक्पति प्रथम एवं वैरसिंह द्वितीय थे।
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*परमारों की प्रारम्भिक राजधानी [[उज्जैन]] में थी पर [[कालान्तर]] में राजधानी '[[धार]]', [[मध्य प्रदेश]]  में स्थानान्तरित कर ली गई।
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*इस वंश का प्रथम स्वतंत्र एवं प्रतापी राजा 'सीयक अथवा श्रीहर्ष' था। उसने अपने वंश को राष्ट्रकूटों की अधीनता से मुक्त कराया।
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*परमार वंश में आठ राजा हुए, जिनमें सातवाँ [[वाक्पति मुंज]] (973 से 995 ई.) और आठवाँ मुंज का भतीजा [[भोज परमार|भोज]] (1018 से 1060 ई.) सबसे प्रतापी थी।
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*परमार राजा विशेष रूप से वाक्पति मुंज और भोज, बड़े विद्वान् थे और विद्वानों एवं कवियों के आश्रयदाता थे।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
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Latest revision as of 14:36, 6 July 2017

परमार वंश का आरम्भ नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में नर्मदा नदी के उत्तर मालवा (प्राचीन अवन्ती) क्षेत्र में उपेन्द्र अथवा कृष्णराज द्वारा हुआ था। इस वंश के शासकों ने 800 से 1327 ई. तक शासन किया। मालवा के परमार वंशी शासक सम्भवतः राष्ट्रकूटों या फिर प्रतिहारों के समान थे।[1]

  • इस वंश के प्रारम्भिक शासक उपेन्द्र, वैरसिंह प्रथम, सीयक प्रथम, वाक्पति प्रथम एवं वैरसिंह द्वितीय थे।
  • परमारों की प्रारम्भिक राजधानी उज्जैन में थी पर कालान्तर में राजधानी 'धार', मध्य प्रदेश में स्थानान्तरित कर ली गई।
  • इस वंश का प्रथम स्वतंत्र एवं प्रतापी राजा 'सीयक अथवा श्रीहर्ष' था। उसने अपने वंश को राष्ट्रकूटों की अधीनता से मुक्त कराया।
  • परमार वंश में आठ राजा हुए, जिनमें सातवाँ वाक्पति मुंज (973 से 995 ई.) और आठवाँ मुंज का भतीजा भोज (1018 से 1060 ई.) सबसे प्रतापी थी।
  • मुंज अनेक वर्षों तक कल्याणी के चालुक्य राजाओं से युद्ध करता रहा और 995 ई. में युद्ध में ही मारा गया। उसका उत्तराधिकारी भोज (1018-1060 ई.) गुजरात तथा चेदि के राजाओं की संयुक्त सेनाओं के साथ युद्ध में मारा गया। उसकी मृत्यु के साथ ही परमार वंश का प्रताप नष्ट हो गया। यद्यपि स्थानीय राजाओं के रूप में परमार राजा तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ तक राज्य करते रहे, अंत में तोमरों ने उनका उच्छेद कर दिया।
  • परमार राजा विशेष रूप से वाक्पति मुंज और भोज, बड़े विद्वान् थे और विद्वानों एवं कवियों के आश्रयदाता थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानन्द भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 233 |

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