हिन्दी व्याकरण: Difference between revisions
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Revision as of 06:07, 5 January 2011
जिस विद्या से किसी भाषा के बोलने तथा लिखने के नियमों की व्यवस्थित पद्धति का ज्ञान होता है, उसे 'व्याकरण' कहते हैं। व्याकरण वह विधा है, जिसके द्वारा किसी भाषा का शुद्ध बोलना या लिखना जाना जाता है। व्याकरण भाषा की व्यवस्था को बनाये रखने का काम करते हैं। व्याकरण, भाषा के शुद्ध एवं अशुद्ध प्रयोगों पर ध्यान देता है। प्रत्येक भाषा के अपने नियम होते है, उस भाषा का व्याकरण भाषा को शुद्ध लिखना व बोलना सिखाता है।[1]
मनुष्य मौखिक एवं लिखित भाषा में अपने विचार प्रकट कर सकता है और करता रहा है किन्तु इससे भाषा का कोई निश्चित एवं शुद्ध स्वरूप स्थिर नहीं हो सकता। भाषा के शुद्ध और स्थायी रूप को निश्चित करने के लिए नियमबद्ध योजना की आवश्यकता होती है और उस नियमबद्ध योजना को हम व्याकरण कहते हैं।[2]
परिभाषा
व्याकरण वह शास्त्र है जिसके द्वारा किसी भी भाषा के शब्दों और वाक्यों के शुद्ध स्वरूपों एवं शुद्ध प्रयोगों का विशद ज्ञान कराया जाता है।
- भाषा और व्याकरण का संबंध
कोई भी मनुष्य शुद्ध भाषा का पूर्ण ज्ञान व्याकरण के बिना प्राप्त नहीं कर सकता। अतः भाषा और व्याकरण का घनिष्ठ संबंध हैं वह भाषा में उच्चारण, शब्द-प्रयोग, वाक्य-गठन तथा अर्थों के प्रयोग के रूप को निश्चित करता है। व्याकरण के विभाग- व्याकरण के तीन अंग निर्धारित किये गये हैं-
- वर्ण विचार- इसमे वर्णों के उच्चारण, रूप, आकार, भेद आदि के सम्बन्ध में अध्ययन होता है।
- शब्द विचार- इसमें शब्दों के भेद, रूप, प्रयोगों तथा उत्पत्ति का अध्ययन किया जाता है।
- वाक्य विचार- इसमे वाक्य निर्माण, उनके प्रकार, उनके भेद, गठन, प्रयोग, विग्रह आदि पर विचार किया जाता है।[1]
वर्णमाला
हिन्दी भाषा में जितने वर्णों का प्रयोग होता है, उन वर्णों के समूह को 'वर्णमाला' कहा जाता है।
हिन्दी वर्णमाला
हिन्दी भाषा में जितने वर्ण प्रयुक्त होते हैं, उन वर्णों के समूह को 'हिन्दी-वर्णमाला' कहा जाता है।
स्वर
स्वतंत्र रूप से बोले जाने वाले वर्ण स्वर कहलाते हैं।
व्यंजन
स्वरों की सहायता से बोले जाने वाले वर्ण व्यंजन कहलाते हैं।
शब्द
सार्थक शब्द
- किसी निश्चित अर्थ का बोध कराने वाले शब्दों को सार्थक शब्द कहा जाता है।
- जैसे- आना, ऊपर, जाना, पाना आदि।
निरर्थक शब्द
किसी निश्चित अर्थ का बोध नहीं कराने वाले शब्दों को निरर्थक शब्द कहा जाता है।
विकारी शब्द
- वह शब्द जो लिंग, वचन, कारक आदि से विकृत हो जाते हैं विकारी शब्द होते हैं।
- जैसे- मैं→ मुझ→ मुझे→ मेरा, अच्छा→ अच्छे आदि।
अविकारी शब्द
- वह शब्द जो लिंग, वचन, कारक आदि से कभी विकृत नहीं होते हैं अविकारी शब्द होते हैं।
- इनको 'अव्यय' भी कहा जाता है।
संज्ञा
- यह सार्थक वर्ण-समूह शब्द कहलाता है।
- किंतु जब इसका प्रयोग वाक्य में होता है तो वह व्याकरण के नियमों में बँध जाता है और इसका रूप भी बदल जाता है।
सर्वनाम
- संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले शब्द को सर्वनाम कहते है।
- संज्ञा की पुनरुक्ति न करने के लिए सर्वनाम का प्रयोग किया जाता है।
विशेषण
संज्ञा अथवा सर्वनाम शब्दों की विशेषता (गुण, दोष, संख्या, परिमाण आदि) बताने वाले शब्द ‘विशेषण’ कहलाते हैं।
क्रिया
- जिन शब्दों से किसी कार्य या व्यापार के होने या किए जाने का बोध होता है उन्हें क्रिया कहते हैं।
- जैसे- उठना, बैठना, सोना जागना।
क्रियाविशेषण
जिन अविकारी शब्दों से क्रिया की विशेषता का बोध होता है वे क्रियाविशेषण कहलाते हैं।
सम्बन्धबोधक
- जो अविकारी शब्द संज्ञा या सर्वनाम शब्दों के पहले या पीछे आकर उसका सम्बन्ध वाक्य के किसी अन्य शब्द से कराते हैं, उन्हें सम्बन्धबोधक कहते हैं।
- जैसे- पूर्वक, और, वास्ते, तुल्य, समान आदि।
समुच्यबोधक
- व्याकरण में समुच्यबोधक एक अविकारी शब्द है।
- जो अविकारी शब्द दो शब्दों, दो वाक्यों अथवा दो वाक्यों खण्डों को जोड़ते हैं, उन्हें समुच्यबोधक कहते हैं।
- जैसे- वह यहाँ अवश्य आता, परन्तु बीमार था।
विस्मयादिबोधक
- जो अविकारी शब्द हर्ष, शोक, आश्चर्य, घृणा, क्रोध, तिरस्कार आदि भावों का बोध कराते हैं, उन्हें विस्मयादिबोधक कहते हैं।
- जैसे- वाह, ओह, हाय आदि।
कारक
कारक शब्द का अर्थ है क्रिया को करने वाला अर्थात क्रिया को पूरी करने में किसी न किसी भूमिका को निभाने वाला।
काल
क्रिया के व्यापार का समय सूचित करने वाले क्रिया रूप को 'काल' कहते हैं।
संधि
- दो समीपवर्ती वर्णों के मेल से जो विकार होता है, वह संधि कहलाता है।
- जैसे- देव+ आलय= देवालय, मन:+ योग= मनोयोग
उपवाक्य
- यदि किसी एक वाक्य में एक से अधिक समापिका क्रियाएँ होती हैं तो वह वाक्य उपवाक्यों में बँट जाता है।
- उसमें जितनी भी समापिका क्रियाएँ होती हैं उतने ही उपवाक्य होते हैं।
वचन
- विकारी शब्दों के जिस रूप से संख्या का बोध होता है, उसे वचन कहते हैं।
- वैसे तो शब्दों का संज्ञा भेद विविध प्रकार का होता है, परन्तु व्याकरण में उसके एक और अनेक भेद प्रचलित हैं।
वर्तनी
- लिखने की रीति को वर्तनी या अक्षरी कहते हैं।
- इसे हिज्जे भी कहा जाता है।
उपसर्ग
- वे शब्दांश जो यौगिक शब्द बनाते समय पहले लगते हैं, उपसर्ग कहलाते हैं।
- जैसे- प्रति= प्रतिनिधि, प्रतिकूल, प्रतिष्ठा, प्रत्यक्ष।
रस
- रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है।
- रस को 'काव्य की आत्मा' या 'प्राण तत्व' माना जाता है।
लिंग
संज्ञा के उस रूप को लिंग कहते हैं, जिसके द्वारा वाचक शब्दों की जाति का बोध होता है।
अलंकार
- अलंकार का शाब्दिक अर्थ है, 'आभूषण' । जिस प्रकार सुवर्ण आदि के आभूषणों से शरीर की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काव्य अलंकारों से काव्य की।
- हिन्दी के कवि केशवदास एक अलंकारवादी हैं।
छन्द
- वर्णों या मात्राओं के नियमित संख्या के विन्यास से यदि आह्लाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते हैं।
- छंद का सर्वप्रथम उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है।
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