शान्तरक्षित बौद्धाचार्य: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "{{महायान के आचार्य2}}" to "{{बौद्ध धर्म}}") |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "{{महायान के आचार्य}}" to "") |
||
Line 16: | Line 16: | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{बौद्ध धर्म}} | {{बौद्ध धर्म}} | ||
[[Category:दर्शन कोश]][[Category:बौद्ध दर्शन]] | [[Category:दर्शन कोश]][[Category:बौद्ध दर्शन]] | ||
[[Category:बौद्ध धर्म]][[Category:बौद्ध धर्म कोश]] | [[Category:बौद्ध धर्म]][[Category:बौद्ध धर्म कोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
Revision as of 07:10, 17 March 2011
- आचार्य शान्तरक्षित सुप्रसिद्ध स्वातन्त्रिक माध्यमिक आचार्य हैं। उन्होंने 'योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक' दर्शनप्रस्थान की स्थापना की। उनका एक मात्र ग्रन्थ 'तत्त्वसंग्रह' संस्कृत में उपलब्ध है। उन्होंने 'मध्यमकालङ्कार कारिका' नामक माध्यमिक ग्रन्थ एवं उस पर स्ववृत्ति की भी रचना की है। इन्हीं में उन्होंने अपने विशिष्ट माध्यमिक दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है। किन्तु ये ग्रन्थ संस्कृत में उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु उसका भोट भाषा के आधार पर संस्कृत रूपान्तरण तिब्बती-संस्थान, सारनाथ से प्रकाशित हुआ है, जो उपलब्ध है।
- आचार्य कमलशील और आचार्य हरिभद्र इनके प्रमुख शिष्य हैं। आचार्य हरिभद्र विरचित अभिसमयालङ्कार की टीका 'आलोक' संस्कृत में उपलब्ध है। यह अत्यन्त विस्तृत टीका है, जो अभिसमयालङ्कार की स्फुटार्था टीका भी लिखी है, जो अत्यन्त प्रामाणिक मानी जाती है। तिब्बत में अभिसमय के अध्ययन के प्रसंग में उसी का पठन-पाठन प्रचलित है। उसका भोटभाषा से संस्कृत में रूपान्तरण हो गया है और यह केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनाथ से प्रकाशित है।
- आचार्य शान्तरक्षित वङ्गभूमि (आधुनिक बंगलादेश) के ढाका मण्डल के अन्तर्गत विक्रमपुरा अनुमण्डल के 'जहोर' नामक स्थान में क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे। ये नालन्दा के निमन्त्रण पर तिब्बत गये और उन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की। अस्सी से अधिक वर्षों तक ये जीवित रहे और तिब्बत में ही उनका देहावसान हुआ। आठवीं शताब्दी प्राय: इनका काल माना जाता है।
आचार्य शान्तरक्षित ने अपनी रचनाओं में बाह्यार्थों की सत्ता मानने वाले भावविवेक का खण्डन किया और व्यवहार में विज्ञप्तिमात्रता की स्थापना की है। उनकी राय में आर्य नागार्जुन का यही वास्तविक अभिप्राय है।
- यद्यपि आचार्य शान्तरक्षित बाह्यार्थ नहीं मानते, फिर भी बाह्यार्थशून्यता उनके मतानुसार परमार्थ सत्य नहीं है, जैसे कि विज्ञानवादी उसे परमार्थ सत्य मानते हैं, अपितु वह संवृति सत्य या व्यवहार सत्य है। भावविवेक की भाँति वे भी 'परमार्थत:' नि:स्वभावता' को परमार्थ सत्य मानते हैं। व्यवहार में वे साकार विज्ञानवादी हैं। विज्ञानवाद का शान्तरक्षित पर अत्यधिक प्रभाव हैं। वे चन्द्रकीर्ति की नि:स्वभावता को परमार्थसत्य नहीं मानते। भावविवेक की भाँति वे स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग भी स्वीकार करते हैं। वे आलयविज्ञान को नहीं मानते। स्वसंवेदन का प्रतिपादन उन्होंने अपनी रचनाओं में किया है, अत: वे स्वसंवेदन स्वीकार करते हैं।
कृतियाँ
- आचार्य शान्तरक्षित भारतीय दर्शनों के प्रकाण्ड पण्डित थे।
- यह उनके 'तत्त्वसंग्रह' नामक ग्रन्थ से स्पष्ट होता है।
- इस ग्रन्थ में उन्होंने प्राय: बौद्धेतर भारतीय दर्शनों को पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर बौद्ध दृष्टि से उनका खण्डन किया है।
- इस ग्रन्थ के अनुशीलन से भारतीय दर्शनों के ऐसे-ऐसे पक्ष प्रकाशित होते हैं, जो इस समय प्राय: अपरिचित से हो गये हैं।
- वस्तुत: यह ग्रन्थ भारतीय दर्शनों का महाकोश है।
- इनकी अन्य रचनाओं में मध्यमकालङ्कारकारिका एवं उसकी स्ववृत्ति है।
- इसके माध्यम से उन्होंने योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक शाखा का प्रवर्तन किया है।
- वे व्यावहारिक साधक और प्रसिद्ध तान्त्रिक भी थे।
- तत्त्वसिद्धि, वादन्याय की विपञ्चितार्था वृत्ति एवं हेतुचक्रडमरू भी उनके ग्रन्थ माने जाते हैं।