सद्धर्मपुण्डरीक: Difference between revisions
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*चीन और जापान में आचार्य कुमारजीव- कृत इसका अनुवाद अत्यन्त लोकप्रिय है। | *चीन और जापान में आचार्य कुमारजीव- कृत इसका अनुवाद अत्यन्त लोकप्रिय है। | ||
*ईस्वीय 615 वर्ष में जापान के एक | *ईस्वीय 615 वर्ष में जापान के एक राजपूत्र शी-तोकु-ताय-शि ने इस पर एक टीका लिखी, जो अत्यन्त आदर के साथ पढ़ी जाती है। | ||
*इस ग्रन्थ पर आचार्य वसुबन्धु ने 'सद्धर्म-पुण्डरीकशास्त्र' नामक टीका लिखी, जिसका बोधिरुचि और रत्नमति ने लगभग 508 ईस्वीय वर्ष में चीनी भाषा में अनुवाद किया था। इसका सम्पादन 1992 में प्रो. एच. कर्न एवं बुनियिउ नंजियों ने किया। | *इस ग्रन्थ पर आचार्य वसुबन्धु ने 'सद्धर्म-पुण्डरीकशास्त्र' नामक टीका लिखी, जिसका बोधिरुचि और रत्नमति ने लगभग 508 ईस्वीय वर्ष में चीनी भाषा में अनुवाद किया था। इसका सम्पादन 1992 में प्रो. एच. कर्न एवं बुनियिउ नंजियों ने किया। | ||
*इस ग्रन्थ में कुल 27 अध्याय है, जिन्हें 'परिवर्त' कहा गया है। प्रथम निदान परिवर्त में इसमें उपदेश की पृष्ठभूमि और प्रयोजन की चर्चा करते हुए कहा गया है कि यह 'वैपुल्यसूत्रराज' है। इस परिच्छेद का मुख्य प्रतिपाद्य तो भगवान का यह कहना है कि 'तथागत नाना निरुक्ति और निदर्शनों (उदाहरणों) से, विविध उपायों से नाना अधिमुक्ति, रुचि और (बुद्धि की) क्षमता वाले सत्वों को सद्धर्म का प्रकाशन करते हैं। सद्धर्म कत्तई तर्कगोचर नहीं है। तथागत सत्त्वों को तत्त्वज्ञान का सम्यग् अवबोध कराने के लिए ही लोक में उत्पन्न हुआ करते हैं। तथागत यह महान् कृत्य एक ही यान पर आधिष्ठित होकर करते हैं, वह एक यान है 'बुद्धयान' उससे अन्य कोई दूसरा और तीसरा यान नहीं है। वह बुद्धमय ही सर्वज्ञता को प्राप्त कराने वाला है। अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न तीनों कालों के बुद्धों ने बुद्धयान को ही अपनाया है। वे बुद्धयान का ही तीन यानों (श्रावकयान, प्रत्येक बुद्धयान और बोधिसत्त्वयान) के रूप में निर्देश करते हैं। अत: बुद्धयान ही एकमात्र यान है। | *इस ग्रन्थ में कुल 27 अध्याय है, जिन्हें 'परिवर्त' कहा गया है। प्रथम निदान परिवर्त में इसमें उपदेश की पृष्ठभूमि और प्रयोजन की चर्चा करते हुए कहा गया है कि यह 'वैपुल्यसूत्रराज' है। इस परिच्छेद का मुख्य प्रतिपाद्य तो भगवान का यह कहना है कि 'तथागत नाना निरुक्ति और निदर्शनों (उदाहरणों) से, विविध उपायों से नाना अधिमुक्ति, रुचि और (बुद्धि की) क्षमता वाले सत्वों को सद्धर्म का प्रकाशन करते हैं। सद्धर्म कत्तई तर्कगोचर नहीं है। तथागत सत्त्वों को तत्त्वज्ञान का सम्यग् अवबोध कराने के लिए ही लोक में उत्पन्न हुआ करते हैं। तथागत यह महान् कृत्य एक ही यान पर आधिष्ठित होकर करते हैं, वह एक यान है 'बुद्धयान' उससे अन्य कोई दूसरा और तीसरा यान नहीं है। वह बुद्धमय ही सर्वज्ञता को प्राप्त कराने वाला है। अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न तीनों कालों के बुद्धों ने बुद्धयान को ही अपनाया है। वे बुद्धयान का ही तीन यानों (श्रावकयान, प्रत्येक बुद्धयान और बोधिसत्त्वयान) के रूप में निर्देश करते हैं। अत: बुद्धयान ही एकमात्र यान है। |
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- महायान वैपुल्यसूत्रों में यह अन्यतम एवं एक आदृत सूत्र है। 'पुण्डरीक' का अर्थ 'कमल' होता है। 'कमल' पवित्रता और पूर्णता का प्रतीक होता है। जैसे पंक (कीचड़) में उत्पन्न होने पर भी कमल उससे लिप्त नहीं होता, वैसे लोक में उत्पन्न होने पर भी बुद्ध लोक के दोषों से लिप्त नहीं होते। इसी अर्थ में सद्धर्मपुण्डरीक यह ग्रन्थ का सार्थक नाम है।
- चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत आदि महायानी देशों में इसका बड़ा आदर है और यह सूत्र बहुत पवित्र माना जाता है।
- चीनी भाषा में इसके छह अनुवाद हुए, जिसमें पहला अनुवाद ई. सन् 223 में हुआ।
- धर्मरक्ष, कुमारजीव, ज्ञानगुप्त और धर्मगुप्त इन आचार्यों के अनुवाद भी प्राप्त होते हैं।
- चीन और जापान में आचार्य कुमारजीव- कृत इसका अनुवाद अत्यन्त लोकप्रिय है।
- ईस्वीय 615 वर्ष में जापान के एक राजपूत्र शी-तोकु-ताय-शि ने इस पर एक टीका लिखी, जो अत्यन्त आदर के साथ पढ़ी जाती है।
- इस ग्रन्थ पर आचार्य वसुबन्धु ने 'सद्धर्म-पुण्डरीकशास्त्र' नामक टीका लिखी, जिसका बोधिरुचि और रत्नमति ने लगभग 508 ईस्वीय वर्ष में चीनी भाषा में अनुवाद किया था। इसका सम्पादन 1992 में प्रो. एच. कर्न एवं बुनियिउ नंजियों ने किया।
- इस ग्रन्थ में कुल 27 अध्याय है, जिन्हें 'परिवर्त' कहा गया है। प्रथम निदान परिवर्त में इसमें उपदेश की पृष्ठभूमि और प्रयोजन की चर्चा करते हुए कहा गया है कि यह 'वैपुल्यसूत्रराज' है। इस परिच्छेद का मुख्य प्रतिपाद्य तो भगवान का यह कहना है कि 'तथागत नाना निरुक्ति और निदर्शनों (उदाहरणों) से, विविध उपायों से नाना अधिमुक्ति, रुचि और (बुद्धि की) क्षमता वाले सत्वों को सद्धर्म का प्रकाशन करते हैं। सद्धर्म कत्तई तर्कगोचर नहीं है। तथागत सत्त्वों को तत्त्वज्ञान का सम्यग् अवबोध कराने के लिए ही लोक में उत्पन्न हुआ करते हैं। तथागत यह महान् कृत्य एक ही यान पर आधिष्ठित होकर करते हैं, वह एक यान है 'बुद्धयान' उससे अन्य कोई दूसरा और तीसरा यान नहीं है। वह बुद्धमय ही सर्वज्ञता को प्राप्त कराने वाला है। अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न तीनों कालों के बुद्धों ने बुद्धयान को ही अपनाया है। वे बुद्धयान का ही तीन यानों (श्रावकयान, प्रत्येक बुद्धयान और बोधिसत्त्वयान) के रूप में निर्देश करते हैं। अत: बुद्धयान ही एकमात्र यान है।
एकं हि यानं द्वितीयं न विद्यते
तृतीयं हि नैवास्ति कदापि लोके।[1]
- द्वितीय उपायकौशल्यं परिवर्त में भगवान् ने शारिपुत्र के लिए व्याकरण किया कि वह अनागत काल में पद्मनाभ नाम के तथागत होंगे और सद्धर्म का प्रकाश करेंगे। शारिपुत्र के बारे में व्याकरण सुनकर जब वहाँ उपस्थित 12 हज़ार श्रावकों को विचिकित्सा उत्पन्न हुई तब उसे हटाते हुए भगवान ने तृतीय औपम्यपरिवर्त में एक उदाहरण देते हुए कहा कि किसी महाधनी पुरुष के कई बच्चे हैं, वे खिलौनों के शौक़ीन हैं। उसके घर में आग लग जाए, उसमें बच्चे घिर जाएं और निकलने का एक ही द्वार हो, तब पिता बच्चों को पुकार कर कहता है- आओ बच्चों, खिलौने ले लो, मेरे पास बहुत खिलौने हैं, जैसे- गोरथ, अश्वरथ, मृगरथ आदि। तब वे बच्चे खिलौन के लोभ में बाहर आ जाते हैं। तब शारिपुत्र, वह पुरुष उन सभी बच्चों को सर्वोत्कृष्ट गोरथ देता है। जो अश्वरथ और मृगरथ आदि हीन हैं, उन्हें नहीं देता। ऐसा क्यों? इसलिए कि वह महाधनी है और उसका कोष (ख़ज़ाना) भरा हुआ है। भगवान कहते हैं कि उसी प्रकार ये सभी मेरे बच्चे हैं, मुझे चाहिए कि इन सबको समान मान कर उन्हें 'महायान' ही दूँ। क्या शारिपुत्र, उस पिता ने तीनों यानों को बताकर एक ही 'महायान' दिया, इसमें क्या उनका मृषावाद है? शारिपुत्र ने कहा नहीं भगवान तथागत महाकारुणिक हैं, वह सभी सत्वों के पिता हैं। वे दु:ख रूपी जलते हुए घर से बाहर लाने के लिए तीनों यानों की देशना करते हैं, किन्तु अन्त में सबकों बुद्धयान की ही देशना देते हैं।
- व्याकरणपरिवर्त नामक षष्ठ (छठवें) परिच्छेद में श्रावकयान के अनेक स्थविरों के बारे में, जो महायन में प्रविष्ट हो चुके थे, व्याकरण किया गया है। बुद्ध कहते हैं कि महास्थविर महाकाश्यप भविष्य में 'रश्मिप्रभास' तथागत होंगे। स्थविर सुभूति, 'शशिकेतु', महाकात्यायन 'जाम्बूनदप्रभास' तथा महामौदलयायन 'तमालपत्र चन्द्रनगन्ध' नाम के तथागत होंगे। *पञ्चभिक्षुशतव्याकरण परिवर्त में पूर्ण मैत्रायणी पुत्र आदि अनेक भिक्षुओं के बुद्धत्व-प्राप्ति का व्याकरण किया गया है।
- नवम परिवर्त में आयुष्मान आनन्द और राहुल आदि दो सहस्र श्रावकों के बारे में बुद्धत्व-प्राप्ति का व्याकरण है।
- उस समय वहाँ महाप्रजापति गौतमी और भिक्षुणी राहुल माता यशोधरा आदि परिषद में दु:खी होकर इसलिए बैठी थीं कि भगवान ने हमारे बारे में बुद्धत्व का व्याकरण क्यों नहीं किया? भगवान् ने उनके चित्त का विचार जानकर कृपापूर्वक उनका भी व्याकरण किया।
- सद्धर्मपुण्डरीक के इस संक्षिप्त पर्यालोचन से महायान बौद्ध-धर्म का हीनयान से सम्बन्ध स्पष्ट होता है। पालि-ग्रन्थों में दो प्रकार की धर्म देशना है। एक दानकथा, शीलकथा आदि उपाय धर्म देशना हैं ता दूसरी 'सामुक्कंसिका धम्मदेशना है', जिसमें चार आर्यसत्यों की देशना दी जाती है। इस सद्धर्मपुण्डरीक में चार आयसत्यों की देशना तथा सर्वज्ञताज्ञान पर्यवसायी दो देशनाएं हैं। यह सर्वज्ञताज्ञान प्राप्त कराने वाली देशना भगवान ने शारिपुत्र आदि को जो पहले नहीं दीं, यह उनका उपायकौशल्य है। यह द्वितीय देशना ही परमार्थ देशना है। इसमें शारिपुत्र आदि महास्थविरों और महाप्रजापति गौतमी आदि स्थविराओं को बुद्धत्व प्राप्ति का आश्वासन दिया गया है। हीनयान में उपदिष्ट धर्म भी बुद्ध का ही है। उसे एकान्तत: मिथ्या नहीं कहा गया है, किन्तु केवल उपायसत्य है, परमार्थसत्य तो बुद्धयान ही है।
- सद्धर्मपुण्डरीक में बुद्धयान एवं तथागत की महिमा का वर्णन है, तथापि इस ग्रन्थ के कुछ अध्यायों में अवलोकितेश्वर आदि बोधिसत्त्वों की महिमा का भी पुष्कल वर्णन है। अवलोकितेश्वर बोधिसत्त्व करुणा की मूर्ति हैं। अवलोकितेश्वर ने यद्यपि बोधि की प्राप्ति की है, तथापि जब तक संसार में एक भी सत्त्व दु:खी और बद्ध रहेगा, तब तक निर्वाण प्राप्त नहीं करने का उनका संकल्प है। वे निर्वाण में प्रवेश नहीं करेंगे। वे सदा बोधिसत्व की साधना में निरत रहते हैं। इससे उनकी महिमा कम नहीं होती। बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर के नाम मात्र के उच्चारण में अनेक दु:खों और आपदाओं से रक्षण की शक्ति है। हम बोधिसत्त्वों की श्रद्धा के साथ उपासना का प्रारम्भ इस ग्रन्थ में देखते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ द्र.- सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र, 2:54, पृ. 31 (दरभङ्गा-संस्करण 1960