परत्व और अपरत्व-वैशेषिक दर्शन: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (श्रेणी:नया पन्ना (को हटा दिया गया हैं।))
 
Line 16: Line 16:
[[Category:वैशेषिक दर्शन]]
[[Category:वैशेषिक दर्शन]]
[[Category:दर्शन कोश]]
[[Category:दर्शन कोश]]
[[Category:नया पन्ना]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

Latest revision as of 14:15, 13 November 2014

महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।

परत्व और अपरत्व का स्वरूप

'यह पर है, यह अपर है'- इस प्रकार के व्यवहार का असाधारण कारण परत्व एवं अपरत्व है। वे दो प्रकार के हैं- दिक्कृत और (ख) कालकृत।

  1. दिक्कृत परत्व-अपरत्व- एक ही दशा में स्थित दो द्रव्यों में 'यह द्रव्य इस द्रव्य के समीप है'- इस प्रकार के ज्ञान के सहयोग से दिशा और वस्तु के संयोग द्वारा समीपस्थ वस्तु में अपरत्व उत्पन्न होता है। अपरत्व की उत्पत्ति का साधन सन्निकर्ष है। इसी प्रकार 'यह द्रव्य इस द्रव्य से दूर है'– ऐसी बुद्धि के सहयोग से दिग्द्रव्य के संयोग से विप्रकृष्ट द्रव्य में परत्व उत्पन्न होता है। परत्व की उत्पत्ति का साधन विप्रकर्ष है।
  2. कालकृत परत्व और अपरत्व

वर्तमान काल को आधार मानकर दो वस्तुओं या व्यक्तियों में एक अनियत दिशा में स्थित युवक तथा वृद्धि शरीरों में 'यह (युवक शरीर) इस (वृद्धि शरीर) की अपेक्षा अल्पतर काल से सम्बद्ध' है- इस प्रकार वृद्धिरूप निमित्तकारण के सहयोग से कालशरीर-रूप असमवायिकारण से युवा मनुष्य के शरीररूप आश्रय में अपरत्व उत्पन्न होता है तथा यह (वृद्ध शरीर) इस (युवक शरीर) की अपेक्षा अधिक काल से सम्बन्ध रखता है' इस प्रतीति से वृद्ध शरीर में परत्व उत्पन्न होता है। यह ज्ञातव्य है कि दिक्कृत परत्वापरत्व एक दिशा में स्थित दो द्रव्यों में ही उत्पन्न हुआ करते हैं, भिन्न-भिन्न दिशाओं में स्थित द्रव्यों में नहीं, किन्तु कालकृत परत्वापरत्व के लिए पिण्डों का एक ही दिशा में स्थित होना आवश्यक नहीं है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख