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'''ईश्वर''' [[वेदान्त]] की परिभाषा में विशुद्ध सत्त्वप्रधान, सर्वोच्च शक्तिमान, सर्वसमर्थ, विश्वाधिष्ठाता, स्वामी, पमात्मा, अज्ञानोपहित चैतन्य को कहते हैं।  
'''ईश्वर''' [[वेदान्त]] की परिभाषा में विशुद्ध सत्त्वप्रधान, सर्वोच्च शक्तिमान, सर्वसमर्थ, विश्वाधिष्ठाता, स्वामी, पमात्मा, अज्ञानोपहित चैतन्य को कहते हैं।  
==सृष्टिकर्ता और नियामक==
==सृष्टिकर्ता और नियामक==
ईश्वर अन्तिम अथवा पर तत्त्व नहीं है, अपितु अपर अथवा सगुण ब्रह्म है। परम ब्रह्म तो निर्गुण तथा निष्क्रिय है। अपर ईश्वर सगुण रूप में सृष्टिकर्ता और नियामक है, भक्तों और साधकों का ध्येय है। सगुण ब्रह्म ही पुरुष<ref>पुरुषोत्तम</ref> अथवा ईश्वर नाम से सृष्टि का कर्ता, धर्ता और संहर्ता के रूप में पूजित होता है। वही देवाधिदेव है और समस्त [[देवता]] भी उसी की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं। संसार के सभी महत्त्वपूर्ण कार्य उसी के नियन्त्रण में होते हैं परंतु जगत में चाहे जिस रूप में दिखाई पड़े, अनंतोगत्वा वह शुद्ध निष्कल ब्रह्म है।  
ईश्वर अन्तिम अथवा पर तत्त्व नहीं है, अपितु अपर अथवा सगुण ब्रह्म है। परम ब्रह्म तो निर्गुण तथा निष्क्रिय है। अपर ईश्वर सगुण रूप में सृष्टिकर्ता और नियामक है, भक्तों और साधकों का ध्येय है। सगुण ब्रह्म ही पुरुष<ref>पुरुषोत्तम</ref> अथवा ईश्वर नाम से सृष्टि का कर्ता, धर्ता और संहर्ता के रूप में पूजित होता है। वही देवाधिदेव है और समस्त [[देवता]] भी उसी की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं। संसार के सभी महत्त्वपूर्ण कार्य उसी के नियन्त्रण में होते हैं परंतु जगत् में चाहे जिस रूप में दिखाई पड़े, अनंतोगत्वा वह शुद्ध निष्कल ब्रह्म है।  
==शासन और दण्ड का निर्णय==
==शासन और दण्ड का निर्णय==
यह अपनी योग माया से मुक्त होकर विश्व पर शासन करता है और कर्मों के फल-पुरस्कार अथवा दण्ड का निर्णय करता है, यद्यपि कर्म का दल स्वयं उत्पन्न करते हैं। न्याय-वैशेषिक दर्शन में ईश्वर सगुण है और सृष्टि का निमित्त कारण है। जैसे कुम्हार मिट्टी के लोंदे से मृदभाण्ड तैयार करता है। योगदर्शन में ईश्वर पुरुष है और मानव आदि गुरु हैं। सांख्यदर्शन के अनुसार सृष्टि के विकास के लिए प्रकृति पर्याप्त है, विकास प्रक्रिया में ईश्वर की कोई आवश्यकरा नहीं। [[पूर्वमीमांसा]] भी कर्मफल के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं मानती। उसके अनुसार वेद स्वयम्भू हैं, ईश्वरनि:श्वसित नहीं। आर्हत, बौद्ध और [[चार्वाक दर्शन|चार्वाक दर्शनों]] में ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं की गयी है। भक्त दार्शनिकों की मुख्यत: दो श्रेणियाँ हैं-  
यह अपनी योग माया से मुक्त होकर विश्व पर शासन करता है और कर्मों के फल-पुरस्कार अथवा दण्ड का निर्णय करता है, यद्यपि कर्म का दल स्वयं उत्पन्न करते हैं। न्याय-वैशेषिक दर्शन में ईश्वर सगुण है और सृष्टि का निमित्त कारण है। जैसे कुम्हार मिट्टी के लोंदे से मृदभाण्ड तैयार करता है। योगदर्शन में ईश्वर पुरुष है और मानव आदि गुरु हैं। सांख्यदर्शन के अनुसार सृष्टि के विकास के लिए प्रकृति पर्याप्त है, विकास प्रक्रिया में ईश्वर की कोई आवश्यकरा नहीं। [[पूर्वमीमांसा]] भी कर्मफल के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं मानती। उसके अनुसार वेद स्वयम्भू हैं, ईश्वरनि:श्वसित नहीं। आर्हत, बौद्ध और [[चार्वाक दर्शन|चार्वाक दर्शनों]] में ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं की गयी है। भक्त दार्शनिकों की मुख्यत: दो श्रेणियाँ हैं-  
#द्वैतवादी आचार्य मध्य आदि ईश्वर का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार करते हैं और उसकी उपासना में ही जीवन का साफल्य देखते हैं।  
#द्वैतवादी आचार्य मध्य आदि ईश्वर का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार करते हैं और उसकी उपासना में ही जीवन का साफल्य देखते हैं।  
#अद्वैतवावियों में ईश्वर को लेकर कई सूक्ष्म भेद हैं। रामानुज उसको गुणोपेत विशिष्ट अद्वैत मानते हैं। वल्लभाचार्य ईश्वर में अपूर्व शक्ति की कल्पना कर जगत का उससे विकास होने पर भी उसे शुद्धद्वैत ही मानते हैं। ऐसे ही भेदोभेद, अचिन्त्य भेदाभेद आदि कई मत हैं।
#अद्वैतवावियों में ईश्वर को लेकर कई सूक्ष्म भेद हैं। रामानुज उसको गुणोपेत विशिष्ट अद्वैत मानते हैं। वल्लभाचार्य ईश्वर में अपूर्व शक्ति की कल्पना कर जगत् का उससे विकास होने पर भी उसे शुद्धद्वैत ही मानते हैं। ऐसे ही भेदोभेद, अचिन्त्य भेदाभेद आदि कई मत हैं।


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चित्र:Disamb2.jpg ईश्वर एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- ईश्वर (बहुविकल्पी)

ईश्वर वेदान्त की परिभाषा में विशुद्ध सत्त्वप्रधान, सर्वोच्च शक्तिमान, सर्वसमर्थ, विश्वाधिष्ठाता, स्वामी, पमात्मा, अज्ञानोपहित चैतन्य को कहते हैं।

सृष्टिकर्ता और नियामक

ईश्वर अन्तिम अथवा पर तत्त्व नहीं है, अपितु अपर अथवा सगुण ब्रह्म है। परम ब्रह्म तो निर्गुण तथा निष्क्रिय है। अपर ईश्वर सगुण रूप में सृष्टिकर्ता और नियामक है, भक्तों और साधकों का ध्येय है। सगुण ब्रह्म ही पुरुष[1] अथवा ईश्वर नाम से सृष्टि का कर्ता, धर्ता और संहर्ता के रूप में पूजित होता है। वही देवाधिदेव है और समस्त देवता भी उसी की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं। संसार के सभी महत्त्वपूर्ण कार्य उसी के नियन्त्रण में होते हैं परंतु जगत् में चाहे जिस रूप में दिखाई पड़े, अनंतोगत्वा वह शुद्ध निष्कल ब्रह्म है।

शासन और दण्ड का निर्णय

यह अपनी योग माया से मुक्त होकर विश्व पर शासन करता है और कर्मों के फल-पुरस्कार अथवा दण्ड का निर्णय करता है, यद्यपि कर्म का दल स्वयं उत्पन्न करते हैं। न्याय-वैशेषिक दर्शन में ईश्वर सगुण है और सृष्टि का निमित्त कारण है। जैसे कुम्हार मिट्टी के लोंदे से मृदभाण्ड तैयार करता है। योगदर्शन में ईश्वर पुरुष है और मानव आदि गुरु हैं। सांख्यदर्शन के अनुसार सृष्टि के विकास के लिए प्रकृति पर्याप्त है, विकास प्रक्रिया में ईश्वर की कोई आवश्यकरा नहीं। पूर्वमीमांसा भी कर्मफल के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं मानती। उसके अनुसार वेद स्वयम्भू हैं, ईश्वरनि:श्वसित नहीं। आर्हत, बौद्ध और चार्वाक दर्शनों में ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं की गयी है। भक्त दार्शनिकों की मुख्यत: दो श्रेणियाँ हैं-

  1. द्वैतवादी आचार्य मध्य आदि ईश्वर का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार करते हैं और उसकी उपासना में ही जीवन का साफल्य देखते हैं।
  2. अद्वैतवावियों में ईश्वर को लेकर कई सूक्ष्म भेद हैं। रामानुज उसको गुणोपेत विशिष्ट अद्वैत मानते हैं। वल्लभाचार्य ईश्वर में अपूर्व शक्ति की कल्पना कर जगत् का उससे विकास होने पर भी उसे शुद्धद्वैत ही मानते हैं। ऐसे ही भेदोभेद, अचिन्त्य भेदाभेद आदि कई मत हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

हिन्दू धर्म कोश |लेखक: डॉ. राजबली पाण्डेय |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग), लखनऊ |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 104-105 |

  1. पुरुषोत्तम

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