दिक -वैशेषिक दर्शन: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
गोविन्द राम (talk | contribs) m (श्रेणी:नया पन्ना (को हटा दिया गया हैं।)) |
||
Line 22: | Line 22: | ||
[[Category:वैशेषिक दर्शन]] | [[Category:वैशेषिक दर्शन]] | ||
[[Category:दर्शन कोश]] | [[Category:दर्शन कोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
Latest revision as of 14:40, 13 November 2014
- महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।
- वैशेषिक मत का सारसंग्रह करते हुए अन्नंभट्ट ने यह कहा कि 'प्राची आदि के व्यवहार-हेतु को दिक् (दिशा) कहते हैं। दिक् एक हा, विभु है और नित्य है।[1]' इस परिभाषा में उल्लिखित प्रमुख घटकों का वैशेषिकों की लम्बी परम्परा में बड़ा गहन विश्लेषण किया गया है।
- कणाद ने यह बताया कि-'जिससे : यह पर है; यह अपर है'- ऐसा ज्ञान होता है, वह दिक् सिद्धि में लिंग है।' कणाद ने यह भी कहा कि दिक् का द्रव्यत्व और नित्यत्व वायु के समान है। दिशा के तात्त्विक भेदों का कोई हेतु नहीं पाया जाता अत: वह एक है। किन्तु संयोगात्मक उपाधियों के कारण उसमें प्राची, प्रतीची आदि भेद से नानात्व का व्यवहार होता है।[2]
- प्रशस्तपाद ने अपरजाति (व्याप्यसामान्य) के अभाव के कारण दिशा को भी आकाश और काल के समान एक पारिभाषिक संज्ञा माना और सूत्रकार के मन्तव्य का अनुवाद सा करते हुए यह बताया कि -'यह इससे पूर्व में है; यह इससे पश्चिम में है- ऐसी प्रतीतियाँ जिसकी बोधक हों, वह दिशा है।[3]' किसी परिच्छिन्न परिमाण वाले मूर्त्त द्रव्य को अवधि (केन्द्रबिन्दु) मान करके पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर आदि प्रतीतियाँ की जाती हैं। किन्तु दिशा के बोधक लिंग में भेद न होने के कारण दिशा वस्तुत: एक है। प्राची आदि भेद दिशा की व्यावहारिक उपाधियाँ है। काल के समान दिशा में भी एकत्व संख्या, परममहत परिमाण, एक पृथक्त्व, संयोग और विभाग ये पाँच गुण होते हैं।
- चित्सुख, चन्द्रकान्त, शिवादित्य आदि ने दिशा के पृथक् द्रव्यत्व का प्राय: इस आधार पर खण्डन किया है कि आकाश, काल एवं दिशा पृथक्-पृथक् द्रव्य नहीं, अपितु एक ही द्रव्य के तीन पक्ष प्रतीत होते हैं। रघुनाथ शिरोमणि और भासर्वज्ञ के अनु सार दिशा ईश्वर से अभिन्न है और दिशासम्बन्धी सभी प्रतीतियाँ ईश्वर की उपाधियाँ हैं।[4]
- वैयाकरण और बौद्ध काल और दिशा को क्षणिक प्रवाहमान विज्ञान कहते हैं सांख्य द्वारा ये दोनों आकाश में अन्तर्भूत बताये गये हैं।
- वेदान्त के अनुसार काल और दिशा परब्रह्म पर आरोपित प्रातिभासिक प्रतीतियाँ हैं। केवल वैशेषिक में ही उनका पृथक् द्रव्यत्व माना गया है।
- इस संदर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि यदि सूत्रकार कणाद को आकाश, काल और दिशा का पृथक्-पृथक् द्रव्यत्व अभिप्रेत न होता, तो यह इनके विश्लेषण के लिए पृथक्-पृथक् सूत्रों का निर्माण क्यों करते? इन तीनों द्रव्यों का स्वरूप, कार्यक्षेत्र और प्रयोजन भिन्न है। उदाहरणतया आकाश एक भूतद्रव्य है, दिक मूर्त द्रव्य नहीं है। काल, कालिक परत्वापरत्व का हेतु होता है, जबकि दिशा, देशिक परत्वापरत्व की हेतु है। कालिक प्रतीतियाँ स्थिर होती हैं, जबकि देश की प्रतीतियाँ केन्द्र सापेक्ष होने से अस्थिर होती हैं। अत: वेणीदत्त जैसे उत्तरवर्ती वैशेषिकों का भी यही कथन है कि दिशा पृथकि रूप से एक विभु और नित्य द्रव्य है।[5]
- REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें
|
|
|
|
|