अली सरदार जाफ़री: Difference between revisions
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Revision as of 06:57, 7 January 2020
अली सरदार जाफ़री
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पूरा नाम | अली सरदार जाफ़री |
जन्म | 29 नवम्बर, 1913 |
जन्म भूमि | बलरामपुर, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 1 अगस्त, 2000 |
मृत्यु स्थान | मुम्बई, महाराष्ट्र |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | शायर |
मुख्य रचनाएँ | परवाज़, नई दुनिया को सलाम, ख़ून की लकीर, अमन का सितारा, एशिया जाग उठा, पत्थर की दीवार, मेरा सफ़र आदि। |
भाषा | उर्दू, फ़ारसी |
विद्यालय | अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, लखनऊ विश्वविद्यालय |
शिक्षा | एम. ए. |
पुरस्कार-उपाधि | पद्मश्री, ज्ञानपीठ पुरस्कार, राष्ट्रीय इक़बाल सम्मान, उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, रूसी सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार आदि |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | अपने चिंतन के कारण सरदार का झुकाव वामपंथी राजनीति की ओर हुआ और वे कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य बन गए। राजनैतिक उठा-पटक का नतीजा यह हुआ कि उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा और उन्होंने कई रचनाएँ जेल की सीखचों के भीतर रह कर ही लिखीं। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
अली सरदार जाफ़री (अंग्रेज़ी: Ali Sardar Jafri, जन्म: 29 नवम्बर, 1913; मृत्यु: 1 अगस्त, 2000) उर्दू भाषा के एक प्रसिद्ध साहित्यकार थे। इन्हें 1997 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
जीवन परिचय
नवम्बर, मेरा गहंवारा है, ये मेरा महीना है
इसी माहे-मन्नवर में
मिरी आँखों ने पहली बार सूरज की सुनहरी रौशनी देखी
मिरे कानों में पहली बार इन्सानी सदा आयी
सन् 29 नवम्बर 1913 ई. को जन्म लेने वाले प्रसिद्ध शायर अली सरदार जाफ़री के लिए निश्चित ही नवम्बर एक यादगार महीना रहा होगा। सरदार का जन्म गोंडा ज़िले के बलरामपुर गाँव में हुआ था और वहीं पर हाईस्कूल तक उनकी शिक्षा-दीक्षा भी हुई थी। आगे की पढा़ई के लिए उन्होंने अलीगढ़ की मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहाँ पर उनको उस समय के मशहूर और उभरते हुए शायरों की संगत मिली जिनमें अख़्तर हुसैन रायपुरी, सिब्ते-हसन, जज़्बी, मजाज़, जाँनिसार अख़्तर और ख़्वाजा अहमद अब्बास जैसे अदीब भी थे।
कोई सरदार कब था इससे पहले तेरी महफ़िल में
बहुत अहले-सुखन उट्ठे बहुत अहले-कलाम आये।
यह वह दौर था जब अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी और कई नौजवान इस आंदोलन में कूद पडे़ थे। इसी समय वॉयसराय के इक्ज़िकिटिव कौंसिल के सदस्यों के विरुद्ध हड़ताल करने के लिए सरदार को यूनिवर्सिटी से निकाल दिया गया। अपनी पढा़ई आगे जारी रखते हुए उन्होंने एँग्लो-अरेबिक कालेज, दिल्ली से बी.ए. पास किया और बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. की डिग्री हासिल की। फिर भी, छात्र-आंदोलनों में भाग लेने का उनका जज़्बा कम नहीं हुआ। परिणामस्वरूप उन्हें जेल जाना पडा़। इसी जेल में उनकी मुलाकात प्रगतिशील लेखक संघ के सज्जाद ज़हीर से हुई और लेनिन व मार्क्स के साहित्य के अध्ययन का अवसर मिला। यहीं से उनके चिंतन और मार्ग-दर्शन को ठोस ज़मीन भी मिली। इसी प्रकार अपनी साम्यवादी विचारधारा के कारण वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुडे़ जहाँ उन्हें प्रेमचन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' , मुल्कराज आनंद जैसे भारतीय सहित्यकारों तथा नेरूदा व लुई अरांगा जैसे विदेशी चिंतकों के विचारों को जानने - समझने का अवसर मिला। कई आलिमों की संगत का यह असर हुआ कि सरदार एक ऐसे शायर बने जिनके दिल में मेहनतकशों के दुख-दर्द बसे हुए थे।[1]
प्रमुख कृतियाँ
- ‘परवाज़’ (1944)
- ‘जम्हूर’ (1946)
- ‘नई दुनिया को सलाम’ (1947)
- ‘ख़ूब की लकीर’ (1949)
- ‘अम्मन का सितारा’ (1950)
- ‘एशिया जाग उठा’ (1950)
- ‘पत्थर की दीवार’ (1953)
- ‘एक ख़्वाब और' (1965)
- 'पैराहने शरर' (1966)
- ‘लहु पुकारता है’ (1978)
- 'मेरा सफ़र' (1999)
साहित्यिक परिचय
मेहनतकश चाहे खेत के खुले वातावरण में काम करने वाला किसान हो या मिल की कफ़स में कार्यरत मज़दूर, शोषण तो उसका हर जगह होता है। सब से अधिक दु:ख तो इस बात का है कि बाल श्रमिक भी इस शोषण से नहीं बच पाया है। अपने इसी चिंतन के कारण सरदार का झुकाव वामपंथी राजनीति की ओर हुआ और वे कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य बन गए। राजनैतिक उठा-पटक का नतीजा यह हुआ कि उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा और उन्होंने कई रचनाएँ जेल की सीखचों के भीतर रह कर ही लिखीं।
मुझे गिरफ्तार करके जब जेल ला रहे थे पुलिसवाले
तुम अपने बिस्तर से अपने दिल के
अधूरे ख़्वाबों को लेकर बेदार हो गई थीं
तुम्हारी पलकों से नींद अब भी टपक रही थी
मगर निगाहों में नफरतों के अज़ीम शोले भड़क उठे थे...
सरदार चाहे जहाँ भी रहे, उनकी लेखनी निरंतर चलती रही। नतीजतन उन्होंने ग्यारह काव्य-संग्रह, चार गद्य संग्रह, दो कहानी संग्रह और एक नाटक के अलावा कई पद्य एवं गद्य का योगदान साहित्यिक पत्रिकाओं को दिया। परंतु उनकी ख्याति एक ऐसे शायर के रूप में उभरी जिसने उर्दू शायरी में छंद-मुक्त कविता की परंपरा शुरू की। तभी तो उनकी कई रचनाएँ; जैसे परवाज़, नई दुनिया को सलाम, खून की लकीर, अमन का सितारा, एशिया जाग उठा, पत्थर की दीवार और मेरा सफ़र ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। अपनी रचनाओं में उन्होंने प्रतीकों, बिम्बों और मिथकों का भी सुंदर प्रयोग किया है। यद्यपि सरदार ने अपनी शायरी में फ़ारसी का अधिक प्रयोग किया है, फिर भी उनकी रचनाएँ आम आदमी तक पहुँची और बेहद मकबूल हुई। उनके क़लम का लोहा देश में ही नहीं, अपितु अंतरराष्ट्रीय साहित्य जगत् में भी माना जाता है।[1]
सम्मान और पुरस्कार
- ज्ञानपीठ पुरस्कार
- उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार
- कुमारन आशान पुरस्कार
- राष्ट्रीय इक़बाल सम्मान
- पद्मश्री
- रूसी सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार
निधन
इस अज़ीम शायर ने अपने पूरे जीवन में मज़लूम और मेहनतकश ग़रीबों की समस्याओं को उजागर करने के लिए अपनी क़लम चलाई जिसके लिए उन्हें निजी यातनाएँ भी झेलनी पडी़। 86 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते अपने जीवन के अंतिम दिनों में ब्रेन-ट्यूमर से ग्रस्त होकर कई माह तक मुम्बई अस्पताल में मौत से जूझते रहे।
मैं सोता हूँ और जागता हूँ
और जाग कर फिर सो जाता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाता हूँ।
अंततः 1 अगस्त, 2000 को इस फ़ानी दुनिया को अली सरदार जाफ़री ने अलविदा कह दिया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 902 |
- ↑ 1.0 1.1 प्रसाद, चंद्र मौलेश्वर। मैं यहाँ फिर आऊँगा - अली सरदार जाफ़री (हिन्दी) साहित्य कुञ्ज। अभिगमन तिथि: 24 जनवरी, 2015।
बाहरी कड़ियाँ
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