क्रौंच पर्वत: Difference between revisions

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Revision as of 10:15, 2 October 2012

क्रौंच पर्वत को विष्णुपुराण[1] में उल्लिखित क्रौंच द्वीप के सप्त पर्वतों में से एक बताया गया है- 'क्रौंचश्चवामनश्चैवतृतीश्चांधकारक: चतुर्थो रेत्नशैलस्य स्वाहिनीहयसन्निभ:।'

पौराणिक उल्लेख

यह पर्वत हिमालय का एक भाग है। पौराणिक कथा से ज्ञात होता है कि परशुराम ने धनुर्विद्या समाप्त करने के पश्चात हिमालय में बाण मारकर आर-पार मार्ग बना दिया था। इस मार्ग से ही मानसरोवर से दक्षिण की ओर आने वाले हंस गुजरते थे। इस मार्ग को 'क्रौंच रंध्र' कहते थे। वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड[2] में वानर राज सुग्रीव ने सीता के अन्वेषणार्थ वानर सेना को उत्तर की ओर भेजते हुए तत्स्थानीय अनेक प्रदेशों का वर्णन करते हुए कैलाश से कुछ दूर उत्तर की ओर स्थित 'क्रौंचगिरि' का उल्लेख किया है-

'क्रौंचं तु गिरिमासाद्य बिलं तस्य सुदुर्गमम्, अप्रमत्तै: प्रवेष्टव्यं दुप्प्रवेशं हि तत्स्मृंतम्'

अर्थात "क्रौंच पर्वत पर जाकर उसके दुर्गम बिल पर पहुँच कर उसमें बड़ी सावधानी से प्रवेश करना, क्योंकि यह मार्ग बड़ा दुस्तर है।"

'पुन: क्रौंचस्य तु गुहाश्चान्या: सानूनि शिखराणि च, दर्दराश्च नितंबाश्च विचेतव्यास्ततस्त:।'[3]

अर्थात "क्रौंच पर्वत की दूसरी गुहाओं को तथा शिखरों और उपत्यकाओं को भी अच्छी तरह खोजना। क्रौंचगिरि के आगे मैनाक का उल्लेख है-

'क्रौंचं गिरिमतिक्रम्य मैनाको नाम पर्वत:।'[4]

  • 'मेघदूत'[5] में भी क्रौंच रंध्र का सुंदर वर्णन है-

'प्रालेयाद्रेरुपतट मतिक्रम्यतां स्तान् विशेषान् हंसद्वारं भृगुपति यशोवस्मै यत्क्रौंचरन्ध्रम्।'

अर्थात "हिमालय के तट में क्रौच रंध्र नामक घाटी है, जिसमें होकर हंस आते-जाते हैं; वहीं परशुराम के यश का मार्ग है।

  • इसके अगले छन्द 30 में कैलाश का वर्णन है। इस प्रकार वाल्मीकि और महाकवि कालिदास दोनों ने ही क्रौंच पर्वत तथा क्रौंच रंध्र का उल्लेख कैलाश के निकट किया है। अन्यत्र भी 'कैलासे धनदावासे क्रौंच: क्रौंचोऽभिधीयते' कहा गया है। कालिदास ने क्रौंच रंध्र से संबंधित कथा का 'रघुवंश'[6] में भी निर्देश किया है-

'विभ्रतोस्त्रमचलेऽप्यकुंठितम्'

अर्थात "मेरे (परशुराम) अस्त्र या बाण को पर्वत (क्रौंच) भी न रोक सका था।

  • वास्तव में क्रौंच रंध्र दुस्तर हिमालय पर्वत के मध्य और मानसरोवर-कैलाश के पास कोई गिरिद्वार है, जिसका वर्णन प्राचीन साहित्य में काव्यात्मक ढंग से किया गया है। हंस और क्रौंच या कुंज आदि हिमालय के पक्षी जाड़ों में हिमालय की निचली घाटियों को पार करके ही आगे दक्षिण की ओर आते हैं। श्री वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार यह अल्मोड़ा के आगे 'लीपूलेक' का दर्रा है।[7]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 247 |

  1. विष्णुपुराण 2, 4, 50-51
  2. किष्किंधाकांड 43, 20
  3. किष्किंधाकांड 43, 27
  4. किष्किंधाकांड 43, 29
  5. उत्तर मेघ 59
  6. रघुवंश 11, 74
  7. कादंबिनी, अक्टूबर’ 62

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