पंढरपुर यात्रा: Difference between revisions

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पंढरपुर यात्रा
विवरण 'पंढरपुर यात्रा' हिन्दुओं द्वारा की जाने वाली प्रसिद्ध तीर्थ महायात्रा है। इस यात्रा में प्रसिद्ध तीर्थस्थान पंढरपुर की यात्रा की जाती है।
राज्य महाराष्ट्र
ज़िला शोलापुर
तीर्थस्थान पंढरपुर
यात्रा तिथि आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी
संबंधित लेख महाराष्ट्र, पंढरपुर, महाराष्ट्र की संस्कृति, महाराष्ट्र पर्यटन, संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम
अन्य जानकारी इस पवित्र यात्रा में करीब 5 लाख से ज़्यादा हिन्दू श्रद्धालु भाग लेने पहुंचते हैं। भगवान विट्ठल के दर्शन के लिए देश के कोने-कोने से पताका-डिंडी लेकर इस तीर्थस्थल पर पैदल चलकर लोग यहां इकट्ठा होते हैं।

पंढरपुर यात्रा का हिन्दुओं में काफ़ी महत्त्व है। पिछले सात सौ वर्षों से महाराष्ट्र के पंढरपुर में आषाढ़ महीने की शुक्ल एकादशी के पावन अवसर पर इस महायात्रा का आयोजन होता आ रहा है। इसे "वैष्णवजनों का कुम्भ" कहा जाता है। देशभर मे ऐसी कई यात्राओं के अवसर होते हैं और हर एक यात्रा की अपनी विशेषता होती है।

पालकी

भीमा नदी के तट पर बसा पंढरपुर शोलापुर ज़िले में अवस्थित है। आषाढ़ के महीने में यहां करीब 5 लाख से ज़्यादा हिन्दू श्रद्धालु प्रसिद्ध पंढरपुर यात्रा में भाग लेने पहुंचते हैं। भगवान विट्ठल के दर्शन के लिए देश के कोने-कोने से पताका-डिंडी लेकर इस तीर्थस्थल पर पैदल चलकर लोग यहां इकट्ठा होते हैं। इस यात्रा क्रम में कुछ लोग अलंडि में जमा होते हैं और पूना तथा जजूरी होते हुए पंढरपुर पहुंचते हैं। इनको 'ज्ञानदेव माउली की डिंडी' के नाम से दिंडी जाना जाता है।

लगभग 1000 साल पुरानी पालकी परंपरा की शुरुआत महाराष्ट्र के कुछ प्रसिद्ध संतों ने की थी। उनके अनुयायियों को 'वारकारी' कहा जाता है, जिन्होंने इस प्रथा को जीवित रखा। पालकी के बाद डिंडी होता है। वारकारियों का एक सुसंगठित दल इस दौरान नृत्य, कीर्तन के माध्यम से महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत तुकाराम की कीर्ति का बखान करता है। यह कीर्तिन अलंडि से देहु होते हुए तीर्थनगरी पंढरपुर तक चलता रहता है। यह यात्रा जून के महीने में शुरू होकर 22 दिनों तक चलती है।[1]

वारी

पंढरपुर की यात्रा की विशेषता है, उसकी 'वारी'। 'वारी' का अर्थ है- "सालों-साल लगातर यात्रा करना"। इस यात्रा में हर वर्ष शामिल होने वालों को 'वारकरी' कहा जाता है और यह सम्प्रदाय भी 'वारकरी सम्प्रदाय' कहलाता है। इस 'वारी' का जब से आरंभ हुआ है, तब से पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार के लोग हर साल वारी के लिए निकल पड़ते हैं। महाराष्ट्र में कई स्थानों पर वैष्णव संतों के निवास रहे हैं या उनके समाधि स्थल हैं। ऐसे स्थानों से उन संतों की पालकी वारी के लिए प्रस्थान करती है। आषाढ़ी एकादशी के दिन पंढरपुर पहुंचने का उद्देश्य सामने रखकर, उसके अंतर के अनुसार हर पालकी का अपने सफर का कार्यक्रम तय होता है। इस मार्ग पर कई पालकियां एक-दूसरे से मिलती हैं और उनका एक बड़ा कारवां बन जाता है। वारी में दो प्रमुख पालकियां होती हैं। उनमें एक संत ज्ञानेश्वरजी की तथा दूसरी संत तुकाराम की होती है। 18 से 20 दिन की पैदल यात्रा कर वारकरी 'देवशयनी एकादशी' के दिन पंढरपुर पहुंच जाते हैं।

वारी में शामिल होना या वारकरी बनना यह एक परिवर्तन का आरंभ है। इसलिए यदि कोई वैष्णव हो या न हो, एक बार वारी के साथ यात्रा करने का अनुभव ग्रहण करना बड़ा जरूरी है। वारी से जुड़ने पर मनुष्य के विचारों में परिवर्तन होता है तो उसके आचरण में भी परिवर्तन होता है। यह पूरी प्रक्रिया वारी में अपने आप शुरू हो जाती है, क्योंकि वारी का उद्देश है- ईश्वर के पास पहुंचना, निकट जाना। वारी में दिन-रात भजन-कीर्तन, नामस्मरण चलता रहता है। अपने घर की, कामकाज की, खेत की समस्याओं को पीछे छोड़कर वारकरी वारी के लिए चल पड़ते हैं, किंतु वारकरी दैववादी बिल्कुल नहीं होता, बल्कि प्रयत्नवाद को मानकर अपने क्षेत्र में अच्छा कार्य करता है, क्योंकि हर काम में वह ईश्वर के दर्शन ही करता है।[1]

व्यवस्थापन

वारी का अपना एक अलग ही व्यवस्थापन होता है। हर वारकरी किसी न किसी दिंडी का सदस्य होता है। एक छोटे किंतु संगठित समूह को 'दिंडी' कहा जाता है। हर दिंडी को एक क्रमांक दिया जाता है। पूरी वारी की यात्रा में इस दिंडी का स्थान निश्चित रहता है। किसी भी दिंडी को यह अनुशासन भंग करने की अनुमति नहीं होती। एक गांव से दूसरे गांव को जाने का समय निश्चित रहता है। कोई समय पर अपनी दिंडी में नहीं पहुंच पाए तो वारी उसके लिए बिना रुके, आगे चल पड़ती है। हर दिंडी का एक प्रमुख होता है। उसी के नाम से दिंडी जानी जाती है। एक दिंडी में आमतौर पर डेढ़ सौ से दो सौ लोग होते हैं। वारी में शामिल होते ही हर सदस्य अपनी अपनी दिंडी के प्रमुख को अपने आने की सूचना देता है और खर्च करने के लिए तय रकम उसे सौंप देता है। उसके बाद उस सदस्य की पूरी जिम्मेदारी वारी के प्रमुख की होती है। यह सिलसिला पंढरपुर पहुंचने तक चलता है। सामान ढोने के लिए हर दिंडी के लिए एक ट्रक या टेम्पो साथ में रहता है। हर रोज के रात्रि के विश्राम का स्थान पहले से ही तय होता है। दिंडी के प्रमुख वहाँ पहले पहुंचकर अपने सदस्यों की व्यवस्था करते हैं। सात सौ सालों की लंबी अवधि में कभी यह सुनने में नही आया कि दिंडी का प्रमुख पैसा लेकर भाग गया या उसने कुछ गोलमाल किया।

हर नगर में, हर ग्राम में पालकी का कहां स्वागत होगा, स्वागत कौन करेगा, इसकी भी परंपरा-सी बनी है। पालकी का निवास उस नगर के सबसे बड़े मंदिर में होता है। अन्य दिंडियां अलग-अलग मंदिरों, धर्मशालाओं में विश्राम करती हैं। वारी में हर साल लाखों लोग सम्मिलित होते हैं, किंतु फिर भी यह कारवां सुनियोजित ढंग से सैकड़ों सालों साल चलता जा रहा है। वारी की हर दिंडी मानो एक परिवार सी बन जाती है। दिंडी के सदस्य अलग-अलग गावों के होते हैं। वारी के बाद भी उनका आपस में संपर्क रहता है। अपने पास की खाने-पीने की चीजें बांटी जाती हैं, बूढ़े लोग आपस में बातें करते हैं, सास-बहू मिलकर दूसरी महिलाओं के साथ अपने सुख-दु:ख बांटती रहती हैं। दिंडी में कभी संघर्ष हुआ है, हाथापाई हुई है या दो डिंडियों में संघर्ष हुआ है, ऐसा आज तक कभी सुनाई नहीं दिया। पंढरपुर की वारी में कई प्रांतों से भक्तगण हर साल आते हैं। पांडुरंग, वैष्णव तथा शिव का एकाकार रूप हैं। इसी कारण यह तीर्थक्षेत्र महान है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 700 साल पुरानी है पंढरपुर की यह यात्रा (हिन्दी) नवभारत टाइम्स। अभिगमन तिथि: 04 अप्रैल, 2015।

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