मदन मोहन मन्दिर वृन्दावन: Difference between revisions
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[[चित्र:madan-mohan-temple-1.jpg|मदन मोहन जी का मंदिर, वृन्दावन
Madan Mohan Temple, Vrindavan|thumb|200px]]
- निर्माण काल - संभवत: ई.1590 से 1627 के बीच (सही समय अज्ञात)
- निर्माता- राम दास खत्री या कपूरी निवासी मुलतान
पुरातनता में यह मंदिर गोविन्द देव जी के मंदिर के बाद आता है। निमार्ण के समय और शिल्पियों के संबन्ध में कुछ जानकारी नहीं है। प्रचलित कथाओं में आता है कि राम दास खत्री (कपूरी नाम से प्रचलित) व्यापारी की व्यापारिक सामान से लदी नाव यहाँ यमुना में फंस गयी थी। जो मदन मोहन जी के दर्शन और प्रार्थना के बाद निकल गयी। वापसी में रामदास ने मंदिर बनवाया। श्रीकृष्ण भगवान के अनेक नामों में से एक प्रिय नाम मदनमोहन भी है। इसी नाम से एक मंदिर कालीदह घाट के समीप शहर के दूसरी ओर ऊँचे टीले पर विद्यमान है। विशालकायिक नाग के फन पर भगवान चरणाघात कर रहे हैं। लक्ष्मणदास के भक्त-सिन्धु में इसकी कथा दी गयी है। यह भक्त-माल का आधुनिक संस्करण है। गोस्वामीपाद रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को गोविन्द जी की मूर्ति नन्दगाँव से प्राप्त हुई थी। यहाँ एक गोखिरख में से खोदकर इसे निकाला गया था, इससे इसका नाम गोविन्द हुआ। वहाँ से लाकर गोविन्द जी को ब्रहृकुण्ड के वर्तमान मंदिर की जगह पर पधराया गया। वृन्दावन उन दिनों बसा हुआ नहीं था। वे समीपर्वती गाँवों में तथा मथुरा भी भिक्षाटन हेतु जाते थे। एक दिन मथुरा के एक व्यक्ति ने उन्हें मदनमोहन की मूर्ति प्रदान की जिसे उन्होंने लाकर दु:शासन पहाड़ी पर कालीदह के पास पधार दिया। वहीं उन्होंने अपने रहने के लिये एक झोंपड़ी भी बना ली और उस जगह का नाम पशुकन्दन घाट रख दिया। क्योंकि मार्ग इतना ऊँचा-नीचा और ख़राब था कि कोई पशु भी नहीं जा सकता था। 'निचाऊ-ऊँचाऊ देखी विशेषन पशुकन्दन वह घाट कहाई, तहाँ बैठी मनसुख लहाई।' एक दिन पंजाब में मुल्तान का रामदास खत्री- जो कपूरी नाम से अधिक जाना जाता था, आगरा जाता हुआ व्यापार के माल से भरी नाव लेकर यमुना में आया किन्तु कालीदह घाट के पास रेतीले तट पर नाव अटक गयी। तीन दिनों तक निकालने के असफल प्रयासों के बाद वह स्थानीय देवता को खोजने और सहायता माँगने लगा। वह किनारे पर आकर पहाड़ी पर चढ़ा। वहाँ उसे सनातन मिले। सनातन ने व्यापारी से मदनमोहन से प्रार्थना करने का आदेश दिया। उसने ऐसा ही किया और तत्काल नाव तैरने लग गई। जब वह आगरे से माल बेचकर लौटा तो उसने सारा पैसा सनातन को अर्पण कर दिया और उससे वहाँ मंदिर बनाने की विनती की। मंदिर बन गया और लाल पत्थर का घाट भी बना।
मन्दिर का मध्य भाग 57 फ़ीट लम्बा और जगमोहन 20'x 20' वर्ग फीट पश्चिमी छोर पर तथा इसी लम्बाई चौड़ाई की पीछे पूजा स्थली है। मध्य भाग में तीन ओर तीन द्वार हैं और पूर्वी छोर पर एक वर्गाकार द्वार है जिसके बाहर 9 या 10 फीट का ढलान है। इसलिये प्रवेश द्वार किनारे की ओर से है। इसकी कुल उँचाई 22 फीट है। इसकी छत गिर गई है। जगमोहन की मीनार भी गिर चुकी है। इसके एकमेव द्वार पर एक पत्थर लगा है। जिस पर बंगाली और देवनागरी में अकिंत है। इस समय इसके उभरे अक्षर इतने मिट गये हैं कि कुछ भी स्पष्ट पठनीय नहीं है। पुजारियों ने इसकी कोई चिंता भी नहीं की। मन्दिर की आय लगभग दस हज़ार रुपये थी, जिसमें से आठ हज़ार रुपये भेंट न्यौछावर के होते थे और शेष स्थाई सम्पत्ति से आते थे। वृन्दावन-जैत मार्ग पर रामलाल नामक बाग़ इसकी सम्पत्ति में था। इसी मन्दिर की आय से राधाकुण्ड की शाखा भी व्यवस्थित होती थी। समय-समय पर मन्दिर का जीर्णोध्दार भी कराया जाता रहा है। पत्थरों की जब कमी हुई तो ईटों का प्रयोग किया है। दरवाज़े की एक बैठक पर कन्नौज के किसी यात्री की यात्रा का तिथी सूचक संवत 1684 वि0 लिखा है। सन् 1875 ई. में मन्दिर में काफ़ी सुधार किया गया। चढ़ने के लिये सीढियाँ बनाई गई। पुरानी बाउन्ड्री दीवार तोड़ दी गई।
[[चित्र:madan-mohan-temple-2.jpg|मदन मोहन जी का मंदिर, वृन्दावन
Madan Mohan Temple, Vrindavan|thumb|250px]]
मदनमोहन जी की मूल मूर्ति अब करौली में है। करौली में राजगोपाल सिंह ने 1725 ई. में उनके स्वागतार्थ नया मन्दिर बनवाया गया। जिस गुसाईं को मन्दिर का प्रभार सौंपा था, वह मुर्शिदाबाद का रामकिशोर था। इसके बाद मदनकिशोर रहा। करौली के मन्दिर से प्राभूत लगा है जिससे 27000 रुपये की वार्षिक आय होती थी। भगवान को दिन में सात बार भोग लगता है। मुख्य है दोपहर को राजभोग और रात को शयनभोग। शेष पाँच भोगों में से मिष्ठान आदि रहता है। सेवाकाल में मंगल आरती होती है। 9 बजे धूप, 11 बजे शृंगार, तीन बजे पुन: धूप, साँझ को सांध्य आरती होती है।
इस मन्दिर के प्रसंग में सूरदास नामक एक वैष्णव भक्त की एक घटना भक्तमाल में वर्णित हुई है। अकबर के शासन में वह संड़ीला का अमीन था। एक अवसर पर मन्दिर में आये पुजारियों और तीर्थ-यात्रियों के स्वागत में उसने अपने ज़िले का तमाम लगान व्यय कर डाला। ख़जाने के बक्स विधिवत् दिल्ली (अकबर की राजधानी आगरा थी। दिल्ली भूलवश लिखा गया प्रतीत होता है।) भेज दिये गये। जब वे खोले गये तो उनमें पत्थरों के अतिरिक्त और कुछ न निकला। हिन्दू मन्त्री टोड़रमल तक को यह अतिशय भक्ति पसंद न आ सकी और वह कारागार में ड़ाल दिया गया। कृपालु भगवान अपने इस भक्त सेवक को नहीं भूल सके और उन्होंने विशेषकर बादशाह को उसे कारागार से मुक्त करने के आदेश दिलाये। सूरदास की नारायण प्रशंसा मूल पाठ में इस प्रकार है। प्रियादास की टीका काफ़ी लम्बी है। [1] अर्थात् भगवान मदनमोहन और सूरदास नाम जंजीर की दो कड़ियों की भाँति अटल रूप में जोड़ दिये। सूरदास काव्य गुण और गान विद्या की राशि थे और सहचरी के अवतार थे। राधा-कृष्ण उनके उपास्य थे और रहस्य लीलाओं के आनन्द के अधिकारी थे। उन्होंने बहुविध नवरसों के प्रमुख श्रृंगार रस के प्रेमगीत अनेक भाँति गाये। मुख से नाम उच्चारण करते ही शृंगार सम्राट हज़ारों बार नंगे पैर दौड़े आये। दोंनो जुड़वां भाइयों (यमलार्जुन) की भाँति भगवान ने सूरदास की अटूट आस्था स्वीकारी और जंजीर की दो कड़ियों की भाँति मदनमोहन को सूरदास के नाम के साथ जोड़ दिया।
वीथिका
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मदन मोहन जी मंदिर, वृन्दावन
Madan Mohan Temple, Vrindavan -
मदन मोहन जी मंदिर, वृन्दावन
Madan Mohan Temple, Vrindavan -
मदन मोहन मन्दिर का मानचित्र, एफ़.एस.ग्राउस के अनुसार
Map Of Madan Mohan Temple By F.S.Growse -
मदन मोहन मंदिर, वृन्दावन
Madan Mohan Temple, Vrindavan
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मूल
श्रीमदनमोहन सूरदास की नाम शृंखला जोरी अटल।।
गांन काव्य गुन राशि सुंहृद सहचरि अवतारी।
राधाकृष्ण उपास्य रहस्य सुख के अधिकारी।।
नवरस मुख्य सिंगार विविध भांतिन करि गायौ।
बदन उच्चरत वेर सहस नाइन है धायौ।।
अंगीकार की अवधि यह ज्यौं आख्या भ्राता जलज।
श्री मदनमोहन सूरदास की नाम शृंखला जोरी अटल।।