आर्यशूर: Difference between revisions

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[[इत्सिंग]] ने आठवीं शताब्दी के लगभग आर्यशूर की कविता की ख्याति का वर्णन अपने यात्रा विवरण में किया है। [[अजंता की गुफ़ाएँ|अजंता]] की दीवारों पर 'जातकमाला' के शांतिवादी, [[शिवि]], मैत्रीबल आदि जातकों के दृश्यों का अंकन और परिचयात्मक पद्यों का उत्खनन छठी शताब्दी में इसकी प्रसिद्धी का पर्याप्त परिचायक है। अश्वघोष द्वारा प्रभावित होने के कारण आर्यशूर का समय द्वितीय शताब्दी के अनंतर तथा पाँचवीं शताब्दी से पूर्व मानना न्यायसंगत होगा।  
[[इत्सिंग]] ने आठवीं शताब्दी के लगभग आर्यशूर की कविता की ख्याति का वर्णन अपने यात्रा विवरण में किया है। [[अजंता की गुफ़ाएँ|अजंता]] की दीवारों पर 'जातकमाला' के शांतिवादी, [[शिवि]], मैत्रीबल आदि जातकों के दृश्यों का अंकन और परिचयात्मक पद्यों का उत्खनन छठी शताब्दी में इसकी प्रसिद्धी का पर्याप्त परिचायक है। अश्वघोष द्वारा प्रभावित होने के कारण आर्यशूर का समय द्वितीय शताब्दी के अनंतर तथा पाँचवीं शताब्दी से पूर्व मानना न्यायसंगत होगा।  
====ग्रन्थ रचना====
====ग्रन्थ रचना====
इनका मुख्य ग्रंथ 'जातकमाला' चंपूशैली में निर्मित है। इसमें [[संस्कृत]] के गद्य-पद्य का मनोरम मिश्रण है। 34 जातकों का सुन्दर काव्यशैली तथा भव्य भाषा में वर्णन हुआ है। इसकी दो टीकाएँ संस्कृत में अनुपलब्ध होने पर भी तिब्बती अनुवाद में सुरक्षित हैं। आर्यशूर की दूसरी काव्य रचना 'पारमितासमास' है, जिसमें छहों पारमिताओं<ref>दान, शील, शांति, वीर्य, [[ध्यान]] तथा प्रज्ञा पारमिताओं</ref> का वर्णन छह सर्गों तथा 3,641 [[श्लोक|श्लोकों]] में सरल सुबोध शैली में किया गया है। दोनों काव्यों का उद्देश्य अश्वघोषीय काव्यकृतियों के समान ही रूखे मन वाले पाठकों को प्रसन्न कर [[बौद्ध धर्म]] के उपदेशों का विपुल प्रचार और प्रसार है<ref>रूक्ष-मनसामपि प्रसाद:</ref>। कवि ने प्रयोजन की सिद्धि के लिए बोलचाल की व्यवहारिक संस्कृत का प्रयोग किया है और उसे [[अलंकार]] के व्यर्थ आडम्बर से प्रयत्नपूर्वक बचाया है। पद्यभाग के समान गद्यभाग भी सुश्लिष्ट तथा सुन्दर है।<ref>संग्रह ग्रंथ- विंटरनित्स : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, भाग 2 (कलकत्ता 1925); बलदेव उपाध्याय : संस्कृत साहित्य का इतिहास (पंचम सं., काशी, 1958)</ref>
इनका मुख्य ग्रंथ 'जातकमाला' चंपूशैली में निर्मित है। इसमें [[संस्कृत]] के गद्य-पद्य का मनोरम मिश्रण है। 34 जातकों का सुन्दर काव्यशैली तथा भव्य भाषा में वर्णन हुआ है। इसकी दो टीकाएँ संस्कृत में अनुपलब्ध होने पर भी तिब्बती अनुवाद में सुरक्षित हैं। आर्यशूर की दूसरी काव्य रचना 'पारमितासमास' है, जिसमें छहों पारमिताओं<ref>दान, शील, शांति, वीर्य, [[ध्यान]] तथा प्रज्ञा पारमिताओं</ref> का वर्णन छह सर्गों तथा 3,641 [[श्लोक|श्लोकों]] में सरल सुबोध शैली में किया गया है। दोनों काव्यों का उद्देश्य अश्वघोषीय काव्यकृतियों के समान ही रूखे मन वाले पाठकों को प्रसन्न कर [[बौद्ध धर्म]] के उपदेशों का विपुल प्रचार और प्रसार है<ref>रूक्ष-मनसामपि प्रसाद:</ref>। कवि ने प्रयोजन की सिद्धि के लिए बोलचाल की व्यावहारिक संस्कृत का प्रयोग किया है और उसे [[अलंकार]] के व्यर्थ आडम्बर से प्रयत्नपूर्वक बचाया है। पद्यभाग के समान गद्यभाग भी सुश्लिष्ट तथा सुन्दर है।<ref>संग्रह ग्रंथ- विंटरनित्स : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, भाग 2 (कलकत्ता 1925); बलदेव उपाध्याय : संस्कृत साहित्य का इतिहास (पंचम सं., काशी, 1958)</ref>


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आर्यशूर संस्कृत के एक प्रख्यात बौद्ध कवि थे। साधारणत: ये अश्वघोष से अभिन्न माने जाते हैं, परन्तु दोनों की रचनाओं की भिन्नता के कारण आर्यशूर को अश्वघोष से भिन्न तथा पश्चाद्वर्ती मानना ही युक्तिसंगत है। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ 'जातकमाला' की प्रख्याति भारत की अपेक्षा भारत के बाहर बौद्ध जगत् में कम न थी। इनका चीनी भाषा में अनुवाद 10वीं शताब्दी में किया गया था।

समय काल

इत्सिंग ने आठवीं शताब्दी के लगभग आर्यशूर की कविता की ख्याति का वर्णन अपने यात्रा विवरण में किया है। अजंता की दीवारों पर 'जातकमाला' के शांतिवादी, शिवि, मैत्रीबल आदि जातकों के दृश्यों का अंकन और परिचयात्मक पद्यों का उत्खनन छठी शताब्दी में इसकी प्रसिद्धी का पर्याप्त परिचायक है। अश्वघोष द्वारा प्रभावित होने के कारण आर्यशूर का समय द्वितीय शताब्दी के अनंतर तथा पाँचवीं शताब्दी से पूर्व मानना न्यायसंगत होगा।

ग्रन्थ रचना

इनका मुख्य ग्रंथ 'जातकमाला' चंपूशैली में निर्मित है। इसमें संस्कृत के गद्य-पद्य का मनोरम मिश्रण है। 34 जातकों का सुन्दर काव्यशैली तथा भव्य भाषा में वर्णन हुआ है। इसकी दो टीकाएँ संस्कृत में अनुपलब्ध होने पर भी तिब्बती अनुवाद में सुरक्षित हैं। आर्यशूर की दूसरी काव्य रचना 'पारमितासमास' है, जिसमें छहों पारमिताओं[1] का वर्णन छह सर्गों तथा 3,641 श्लोकों में सरल सुबोध शैली में किया गया है। दोनों काव्यों का उद्देश्य अश्वघोषीय काव्यकृतियों के समान ही रूखे मन वाले पाठकों को प्रसन्न कर बौद्ध धर्म के उपदेशों का विपुल प्रचार और प्रसार है[2]। कवि ने प्रयोजन की सिद्धि के लिए बोलचाल की व्यावहारिक संस्कृत का प्रयोग किया है और उसे अलंकार के व्यर्थ आडम्बर से प्रयत्नपूर्वक बचाया है। पद्यभाग के समान गद्यभाग भी सुश्लिष्ट तथा सुन्दर है।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 116 |

  1. दान, शील, शांति, वीर्य, ध्यान तथा प्रज्ञा पारमिताओं
  2. रूक्ष-मनसामपि प्रसाद:
  3. संग्रह ग्रंथ- विंटरनित्स : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, भाग 2 (कलकत्ता 1925); बलदेव उपाध्याय : संस्कृत साहित्य का इतिहास (पंचम सं., काशी, 1958)

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