प्रश्नों के आईने में... -सरस्वती प्रसाद: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replacement - "==संबंधित लेख==" to "==संबंधित लेख== {{स्वतंत्र लेख}}")
Line 63: Line 63:
<references/>
<references/>
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{स्वतंत्र लेख}}
[[Category:गद्य साहित्य]][[Category:समकालीन साहित्य]]
[[Category:गद्य साहित्य]][[Category:समकालीन साहित्य]]
[[Category:साहित्य कोश]]
[[Category:साहित्य कोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

Revision as of 13:18, 26 January 2017

चित्र:Icon-edit.gif यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं।
संक्षिप्त परिचय

150px|सरस्वती प्रसाद|center

लेखिका सरस्वती प्रसाद
जन्म 28 अगस्त, 1932
जन्मस्थान आरा, बिहार
मृत्यु 19 सितम्बर, 2013
शिक्षा: स्नातक (इतिहास प्रतिष्ठा)
पति: श्री रामचंद्र प्रसाद

- ज़िन्दगी के मेले में - 'अपनी खुशी न आए थे............' पर आ गए। आरा शहर की एक संकरी सी गली के तिमंजिले मकान में मेरा जन्म 28 अगस्त को हुआ था। समय के चाक पर निर्माण कार्य चलता रहा। किसी ने बुलाया 'तरु' (क्योंकि माता-पिता की इकलौती संतान होने के नाते मैं उनकी आंखों का तारा थी)। स्कूल (पाठशाला) में नामांकन हुआ 'सरस्वती' और मेरी पहचान - सरू, तरु में हुई। प्रश्नों के आईने में ख़ुद को देखूं और जाँचूं तो स्पष्टतः मुझे यही कहना होगा -
मेरे मन के करीब मेरी सबसे अच्छी दोस्त मेरी माँ थी। खेल-खिलौने, साथी तो थे ही, पर मैं 'उसे' नहीं भूल सकी, जिसने सबसे पहले मेरे मन को रौशन किया - वह था, मेरे कमरे का गोलाकार रोशनदान। सूरज की पहली किरणें उसी से होकर मेरे कमरे के फर्श पर फैलती थीं। किरणों की धार में अपना हाथ डालकर तैरते कणों को मुठ्ठी में भरना मेरा प्रिय खेल था। यह खेल मेरे अबोध मन के अन्दर एक अलौकिक जादू जगाता था।
मेरी आँखें बहुत सवेरे पड़ोस में रहने वाली नानी की 'पराती' से खिलती थी। नानी का क्रमवार भजन मेरे अन्दर अनोखे सुख का संचार करता था। मुंह अंधेरे गलियों में फेरा लगने वाले फ़कीर की सुमधुर आवाज़ इकतारे पर - ' कंकड़ चुन-चुन महल बनाया
लोग कहे घर मेरा है जी प्यारी दुनिया
ना घर मेरा ना घर तेरा, चिडिया रैन बसेरा जी
प्यारी दुनिया ......' । मेरे बाल-मन में किसी अज्ञात चिंतन का बीजारोपण करती गई। फ़कीर की जादुई आवाज़ के पीछे - पीछे मेरा मन दूर तक निकल जाता था। मेरे कुछ प्रश्नों पर मेरे माँ, बाबूजी गंभीर हो जाते थे। मेरा बचपन शायद वह छोटी चिडिया बन जाता था, जो अपनी क्षमता से अनभिज्ञ नभ के अछोर विस्तार को माप लेना चाहती थी। मुझे लगता था सूरज का रथ मेरी छत पर सबसे पहले उतरता है। चाँद अपनी चांदनी की बारिश मेरे आँगन में करता है। तभी मैं अपने साथियों के साथ 'अंधेरिया-अंजोरिया'का खेल खेलते हुए मुठ्ठी में चांदनी भर-भर कर फ्रॉक की जेब में डालती थी और खेल ख़त्म होने पर उस चांदनी को निकालकर माँ के गद्दे के नीचे छुपा देती थी....
मैंने पढ़ना शुरू किया तो बहुत जल्दी ही पुस्तकों ने मुझे अपने प्रबल आकर्षण में मुझे बाँधा। इस प्रकार कि देखते-ही-देखते मेरी छोटी सी आलमारी स्कूली किताबों के अलावा और किताबों से भर गई। 'बालक, चंदामामा, सरस्वती,' आदि पत्रिकाओं के अलावा मैं माँ के पूजा घर से 'सुख-सागर, प्रेम-सागर, रामायण का छोटा संस्करण' लेकर एकांत में बैठकर पढ़ती थी। राजेंद्र बाबू की आत्मकथा (मोटी पुस्तक) मैंने बचपन में ही पढ़ी थी। आलमारी खोलकर पुस्तकें देखना, उन्हें करीने से लगाना, उन पर हाथ फेरना मुझे अत्यन्त सुख पहुंचाता था। शायद यही वजह रही होगी या मेरे घर का एकाकीपन कि मेरे मन को कोई तलाश थी। कल्पना के ताने-बाने में कोई उद्वेग भरता था, छोटे से मन कि छोटी सी दुनिया में कोई अनजानी उदासी चक्कर काटती थी। मन के कोने में रंगीन तितली पालने वाली तरु को किसकी खोज थी?- शायद रिश्तों की। और इसी खोज ने मेरी कल्पना को पंख दिए, जो मैं देखती थी उससे परे जाकर भी सोचती थी।
मैं जिस मुहल्ले में रहती थी वहां हर जाति और तबके के लोग थे। बड़े-छोटे का भेदभाव क्या था, कितना था - इससे परे चाचा, भैया, काका का ही संबोधन मैं जानती थी। कई मौके मेरी आंखों के आगे आए - रामबरन, रामजतन काका को गिडगिडाते देखा -'मालिक, सूद के 500 तो माफ़ कर देन, जनम-जनम जूतों की ताबेदारी करूँगा'... बिच में टपक कर तरु बोल उठती - 'छोड़ दीजिये बाबूजी, काका की बात मत टालें' और तरु का आग्रह खाली नहीं जाता।
कुछ कर गुजरने की खुशी को महसूस करती तरु को लगता कोई कह रहा है, 'तरु - तू घंटी की मीठी धुन है, धूप की सुगंध, पूजा का फूल, मन्दिर की मूरत... मेरे घर आना तेरी राह देखूंगा...' कौन कहता था यह सब? रामबरन काका, रामजतन काका, बिलास भैया, या रामनगीना...
अपनी ही आवाज़ से विस्मय - विमुग्ध हो जाती थी तरु। खाली-खाली कमरों में माँ माँ पुकारना और ख़ुद से सवाल करना, साथ-साथ कौन बोलता है? जिज्ञासु मन ने जान लिया यह प्रतिध्वनि है। छोटी तरु के मुंह से प्रतिध्वनि शब्द सुनकर उसके मास्टर जी अवाक रह गए थे और माथे पर हाथ रखा था 'तू नाम करेगी'। पर किसने देखा या जाना था सिवा तरु के कि खाली-खाली कमरों से उठता सोच का सैलाब उसे न जाने कहाँ-कहाँ बहा ले जाता है। फिर वह यानी मैं - अपने एकांत में रमना और बातें करना सीख गई, शायद इसी का असर था कि उम्र के 25 वे मोड़ पर आकर मेरी कलम ने लिखा -

[[चित्र:Sumitranandan-pant-saraswati-prasad.jpg|thumb|सुमित्रानंदन पंत के साथ सरस्वती प्रसाद]]

"शून्य में भी कौन मुझसे बोलता है,
मैं तुम्हारा हूँ, तुम्हारा हूँ
किसकी आँखें मुझको प्रतिपल झांकती हैं
जैसे कि चिरकाल से पहचानती हैं
कौन झंकृत करके मन के तार मुझसे बोलता है
मैं तुम्हारा हूँ, तुम्हारा हूँ..."
धरती से जुड़े गीत-संगीत कि दुनिया मेरे चारों ओर थी, इसलिए मुझे गीत-संगीत से गहरा लगाव था, उसके प्रति प्रबल आकर्षण था।
चिडियों का कलरव, घर बुहारती माँ के झाडू की खुर-खुर, रामबरन काका के घर से आती गायों के गले की घंटियों की टूनन -टूनन, काकी के ढेंकी चलाने की आवाज़, नानी की पराती, गायों का रम्भाना, चारा काटने की खटर -खुट-खट, बंसवाड़े से आती हवा की सायं-सानी (सीटियों जैसी)... संगीत ही संगीत था मेरे चारों ओर। वकील चाचा के घर से ग्रामोफोन पर के.सी.डे और सहगल की आवाज़ बराबर आती। सहगल का यह गीत आज भी याद आता है तो अपनी सोच पर हँसी आ जाती है, 'करेजवा में हाय राम लग गई चोट', सुनकर मुझे दुःख होता था कि किसने इसे इस प्रकार ज़ोर से मारा कि बराबर गाता है लग गई चोट ! यह बात तो बचपन की थी, पर बरसों बाद जाना कि चोट जो दिल पर लगती है, वह जाती नहीं। दिनकर जी के शब्दों में "आत्मा में लगा घाव जल्दी नहीं सूखता"।
इन्हीं भावनाओं में लिपटी मैं घर गृहस्थी के साथ 1961 में कॉलेज की छात्रा बनी। हिन्दी प्रतिष्ठा की छात्रा होने के बाद कविवर पन्त की रचनाएं मेरा प्रिय विषय बनीं। 62 में साथियों ने ग्रीष्मावकाश के पहले सबको टाइटिल दिया। कॉमन रूम में पहुँची तो सबने समवेत स्वर में कहा ' लो, पन्त की बेटी आ गई'... अब ना मेरी माँ थी और ना बाबूजी। साथियों ने मुझे पन्त की बेटी बनाकर मेरी भावनाओं को पिता के समीप पहुँचा दिया। उस दिन कॉलेज से घर जाते हुए उड़ते पत्तों को देखकर होठों पर ये पंक्तियाँ आई,"कभी उड़ते पत्तों के संग, मुझे मिलते मेरे सुकुमार"
"उठा तब लहरों से कर मौन
निमंत्रण देता मुझको कौन"...
अगले ही दिन मैंने पन्त जी को पत्र लिखा, पत्रोत्तर इतनी जल्दी मिलेगा- इसकी उम्मीद नहीं थी। कल्पना ऐसे साकार होगी, ये तो सोचा भी नहीं था... 'बेटी' संबोधन के साथ उनका स्नेह भरा शब्द मुझे जैसे सपनों की दुनिया में ले गया। अब मैं कुछ लिखती तो उनको भेजती थी, वे मेरी प्रेरणा बन गए। वे कभी अल्मोडा भी जाते तो वहां से मुझे लिखते... हमारा पत्र-व्यवहार चलता रहा। पिता के प्यार पर उस दिन मुझे गर्व हुआ, जिस दिन प्रेस से आने पर 'लोकायतन' की पहली प्रति मेरे पास भेजी, जिस पर लिखा था 'बेटी सरस्वती को प्यार के साथ'
........
M.A में नामांकन के बाद ही मेरे साथ बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई, अचानक ही हम भंवर में डूब गए - इसके बाद ही हम इलाहबाद गए थे। पिता पन्त जब सामने आए तो मुझे यही लगा, जैसे हम किसी स्वर्ग से उतरे देवदूत को देख रहे हैं। उनका हमें आश्वासित करना, एक-एक मृदु व्यवहार घर आए कुछ साहित्यकारों से मुझे परिचित करवाना, मेरी बेटी को रश्मि नाम देना, और बच्चों के नाम सुंदर पंक्तियाँ लिखना और मेरे नाम एक पूरी कविता...
जिसके नीचे लिखा है 'बेटी सरस्वती के प्रयाग आगमन पर' यह सबकुछ मेरे लिए अमूल्य धरोहर है। उन्होंने मुझे काव्य-संग्रह निकालने की सलाह भी दी, भूमिका वे स्वयं लिखते, पर यह नहीं हो पाया।
अंत में अपने बच्चों के दिए उत्साह और लगन के फलस्वरूप, उनके ही सहयोग से मेरा पहला काव्य-संग्रह "नदी पुकारे सागर" प्रकाशित हुआ। उस संग्रह का नामकरण मेरे परम आदरनिये गुरु भूतपूर्व अध्यक्ष एवं प्रोफेसर डॉ पूर्णेंदु ने किया... भूमिका की जगह उन्होंने लिखा "इन रचनाओं के बीच से गुजरते हुए..." मैं हमेशा आभारी रहूंगी-
" कौन से क्षण थे वे
जो अपनी अस्मिता लिए
समस्त आपाधापी को परे हटा
अनायास ही अंकित होते गए
मैं तो केवल माध्यम बनी............!

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

स्वतंत्र लेखन वृक्ष