कुंडलिनी: Difference between revisions
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Latest revision as of 08:25, 25 July 2018
कुंडलिनी परमेश्वर की चिद्रूपा परमाशक्ति प्रति जीवदेह में सोई पड़ी है। इसका नाम कुंडलिनी या कुलकुंडलिनी शक्ति है। यद्यपि जीव स्वरूपत: शिवरूप हैं, फिर भी जब तक यह शक्ति जगती नहीं तब तक वे आत्मविस्मृत रहते हैं एवं पशु के सदृश वेद्य शक्तियों द्वारा संचालित हो जड़वत स्थित रहते हैं। क्रमविकास के नियमानुसार 84 लाख योनियों का अतिक्रम हो जाने पर जब पशुभाव हटाने योग्य मनुष्यदेह की प्राप्ति होती है तब अहंभाव का उदय और कर्म में अधिकार उत्पन्न होता है। कुंडलिनी शक्ति मानवदेह में मेरु दंड के नीचे मूलाधार नामक चतुर्दश कुलकमल की कर्णिका में त्रिकोशस्थ अधोमुख स्वयंभूलिंग का साढ़े तीन वलयों के रूप में वेष्टन कर अपने मुंह से ब्रह्मद्वार को ढककर सोई हुई है।
दीर्घकालव्यापी तपस्या के प्रभाव से तथा भगवदनुग्रह होने पर इस शक्ति का जागरण होता है। उस समय वह सुप्तावस्था के कुंडलभाव का त्याग कर सरल गति से मेरुदंड के भीतर सषुम्ना नाड़ी का आश्रय पाकर ऊपर की ओर उठने लगती है और इसके साथ ही सत्व का विकास, भोगों में वैराग्य, विवेक, ज्ञान आदि सद्गुणों का आविर्भाव होने लगता है। ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक सब प्रकार के शब्दों तथा शुद्ध और अशुद्ध सब प्रकार की सृष्टियों का यही मूल है। यह बिंदु, महामाया तथा चिदाकाश के नाम से आगमों में प्रसिद्ध है। सद्गुरु का अनुग्रह होने पर उनसे प्रेरित चित्शक्ति के आघात को प्राप्त होकर यह अनादि निद्रा से जाग उठती है। नाद तथा ज्योति बिखरेती हुई यह मूलाधार से आज्ञाचक्र पर्यंत छह चक्रों का विद्युच्छिखा की भांति उल्लंघन कर भ्रूमध्यस्थ बिंदुस्थान में प्रकट होती है और अंत में ज्ञानचक्षु या तृतीय नेत्र का उन्मीलन करती है। तदुपरांत शिवशक्तिमय माहनाद का भेदकर शखिनी नाड़ी के शिखर में स्थित शून्य स्थान में ब्रह्मरध्रांतर्गत विसर्ग के निम्न प्रदेश में चिंदात्मक चंद्रमंडल में प्रविष्ट हो जाती है। इस मंडल में अत्यंत गुप्त शून्य स्थान में परमबिंदु अवस्थित है। इस महाज्ञान के अवलंबन से परमसंज्ञा के साक्षात्कार का मार्ग खुल जाता है।
सहस्रार के मध्यबिंदु में सत् और चित् सदा शिव शुद्ध विद्या के रूप में विराजमान रहते हैं। यह विद्या चंद्रमा की षोडश कला कही जाती है। सत् तथा चित् की नित्ययुक्तावस्था ही सामरस्य अथवा परमानंद है। यही योगी का परम लक्ष्य है। उत्थित कुंडलिनी की इस योगभूमि में स्थायी रूप से प्रतिष्ठित होने पर योगी का योगसाधन भलीभाँति सिद्ध हो जाता है।
कुंडलिनी के अध: तथा ऊर्ध्व के भेद से दो प्रकार हैं। अध: कुंडलिनी का दूसरा नाम है योगिनी चक्र। इसी स्थान में चिदग्नि की अभिव्यक्ति होती है। यह शक्तिसंकोच की परम अवस्था है। ऊर्ध्व कुंडलिनी शक्ति विकास की चरम अवस्था है। इस पद की प्राप्ति सूक्ष्म प्राणशक्ति की सहायता से भ्रूभेद करने के बाद हो सकती हैं। शक्ति के उत्थान के अनंतर उसकी व्याप्ति होती है। जब देश, काल तथा आकार सब प्रकार के परिच्छेद मिट जाते हैं और ईश्वरीय शक्तियों का स्वाभाविक उन्मेष हो जाता है।
अमृतबिंदु विगलित होकर सुधारस से समस्त देह को प्लावित करते हैं। इस अमृतधारा को चिदानंद का प्रवाह समझना चाहिए जो जाग्रत कुंडलिनी शक्ति तथा परमशिव के परस्पर सम्मिलित होने का फल है। इस शक्ति के जागरण से जीव का अनात्म में आत्मबोध रूप अज्ञान मिट जाता है एवं अंत में आत्मा में अनात्मरूप अज्ञान भी निवृत्त हो जाता है। उस समय जीव प्रबुद्ध होकर पूर्ण अहं अथवा परमात्मा के रूप में अपना अनुभव करने लगता है।
शक्तिकुंडलिनी, प्राणकुंडलिनी, पराकुंडलिनी, अपराकुंडलिनी आदि शक्तियों के विवरण के लिए तांत्रिक साहित्य द्रष्टव्य है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 3 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 47 |