चातुपरिशुद्धि शील बौद्ध निकाय: Difference between revisions
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शीलों के पालन से यद्यपि भिक्षु परिशुद्धशील हो जाता है, तथापि जो भिक्षु अल्पेच्छता, अल्पसन्तुष्टि आदि गुणों से युक्त होते हैं, वे यदि अपने शीलों को और पवित्र करना चाहते हैं, तो भगवान बुद्ध ने उनके लिए 13 प्रकार के परिशुद्ध शीलों अर्थात धुतांगों का उपदेश किया है। | शीलों के पालन से यद्यपि भिक्षु परिशुद्धशील हो जाता है, तथापि जो भिक्षु अल्पेच्छता, अल्पसन्तुष्टि आदि गुणों से युक्त होते हैं, वे यदि अपने शीलों को और पवित्र करना चाहते हैं, तो भगवान बुद्ध ने उनके लिए 13 प्रकार के परिशुद्ध शीलों अर्थात धुतांगों का उपदेश किया है। | ||
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Revision as of 06:42, 17 March 2011
बौद्ध धर्म के अठारह बौद्ध निकायों में चातुपरिशुद्धि शील की यह परिभाषा है:-
ऊपर जो शील कहे गये हैं, वे सामान्यतया गृहस्थ आदि की दृष्टि से प्रहाण करने योग्य शील हैं। योगी भिक्षुओं के लिए विशेषत: क्लेशों के प्रहाण के लिए 4 प्रकार के परिशुद्धिशीलों का पालन करना आवश्यक होता है और सभी शील इनके अन्तर्गत आ जाते हैं। अत: इनका यहाँ प्रतिपादन किया जा रहा है।
प्रातिमोक्ष संवरशील
जिनके पालन से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, ऐसे आचरणों (शिक्षापदों) को 'प्रातिमोक्ष' कहते हैं। उन आचरणों की रक्षा करना ही 'प्रातिमोक्ष संवरशील' है। इनके पालन के लिए श्रद्धा का होना परम आवश्यक है। बुद्ध शासन के प्रति श्रद्धा होने पर ही बुद्ध के द्वारा उपदिष्ट आचरणों (शिक्षापदों) का पालन किया जा सकता है। भिक्षु में जब श्रद्धा का आधिक्य होता है, तो वह बुद्ध द्वारा उपदिष्ट अपने शीलों का उसी प्रकार सावधानी के साथ आचरण करता है, जिस प्रकार चामरी गाय अपनी पूँछ की, माता अपने एकमात्र प्रिय पुत्र की तथा काणा व्यक्ति अपनी एक आँख की सावधानी के साथ आचरण करता है।
इन्द्रिय संवरशील
चक्षु आदि इन्द्रियों की रक्षा करना 'इन्द्रिय संवरशील' है। जब भिक्षु उपर्युक्त प्रातिमोक्ष संवरशील से सम्पन्न हो जाता है, तब वह इन्द्रिय संवरशील का भी पालन करने में समर्थ हो जाता है। ये दोनों शील वस्तुत: परस्पराश्रित होते हैं। जो प्रातिमोक्षसंवर शील से सम्पन्न होता है, वह इन्द्रिय संवरशील का भी पालन करता है तथा जो इन्द्रिय संवरशील से सम्पन्न होता है, वह प्रातिमोक्ष संवरशील का भी पालन करता है। इन्द्रिय संवरशील से सम्पन्न होने के लिए अपने चक्षु आदि इन्द्रियों की रक्षा की जाती है। जैसे- जब चक्षु के सम्मुख वर्ण (रूप) उपस्थित होता है तो उस रूप के प्रति राग आदि का उत्पाद नहीं होने देना चाहिए।
आजीव पारिशुद्धिशील
अपनी जीविका चलाने के लिए ग़लत (पापमूलक) साधनों का प्रयोग न करना 'आजीव पारिशुद्धिशील' है। जब कोई व्यक्ति भिक्षु-दीक्षा ग्रहण करता है, तो उसे दीक्षा के साथ ही भिक्षापात्र भी मिल जाता हा, जिसे लेकर वह गाँव-नगर में घूमता है और श्रद्धालु लोगों द्वारा श्रद्धापूर्वक जो भी भोजन, वस्त्र आदि दिये जाते हैं, उनसे अपनी जीविका चलाता है।
प्रत्ययसन्निश्रित शील
वस्त्र, (चीवर), भोजन (पिण्डपात), शयनासन (विहार) तथा औषधि (ग्लानप्रत्ययभैषज्य)- इन चार वस्तुओं का प्रत्यय कहते हैं। जो भिक्षु इन चार वस्तुओं को ही अपने जीवन का साधन बनाता है, उस भिक्षु का यह आचरण ही 'प्रत्ययसन्निश्रित शील' कहलाता है। इस शील की सम्पन्नता के लिए 'प्रज्ञा' की परम आवश्यकता है। यद्यपि भगवान बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को तीन वस्त्र और भोजन आदि का आश्रय लेकर जीवन चलाने के लिए कहा है, तथापि इनका इस्तेमाल ख़ूब सोच-विचार करके किया जाता है।
धुतांग
शीलों के पालन से यद्यपि भिक्षु परिशुद्धशील हो जाता है, तथापि जो भिक्षु अल्पेच्छता, अल्पसन्तुष्टि आदि गुणों से युक्त होते हैं, वे यदि अपने शीलों को और पवित्र करना चाहते हैं, तो भगवान बुद्ध ने उनके लिए 13 प्रकार के परिशुद्ध शीलों अर्थात धुतांगों का उपदेश किया है।