चेतना शील बौद्ध निकाय: Difference between revisions

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Revision as of 06:45, 17 March 2011

बौद्ध धर्म के अठारह बौद्ध निकायों में चेतना शील की यह परिभाषा है:-
जीव हिंसा से विरत रहने वाले या गुरु, उपाध्याय आदि की सेवा सुश्रुषा करने वाले पुरुष की चेतना (चेतना शील) है। अर्थात जितने भी अच्छे कर्म (सुचरित) हैं, उनका सम्पादन करने की प्रेरिका चेतना 'चेतना शील' है। जब तक चेतना न होगी तक पुरुष शरीर या वाणी से अच्छे या बुरे कर्म नहीं कर सकता। अत: अच्छे कर्म को सदाचार (शील) कहना तथा बुरे कर्म को दुराचार कहना, उन (सदाचार, दुराचार) का स्थूल रूप से कथन है। वस्तुत: उनके मूल में रहने वाली चेतना ही महत्त्वपूर्ण है, इसीलिए भगवान बुद्ध ने 'चेतनाहं भिक्खवे, कम्मं वदामि[1]' कहा है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्थात् भिक्षओं, मैं चेतना को ही कर्म कहता हूँ

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