कुक्कुट

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कुक्कुट मुर्ग, मुर्गा-मुर्गा। भारतीय मूल का एक जंगली पक्षी जो अब पालतू बन गया है। चीन से प्राप्त एक लेख के अनुसार यह पक्षी तेईस सौ वर्ष पूर्व भारत से चीन ले जाया गया था। इससे यह ज्ञात होता है कि इस काल से बहुत पूर्व भारत में कुक्कुट पालन आरंभ हो गया था। मोंहें-जो-दड़ों से प्राप्त मिट्टी के एक मुहर पर कुक्कुट का अंकन भी इसका प्रमाण है। साहित्य में इसका प्राचीनतम उल्लेख अर्थर्ववेद में प्राप्त होता है। उन दिनों यह लोकविश्वास प्रचलित हो गया था कि घर में कुक्कुट पालने से राक्षसों और शत्रुओं के जादू-टोना का प्रभाव नहीं होता। वैदिक साहित्य से इस बात की जानकारी प्राप्त होती है कि अश्वमेध यज्ञ के समय सवितृ देवता को कुक्कुट की बलि दी जाती थी। परवर्ती काल में यज्ञ में कुक्कुटबलि निषिद्ध हो गई तथापि आजतक ग्राम देवताओं के सम्मुख इसकी बलि दी जाती है। भूत-पिशाचों को भी संतुष्ट करने के लिए कुक्कुट बलि की प्रथा अब भी अनेक ग्राम्य और वनजातियों में प्रचलित है। प्राचीन काल में लोग मनोविनोदार्थ की कुक्कुट पालते थे और उनके युद्ध में रस लेते थे। आजकल इस पक्षी का पालन मुख्यरूप से व्यवसाय के रूप में किया जाता है। उसका मांस और अंडा खाने के काम आता है (देखिए कुक्कुट उत्पादन)

भारतीय कुक्कुट की मूलत: दो जातियाँ हैं-

  • देश के दक्षिणी प्रायद्वीप के पश्चिम प्रदेश में छोटी पहाड़ियोंवाले क्षेत्र में बाँस की कोठियों के बीच पाई जाती हैं। इस जाति के कुक्कुट अधिकांशत: भुरमुटों और साफ किए जंगलों में उगी छोटी झाड़ियों तथा उजाड़ उपवनों में रहते हैं। इसको लैटिन की पारिभाषिक शब्दावली में गैलस सान्नेटाई कहते हैं।
  • इसका लैटिन नाम गैलस-गैलस है। यह हिमालय की तराई तथा दक्षिण में फैली पहाड़ियों की तलहटी तथा मध्यप्रदेश के साल जंगलों में पाई जाती है। भारत के अतिरिक्त यह वर्मा, थाइलैंड, मलाया प्रायद्वीप में भी पाई जाती है। दोनों ही जातियों के कुक्कुट प्राय: एक से ही होते हैं। प्रत्यक्ष भिन्नता केवल रंग में देखने में आती है। पहली जाति का कुक्कुट धारीदार भूरे रंग का होता है और उसकी पूँछ चमकदार और हंसिये की आकार की होती है। मादा कुक्कुट का पीठ का भाग हल्का कत्थई और पेट प्राय: सफेद होता है और उसमें चित्ती होती है। दूसरी जाति के कुक्कुट का रंग कुछ लाल होता है। इन दोनों ही जाति के कुक्कुट डरपोक और शर्मीले होते हैं और प्राय: यूथ बनाकर रहते हैं। वे अपनी ओट से खान ढूंढने के लिए सुबह शाम निकलते हैं अपनी ओट से अधिक दूर नहीं जाते। जरा सी आहट पाते ही झट अपनी ओट में घुस जाते हैं। अनाज, कोंपल, जंगली फल, गूलर आदि और कीड़े मकोड़े, मेढक, चूहा आदि इनके भोजन है।

कुक्कुट का वीरता में दूसरा कोई सानी नहीं है। मादा कुक्कुट अपने बच्चों की रक्षा के लिए जान लड़ा देती है। नर कुक्कुट अपनी मादा कुक्कुट को संकटग्रस्त देखकर कुछ भी कर सकता है। युद्धसन्नद्ध कुक्कुट अन्य जानवरों की तरह ही जूझते हैं। कदाचित्‌ उसकी इस वीरता के कारण ही इसे पुराणों में देवताओं के सेनापति कार्तिकेय का वाहन माना गया है और कला में इसका प्राय: इसी रूप में अंकन देखने में आता है।

संसार के सभी पालतू कुक्कुट गेलस-गेलस जाति से विकसित हुए हैं। भारत के पालतू कुक्कुट आज भी अधिकांशत: मूल नस्ल के ही हैं किंतु अन्यत्र संकर, प्रतिसंकर नस्लों के रूप में उसकी सौ से अधिक जातियाँ और उपजातियाँ बन गई हैं।

खाद्य (मांस और अंडे) की दृष्टि से अच्छे और व्यवसाय की दृष्टि से लाभदायक समझे जानेवाले कुक्कुटों में एशिया के बर्मा, कोचीन, और लेंगशान, आस्ट्रेलिया का आस्ट्रालार्म, भूमध्यसागरीय लेगहार्न और मिनोर्का, इंगलैंड के डार्किग, आर्पिगटन और ससेक्स तथा अमरीकी प्लीमथराक, वेडडोट्टे, राडै आइलैंड रेड और न्यू हेम्पशायर प्रमुख है। कुक्कुट की कुछ जाति और उपजाति ऐसी भी हैं जिन्हें लोग उनके रंग, रूप, कलँगी आदि की विशेषताओं के कारण मनोविनोदार्थ अथवा शौकिया पालते हैं। इस वर्ग के कुक्कुटों को बैंटम नाम से पुकारते हैं।

इन सभी जातियों के कुक्कुट की चोंच समान रूप से दृढ़ और नुकीली होती है। उनके गले में खाना रखने का एक थैला होता है जो प्राय: बाहर से दिखाई नहीं देता। इनके डैने इतने मजबूत नहीं होते कि वे ऊँची उड़ानें भर सकें; किंतु पैर और उँगलियां काफी सशक्त होती हैं जिनसे वे काफी दौड़ और भाग सकते हैं तथा उनके सहारे अड्डे पर बैठ सकते हैं। अधिकांश जाति के कुक्कुटों के पैरों में चार उँगलियाँ होती है। पर डार्किग आदि कुछ जातियों के कुक्कुटों के पाँच उँगलियाँ होती हैं। नर-कुक्कुट को इनके अतिरिक्त एक और उँगली होती है जिसे खाग कह सकते हैं। वह अत्यंत पैनी होती है। उसका सहयोग वे युद्ध के समय शत्रु को घायल करने के लिए करते हैं। नर और मादा, दोनों के सिर पर कलँगी और गले के नीचे लोरकी होती है। नर में ये दोनों ही मादा की अपेक्षा बड़े होते हैं। जाति और उपजाति के अनुरूप कलँगी आकार में छोटी अथवा बड़ी होती है और यह कलँगी किन्हीं में एक और किन्हीं में दो होती है। कुछ कुक्कुटों के पूँछ नहीं होती कुछ में बहुत बड़ी पूँछ होती है। जापान की याकोहामा जाति के कुक्कुट की पूँछ बीस फुट लंबी होती है। कुछ कुक्कुटों की गर्दन पर पंख नहीं होते। आकार, रंग और रूप की दृष्टि से जाति के अनुरूप बहुत विविधता देखने में आती है। कुछ तो आकार में इतने छोटे होते हैं कि उनका वजन एक किलोग्राम भी नहीं होता और कुछ छह-सात किलोग्राम वजन तक के होते हैं।

अन्य पक्षियों की तरह ही सामान्य अवस्था में मादा कुक्कुट वसंत के दिनों में प्रति दिन एक अंडा देती है किंतु पंद्रह अंडे से अधिक कभी नहीं देती। उसके बाद वह अंडों को सेना आरंभ करती है और तीन सप्ताह तक उन्हें सेती रहती है। अंडों से जब चूजे (बच्चे) निकल पड़ते हैं तब भी वह कई सप्ताह तक उनकी देखभाल करती है। उसके बाद अगले वसंत तक कोई अंडा नहीं देती। किंतु कुक्कुट पालनेवाले अधिक अंडे प्राप्त करने के लिए उसकी मूर्खता अथवा भोलेपन का लाभ उठाते हैं। जब वह 8-10 अंडे दे लेती है और जब उनके सेने का दिन निकट आने लगता है तो वे एक एक कर अंडे को हटाते जाते हैं और मादा कुक्कुट अंडों के पंद्रह की संख्या पूरी होने की आशा में सेने का काम न कर नित्य एक अंडा देती जाती है। यही नहीं, कुक्कुट पालन करने वाले अधिक अंडे प्राप्त करने के लिए अन्य उपाय भी करते हैं। वे उन्हें ऐसा भोजन देते हैं जिससे उनका अंडा देने का क्रम बंद न हो। वे प्रकाश और गर्मी की व्यवस्था कर कुक्कुट को गर्मी के मौसम के भ्रम में डाले रखते हैं। इस प्रकार मादा कुक्कुट वर्ष भर अंडा देती रहती हैं। कुछ वर्ष पूर्व तक पालतू मादा कुक्कुट वर्ष में 6 दर्जन से अधिक अंडे नहीं देती थीं। किंतु अब इन कृत्रिम उपायों के कारण वह सामान्य रूप से 150 अंडे देती है; कुछ ऐसी भी हैं जो 200 तक अंडे देती हैं। कुछ इनसे भी अधिक अंडे देती हैं। कुछ वर्ष पूर्व न्यूजीलैंड में एक मादा कुक्कुट ने वर्ष के 365 दिन में 361 अंडे दिए थे।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 3 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 54 |

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