भरथरी: Difference between revisions

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[[संस्कृत]] के सुप्रसिद्ध कवि राजा भर्तृहरि को कौन नहीं जानता, जिन्होंने शृंगार, नीति तथा वैराग्य-शतकों की रचना कर अमरता प्राप्त की। लोकगीतों में वर्णित भरथरी तथा भर्तृहरि, दोनों एक ही व्यक्ति हैं, यह कहना कठिन है; परंतु दोनों के कथानकों में बहुत कुछ साम्य है। भरथरी की [[कथा]] संक्षेप में इस प्रकार है-
[[संस्कृत]] के सुप्रसिद्ध कवि राजा भर्तृहरि को कौन नहीं जानता, जिन्होंने श्रृंगार, नीति तथा वैराग्य-शतकों की रचना कर अमरता प्राप्त की। लोकगीतों में वर्णित भरथरी तथा भर्तृहरि, दोनों एक ही व्यक्ति हैं, यह कहना कठिन है; परंतु दोनों के कथानकों में बहुत कुछ साम्य है। भरथरी की [[कथा]] संक्षेप में इस प्रकार है-


[[उज्जैन]] में राजा इन्द्रसेन राज्य करते थे, जिनके लड़के का नाम चन्द्रसेन था। भरथरी इन्हीं के पुत्र थे। इनकी [[माता]] का नाम रूपदेई और स्त्री का नाम सामदेई था, जो सिंहल द्वीप की राजकुमारी थी। [[विवाह]] के पश्चात् जब भरभरी शयन कक्ष में गये, तब उन्होंने अपनी खाट को टूटा पाया तथा इसका कारण अपनी स्त्री से पूछा, जिसका संतोषजनक उत्तर वह न दे सकी।... संसार की झंझटों से ऊबकर भरथरी [[गोरखनाथ|गुरु गोरखनाथ]] के शिष्य बन जाते हैं, परंतु सन्यास धर्म में दीक्षित होने के पहले अपनी स्त्री से भिक्षा माँगकर लाना उनके लिए आवश्यक था। वे भिक्षा की याचना करने के लिए अपने घर गये। सामदेई ने यह पहचानकर कि भिक्षुक अन्य कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि मेरा पति ही है, भिक्षा देना पहले अस्वीकार कर दिया, परंतु बहुत अनुनय-विनय के पश्चात् इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। भरथरी ने गोरखनाथ से दीक्षा ग्रहण कर [[कामरूप]] ([[आसाम]]) देश की यात्रा की। इस प्रकार वे अन्त तक भ्रमण करते हुए यति-धर्म का पालन करते रहे।
[[उज्जैन]] में राजा इन्द्रसेन राज्य करते थे, जिनके लड़के का नाम चन्द्रसेन था। भरथरी इन्हीं के पुत्र थे। इनकी [[माता]] का नाम रूपदेई और स्त्री का नाम सामदेई था, जो सिंहल द्वीप की राजकुमारी थी। [[विवाह]] के पश्चात् जब भरभरी शयन कक्ष में गये, तब उन्होंने अपनी खाट को टूटा पाया तथा इसका कारण अपनी स्त्री से पूछा, जिसका संतोषजनक उत्तर वह न दे सकी।... संसार की झंझटों से ऊबकर भरथरी [[गोरखनाथ|गुरु गोरखनाथ]] के शिष्य बन जाते हैं, परंतु सन्यास धर्म में दीक्षित होने के पहले अपनी स्त्री से भिक्षा माँगकर लाना उनके लिए आवश्यक था। वे भिक्षा की याचना करने के लिए अपने घर गये। सामदेई ने यह पहचानकर कि भिक्षुक अन्य कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि मेरा पति ही है, भिक्षा देना पहले अस्वीकार कर दिया, परंतु बहुत अनुनय-विनय के पश्चात् इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। भरथरी ने गोरखनाथ से दीक्षा ग्रहण कर [[कामरूप]] ([[आसाम]]) देश की यात्रा की। इस प्रकार वे अन्त तक भ्रमण करते हुए यति-धर्म का पालन करते रहे।
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भरथरी की लोकगाथा भी कुछ कम प्रचलित नहीं है। [[उत्तर प्रदेश]] के पूर्वी ज़िलों में नाथपंथ के जोगी, जिन्हें 'साई' भी कहते हैं, [[सारंगी]] बजाकर इस गीत को गाते फिरते हैं। भरथरी की गाथा में गोपीचन्द के समसामयिक होने का उल्लेख पाया जाता है, परंत ऐतिहासिक दृष्टि से दोनों के समय में बड़ा ही अंतर है। लोकगाथाओं में गोपीचन्द तथा भरथरी, दोनों ही गोरखनाथ के शिष्य बतलाये गये हैं। सम्भवत: इसी के आधार पर दोनों के समसामायिक होने की कल्पना की गयी हो।
भरथरी की लोकगाथा भी कुछ कम प्रचलित नहीं है। [[उत्तर प्रदेश]] के पूर्वी ज़िलों में नाथपंथ के जोगी, जिन्हें 'साई' भी कहते हैं, [[सारंगी]] बजाकर इस गीत को गाते फिरते हैं। भरथरी की गाथा में गोपीचन्द के समसामयिक होने का उल्लेख पाया जाता है, परंत ऐतिहासिक दृष्टि से दोनों के समय में बड़ा ही अंतर है। लोकगाथाओं में गोपीचन्द तथा भरथरी, दोनों ही गोरखनाथ के शिष्य बतलाये गये हैं। सम्भवत: इसी के आधार पर दोनों के समसामायिक होने की कल्पना की गयी हो।


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भरथरी भारतीय इतिहास के प्रसिद्ध राजाओं में से एक थे। भारत की लोककथाओं में राजा भरथरी बहुत प्रसिद्ध हैं। कभी-कभी भरथरी और संस्कृत के महान् कवि भर्तृहरि को एक ही व्यक्ति माना जाता है। राजा भरथरी की लोकगाथा सारंगी बजाकर भिक्षा की याचना करने वाले जोगियों द्वारा बड़े प्रेम से गयी जाती है। ये जोगी इस गाथा को गाकर किसी का पूरा नहीं लिखाते। उनका विश्वास है कि इस सम्पूर्ण गाथा को लिखने तथा लिखाने वाले दोनों व्यक्तियों का सर्वनाश हो जाता है।

संक्षिप्त कथा

संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि राजा भर्तृहरि को कौन नहीं जानता, जिन्होंने श्रृंगार, नीति तथा वैराग्य-शतकों की रचना कर अमरता प्राप्त की। लोकगीतों में वर्णित भरथरी तथा भर्तृहरि, दोनों एक ही व्यक्ति हैं, यह कहना कठिन है; परंतु दोनों के कथानकों में बहुत कुछ साम्य है। भरथरी की कथा संक्षेप में इस प्रकार है-

उज्जैन में राजा इन्द्रसेन राज्य करते थे, जिनके लड़के का नाम चन्द्रसेन था। भरथरी इन्हीं के पुत्र थे। इनकी माता का नाम रूपदेई और स्त्री का नाम सामदेई था, जो सिंहल द्वीप की राजकुमारी थी। विवाह के पश्चात् जब भरभरी शयन कक्ष में गये, तब उन्होंने अपनी खाट को टूटा पाया तथा इसका कारण अपनी स्त्री से पूछा, जिसका संतोषजनक उत्तर वह न दे सकी।... संसार की झंझटों से ऊबकर भरथरी गुरु गोरखनाथ के शिष्य बन जाते हैं, परंतु सन्यास धर्म में दीक्षित होने के पहले अपनी स्त्री से भिक्षा माँगकर लाना उनके लिए आवश्यक था। वे भिक्षा की याचना करने के लिए अपने घर गये। सामदेई ने यह पहचानकर कि भिक्षुक अन्य कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि मेरा पति ही है, भिक्षा देना पहले अस्वीकार कर दिया, परंतु बहुत अनुनय-विनय के पश्चात् इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। भरथरी ने गोरखनाथ से दीक्षा ग्रहण कर कामरूप (आसाम) देश की यात्रा की। इस प्रकार वे अन्त तक भ्रमण करते हुए यति-धर्म का पालन करते रहे।

लोकगाथा

भरथरी की लोकगाथा भी कुछ कम प्रचलित नहीं है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी ज़िलों में नाथपंथ के जोगी, जिन्हें 'साई' भी कहते हैं, सारंगी बजाकर इस गीत को गाते फिरते हैं। भरथरी की गाथा में गोपीचन्द के समसामयिक होने का उल्लेख पाया जाता है, परंत ऐतिहासिक दृष्टि से दोनों के समय में बड़ा ही अंतर है। लोकगाथाओं में गोपीचन्द तथा भरथरी, दोनों ही गोरखनाथ के शिष्य बतलाये गये हैं। सम्भवत: इसी के आधार पर दोनों के समसामायिक होने की कल्पना की गयी हो।

भरथरी की गाथा में श्रृंगार तथा करुण दोनों रसों का पुट पाया जाता है। जब राजा भरथरी अपनी स्त्री से भिक्षा माँग रहे हैं, उस समय का दृश्य बड़ा मनमोहक है। कहीं-कहीं शांत रस की छटा भी देखने को मिलती है। लोकगाथा के साहित्य में इस गाथा का विशेष स्थान है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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