अलकपाद
अलकपाद (सिरिपीडिया) कठिनिवर्ग (क्रस्टेशिया) के अंतर्गत एक अनुवर्ग के जीव हैं। इनमें कई जातियाँ हैं। सभी केवल समुद्र में रहते हैं। कुछ अलकपाद खाड़ियों तथा नदियों के मुहानों में भी मिलते हैं। कुछ अलकपाद परजीवी जीवन व्यतीत करते हैं। अधिकांश अलकपाद प्रौढ़ अवस्था में चट्टानों या बहते हुए पदार्थो से अपने अग्र भाग (गरदन) द्वारा चिपके रहते हैं। साधारणतया ये तीन इंच लंबे होते हैं, किंतु एक जाति के सदस्य लगभग नौ इंच लंबे और सवा इंच मोटी गरदन के होते हैं। जहाजों पर कभी कभी अलकपाद इतनी संख्या में चिपक जाते हैं कि जहाज का वेग आधा हो जाता है, इंजनों में तेल या कोयला बहुत खर्च होता है और मशीनों पर अनुचित बल पड़ता है। इसलिए जहाजों को नौनिवेश (डॉक) में रखकर बार-बार साफ करना पड़ता है। अनुमान किया गया है कि इस सफाई में प्रति वर्ष पचास करोड़ रुपए से अधिक ही खर्च होता होगा। कुछ जंगली मनुष्य जातियाँं बड़े अलकपादों का मांस खाती हैं। जापान के लोग समुद्र में बांस बांध देते हैं और जब उनपर पर्याप्त अलकपाद चिपक जाते हैं तो उनको खुरचकर छुड़ा लेते हैं और खेतों में खाद की तरह डालते हैं। अलकपादों के शरीर अपूर्ण, उदर अविकसित, उर से निकली तीन जोड़ी द्विशाखी टांगें ओर एक जोड़ी पुच्छकंटिका (कॉडल स्टाइल्स) होती है। आँख नहीं होती और डिंभ (छोटा बच्चा, लार्वा) स्पर्शसूत्रकों (ऐंटन्यूल्स) द्वारा चिपकता है, परंतु प्रौढ़ अवस्था में इन सूत्रों के चिह्न मात्र रह जाते हैं। स्पर्शसूत्र (ऐंटेनी) बिलकुल नहीं होते। बारनेकल और सोपीनुपा अलपकाद अलकपादों के परिचित उदाहरण हैं। thumb|left|अलकपाद का वाहय रूप बारनेकल अपने एँडीनुमा अग्रभाग से, जिसे ऊपर गरदन कहा गया है। और जिसे अंग्रेजी में पेंडकल (छोटा पैर) कहते हैं, समुद्र में बहते हुए पदार्थों से चिपके रहते हैं। सीपीनुमा जातियों में एँडीवाला भाग नहीं होता, ये सिर के अग्रभाग के चट्टानों में चिपके पाए जाते हैं ओर चारों तरफ कड़े पट्टों से घिरे रहते हैं जंतु का सारा शरीर, जो मुंडक (कैपिटुलम) कहलाता है, द्विपुट चर्म के खोल से ढंका रहता है और यह खोल पाँच कड़े पट्टों से सुरक्षित रहता है। द्विपुट खोल नीचे की ओर खुला रहता है, जिनसे द्विशाखी टाँगें निकली रहती हैं। खोल के पिछले भाग की ओर मुँह रहता है। खाने के समय यह जीव अपनी टाँगे जल्दी जल्दी बाहर भीतर इस प्रकार निकालता है और खींचता है कि खाद्य वस्तुएँ, जो पानी में रहती हैं, मुँह में चली जाती हैं। इस तरह वह अपना पेट भरता है। छेड़ने से टाँगों का चलना बंद हो जाता हैं और खोल के पुट बंद हो जाते हैं। टाँगे रोएँदार पर की तरह होती हैं और वे नन्हें समुद्री जीवों को पकड़ने में जाल का काम देती हैं। इन्हीं केश के समान टाँगों के कारण इन प्राणियों का नाम अलकपाद पड़ा है। अंग्रेजी शब्द सिरिपीडिया का अर्थ ठीक यही है- केश के समान पैरवाले प्राणी।thumb|right|अलकपाद की शरीर रचना अधिकांश प्रौढ़ अलकपाद उभयलिंगी होते हैं। एक का निषेचन दूसरे से,या अपने से ही, होता है। कुछ जातियाँ ऐसी भी हैं जिनमें यौन संरचना तीन प्रकार की होती है। स्कैल्पेलम् जाति में कुछ प्राणी उभयालिंगी, कुछ मादा और कुछ केवल नर ही होते हैं। मादा माप और आकार में तो उभयलिंगी प्राणी के सदृश होती हैं, परंतु इनमें वृषणकोष (टेस्टीज़) नहीं होते। नर उभयलिंगी और मादा की अपेक्षा बहुत ही छोटे होते हैं। ये या तो मादा के संरक्षक पट्टों के भीतर या उसके मुँह के पास रहते हैं। इनका कार्य एकांतवासी मादाओं का निषेचन करना होता है।
अलकपादों का जीवन इतिहास अंड से निकले नन्हें डिंभ (छोटे बच्चे) से प्रारंभ होता है। तब उनमें हाथ पाँव के बदले तीन जोड़ी अंग होते हैं। कई बार केचुल बदलने के बाद वे एकाएक ऐसे रूप में आ जाते हैं जिसमें उनका शरीर दो कड़े खोलों (प्रकवच) से ढंका रहता है। इस अवस्था में ये पूर्णपुच्छक (साइप्रिस) कहलाते हैं ये अपने छोट स्पर्शसूत्रकों (ऐंटेन्यूल्स) के चूषकों से पत्थर, जहाज, लकड़ी या जानवर (जैसे केकड़े) के शरीर पर चिपक जाते हैं। फिर वे अपने भीतर से निकलनेवाले चेप से अपने सर को बड़ी दृढ़ता से उस पत्थर आदि पर चिपका लेते हैं। तब दोनों प्रकवच झड़ जाते हैं और पांच खंडों का नया प्रकवच उग आता है। पहले के तीन जोड़ी अंग अब रोएँदार पैर हो जाते हैं, आँख मिट जाती है, गरदन बहुत लंबी हो जाती है और इस प्रकार अलकपाद अपनी युवावस्था में आ जाता है।
परजीवी अलकपाद में दो जातियाँ, कर्कटोदर स्यूनिका (सैक्यूलिना कार्सिनी) तथा शंखकर्कजीवी (पेल्टोगैस्टर), विशेषकर उल्लेखनीय हैं। कर्कटोदर स्यूनिका परजीवी जीवन से शारीरिक अधोगति का ज्वलंत उदाहरण है। प्रौढ़ अवस्था में एक विषम मांसतंत्र के ढेर की तरह यह केकड़े के उदरतल से चिपकी रहती हैं। इसकी जीवनकहानी बड़ी विचित्र है और तीन जोड़ी अंगवाले डिंभ से आरंभ होती है। इस डिंभ में ललाटश्रृंग होते हैं, किंतु मुंह या अन्नस्रोतस नहीं होता। पूर्णपुच्छक (साइप्रिस) अवस्था में यह किसी केकड़े की टाँग के एक दृढ़ रोम से अपने स्पर्शसूत्र को द्वारा चिपट जाती है। इस अवस्था में थोड़े समय के बाद पूर्णपुच्छक का सारा धड़, मांसपेशियां, टाँगे आँख और मलोत्सर्ग के अंग शरीर से बिलकुल पृथक् होकर गिर पड़ते हैं। थोड़ा सा भाग, जिसमें केवल डिंभाग ही रहते हैं, केकड़े के दृढ़ रोम से जुड़ा रह जाता है। तब डिंभ का यह बचा हुआ भाग केकड़े की देहगुण में चला जाता है। रक्तपरिवहन द्वारा फिर यह केकड़े के अन्नस्रोतस तक पहुँचकर उसके अधरतल में चिपक जाता है। तब इससे छोटी-छोटी शाखाएँ निकलती हैं जो आपस में मिलकर एक जाल सा केकड़े के सारे शरीर में बना लेती हैं। यह जाल टाँगों तक पहुँचता है। इसी बीच इसके अधरतल से फिर एक गाँठ सी निकलती है। जिसमें प्रजनन ग्रंथि तथा प्रगंड होता है। जैसे यह गांठ बढ़ती है वैसे-वैसे यह केकड़े के उदर के अधरतल पर दबाव डालती हैं। केकड़ा जब केचुल बदलता हैं तो स्यूनिका पूर्ण विकसित रूप से बाहर आकर केकड़े के उदर के अधरतल से चिपककर लटक जाती है।
स्यूनिका का परजीवी जीवन केवल उसका शारीरिक अध:पतन नहीं करना वरन अपने पोषक (केकड़े) के लिए भी बहुत हानिकारक सिद्ध होता है। मुख्य हानिकारक प्रभाव ये हैं: जब स्यूनिका किसी नर केकड़े के बाहर आ जाती है तो केकड़े का केचुल छोड़ना बिलकुल बंद हो जाता है और उसकी प्रजनन ग्रंथियाँ धीरे धीरे बिलकुल दुबली और दुर्बल हो जाती हैं। गौण लैंगिक अवयव, जैसे मैथुन कंटिका (कॉपुलेटरी स्टाइल्स) तथा नखर(कीली) नाप में बहुत छोटे हो जाते हैं। तब नर केकड़ा उभयलिंगी या मादा हो जाता है। उसका उदर विस्तीर्ण तथा चौड़ा हो जाता है। इसी तरह मादा के भी गौण लैंगिक अवयव (अंडवाही उपांग) नाप में छोटे हो जाते हैं। शंखकर्कजीवी नामक अलकपाद भी एक अन्य जाति के केकड़े के लिए उसी प्रकार हानिकारक है जिस प्रकार स्यूनिका नर केकड़ के लिए, किंतु कुछ अधिक मात्रा में।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 252 |