प्रज्ञापारमितासूत्र: Difference between revisions

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*शतसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता विस्तृत जिनजननीसूत्र है, जिसका उपदेश भगवान ने मृदु-इन्द्रिय और विस्तृतरुचि विनेयजनों के लिए किया है। मध्येन्द्रिय और मध्यरुचि विनेयजनों के लिए मध्यम जिनजननी अर्थात पञ्चविंशति साहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता का तथा तीक्ष्णेन्द्रिय और संक्षिप्त रुचि विनेयजनों के लिए संक्षिप्त जिनजननी अर्थात अष्टसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता का भगवान ने उपदेश किया है। इन सभी में अष्टसाहस्त्रिका पूर्णत: उपलब्ध है, अत: उसका यहाँ निरुपण किया जा रहा है।
*शतसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता विस्तृत जिनजननीसूत्र है, जिसका उपदेश भगवान ने मृदु-इन्द्रिय और विस्तृतरुचि विनेयजनों के लिए किया है। मध्येन्द्रिय और मध्यरुचि विनेयजनों के लिए मध्यम जिनजननी अर्थात पञ्चविंशति साहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता का तथा तीक्ष्णेन्द्रिय और संक्षिप्त रुचि विनेयजनों के लिए संक्षिप्त जिनजननी अर्थात अष्टसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता का भगवान ने उपदेश किया है। इन सभी में अष्टसाहस्त्रिका पूर्णत: उपलब्ध है, अत: उसका यहाँ निरुपण किया जा रहा है।
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==संबंधित लेख==
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Revision as of 06:41, 17 March 2011

  • प्रज्ञापारमितासूत्र प्रमुखत: भगवान बुद्ध द्वारा गृध्रकूट पर्वत पर द्वितीय धर्मचक्र के काल में उपदिष्ट देशनाएं हैं। कालान्तर में ये सूत्र जम्बूद्वीप में विलुप्त हो गये।
  • आचार्य नागार्जुन ने नागलोक जाकर उन्हें प्राप्त किया और वे वहाँ से पुन: जम्बूद्वीप लाए। प्रज्ञापारमितासूत्रों के दो पक्ष हैं।
  1. एक दर्शनपक्ष है, जिसे प्रज्ञापक्ष या शून्यतापक्ष भी कहा जाता है।
  2. दूसरा है साधनापक्ष, जिसे उपायपक्ष या करुणापक्ष भी कहा जाता है।
  • नागार्जुन ने प्रज्ञापारमितासूत्रों के दर्शन पक्ष को अपनी कृतियों द्वारा प्रकाशित किया। प्रज्ञापारमितासूत्रों के आधार पर उन्होंने प्रमुखत: मूलमाध्यमिककारिका आदि ग्रन्थों में शून्यता-दर्शन को युक्तियों द्वारा प्रतिष्ठापित किया, जिसे आगे चलकर उनके अनुयायियों ने और अधिक विकसित किया। प्रज्ञापारमितासूत्रों के साधनापक्ष को आर्य असंग ने अपनी कृतियों द्वारा प्रकाशित किया। तदनन्तर उनके अनुयायियों ने उसे और अधिक पल्लवित एवं पुष्पित किया। शून्यता, अनुत्पाद, अनिरोध आदि पर्यायवाची शब्द हैं। सभी धर्मों की नि:स्वभावता प्रज्ञापारमितासूत्रों का मुख्य प्रतिपाद्य है। प्रज्ञापारमितासूत्रों की संख्या अत्यधिक है। शतसाहस्रिका (एक लाख श्लोकात्मक) प्रज्ञापारमिता से लेकर एकाक्षरी प्रज्ञापारमिता तक ये सूत्र पाये जाते हैं। महायानी वैपुल्यसूत्रों के दो प्रकार हैं। एक प्रकार के वे सूत्र हैं, जिनमें बुद्ध, बोधिसत्त्व, बुद्धयान आदि की महत्ता प्रदर्शित की गई है। ललितविस्तर, सद्धर्मपुण्डरीक आदि सूत्र इसी प्रकार के हैं। दूसरे प्रकार में वे सूत्र आते हैं, जिनमें शून्यता और प्रज्ञा की महत्ता प्रदर्शित है, ये सूत्र प्रज्ञापारमितासूत्र ही हैं। शून्यता और महाकरुणा- इन दोनों का समन्वय प्रज्ञापारमितासूत्रों में दृष्टिगोचर होता है।
  • महायान साहित्य में प्रज्ञापारमितासूत्रों का अत्यधिक महत्त्व है। अन्य सूत्रों में अधिकतर बुद्ध और बोधिसत्त्वों का संवाद दिखलाई देता है, जबकि प्रज्ञापारमितासूत्रों में बुद्ध सुभूति नामक स्थविर से प्रश्न करते हैं। सुभूति और शारिपुत्र इन दो स्थविरों का शून्यता के बारे में संवाद ही तात्त्विक एवं गम्भीर है। इन सूत्रों की प्राचीनता इसी से प्रमाणित है कि ई. सन 179 में प्रज्ञापारमितासूत्र का चीनी भाषा में रूपान्तर हो गया था। प्राय: सभी बौद्ध धर्मानुयायी देशों में इन सूत्रों का अत्यधिक समादर है।
  • नेपाली परम्परा के अनुसार मूल प्रज्ञापारमिता महायान सूत्र सवा लाख श्लोकात्मक है। पुन: एक लक्षात्मक, पच्चीस हज़ार, दस हज़ार और आठ हज़ार श्लोकात्मक प्रज्ञापारमितासूत्र भी प्रकाशित हैं। चीनी और तिब्बती परम्परा में इसके और भी अनेक प्रकार हैं।
  • संस्कृत में निम्नलिखित सूत्र अंशत: या पूर्णरूपेण उपलब्ध होते हैं-
  1. शतसाहस्रिकाप्रज्ञापारमिता,
  2. पञ्चविंशतिसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता,
  3. अष्टसाहस्त्रिकाप्रज्ञापारमिता,
  4. सार्धद्विसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता,
  5. सप्तशतिका प्रज्ञापारमिता,
  6. वज्रच्छेदिका (त्रिशतिका) प्रज्ञापारमिता,
  7. अल्पाक्षरा प्रज्ञापारमिता,
  8. भगवती प्रज्ञापारमितासूत्र आदि।
  • प्रज्ञापारमितासूत्रों को जननी सूत्र भी कहते हैं। प्रज्ञापारमिता के बिना बुद्धत्व का लाभ सम्भव नहीं है, अत: यह बुद्धत्व को उत्पन्न करने वाली है। इसी अर्थ में इसे जननी, बुद्धमाता आदि शब्दों से भी अभिहित करते हैं। इन्हें 'भगवती' भी कहते हैं, जो इनके प्रति अत्यधिक आदर का सूचक है। जननी सूत्रों का तीन में विभाजन भी किया जाता है, यथा- विस्तृत, मध्यम एवं संक्षिप्त जिनजननीसूत्र।
  • शतसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता विस्तृत जिनजननीसूत्र है, जिसका उपदेश भगवान ने मृदु-इन्द्रिय और विस्तृतरुचि विनेयजनों के लिए किया है। मध्येन्द्रिय और मध्यरुचि विनेयजनों के लिए मध्यम जिनजननी अर्थात पञ्चविंशति साहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता का तथा तीक्ष्णेन्द्रिय और संक्षिप्त रुचि विनेयजनों के लिए संक्षिप्त जिनजननी अर्थात अष्टसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता का भगवान ने उपदेश किया है। इन सभी में अष्टसाहस्त्रिका पूर्णत: उपलब्ध है, अत: उसका यहाँ निरुपण किया जा रहा है।

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