दीपङ्कर श्रीज्ञान बौद्धाचार्य: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
Line 20: Line 20:
[[Category:दर्शन कोश]][[Category:बौद्ध दर्शन]]
[[Category:दर्शन कोश]][[Category:बौद्ध दर्शन]]
[[Category:बौद्ध धर्म]]
[[Category:बौद्ध धर्म]]
[[Category:बौद्ध धर्म कोश]]
[[Category:बौद्ध धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]]
__INDEX__
__INDEX__

Revision as of 13:45, 21 March 2014

आचार्य दीपङ्कर श्रीज्ञान

अद्वितीय महान् आचार्य दीपङ्कर श्रीज्ञान आर्यदेश के सभी निकायों तथा सभी यानों के प्रामाणिक विद्वान् एवं सिद्ध पुरुष थे। तिब्बत में विशुद्ध बौद्ध धर्म के विकास में उनका अपूर्व योगदान है। भोट देश में 'लङ् दरमा' के शासन काल में बौद्ध धर्म जब अत्यन्त अवनत परिस्थिति में पहुँच गया था तब 'ङारीस' के 'ल्हा लामा खुबोन्' द्वारा प्राणों की परवाह किये बिना अनेक कष्टों के बावजूद उन्हें तिब्बत में आमन्त्रित किया गया। 'ङारीस' तथा 'वुइस् चङ्' प्रदेश के अनेक क्षेत्रों में निवास करते हुए उन्होंने बुद्धशासन का अपूर्व शुद्धीकरण किया। सूत्र तथा तन्त्र की समस्त धर्मविधि का एक पुद्गल के जीवन में कैसे युगपद् अनुष्ठान किया जाए- इसके स्वरूप को स्पष्ट करके उन्होंने हिमवत्-प्रदेश में विमल बुद्धशासनरत्न को पुन: सूर्यवत् प्रकाशित किया, जिनकी उपकारराशि महामहोपाध्याय बोधिसत्त्व आचार्य शान्तरक्षित के समान ही है।

जीवन परिचय

वर्तमान बंगला देश, जिसे, 'जहोर' या 'सहोर' कहते हैं, प्राचीन समय में यह एक समृद्ध राष्ट्र था। यहाँ के राजा कल्याणश्री या शुभपाल थें इनके अधिकारक्षेत्र में बहुत बड़ा भूभाग था। इनका महल स्वर्णध्वज कहलाता था। उनकी रानी श्रीप्रभावती थी। इन दोनों की तीन सन्तानें थीं। बड़े राजकुमार 'पद्मगर्भ' मझले राजकुमार 'चन्द्रगर्भ' तथा सबसे छोटे 'श्रीगर्भ' कहलाते थे। आचार्य दीपङ्कर श्रीज्ञान मध्य के राजकुमार 'चन्द्रगर्भ' हैं, जिनका ईसवीय वर्ष 982 में जन्म हुआ था।

बोधगया स्थित मतिविहार के महासंघिक सम्प्रदाय के महास्थविर शीलरक्षित से 29 वर्ष की आयु में इन्होंने प्रव्रज्या एवं उपसम्पदा ग्रहण की। 31 वर्ष तक पहुंचते-पहुंचते इन्होंने लगभग चारों सम्प्रदायों के पिटकों का श्रवण एवं मनन कर लिया। साथ ही, विनय के विधानों में भी पारङ्गत हो गए। अपनी अद्वितीय विद्वत्ता के कारण वे अत्यन्त प्रसिद्ध हो गए और अनेक जिज्ञासु जन धर्म, दर्शन एवं विनय से सम्बद्ध प्रश्नों के समाधान के लिए उनके पास आने लगे।

तिब्बत में उनके अनेक शिष्य थे, किन्तु उनमें 'डोम' प्रमुख थे। अपने जीवन के अन्तिम समय में उन्होंने डोम से कहा कि अब बुद्ध शासन का भार तुम्हारे हाथों में सौंपना चाहता हूँ। यह सुनकर डोम को आभास हो गया कि अब आचार्य बहुत दिन जीवित नहीं रहेंगे। उन्होंने आचार्य की बात भारी मन से मान ली। इस तरह अपना कार्यभार एक सुयोग्य शिष्य को सौंपकर वे महान् गुरु दीपङ्कर श्रीज्ञान 1054 ईसवीय वर्ष में शरीर त्याग कर तुषित लोक में चले गये।

रचनाएँ

  • तिब्बती क-ग्युर एवं तन-ग्युर के अवलोकन से आचार्य दीपङ्कर विरचित ग्रन्थों की सूची बहुत बड़ी है।
  • लगभग 103 ग्रन्थ उनसे सम्बद्ध हैं। संस्कृत में उनका एक भी ग्रन्थ उपलब्ध न था।
  • किन्तु इधर केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनथ से भोट भाषा से संस्कृत में पुनरुद्वार कर कुछ ग्रन्थ प्रकाशित किये गये हैं।
  • उनमें बोधिपथप्रदीप, एकादश लघुग्रन्थों का एक संग्रह तथा उनके पाँच लघुग्रन्थों का एक संग्रह उल्लेखनीय है।
  • साथ ही त्रिसकन्घसूत्रटीका के अन्तर्गत दीपङ्कर का कर्मावरणविशोधनभाष्य भी प्रकाशित है।

संबंधित लेख