रूप -वैशेषिक दर्शन: Difference between revisions
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Revision as of 07:30, 20 August 2011
महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।
रूप का स्वरूप
केवल चक्षु द्वारा ग्रहण किये जाने वाले विशेष गुण को रूप कहते हैं। यहाँ पर ग्रहण का आशय है लौकिक प्रत्यक्ष-योग्य जाति का आश्रय। दृष्ट वस्तु में परिमाणवत्ता, व्यक्तता तथा अन्य गुणों से अनभिभूतता होनी चाहिए तभी उसका रूप चक्षुग्रह्यि होगा। 'चक्षुमात्रि' शब्द के प्रयोग का यह आशय है कि चक्षु से भिन्न बहिरिन्द्रिय द्वारा रूप का ग्रहण नहीं होता। अन्तरिन्द्रिय मन पर यह बात लागू नहीं होती। रूप पृथ्वी, जल और तेज़ इन तीनों द्रव्यों में रहता है और शुक्ल, नील, रक्त, पीत, हरित, कपिश और चित्र भेद से सात प्रकार का होता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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