परीक्षा गुरु (उपन्यास): Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
आदित्य चौधरी (talk | contribs) m (Text replacement - "तेजी " to "तेज़ी") |
|||
(2 intermediate revisions by one other user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
'''परीक्षा गुरु''' [[हिन्दी]] का प्रथम [[उपन्यास]] था, जिसकी रचना [[भारतेन्दु युग]] के प्रसिद्ध नाटककार लाला श्रीनिवास दास ने [[25 नवम्बर]], [[1882]] को की थी। | '''परीक्षा गुरु''' [[हिन्दी]] का प्रथम [[उपन्यास]] था, जिसकी रचना [[भारतेन्दु युग]] के प्रसिद्ध नाटककार लाला श्रीनिवास दास ने [[25 नवम्बर]], [[1882]] को की थी।<br /> | ||
<br /> | |||
*लाला श्रीनिवास कुशल महाजन और व्यापारी थे। अपने उपन्यास में उन्होंने मदनमोहन नामक एक रईस के पतन और फिर सुधार की कहानी सुनाई है। | *लाला श्रीनिवास कुशल महाजन और व्यापारी थे। अपने उपन्यास में उन्होंने मदनमोहन नामक एक रईस के पतन और फिर सुधार की कहानी सुनाई है। | ||
*उपन्यास 41 छोटे-छोटे प्रकरणों में विभक्त है। [[कथा]] | *उपन्यास 41 छोटे-छोटे प्रकरणों में विभक्त है। [[कथा]] तेज़ीसे आगे बढ़ती है और अंत तक रोचकता बनी रहती है। | ||
*पूरा उपन्यास नीतिपरक और उपदेशात्मक है। उसमें जगह-जगह [[इंग्लैंड]] और [[यूनान]] के [[इतिहास]] से दृष्टांत दिए गए हैं। ये दृष्टांत मुख्यतः ब्रजकिशोर के कथनों में आते हैं। इनसे उपन्यास के ये स्थल आजकल के पाठकों को बोझिल लगते हैं। | *पूरा उपन्यास नीतिपरक और उपदेशात्मक है। उसमें जगह-जगह [[इंग्लैंड]] और [[यूनान]] के [[इतिहास]] से दृष्टांत दिए गए हैं। ये दृष्टांत मुख्यतः ब्रजकिशोर के कथनों में आते हैं। इनसे उपन्यास के ये स्थल आजकल के पाठकों को बोझिल लगते हैं। | ||
*उपन्यास में बीच-बीच में [[संस्कृत]], [[हिंदी]], [[फारसी]] के ग्रंथों के ढेर सारे उद्धरण भी [[ब्रजभाषा]] में काव्यानुवाद के रूप में दिए गए हैं। | *उपन्यास में बीच-बीच में [[संस्कृत]], [[हिंदी]], [[फारसी भाषा]] के ग्रंथों के ढेर सारे उद्धरण भी [[ब्रजभाषा]] में काव्यानुवाद के रूप में दिए गए हैं। | ||
*हर प्रकरण के प्रारंभ में भी ऐसा एक उद्धरण है। उन दिनों काव्य और गद्य की भाषा अलग-अलग थी। | *हर प्रकरण के प्रारंभ में भी ऐसा एक उद्धरण है। उन दिनों काव्य और गद्य की भाषा अलग-अलग थी। | ||
*काव्य के लिए ब्रजभाषा का प्रयोग होता था और गद्य के लिए [[खड़ी बोली]] का। लेखक ने इसी परिपाटी का अनुसरण करते हुए [[उपन्यास]] के काव्यांशों के लिए ब्रजभाषा चुना है। | *काव्य के लिए ब्रजभाषा का प्रयोग होता था और गद्य के लिए [[खड़ी बोली]] का। लेखक ने इसी परिपाटी का अनुसरण करते हुए [[उपन्यास]] के काव्यांशों के लिए ब्रजभाषा चुना है। | ||
Line 14: | Line 14: | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{ | {{उपन्यास}} | ||
[[Category:गद्य साहित्य]][[Category:उपन्यास]][[Category:साहित्य कोश]] | [[Category:गद्य साहित्य]][[Category:उपन्यास]][[Category:साहित्य कोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
Latest revision as of 08:20, 10 February 2021
परीक्षा गुरु हिन्दी का प्रथम उपन्यास था, जिसकी रचना भारतेन्दु युग के प्रसिद्ध नाटककार लाला श्रीनिवास दास ने 25 नवम्बर, 1882 को की थी।
- लाला श्रीनिवास कुशल महाजन और व्यापारी थे। अपने उपन्यास में उन्होंने मदनमोहन नामक एक रईस के पतन और फिर सुधार की कहानी सुनाई है।
- उपन्यास 41 छोटे-छोटे प्रकरणों में विभक्त है। कथा तेज़ीसे आगे बढ़ती है और अंत तक रोचकता बनी रहती है।
- पूरा उपन्यास नीतिपरक और उपदेशात्मक है। उसमें जगह-जगह इंग्लैंड और यूनान के इतिहास से दृष्टांत दिए गए हैं। ये दृष्टांत मुख्यतः ब्रजकिशोर के कथनों में आते हैं। इनसे उपन्यास के ये स्थल आजकल के पाठकों को बोझिल लगते हैं।
- उपन्यास में बीच-बीच में संस्कृत, हिंदी, फारसी भाषा के ग्रंथों के ढेर सारे उद्धरण भी ब्रजभाषा में काव्यानुवाद के रूप में दिए गए हैं।
- हर प्रकरण के प्रारंभ में भी ऐसा एक उद्धरण है। उन दिनों काव्य और गद्य की भाषा अलग-अलग थी।
- काव्य के लिए ब्रजभाषा का प्रयोग होता था और गद्य के लिए खड़ी बोली का। लेखक ने इसी परिपाटी का अनुसरण करते हुए उपन्यास के काव्यांशों के लिए ब्रजभाषा चुना है।
- उपन्यास की भाषा हिंदी के प्रारंभिक गद्य का अच्छा नमूना है। उसमें संस्कृत और फारसी के कठिन शब्दों से यथा संभव बचा गया है। सरल, बोलचाल की भाषा में कथा सुनाई गई है। इसके बावजूद पुस्तक की भाषा गरिमायुक्त और अभिव्यंजनापूर्ण है।
- वर्तनी के मामले में लेखक ने बोलचाल की पद्धति अपनाई है। कई शब्दों को अनुनासिक बनाकर या मिलाकर लिखा है, जैसे, रोनें, करनें, पढ़नें, आदि, तथा, उस्समय, कित्ने, उन्की, आदि।
- कुछ अन्य वर्तनी दोष भी देखे जा सकते हैं, जैसे, समझदार के लिए समझवार, विवश के लिए बिबश। पर यह देखते हुए कि यह उपन्यास उस समय का है जब हिंदी गद्य स्थिर हो ही रहा था, उपन्यास की भाषा काफी सशक्त ही मानी जाएगी।
|
|
|
|
|